बुधवार, 23 नवंबर 2022

समाज के लिए घातक है मूल्यविहीन पत्रकारिता

"जिस तरह मनुष्य के जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए जीवन मूल्य आवश्यक हैं, उसी तरह मीडिया को भी दिशा देने और उसको लोकहितैषी बनाने के लिए मूल्यों की आवश्यकता रहती है"।

मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों की आवश्यकता है। मूल्यों का प्रकाश हमें प्रत्येक क्षेत्र में राह दिखता है। मूल्यों के अभाव में हमारे जीवन की यात्रा अँधेरी सुरंग से गुजरने जैसी होगी, जिसमें हम दीवारों से तो कभी राह में आई बाधाओं से टकराते हुए आगे बढ़ते हैं। जीवन मूल्य हमें बताते हैं कि समाज जीवन कैसा होना चाहिए, परिवार एवं समाज में अन्य व्यक्तियों के प्रति हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए, करणीय क्या है और अकरणीय क्या है? मूल्यों के अनुरूप आचरण करनेवाले व्यक्ति सज्जन पुरुषों की श्रेणी में आते हैं। वहीं, जो लोग मूल्यों की परवाह नहीं करते, उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है, ऐसे कई लोग समाजकंटक के रूप में सबके लिए परेशानी का कारण बन जाते हैं। अर्थात मूल्यों के अभाव में मानव समाज स्वाभाविक रूप से गतिशील नहीं हो सकता। मूल्यों के अभाव में सकारात्मकता का लोप होकर नकारात्मकता हावी हो जाती है।

जिस तरह मनुष्य के जीवन को सार्थकता प्रदान करने के लिए जीवन मूल्य आवश्यक हैं, उसी तरह मीडिया को भी दिशा देने और उसको लोकहितैषी बनाने के लिए मूल्यों की आवश्यकता रहती है। मीडिया ही क्यों, कोई भी वृत्ति, सेवा या व्यवसाय मूल्यों के बिना आदर्श रूप में नहीं हो सकता। चिकित्सक जब मूल्य छोड़ता है तो वह मानवता की सेवा करने वाला नहीं रहता। सुरक्षाकर्मी जब अपने मूल्यों का पालन नहीं करते तो समाज असुरक्षित हो जाता है। शिक्षक जब मूल्यों के अनुरूप आचरण नहीं करता तो वह ट्यूटर मात्र रह जाता है। इसी तरह जब पत्रकारिता अपने मूल्यों को छोड़ देती है तो वह दिशाहीन होकर समाज के लिए नुक्सानदेह साबित होने लगती है। इस सन्दर्भ में महात्मा गाँधी की टिप्पणी ध्यान में रखनी चाहिए, जिन्होंने समाज को दिशा देने के लिए पत्रकारिता का प्रभावी ढंग से उपयोग किया - “समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव के गाँव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार निरंकुश कलम का प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है”। मूल्य ही वे तट हैं जो हमारी जीवनरूपी सरिता को निरंकुश नहीं होने देते और सार्थक दिशा में लेकर जाते हैं। 

पत्रकारिता की दिशा क्या हो


यह बात सभी मानते हैं कि पत्रकारिता बहुत प्रभावशाली उपक्रम है। जनसमुदाय का मानस बनाने में इसकी भूमिका को भला कोई कैसे नकार सकता है। भारत में तो हमारे महापुरुषों ने राष्ट्रहित में इसके उपयोग को सिद्ध किया है। वहीं, जब पत्रकारिता की कमान अभारतीय समूहों/व्यक्तियों के हाथ में आई तो उन्होंने समाज को भ्रमित और कमजोर करने के लिए इसका उपयोग किया। अर्थात मूल्याधारित आचरण था तो पत्रकारिता भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का स्वर बन गई और जब पत्रकारिता मूल्यच्युत हुई तो भारतीयता पर प्रहार करने लगी। स्पष्ट है कि साधन एक ही है- पत्रकारिता, परन्तु मूल्यों की उपस्थित एवं अनुपस्थिति में उसका उपयोग एवं प्रभाव बदल जाता है। पत्रकारिता के व्यापक प्रभाव को देखते हुए इससे अधिक जिम्मेदार होने और मूल्यानुगत होने की अपेक्षा की जाती है। 

पत्रकारिता के साथ मूल्यों का संकट क्यों है? इसका एक बड़ा कारण है कि भारत में पत्रकारिता का वर्तमान स्वरूप पश्चिम से आया है और वहां पत्रकारिता के लिए नकारात्मक अवधारणा है। पश्चिम की अवधारणा में नकारात्मकता पत्रकारिता का मुख्य मूल्य है। अर्थात किसी घटना या तथ्य में नकारात्मकता होगी, समाचार तभी बनेगा। इसलिए हम देखते हैं कि विद्वानों की सभाओं में बहुत श्रेष्ठ विचार होते हैं, लेकिन पत्रकार दिनभर ऐसे वक्तव्य/टिप्पणी की खोज में रहता है, जो सनसनीखेज हो। संसद में बहुत कुछ अच्छे कार्य होते हैं लेकिन समाचारों में प्रधानता ‘हंगामापूर्ण आचरण’ की रहती है। समाचार को परिभाषित करने के लिए दुनियाभर का चक्कर लगाकर एक उदाहरण भारत में भी आया, जिसे वर्षों से पत्रकारिता के प्रशिक्षुओं/विद्यार्थियों को बताया जाता है- “कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं है, परन्तु जब आदमी कुत्ते को काटे तो खबर है”। 

भारत में आधुनिक पत्रकारिता की शुरुआत करने का श्रेय जेम्स ऑगस्टस हिक्की को जाता है। हिक्की ने भले ही कुछ मामलों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के मामलों को सामने लाने का साहस दिखाया लेकिन बहुत हद तक उसकी पत्रकारिता व्यक्तिगत द्वेष पर आधारित थी। व्यक्तिगत मतभेद हावी होने के कारण हिक्की की पत्रकारिता में मूल्यों के लिए स्थान नहीं था। इसलिए ‘हिक्किज गजट या बंगाल गजट’ में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों और उनकी पत्नियों के सन्दर्भ में टीका-टिप्पणी करते हुए भाषा की मर्यादा का ध्यान नहीं रखा जाता था। 

पत्रकारिता में राष्ट्र सबसे पहले


वहीं, जब जीवन मूल्यों के लिए समर्पित महामानव महात्मा गाँधी पत्रकारिता करते हैं तो लेखन में आग्रह कैसा रहता है- “अपनी निष्ठा के प्रति ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं निरर्थक नहीं लिख सकता। मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता। लिखने के लिए विषय और शब्दों को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूँ, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता। मेरे लिए यह प्रशिक्षण है। इससे मैं खुद अपने भीतर झाँकने तथा अपनी कमजोरियों को ढूँढ़ने में समर्थ हो पाता हूँ”। 

भारतीय स्वतंत्रता के नायकों ने जब पत्रकारिता को अपनाया तो भारतीय संस्कृति एवं समाज जीवन के अनुरूप उसके कुछ मूल्यों की स्थापना की। इन मूल्यों में सत्यता, तटस्थता, निष्पक्षता, यथार्थता, संतुलन, संवेदना, लोकहित इत्यादि शामिल हैं। पत्रकारिता के सन्दर्भ में पश्चिम की अवधारणा के बनिस्बत भारतीय संवाद परंपरा कहती है कि संवाद लोकहितकारी होना चाहिए। संवाद सकारात्मक, सृजनात्मक और रचनात्मक हो। संवाद का उद्देश्य समाज में सहयोग और सह-अस्तित्व की भावना को विस्तार देना होना चाहिए। जब पत्रकारिता के माध्यम से संवाद किया जाये तो उसमें स्वार्थ न हों, अपना एजेंडा न हो और मिलावट न हो। संवाद पूरी तरह सत्य हो। उपरोक्त में से एक भी मूल्य की अनुपस्थिति होती है तो पत्रकारिता स्वयं दिशाहीन होकर समूचे समाज को भी भ्रम में डालती है। 

मीडिया की नैतिकता पर प्रश्न


आज पत्रकारिता के क्षेत्र में जो दोष और नैराश्य दिखाई दे रहा है, उसका कारण है- मूल्यहीनता। व्यावसायिक और वैचारिक हित साधने के चक्कर में हमने मूल्यों को पूरी तरह तिरोहित कर दिया। मूल्यों के अभाव में पत्रकारिता ने न केवल भारतीय समाज को नुक्सान पहुँचाया है अपितु उसके स्वयं के अस्तित्व एवं उसके प्रतिष्ठा पर ही प्रश्न उठने लगे हैं। मूल्यानुगत मीडिया के आग्रही और इस आग्रह को आन्दोलन के रूप में लेकर चलनेवाले पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर प्रो. कमल दीक्षित मानते हैं कि “मीडिया ने अपने मूल्यों को दरकिनार किया है तथा मानवीय मूल्यों से भी उसके संबंध कमजोर हुए हैं। उसने भारतीय तथा जातीय संस्कृति को प्रभावित करते हुए पाश्चात्य तथा उपभोक्तावादी संस्कृति का विस्तार किया है”। हालाँकि अभी स्थिति इतनी भी हाथ से नहीं निकली हैं कि हम निराश होकर बैठ जायें। घोर व्यावयायिकता और गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में सबकुछ नष्ट नहीं हुआ है, अभी बहुत संभावनाएं शेष हैं। इसलिए पत्रकारिता को उसकी प्रतिष्ठा पुनः दिलाने के लिए हम सबको मूल्यों की शरण में लौटना चाहिए। पत्रकारिता मूल्यानुगत होगी तो समाधानमूलक स्वतः होगी।

freedom of speech का असली अर्थ बता रहे हैं सूचना आयुक्त विजय मनोहर तिवारी



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