पिछले दिनों भोपाल में मित्र गोपाल जी से लगभग 20 वर्ष बाद भेंट हुई है। भेल के अतिथि गृह की कैंटीन में इस दिन चाय का स्वाद कुछ अलग ही था। संभवतः पुराने दोस्तों की उपस्थिति से चाय भी प्रसन्न थी। गोपाल जी, शासकीय कार्य से आधिकारिक यात्रा पर भोपाल आए थे।
गोपाल मूलतः चंद्रपुर, महाराष्ट्र से हैं। हम 2000–01 में सूर्या फाउंडेशन के व्यक्तित्व विकास शिविर में मिले थे। इन शिविरों में व्यक्तित्व विकास कितना हुआ, इसकी अनुभूति तो समाज के बंधु करते ही होंगे किन्तु अपने लिए सबसे आनंद की बात यह है कि यहाँ से बहुत सारे अनमोल दोस्त मिले थे। देश के लगभग हर प्रांत में कोई न कोई अपना बन गया।
जब हमारी दोस्ती हुई थी तब मोबाइल फोन नहीं थे और न ही फेसबुक जैसे सोशल मीडिया मंच। इसलिए आजकल की तरह दोस्तों की रोजाना की खबर नहीं रहती थी। देशभर में फैले हम सब दोस्त आपस में संवाद करने के लिए खूब चिट्ठियां लिखा करते थे।
एक बार तो डाकिए ने हैरानी से मां से पूछ ही लिया था कि "आपका बेटा क्या करता है? इसको महाराष्ट्र, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंद्रप्रदेश, हिमाचल, जम्मू–कश्मीर, उत्तरप्रदेश, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश इत्यादि राज्यों से आए दिन चिट्ठियां आती हैं"।
11वीं –12वीं में पढ़नेवाले किसी लड़के को लगभग रोज ही चिट्ठी देने आना पड़े तो डाकिए का हैरान होना स्वाभाविक ही है।
स्थानीय डाकघर से तो 10–15 पोस्टकार्ड ही एक बार में खरीद सकते थे। अधिक संख्या में पोस्टकार्ड, अन्तर्देशी और लिफ़ाफ़े खरीदने के लिए मुझे ग्वालियर के महाराज बाड़े स्थित मुख्य डाकघर तक जाना होता था।
हमारी चिट्ठियां बड़े राजनेताओं की तरह भविष्य में किसी विमर्श का हिस्सा तो नहीं बनेंगी, यह पक्की बात है लेकिन इसके बाद भी उनमें निश्छल मित्रता की जो खुशबू है उसको महसूस करते रहने के लिए मैंने बहुत सी चिट्ठियां संभाल रखी हैं। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही आम खाने का किस्सा जुड़ा है, अपने साथ भी है। शाम के अल्पाहार में आम खाने का एक किस्सा था, जिसे अपन राम तो भूल गए थे लेकिन इन्हीं गोपाल भाई को याद था और उन्होंने उस सामान्य सी घटना को बहुत महत्व देते हुए उसका जिक्र एक पत्र में किया है।
हालांकि, कुछ पत्रों में चर्चा सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों पर भी होती थी। उस समय जितनी समझ थी, उतनी बात कर लेते थे और क्या। बाकी तो सब व्यक्तिगत हालचाल पर ही लिखा–पढ़ी रहती थी। जैसे– हम आपस में पूछ लिया करते थे कि आपके यहां संघ कार्य कैसा चल रहा है, शाखा नियमित जाना हो रहा है या नहीं, आपने अपने आसपास सूर्या फाउंडेशन के लघु व्यक्तित्व विकास शिविर लगाए क्या, कहीं कोई उद्वेलित करनेवाली घटना घटित हो जाती तो उसका भी थोड़ा बहुत जिक्र आ जाता था।
हम जब पत्र लिखते थे तो प्रसंग और विषय के अनुसार उसकी साज–सज्जा का भी ख्याल रखते थे। स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस के प्रसंग पर लिखे गए पत्रों पर राष्ट्र ध्वज पूरी शान और सम्मान से लहराता तो दीपावली के पत्रों पर दीपक और आतिशबाजी की रोशनी रहती थी। पत्रों पर सवार होकर आए मेहमान ‘दीपक’ अब तक रोशन हैं।
अंग्रेजी भाषा सीखने के लिए तो पंजाब के मित्र कुशल शर्मा के साथ कुछ दिन अंग्रेजी में भी पत्राचार हुआ। लेकिन जब उसके जन्मदिन पर अपने मन के भावों की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए हिन्दी में पत्र लिखा तो पलटकर आए पत्र में उसने लिख ही दिया कि हिन्दी ही अपने दिल की भाषा है। हमारे लिए हिन्दी में ही संवाद का सुख अधिक है। उसके बाद अंग्रेजी के पत्राचार पर विराम लग गया। और इस तरह अपनी अंग्रेजी वहीं अटकी रह गई।
बहरहाल, अभी जब हम भोपाल में बैठे थे तो घर–परिवार की कुशलक्षेम के साथ ही पुरानी यादों को भी ताजा किया। किसी ने सच ही कहा है कि दोस्ती में बड़ा सुख है। और अगर पुराने दोस्त वर्षों बाद मिलते हैं तो मन के आनंद को अभिव्यक्त करना आसान नहीं होता है।
सूर्या फाउंडेशन शिविर के एक और अभिन्न मित्र मनीष सुने से भी पिछले वर्ष मिलना हुआ। वह मुलाकात भी हमें दिल्ली के पास स्थित साधना स्थली, झिंझोली लेकर पहुंच गई थी। अगले महीने हममें से कई पुराने मित्र मिलने वाले हैं। आनेवाले उस सप्ताह की तीव्र प्रतीक्षा है।
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