शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

साहित्य में आचार्य सब होते हैं, 'काका' एक ही हैं

 साहित्य  में सबके अपने आचार्य और गुरु होते हैं, जिनसे हम सीखते हैं और अपने रचना कर्म को आगे बढ़ाते हैं। हम जिसके सान्निध्य में साहित्य का अध्ययन करते हैं, अमूमन वह कोई प्रख्यात साहित्यकार या फिर हमारा ही कोई प्रिय लेखक या कवि होता। इनके अपने नियम और कायदे-कानून होते हैं। इनके अपने नाज और नखरे भी होते हैं। यह सरल और सहज 'काका' नहीं हो सकते। क्योंकि, काका एक ही हैं-श्रीधर पराडकर। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री श्रीधर पराडकर देश के प्रख्यात साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। हम सब उन्हें प्रेम से 'काका' कहते हैं और वे हैं भी हम सबके काका। साहित्य का ककहरा सीख रहे हम लोगों पर काका अपार स्नेह बरसाते हैं। काका श्रीधर पराडकर का व्यक्तित्व आकर्षक है। वे सात्विक ऊर्जा के स्रोत भी हैं। किसी कहानी की रचना के दौरान यदि आप बहुत उलझ गए हैं और उस उलझन से मन बहुत थकान महसूस कर रहा है, उस स्थिति में यदि आप काका के पास पहुँच जाएं, तब निश्चित ही आप सुकून पाएंगे। सात्विक ऊर्जा से भर उठेंगे। उनके चेहरे पर सदैव बनी रहने वाली बाल-सुलभ मुस्कान आपका भी तनाव खत्म कर देगी। उनके व्यक्तित्व का आकर्षण ऐसा है कि जो एक बार उनके संपर्क में आता है, हमेशा के लिए उनका होकर रह जाता है।
 
          देश-प्रदेश के अनेक ख्यातनाम साहित्यकार उनका सान्निध्य पाते हैं। साहित्य के फलक पर चमकने वाले कई सितारे उनसे ही प्रेरित होकर रचना कर्म से जुड़े। उनसे शिक्षित-दीक्षित साहित्यकारों की लंबी श्रृंखला है। मैंने जब साहित्य में कलम आजमाना शुरू किया था, तब मुझे भी एक अच्छे मार्गदर्शक, प्रेरक और शिक्षक की तलाश थी। अपने आचार्य की खोज में मुझे बहुत अधिक नहीं भटकना पड़ा। ग्वालियर शहर में ही श्री जगदीश तोमर और काका पराडकर के रूप में मुझे श्रेष्ठ आचार्य मिल गए। श्री तोमर जी ने मेरी कविताओं को दिशा दी। उन्होंने ही कहानी लिखने के लिए भी प्रेरित किया। उनके आशीर्वाद से लिखी प्रारंभिक कहानियाँ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। 
          मेरे लिए आनंद की बात है कि मेरे दोनों आचार्य एक ही विचार कुल के हैं। दोनों परस्पर एक-दूसरे का मान-सम्मान करते हैं। इसलिए कभी दोनों की दी सीख और निर्देशों ने मेरे समक्ष धर्मसंकट खड़ा नहीं किया। श्री जगदीश जी के साथ जब भी बैठता हूँ तो साहित्य पर पर्याप्त चर्चा होती है। प्रगतिशील साहित्य से लेकर राष्ट्रीय साहित्य पर उनके अनुभव सदैव ही मेरा मार्ग प्रशस्त करते रहे हैं। इसके उलट काका के साथ कभी उस तरह से साहित्यिक चर्चा नहीं हुई। उनसे जब भी मिला, अनौपचारिक चर्चा होती थी। घर-परिवार का हाल-चाल। थोड़ा-बहुत मेरी पत्रकारिता और समूची पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर चर्चा हो जाती है। ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि उन्होंने कभी अलग से साहित्य की शिक्षा दी हो। वह तो सहज बातचीत में ही पाठ पढ़ाते चले जाते हैं। उनके साथ बैठने के बाद जब भी हम उठते हैं, तब लगता है कि कुछ लेकर उठ रहे हैं। बहुत कुछ समेट कर अपने साथ ले जा रहे हैं, जो बाद में हमारे लेखन को दिशा देगा। उन्होंने सदैव साहित्य पर शोधपूर्ण आलेख लिखने के लिए प्रेरित किया। 
          लिखने-पढ़ने वालों की दुनिया में ऐसा अमूमन होता है कि किसी लेखक से मिलने से पूर्व हम उसकी छवि से परिचित हो चुके होते हैं। यह माना जाता हैं कि व्यक्ति के किसी स्थान पर पहुँचने से पूर्व उसकी छवि वहां पहुँच जाती है। छवि की गति व्यक्ति की गति से तीव्र है। एक साहित्यकार की छवि उसकी रचनाओं के जरिए हमसे मुलाकात करती है। काका के साथ मेरा परिचय भी कुछ इसी प्रकार का है। उनकी दो पुस्तकें 'ज्योति जला निज प्राण की' और 'मध्यभारत की संघ गाथा' ने काका और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों से मेरा परिचय कराया। यूँ तो मैं संघ के संपर्क में पहले ही आ गया था, लेकिन संघ को समझने के लिए मेरे गुरुजी श्री सुरेश चित्रांशी ने मुझे यह दो पुस्तकें पढऩे के लिए दी थीं। यह पुस्तक देते समय उन्होंने कहा था कि मैं कह रहा हूँ इसलिए संघ से मत जुडऩा, अपितु संघ से जुडऩा है या नहीं, ये पुस्तकें पढ़ने के बाद तय करना। उन्होंने बताया था कि इन दोनों पुस्तकों को पढ़ने बाद तुम्हें समझ आएगा कि संघ क्या है और संघ का स्वयंसेवक किस प्रकार का होता है? दोनों पुस्तकों ने संघ के प्रति मेरी आस्था बढ़ा दी। राजनेताओं की बातों में आकर संघ को समझे बिना संघ टिप्पणी करने वालों को इन दोनों पुस्तकों को जरूर पढऩा चाहिए। 
          'ज्योति जला निज प्राण की' पुस्तक में शामिल अनेक प्रसंग बताते हैं कि किस प्रकार संघ के कार्यकर्ताओं ने देश और समाज के हित में अपने प्राणों का भी बलिदान कर दिया। जहाँ देश की बात आई, वहाँ अपने प्राणों की चिंता न करते हुए संघ के कार्यकर्ता आगे आकर खड़े हो गए। मामा माणिकचंद वाजपेयी के साथ मिलकर लिखी गई यह पुस्तक भारत विभाजन के उन पन्नों के हमारे सामने खोलकर रखती है, जिन्हें पगार पाने वाले लेखकों ने छिपा दिया था। इतिहास वस्तुनिष्ठ होना चाहिए, ऐसा कहने वाले लेखक ही भारत के इतिहास को योजनाबद्ध ढंग से अपने वैचारिक और राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिख रहे थे। 
          काका की दूसरी पुस्तक 'मध्यभारत की संघ गाथा' इस रहस्य को खोलकर सबके सामने रखती है कि कैसे एक संगठन विस्तार पाया? कैसे एक बीज भारतीय विचार और कर्मठ स्वयंसेवकों के समर्पण से सिंचित होकर वटवृक्ष बना? मध्यभारत संघ की दृष्टि से बहुत उर्वरक भूमि रहा है। यहाँ से हिंदू और हिंदुस्थान की सेवा के लिए अनेक कार्यकर्ता संघ को प्राप्त हुए हैं। स्वयं काका श्रीधर पराडकर भी मध्यभारत के प्रमुख केंद्र ग्वालियर के पुत्र हैं। श्री पराडकर का जन्म 15 मार्च, 1954 को ग्वालियर में हुआ। उन्होंने यहीं अपनी शिक्षा ग्रहण की। वाणिज्य से स्नात्कोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के बाद काका ने 10 वर्ष तक महालेखाकार, मध्यप्रदेश में लेखा परीक्षक के पद पर अपनी सेवाएं दीं। 
           राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आने के कारण काका शासकीय सेवा से त्यागपत्र देकर सामाजिक क्षेत्र में आ गए। काका की और भी पुस्तकें हैं, जो हमारे भीतर राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक संवेदना का संचार करती हैं। हमारे स्वाभिमान को जगाती हैं। जिनमें उल्लेखनीय हैं- राष्ट्रनिष्ठ खण्डोबल्लाल, अप्रतिम क्रांतिद्रष्टा भगतसिंह, रानी दुर्गावती, माँ सारदा, कर्मयोगी बाबा साहब आपटे, बाला साहेब देवरस, राष्ट्रसंत तुकड़ोजी इत्यादि। कई पुस्तकों का उन्होंने अनुवाद भी किया है। काका की प्रेरणा से साहित्यिक यात्राओं (साहित्य संवर्द्धन यात्रा) का आयोजन भी होना प्रारंभ हुआ है। उनके साथ प्रमुख साहित्यकारों का जत्था देश के बाहर श्रीलंका और इंग्लैंड, जबकि देश के भीतर जौनसार-उत्तराखंड, लाहौल स्पीति और झाबुआ के वनांचल में साहित्यिक यात्रा कर चुका है। 
          संघ के स्वयंसेवक एक गीत गाते हैं- 'दसों दिशाओं में जाएं दल बादल से छा जाएं। उमड़-घुमड़ कर हर धरती को नंदन वन-सा लहराएं।। यह मत समझों किसी क्षेत्र को खाली रह जाने देंगे... '। इस गीत को स्वयंसेवक सिर्फ गाते नहीं हैं, बल्कि जीते भी हैं। संघ समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने के लिए कार्य कर रहा है। साहित्य के क्षेत्र में भी राष्ट्रीय विचार को बढ़ावा देने की आवश्यकता महसूस हो रही थी। कथित प्रगतिशील लेखक अति सक्रियता से समाज को दिग्भ्रिमित और हतोत्साहित करने वाले साहित्य की रचना में संलग्र थे। उनका समूचा लेखन भारतीय मूल्यों के विरुद्ध था। समाज में गौरव का भाव जागृत करने की जगह वह समाज को पराभव का अनुभव कराने वाला साहित्य रच रहे थे। साहित्य का कथित प्रगतिशील खेमा यथार्थवादी लेखन के नाम पर समाज की बुराईयों को अतिरंजित करके अपनी रचनाओं में प्रस्तुत कर रहा था। जबकि किसी भी समय समाज में बुराई का प्रतिशत अच्छाई से अधिक नहीं रहता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि लेखक को बुराई पर चोट नहीं करनी चाहिए, लेकिन समस्या वहाँ उत्पन्न हो जाती है जब लेखक बुराई की आड़ में सामाजिक ताने-बाने पर चोट करने का षड्यंत्र रचता है। प्रगतिशील लेखक यही कर रहे थे। 
          तथाकथित प्रगतिशील लेखक अपने लेखन के जरिए समाज को अपनी संस्कृति और परंपराओं से हटने के लिए उकसा रहे थे। वे यथार्थवादी लेखन के नाम पर उच्छृखंलता को स्थापित करने की कोशिशों में जुटे थे। समाज में सकारात्मक वातावरण बनाने के अपने दायित्व को लेखक भूल गए थे। जबकि लेखक का प्रमुख दायित्व होता है कि वह चिंता करे कि समाज उच्च मूल्यों वाला हो। उसके लेखन से समाज उस ओर प्रवृत्त हो। बेहतर समाज के निर्माण के लिए साहित्य में आदर्श लेखन को बढ़ावा देने की आवश्यकता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समझा। साहित्य में सद्विचार को प्रोत्साहन मिले, इसकी जिम्मेदारी काका ने संभाली। उन्होंने अखिल भारतीय साहित्य परिषद के माध्यम से ऐसे लेखकों को एकत्र किया, जिन्हें प्रगतिशील/कम्युनिस्ट लेखकों के वर्चस्व के कारण उचित मंच और पहचान नहीं मिल रही थी। इसके साथ ही उन्होंने अपने नए लेखक भी तैयार किए। युवा लेखकों को प्रोत्साहित किया और उन्हें आगे बढ़ाया। साहित्य के क्षेत्र में कौन, कहाँ, क्या लिख रहा है, इस पर उनकी बारीक नजर रहती है। मैं जब उनसे पहली बार मिला, तब मैंने सोचा भी नहीं था कि वह मेरे लेखन से परिचित हैं। मैं समझ गया था कि हम लिख रहे हैं, इसका मतलब हम काका की नजर में हैं। 
          हमारे समय में शिक्षाप्रद साहित्य के अगुवा बने काका श्रीधर पराडकर को हिंदी की सेवा के लिए ‘स्वामी विवेकानंद सम्मान’ देने की घोषणा हुई है। यह हम सबके लिए सुखद अवसर है। उनका सम्मान हमारे लिए गौरव का विषय है। काका को यह सम्मान वर्ष 2015 के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय के केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की ओर से प्रदान किया जा रहा है। जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की ओर से काका को हिंदी सेवी सम्मान-2015 से सम्मानित किया जा रहा होगा, उस वक्त हम सब गौरव की अनुभूति कर रहे होंगे।
(मध्यभारत हिंदी साहित्य सभा की पत्रिका 'इंगित' में प्रकाशित. इंगित का यह अंक अखिल भारतीय साहित्य परिषद् के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री श्रीधर पराड़कर पर केन्द्रित है.)

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-07-2015) को "शब्दों को मन में उपजाओ" (चर्चा अंक-2660) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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