पृथ्वी पर भगवान शिव का धाम (निवास) कहाँ है? यदि यह प्रश्न आपके
सामने आएगा तो अधिक संभावना है कि आप क्षणभर गंवाए बिना उत्तर देंगे- ‘और कहाँ, कैलाश।’ अपने उत्तर
में दूसरा स्थान आप ‘काशी’ भी जोड़
सकते हैं। किंतु, ‘अमरकंटक’ शायद ही
आपके ध्यान में आए। जी हाँ, समुद्र तल से लगभग 3500 फीट की ऊंचाई पर स्थित अमरकंटक वह तीसरा स्थान है, जिसे
भगवान शिव ने परिवार सहित रहने के लिए चुना है। यह उनकी पुत्री नर्मदा का उद्गम
स्थल भी है। यह भूमिका इसलिए बांधी जा रही है, ताकि आपको एक
महत्वपूर्ण देवस्थल ‘फरस विनायक’ से
जोड़ सकूं।
दरअसल, अमरकंटक में भ्रमण करते हुए हमें एक दिन
महादेव के पुत्र श्रीगणेश के दर्शन हो गए। तब उपरोक्त धार्मिक आख्यान ध्यान आया कि शिव ने अमरकंटक को परिवार सहित
रहने के लिए चुना है। माँ नर्मदा मंदिर से दक्षिण दिशा में ऊंचे पहाड़ और घने जंगल
में विशाल चट्टान पर श्री गणेश की आकृति है। सुरम्य अरण्य में ऋद्धि-सिद्धि के
दाता की यह प्रतिमा प्राकृतिक रूप से निर्मित चट्टान पर किसने और कब उकेरी होगी,
कहा नहीं जा सकता। निश्चित रूप से बप्पा का कोई भक्त रहा होगा,
जो या तो योजनापूर्वक यहाँ आया होगा और अपने आराध्य की प्रतिमा
तराशी होगी, या फिर एकांत में बैठ कर गणपति महाराज का ध्यान
कर रहा होगा और अपनी मूर्ति कला के कौशल से विशाल शिला पर उन्हें प्रकट किया होगा।
मूर्तिकार आनंद के भाव में रहा होगा, इसलिए प्रतिमा
नृत्यमुद्रा में है। श्रीगणेश प्रतिमा के एक हाथ में फरसा है, इसलिए कहा गया- ‘फरस विनायक’।
वैसे तो भगवान श्रीगणेश के प्रमुख अस्त्र अंकुश और पाश हैं। किंतु, अनेक गणेश मूर्तियों में हम उनके हाथ में फरसा भी देखते हैं।
फरसे से श्रीगणेश का एक और प्रसंग भी जुड़ा है, उसका
उल्लेख भी यहाँ कर ही देना चाहिए। एक कथा के अनुसार परशुरामजी कैलाश पधारे और उस
समय भगवान शिव ध्यान में थे। ध्यान में कोई विघ्न न डाले इसकी जिम्मेदारी
विघ्नहर्ता गणेश को दी गई। इसलिए श्रीगणेश ने परशुरामजी को शिवजी से मिलने से रोक दिया।
फिर क्या था, परशुरामजी को क्रोध आ गया और दोनों के बीच
युद्ध प्रारंभ हो गया। युद्ध के दौरान परशुरामजी के फरसे से श्रीगणेश का एक दांत
टूट गया और वे एकदंत हो गए। गणेश प्रतिमा पर ध्यान दें, तो
आप पाएंगे कि गणेशजी के एक हाथ में उनका टूटा हुआ दाँत भी रहता है। हालाँकि उनका
दाँत कैसे टूटा, इस संदर्भ में और भी अन्य कथाएं प्रचलित हैं,
जैसे अद्वितीय महाकाव्य महाभारत लिखने के लिए उन्होंने अपना दाँत
तोड़ कर उसको कलम के रूप में उपयोग किया। कलम से जुड़ी हुई बात है इसलिए उल्लेख
उचित होगा कि लेखन कार्य में भगवान श्रीगणेश की अत्यधिक रुचि रहती है। लिखने के
लिए कलम नहीं मिलने पर अपने दाँत को तोड़ कर कलम बनाने के प्रसंग से लेखन के प्रति
उनका समर्पण और लगाव स्वत: ही प्रकट होता है।
‘फरस विनायक’ की प्रतिमा इतनी मोहक है कि उसे बस
निहारते रहो। चिडिय़ों का कलरव और साल के पत्तों की सरसराहट से एक मधुर संगीत
उत्पन्न होता है। आनंद उत्पन्न करने वाले इस वातावरण में गणपति के ध्यान में डूबने
से अच्छा और क्या हो सकता है? किसी भले मानुष ने विनायकजी को
प्रसन्न करने की इच्छा से इस प्रतिमा पर सिंदूर चढ़ा दिया है। श्रद्धा से हट कर
देखा जाए तो उसने एक प्रतिमा के नैसर्गिक सौंदर्य को नष्ट किया, किंतु जिसने भी यह किया वह भावनाओं में रहा होगा। उसका सौंदर्यबोध भी
श्रीगणेश को सिंदूर में रंगा देखने का रहा होगा, क्योंकि
प्रथमपूज्य श्रीगणेश को लाल एवं सिंदूरी रंग अत्यंत प्रिय हैं। उनकी अनेक प्रसिद्ध
प्रतिमाएं सिंदूरी हैं। सिंदूर और शुद्ध घी की मालिश से भगवन शीघ्रता से प्रसन्न
हो जाते हैं। इसलिए भक्त ने फरस विनायक को प्रसन्न करने की इच्छा से ही सिंदूर
चढ़ाया होगा। चट्टान पर सिंदूर से बनाया गया स्वास्तिक भी इसका साक्षी प्रतीत होता
है। शुभ का प्रतीक स्वास्तिक भी श्रीगणेश को अत्यंत प्रिय है।
‘फरस विनायक’ वाममुखी गणपति हैं। प्रतिमा में उनकी
सूंड के अग्रभाग का मोड बाईं ओर है। जिस मूर्ति/चित्र में भगवान श्रीगणेश की सूंड
बाईं ओर मुडी होती है, उसे वाममुखी गणेश कहते हैं। वाम से
अभिप्राय उत्तर भाग भी है। मान्यता है कि उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक और
आनंददायक है। इसलिए बप्पा के अधिकतर भक्त अपने पूजाघर में वाममुखी गणपति की मूर्ति
रखते हैं। इस लेख में ऊपर भी संभावना व्यक्त की गई है कि फरस विनायक की प्रतिमा को
उकेरने वाला भक्त/कलाकार आनंद के भाव में रहा होगा। उसका दूसरा प्रमाण ‘वाममुखी गणपति की प्रतिमा’ है। वाममुखी गणपति की
पूजा भी सामान्य नित्य की पद्धति से की जाती है। जबकि दक्षिणाभिमुखी या अन्य
प्रकार की गणपति की मूर्ति की पूजा कर्मकांडी ढंग और नियम-पद्धति से की जाती है।
जो आनंद के भाव में होता है, अपने ईश की अर्चना के लिए वह
सहज मार्ग को ही चुनता है।
अमरकंटक में ‘फरस विनायक’ के
दर्शन के लिए घने जंगल में पहाड़ चढऩे-उतरने होंगे। साधन-वाहन छोड़ कर पगडंडियों
पर पैदल चलना होगा। स्थानीय निवासी का सहयोग लेकर आप आसानी से महादेव के पुत्र
श्रीगणेश के दर्शन कर पाएंगे। स्थानीय नागरिक को साथ लिए बिना ‘फरस विनायक’ को खोजना ठीक उसी प्रकार कठिन है,
जिस प्रकार बिना गुरु के ज्ञान प्राप्ति का प्रयास किया जाता है।
Very nice post...
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