शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

बेंगलुरू में सांप्रदायिक दंगों के पीछे की मानसिकता


बेंगलुरू का दंगा यह समझाने के लिए पर्याप्त है कि वास्तव में असहिष्णुता, सांप्रदायिकता और कट्टरता क्या है? एक फेसबुक पोस्ट पर इतना आतंक? जबकि उसका विरोध करने के और भी तरीके थे। मुस्लिम समुदाय को कांग्रेस विधायक एवं दलित नेता श्रीनिवास मूर्ति के भतीजे नवीन की आपत्तिजनक टिप्पणी की शिकायत पुलिस में करनी चाहिए थी। पुलिस अपना काम करती लेकिन चिंता की बात तो यह है कि पुलिस में शिकायत करने की जगह यहाँ तो पुलिस पर ही हमला कर दिया गया। अब तक सामने आई जानकारी के मुताबिक 60 से अधिक पुलिसकर्मी घायल हैं। दिल्ली के दंगों में भी हमने देखा कि आईबी के अधिकारी तक को कई बार चाकू घोंप कर मार दिया गया था। यह किस तरह की कट्टरता पनप रही है। इस ओर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को और शासन-प्रशासन को गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। 

बेंगलुरू दंगा पहला उदाहरण नहीं है इसलिए इस बात पर संदेह है कि इसके बाद भी हम कोई सबक लेंगे? क्योंकि देश में कथित बुद्धिजीवियों एवं पत्रकारों का एक वर्ग ऐसा है जिसकी पूरी कोशिश यह रहती है कि इस प्रकार के सांप्रदायिक दंगों की अनदेखी करने या इन्हें जायज ठहराने के लिए हिंदू समाज को ही असहिष्णु और सांप्रदायिक ठहरा दिया जाए। पिछले कुछ वर्षों में यह तीव्र गति से हुआ है। बाकायदा प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्र्ग ने हिंदू समाज को बदनाम करने के लिए संगठित आंदोलन चलाया। लेकिन, इस तरह के आंदोलनों से न तो झूठ को सच बनाया जा सकता है और न ही सच को छिपाया जा सकता है। हकीकत तो दिल्ली-बेंगलुरू और शाहीन बाग की तरह बार-बार हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है। 

बेंगलुरू दंगा पर चल रही बहस में यह तथ्य कहीं खो गया है कि कांग्रेस विधायक के भतीजे ने आपत्तिजनक पोस्ट लिखी थी या फिर ‘नेक और आहत बंदे’ की हिंदुओं के खिलाफ लिखी गई आपत्तिजनक पोस्ट पर आक्रोश में आकर प्रतिक्रिया दी थी। यह कैसी भावनाएं हैं कि आप दूसरों के मानबिंदुओं का अपमान करो लेकिन अपने लिए वैसा लिखे या कहे जाने पर खून-खराबा करो? मध्यप्रदेश की हालिया घटना का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसमें मुस्लिम भीड़ ने पीट-पीट कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता राजेश फूलमाली की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि उसने माता सीता पर किए गए अपमानजनक टिप्पणी की शिकायत पुलिस में की थी। इसी तरह उत्तरप्रदेश के हिंदू नेता कमलेश तिवारी के प्रकरण को भी देखिए, जिन्होंने आपत्तिजनक बयान के कारण पहले जेल में सजा काटी उसके बाद भी उन्हें उनके ऑफिस में घुस कर मार दिया गया। इस प्रकरण में भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कमलेश तिवारी ने जो आपत्तिजनक बयान दिया था, वह भी मुस्लिम नेता आजम खान के आपत्तिजनक बयान से उपजा आक्रोश था। क्या मुस्लिम समाज और नेता खुलकर हिंदू धर्म को अपशब्द कहने की स्वतंत्रता चाहते हैं? क्या वे यह चाहते हैं कि न तो उनका विरोध किया जाए और न ही शिकायत की जाए? इस अंतर को भी समझिए कि हिंदू समाज आपत्तिजनक पोस्ट या बयान पर अपना विरोध दर्ज कराने के लिए कानून के पास जाता है, वह लाठी-डंडे और पेट्रोल बम लेकर सड़क पर नहीं निकलता।

हैदराबाद के मुस्लिम नेता ओवैसी के भाई ने श्रीराम, माता सीता, कौशल्या और दशरथ के प्रति कितनी अभद्र बातें सार्वजनिक मंच से कहीं थीं, लेकिन इसके बाद भी हिंदू समाज ने जो धैर्य दिखाया, उससे मुस्लिम समाज को सीखने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य की बात है कि मुस्लिम समाज के झंडाबरदार कभी इन सब बातों के विरोध में सड़क पर नहीं उतरते। सड़क पर छोडि़ए, एक बयान भी जारी नहीं करते हैं। मुस्लिम समाज को अपनी धार्मिक कट्टरता से बाहर आना होगा। एक और महत्वपूर्ण बात उन्हें सीखनी चाहिए कि जैसा व्यवहार वह अपने लिए चाहते हैं, वैसा आचरण उन्हें दूसरों के प्रति भी रखना होगा। 

श्रीराम मंदिर के भूमिपूजन के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं मुस्लिम समाज से आईं हैं, उसकी ही परिणति है बेंगलुरू दंगा। मुसलमानों के बड़े नेताओं, यहाँ तक कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड और आल इंडिया इमाम संघ जैसे संगठन खुलेआम कट्टरता फैलाते हैं, दंगे जैसी स्थितियां बनाते हैं। श्रीराम मंदिर के संदर्भ में हागिया सोफिया का उदाहरण देना और यह कहना कि एक दिन राम मंदिर को तोड़ कर वहाँ मस्जिद बना देंगे, क्या इससे मुस्लिम समाज में भाईचारे की भावना पैदा होगी? क्या इससे भारत के कानून के प्रति सम्मान पैदा होगा? जिन संगठनों को अमन-चैन कायम करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, वे ही लोगों को भड़का रहे हैं। ऐसी संस्थाओं पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। 

बेंगलुरू का दंगा कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है। बल्कि यह उस मानसिकता का प्रकटीकरण है, जिसे धीरे-धीरे समाज में बोया जाता है। जरा सोचिए कि कैसे अचानक से हजारों की हिंसक भीड़ इकट्ठी हो जाती है? भीड़ की तैयारी देखकर तो यही लग रहा है कि दंगे की तैयारी पहले से थी, बस कारण की प्रतीक्षा थी। वह अवसर मिला कांग्रेस के दलित नेता के भतीजे नवीन द्वारा सोशल मीडिया पर पैगम्बर मुहम्मद को लेकर कथित अपमानजनक पोस्ट शेयर करने पर। जरा उन ठेकेदारों को भी विचार करना चाहिए जो हिंदू समाज को बांटने के लिए ‘भीम-मीम’ का नारा बुलंद करते हैं। इस घटना पर कांग्रेस, वामपंथी और दलितों की राजनीति करने वाले राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक संगठनों ने बहुत ही धीरे स्वर में प्रतिक्रिया दी है। 

हमारा यह जो दोहरा आचरण है, यह ही इस सांप्रदायिकता के मजबूत होने के लिए जिम्मेदार है। इस तरह की कोई भी घटना हो, किसी भी समुदाय की ओर से की गई हो, उसका एक ही मजबूत स्वर में विरोध होना चाहिए। कर्नाटक सरकार को दंगाईयों के विरोध कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। उत्तरप्रदेश सरकार की नीति का पालन करते हुए सार्वजनिक नुकसान की भरपाई दंगाईयों की संपत्ति कुर्क करके की जाए। इस सांप्रदायिकता को रोकने के लिए एक ओर सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे, वहीं दूसरी ओर समाज को भी जागरूक होकर सांप्रदायिकता के प्रति एकजुट होना होगा।

यह वीडियो जरूर सुनिए... 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share