- सौरभ तामेश्वरी
ध्वज किसी भी राष्ट्र के चिंतन और ध्येय का प्रतीक तथा स्फूर्ति का केंद्र होता है। आक्रमण के समय में पराक्रम का, संघर्ष के समय में धैर्य का और अनुकूल समय में उद्यम की प्रेरणा देने का काम ध्वज करता है, इसलिए स्वतंत्रता के पहले से ही भारत के राष्ट्रीय ध्वज की परिकल्पना प्रकट होती रही है। राष्ट्रध्वज को तिरंगे के रूप में स्वीकार किए जाने से पहले अनेक देशभक्तों ने अपनी कल्पनाशक्ति के आधार पर भारत के राष्ट्रध्वज तैयार किए थे। राष्ट्रध्वज को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की भी एक सोच और भावना थी। महात्मा गांधी से लेकर बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने राष्ट्रध्वज को लेकर अपने विचार व्यक्त किए हैं। लेकिन कुछ लोग केवल तिरंगा और आरएसएस को लेकर ही चर्चा करते हैं। उस पर भी आधे-अधूरे तथ्यों के आधार पर एक फेक नैरेटिव बनाने का कार्य किया जाता है। कहा जाता है कि आरएसएस तिरंगे को मान्यता नहीं देता है? जबकि संघ के संविधान में राष्ट्रध्वज के रूप में तिरंगे के प्रति सम्मान और निष्ठा रखने की बात स्पष्ट रूप से दर्ज है। वास्तव में तिरंगे को लेकर संघ की क्या सोच है? राष्ट्रध्वज की विकास यात्रा से लेकर तिरंगे और संघ के अंतर्संबंधों पर विभिन्न प्रकार के प्रश्नों के उत्तर लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ में मिलते हैं। यह पुस्तक वर्तमान संदर्भों में महत्वपूर्ण है।
लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी पुस्तक में अल्पज्ञात एवं अल्पचर्चित तथ्यों को पाठकों के सामने लाने का महती कार्य किया है। जैसे- पुस्तक में वर्णन आता है कि 22 जुलाई 1947 को कॉन्स्टीट्यूशन हॉल में विधान सभा की बैठक हुई। इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगे को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकारने का प्रस्ताव रखा। सभा ने इसे स्वीकार भी कर लिया। लेकिन 6 अगस्त को लाहौर में गांधी जी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वे ऐसे तिरंगे को सलामी नहीं देंगे, जिस पर चरखा नहीं होगा। दरअसल, चरखे की जगह अशोकचक्र अंकित किए जाने से महात्मा गांधी बहुत नाराज हुए थे। महात्मा गांधी ने तिरंगे के एक कोने पर ब्रिटिश हुकूमत के झंडे ‘यूनियन जैक’ को भी लगाने की वकालत की थी। इस घटनाक्रम का भी पुस्तक में वर्णन है। भगवा रंग के ध्वज को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकारने पर चली चर्चाओं का भी विस्तार से वर्णन पुस्तक में आता है। उल्लेखनीय है कि प्रारंभिक झंडा समिति ने एक मत से प्रस्ताव दिया था कि देश का ध्वज एक ही रंग का होना चाहिए और वह रंग भगवा हो। इस प्रस्ताव तक पहुँचने से पहले समिति ने कांग्रेस की विभिन्न प्रांतों की कार्यसमितियों के माध्यम से ध्वज को लेकर जनभावनाओं को एकत्र किया था। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के भगवा ध्वज को ही राष्ट्र ध्वज बनाने का मत हो, महाभारत, गुरु गोविंद सिंह जी, छत्रपति शिवाजी महाराज और महाराणा प्रताप जैसी स्मरणीय विभूतियों के जीवन में भगवा के महत्व के उदाहरण हो, इस पुस्तक में राष्ट्रध्वज के विकास के विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है। पुस्तक में विश्व धर्म सम्मेलन में सनातन की महानता से लोगों को परिचित कराने वाले स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता द्वारा वर्ष 1905 में बनाए गए ध्वज का किस्सा है। 1906 में ही शीलचंद्र कुमार बोस और सुकुमार मित्रा द्वारा निर्मित तीन रंग वाले ध्वज के पीछे का कारण भी इसमें बताया गया है।
पुस्तक में भगवा ध्वज, तिरंगा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंतर्सम्बंधों का भी सरस विश्लेषण किया गया है। राष्ट्रध्वज और आरएसएस के संबंधों को समझाते हुए फैजपुर के कांग्रेस अधिवेशन की रोचक घटना का जिक्र किया गया है कि पंडित नेहरू ने झंडा फहराया तो वह बीच में ही अटका। तब ऊंचे पोल पर चढ़कर तिरंगे को सुलझाने का साहस संघ के कार्यकर्ता ने ही दिखाया था। लेखक लोकेन्द्र सिंह ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरूद्ध तिरंगे को लेकर खड़े किए जाने वाले नैरेटिव में भारत के ‘स्व’ से कटे लोगों के ऊपर से पर्दा उठाया है। पुस्तक का एक हिस्सा राष्ट्रध्वज की प्रतिष्ठा में दिए स्वयंसेवकों बलिदान की जानकारी भी देता है। इसके साथ में तिरंगा के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का भी उल्लेख लेखक ने किया है, जो प्रत्येक भारतीय को गौरव की अनुभूति कराते हैं। मात्र 56 पेज की पुस्तक में लेखक लोकेन्द्र सिंह ने गागर में सागर भरने जैसा काम किया है।
(लेखक युवा पत्रकार हैं।)
पुस्तक : राष्ट्रध्वज और आरएसएस
लेखक : लोकेंद्र सिंह
पृष्ठ : 56
मूल्य : 70 रुपये
प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन, भोपाल
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