कुछ प्रश्न आपके सामने रख रहा हूं। भारत की बहुसंख्यक
आबादी की मातृभाषा कौन-सी है? भारत में सम्पर्क और
संवाद की सबसे बड़ी भाषा कौन-सी है? भारत की ज्यादातर आबादी
किस भाषा में बोलती, लिखती-पढ़ती है? मनोरंजन
की प्रमुख भाषा कौन-सी है? किस भाषा का शब्दकोश सबसे अधिक
समृद्ध है? कौन-सी भाषा अधिक समावेशी है? किस भाषा में बोलियों और बाहरी भाषा के शब्दों को आसानी के साथ अपने में
समाहित करने की अद्भुत क्षमता है? सबसे अधिक प्रसार संख्या
किस भाषा के समाचार-पत्रों की है? सबसे अधिक टीआरपी किस भाषा
के समाचार चैनल की है? प्रश्नों की यह सूची और भी लम्बी हो
सकती है। इन सब प्रश्नों का उत्तर एक ही है - हिंदी। अब एक बड़ा प्रश्न खड़ा होता
है कि इस सबके बाद भी हिंदी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों किया जाता है?
हिंदी पिछड़ क्यों गई? हिंदी भाषियों के साथ
उपेक्षा का व्यवहार क्यों? अपने ही देश में हिंदी दासी और
अंग्रेजी महारानी क्यों? किसने हिंदी की यह दुर्दशा की है?
कौन हैं हिंदी के दुश्मन? इन सब प्रश्नों का
उत्तर भी एक ही है- हम।
हम ही हैं जिनके कारण हिंदी
की अनदेखी होती रही है। हम ही हैं जो अपनी भाषा में बात करने पर शर्मिंदगी का
अनुभव करते हैं। हम ही हैं जो अंग्रेजी के प्यार में दीवाने हैं। अंग्रेजी ही
हमारा कल्याण कर सकती है, हमने ही यह भ्रम अपने तईं खड़ा कर
लिया है और इस भ्रम में बुरी तरह उलझ गए हैं। हम ही हैं जिन्होंने यह मान लिया कि विश्व
से संवाद की भाषा सिर्फ अंग्रेजी है। वास्तविकता यह है कि दुनिया में कई ऐसे देश
हैं जहां अंग्रेजी न तो बोली जाती है और न ही लिखी-पढ़ी जाती है। यूरोप के ही कई
देश हैं जिनके नागरिकों से आप अंग्रेजी में बात करेंगे तो वे बुरा मान जाएंगे।
जापान, रूस और चीन सहित कई देशों में स्थानीय लोग एक-दो बार
तो आपकी मदद कर देंगे लेकिन लम्बे समय तक उस देश में रहना है तो फिर वहां की भाषा
आपको सीखनी ही पड़ेगी। भारत में स्थिति उलट है। यहां हमने ऐसी स्थितियां पैदा कर
दी हैं कि हिंदी भले आपको न आती हो लेकिन अंग्रेजी अवश्य सीख लेनी चाहिए। भारत में
आप अंग्रेजी जानते हैं तो आपका बहुत सम्मान है। सरकारी नौकरियों में अनेक अवसर
हैं। व्यापार और रोजगार में अनेक संभावनाएं हैं। हिंदी जानते हो तो आपको अपने सपने
छोटे करने होंगे, अंग्रेजी आपके मार्ग में अकाट्य चट्टान की
तरह खड़ी कर दी गई है। यह सर्वमान्य सत्य है कि व्यक्ति अपनी भाषा में अधिक
रचनात्मक हो सकता है, अधिक शिक्षा प्राप्त कर सकता है,
सीख सकता है और समझ सकता है लेकिन भारत में इस सार्वभौमिक सत्य की
अनदेखी कर दी जाती है। यहां शिक्षा, रोजगार और शासन की प्रमुख
भाषा अंग्रेजी है। जिसे केवल दो प्रतिशत भारतीय ही अच्छी तरह बोल, लिख और समझ पाते हैं। अपनी निज संतानों के कारण ही हिंदी को ये दिन देखने
पड़ रहे हैं। वरना क्या यह संभव होता कि चीनी (मंडारिन) के बाद दुनिया में दूसरी
सबसे बड़ी मातृभाषा हिंदी को दो प्रतिशत अंग्रेजीदां लोगों के शोषण का शिकार होना
पड़ता।
दुनियाभर में अनेक देश
हैं, जहां उनकी मातृभाषा ही संवाद और कामकाज की भाषा है।
छोटे देशों को छोड़ दिया जाए तो भी बड़े और विकसित/विकासशील देशों की संख्या भी
अधिक है, जो अपनी भाषा पर गर्व करते हैं। उन्हें संवाद के
लिए किसी दूसरे की भाषा पर आश्रित नहीं रहना पड़ता। फ्रांस में फ्रेंच, जर्मन में जर्मन, इटली में इतावली, जापान में जापानी, श्रीलंका में सिंहली तमिल ही
प्रमुख भाषा है। यहूदी तो अपनी भूमि-भाषा दोनों खो चुके थे लेकिन मातृभूमि और
मातृभाषा से अटूट प्रेम का ही परिणाम था कि यहूदियों ने अपनी जमीन (इजराइल) भी
वापस पाई और अपनी भाषा (हिब्रू) को भी जीवित किया। लगभग सवा सौ साल पहले तक
फिनलैंड के निवासी स्वीडी भाषा का इस्तेमाल करते थे लेकिन एक दिन उन्होंने तय किया
कि अपनी भाषा को सम्मान देंगे। तभी से फिनी भाषा में वहां सारा कामकाज चल रहा है।
इसी तरह जार के जमाने में रूस में फ्रांसीसी भाषा का दबदबा था। लेकिन अब वहां रूसी
भाषा सर्वोपरि है। इसके उलट, भारत में स्वतंत्रता का आंदोलन
तो भारतीय भाषाओं में लड़ा गया, लेकिन 1947 के बाद भारत भाषाई तौर पर अंग्रेजी का
गुलाम हो गया है।
किसी का
भी विरोध अंग्रेजी से नहीं है बल्कि अंग्रेजी को प्राथमिकता देने से खड़ी हुईं
समस्याओं से है। कोई स्वेच्छा से अंग्रेजी सीखे, उसका
स्वागत है लेकिन भारत में अंग्रेजी मजबूरी बन गई है। अंग्रेजी ही वह भाषा है जिसने
भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा दिया। घर में सगी बहनों के बीच फूट डालने का काम
अंग्रेजी ने किया है। इस भाषाई झगड़े की आग में घी डालने का काम किया हमारे
राजनेताओं ने, उनकी अदूरदर्शी राजनीति ने, उनके स्वार्थों ने। कमजोर नेतृत्व ने संपूर्ण भारत को जोडऩे के लिए
अंग्रेजी को महत्वपूर्ण माना। भारत सरकार ने राजभाषा विधेयक बनाया, उसमें भी हिंदी के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया गया। हिंदी को कमजोर कर
दिया। वर्ष 1959 में संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने एक
दुर्भाग्यपूर्ण भाषण दिया और हिंदी के अपमान के लिए रास्ता बना दिया। उन्होंने कहा
कि जब तक अहिंदी भाषी राज्य चाहेंगे सरकार के काम में अंग्रेजी प्रमुख भाषा रहेगी।
उनके इस गलत तर्क के कारण ही अनेक चरणों से होते हुए वर्ष 1968 में राजभाषा में
ऐसा संशोधन स्वीकार कर लिया गया, जिसके कारण हिंदी का घोर
अपमान हुआ। राजभाषा विधेयक में यह प्रावधान कर दिया गया कि जब तक एक भी अहिंदी
भाषी राज्य चाहेगा, सरकार का काम अंग्रेजी में चलता रहेगा। हिंदी
भाषी राज्य किसी अहिंदी भाषी राज्य को पत्र लिखेगा तो उसका अंग्रेजी अनुवाद साथ
में भेजना होगा। लेकिन, अहिंदी भाषी राज्य जब हिंदी भाषी
राज्य को पत्र लिखेगा तो उसे अंग्रेजी पत्र का हिंदी अनुवाद भेजने की जरूरत नहीं
होगी। हिंदी और अहिंदी भाषी राज्यों को जोडऩे के लिए एक बाहरी भाषा को माध्यम
बनाने के इस अविवेकी निर्णय का खामियाजा आज पूरे देश को उठाना पड़ रहा है।
किसी ने
भी मतिभ्रम नेताओं से यह नहीं पूछा कि जब अंग्रेजी नहीं थी तब सभी भारतीय आपस में
किस भाषा में संवाद करते थे? कैसे एक-दूसरे से जुड़ते
थे? क्या हिंदी हम सबको जोडऩे के लिए सक्षम नहीं थी/है?
क्या हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं के लिए खतरा साबित होती? क्या हिंदी को प्रमुख भाषा बना देने से अहिंदी भाषियों को उपेक्षा का
शिकार होना पड़ता? इन प्रश्नों के जवाब अलग-अलग हो सकते हैं
लेकिन इनका समाधान अंग्रेजी कदापि नहीं हो सकती। अंग्रेजी के साथ आई अंग्रेजियत ने
भारतीय भाषाओं को बहुत नुकसान पहुंचाया है। अब जबकि दुनिया में हिंदी बोलने वाले
लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है, इंटरनेट पर भी हिंदी
प्रमुख भाषा में रूप में अपने सौंदर्य के साथ मौजूद है तब भी अपने फायदे के लिए
अंग्रेजीदां लोग हिंदी की उपेक्षा लगातार कर रहे हैं। वर्ष 1925 में महात्मा गांधी
ने स्पष्ट कहा था- 'वास्तव में ये अंग्रेजी बोलने वाले नेता
हैं जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढऩे नहीं देते हैं। वे हिंदी सीखने से
इनकार करते हैं जबकि हिंदी द्रविड़ प्रदेशों में भी केवल तीन माह में सीखी जा सकती
है।' महात्मा गांधी अंग्रेजी को बहुत बड़ी बीमारी की संज्ञा देते थे और उसका
तत्काल इलाज करने की बात कहते थे। वे समाज से जुड़े राजपुरुष थे इसलिए उन्हें पता
था कि भारतीय समाज का भला उसकी अपनी भाषा में ही हो सकता है।
आज सभी
भारतीय भाषाओं में जबरन अंग्रेजी के शब्दों को ठूंसा जा रहा है। सरल हिंदी के नाम
पर हिंदी को तो हिंग्लिश बनाने का षड्यंत्र जैसा चलाया जा रहा है। मेट्रोपॉलटन
सिटी कहना सरल है या महानगर, क्युरीआसिटी कहना आसान
है या जिज्ञासा, इन्डिपेन्डन्स डे की जगह स्वतंत्रता दिवस
कहने में हमारी जीभ चिपकती है क्या? हम अपने शब्दों को
बोलेंगे नहीं तो वे हमारे लिए अपरिचित और कठिन हो ही जाएंगे। जैसे बहुत से लोगों
के लिए आवश्यकता, दूरभाष, कार्यालय,
संदेश, आवेदन और संकेत जैसे शब्द भी बहुत कठिन
हो गए हैं। इसलिए हिंदी के साथ हो रहे खिलवाड़ को तत्काल बंद करने की जरूरत है। वह
हमारी अपनी भाषा है। हिंदी सरल, सहज और समृद्ध है। भाषा
विज्ञानी भी मानते हैं कि हिंदी अधिक व्यवस्थित भाषा है। डार्लिंग 'अंग्रेजी' की मोहब्बत में पड़कर हम अपनी मां 'हिंदी'
के आंचल से दूर हो रहे हैं। मां के आश्रय में हम ज्यादा ठीक से विकास कर सकेंगे,
इसलिए मां के नजदीक आना ही पड़ेगा। दुनिया के तमाम विकसित देशों की
अपनी भाषा है। उन्होंने अपनी ही भाषाओं में विकास की कहानी लिखी है और हम अंग्रेजी
के चक्कर में पड़कर पीछे ही रह गए।
हिंदी
के सम्मान का प्रश्न केवल एक भाषा के सम्मान का प्रश्न नहीं है वरन यह राष्ट्र की
अस्मिता से जुड़ा है। अभूतपूर्व जनाधार पाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने
शायद इस बात को समझा है। इसीलिए वे देश में ही नहीं वरन भारत के बाहर भी हिंदी के
सम्मान को बढ़ा रहे हैं। दुनिया से वे भारत की भाषा हिंदी में बात कर रहे हैं और
उसे सम्मान दिला रहे हैं। अहिंदी भाषी होने के बावजूद नरेन्द्र मोदी हिंदी से
प्रेम इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि हिंदी में ही वह क्षमता है जो भारत
को आगे बढ़ा सकती है। प्रत्येक भारतीय भी अपने स्तर पर हिंदी को मजबूत कर सकता है।
एक हिंदी प्रेमी का उदाहरण है, जो बेझिझक अपनी शर्ट पर
लोगो लगाकर चलते हैं जिस पर लिखा है - 'मैं अंग्रेजी नहीं
जानता हूं।' अंग्रेजी नहीं आना शर्म और संकोच का कारण होना भी नहीं चाहिए।
शर्मिंदा तो तब होना चाहिए जब हमें अपनी ही भाषा न आए। हिंदी पर हमें गर्व होना
चाहिए। अंग्रेजीदां लोगों के आगे झुकने की जरूरत नहीं। अब हमें उन्हें अपना और
अपनी मातृभाषा का उपहास उड़ाने का अधिकार नहीं देना चाहिए। आप अपने जीवन में हिंदी
को ले आइए फिर देखिए बदलाव। खुद हिंदी बोलिए और लोगों से भी आग्रह कीजिए कि वे भी हिंदी
में बात करें। हस्ताक्षर, आवेदन, एटीएम
और बैंक से धन निकासी, पहचान-पत्र और नाम पत्रक, घर और कार्यालय में नाम पट्टिका हिंदी में लगाने जैसे छोटे-छोटे प्रयोग कर
आप हिंदी के सम्मान को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।
किसी का भी विरोध अंग्रेजी से नहीं है बल्कि अंग्रेजी को प्राथमिकता देने से खड़ी हुईं समस्याओं से है। कोई स्वेच्छा से अंग्रेजी सीखे, उसका स्वागत है लेकिन भारत में अंग्रेजी मजबूरी बन गई है। अंग्रेजी ही वह भाषा है जिसने भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ा दिया। घर में सगी बहनों के बीच फूट डालने का काम अंग्रेजी ने किया है। इस भाषाई झगड़े की आग में घी डालने का काम किया हमारे राजनेताओं ने, उनकी अदूरदर्शी राजनीति ने, उनके स्वार्थों ने। कमजोर नेतृत्व ने संपूर्ण भारत को जोडऩे के लिए अंग्रेजी को महत्वपूर्ण माना। भारत सरकार ने राजभाषा विधेयक बनाया, उसमें भी हिंदी के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव किया गया। हिंदी को कमजोर कर दिया। वर्ष 1959 में संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने एक दुर्भाग्यपूर्ण भाषण दिया और हिंदी के अपमान के लिए रास्ता बना दिया। उन्होंने कहा कि जब तक अहिंदी भाषी राज्य चाहेंगे सरकार के काम में अंग्रेजी प्रमुख भाषा रहेगी। ----यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा है और इस गफलत से हिंदी को बाहर निकालकर उसे पूर्ण राष्ट्र्भाषा का दर्जा देने के लिए जो प्रयास हो रहे हैं वह दो-चार दिन से ज्यादा नहीं चलते। समय है इसे एक जन आंदोलन बनाकर हिंदी को वनवास से बाहर निकलकर उसके उचित स्थान देने की।
जवाब देंहटाएंhello,
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