सांप्रदायिक और कट्टर सोच को उजागर करती दो घटनाएं हमारे सामने हैं। एक, मायानगरी मुम्बई की घटना है। दूसरी घटना मध्यप्रदेश की धर्मनगरी उज्जैन की है। घर-घर 'आराध्या' नाम से पहचानी जाने वाली सना अमीन शेख टीवी कलाकार हैं। धारावाहिक 'कृष्णदासी' में सना का नाम आराध्या है। धारावाहिक में वह एक विवाहित मराठी महिला का किरदार कर रही हैं। भूमिका के अनुसार उन्हें माँग में सिंदूर भरना होता है और गले में मंगलसूत्र पहनना होता है। गजब की धार्मिक असहिष्णुता है कि पर्दे पर अपने किरदार को निभाने के लिए सना द्वारा सिंदूर भरने और मंगलसूत्र पहनने भर से ही इस्लाम खतरे में आ गया। सना ने धारावाहिक की शूटिंग के कुछ चित्र सामाजिक माध्यम (सोशल मीडिया) पर साझा किए, तबसे वह कट्टरपंथी मानसिकता के निशाने पर हैं। ओछी सोच के अनेक मुसलमान उन्हें नसीहत देने लगे हैं, यथा - 'मुस्लिम लड़कियों को सिंदूर नहीं लगाना चाहिए। तुम एक मुस्लिम लड़की हो, मंगलसूत्र क्यों पहनती हो? किसी भी मुस्लिम महिला को चाहे वह अभिनेत्री हो, सबसे पहले अपने धर्म का सम्मान करना चाहिए। कुछ अतिवादी तो धमकाने की हद तक पहुँच गए। सना शेख ने इन मनोरोगियों की कट्टरपंथी सोच को करारा जवाब दिया है। उसने सामाजिक माध्यम पर खुला खत लिखकर सांप्रदायिक सोच को लताड़ लगाई है। सना ने लिखा है कि क्या सिंदूर लगाने से अल्लाह मुझे दोजख में भेज देंगे और विरोध करने वालों को जन्नत में भेजेंगे? सना ने कहा कि शूटिंग के वक्त मेरी माँग में भरा सिंदूर तब तक मेरे बालों में रहता है जब तक मैं नहाती नहीं हूँ। सना ने संकुचित मानसिकता के लोगों को उनकी ही भाषा में आईना दिखाने का प्रयास भी किया। उसने कहा कि यदि अपने किरदार को निभाने के लिए मेरा सिंदूर लगाना और मंगलसूत्र पहनना इस्लाम के खिलाफ है तब मेरा धारावाहिक देखने वाले क्या कर रहे हैं? सिनेमा देखना, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम का उपयोग करना क्या हराम नहीं है? आप लोग मेरा धारावाहिक देखना बंद क्यों नहीं करते? फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर समय बर्बाद करके क्या तुम लोग जन्नत में जाओगे?
दूसरों को मजहब के नाम पर धमकाने के अंदाज में सीख देने वाले और आम मुसलमान को बरगलाने वाले धर्म के ठेकेदारों की असलियत सना शेख के एक खत से सामने आ गई है। एक बड़ा प्रश्न सना शेख ने उठाया है, जिस पर समूचे मुस्लिम समाज को विचार करना चाहिए कि मजहब के उसूल कट्टर एवं रसूख वाले मुसलमानों के लिए अलग और आम मुसलमान के लिए अलग क्यों होते हैं? सना ने एक अच्छा संदेश बाकि के मुसलमानों को भी दिया है कि मंगलसूत्र पहनने से कोई कम मुसलमान नहीं हो जाता। उसने लिखा है कि उसकी माँ और नानी दोनों मंगलसूत्र पहनती हैं, यह सुहाग की निशानी है और ऐसा करने से वह किसी भी सूरत में कम मुसलमान नहीं हुई हैं।
अब संकीर्ण सोच के दूसरे उदाहरण को भी सझते हैं। उज्जैन के मदरसे में पढऩे वाले मुस्लिम बच्चों का मजहब अचानक मध्याह्न भोजन से खतरे में आ गया है। मदरसा संचालकों ने कहा कि किसी और संप्रदाय के लोगों द्वारा तैयार किया गया भोजन मुस्लिम बच्चों के लिए इस्लाम के हिसाब से ठीक नहीं है। यह इस्लाम के खिलाफ है। उनका दावा है कि चूँकि अन्य संप्रदाय के लोग भोजन पकाते समय 'भोग' निकालते हैं, इसलिए मुसलमानों के लिए यह भोजन हराम है। क्या यह हद दर्जे की संकुचित मानसिकता नहीं है? घृणित मानसिकता के मदरसा संचालक बच्चों को क्या सिखा रहे हैं? क्या यह दो संप्रदायों के बीच नफरत की दीवार खड़ी करने का षड्यंत्र नहीं है? सांप्रदायिक मानसिकता के इन लोगों ने क्या एक बार भी यह सोचा है कि यदि हिंदू समाज भी मुसलमानों के हाथ का बना भोजन करना बंद कर दे तब क्या होगा? मुसलमानों से गाड़ी सुधरवाना बंद कर दे, तब कितने लोगों के सामने रोजगार का संकट खड़ा हो जाएगा? मुसलमानों की टेम्पो-बस में हिंदू समाज सफर करना बंद कर दे, तब कितने लोगों के घर का चूल्हा जलाने मजहब के यह ठेकेदार जाएंगे? उस स्थिति की कल्पना भी आम मुसलमान के लिए कठिन है, जब हिंदू समाज यह तय कर लेगा कि वह भी मुसलमानों के हाथ की वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग नहीं करेगा।
सोचने वाली बात यह है कि अब तक मदरसा संचालकों की हरकत का मुस्लिम समाज की ओर से कोई विरोध नहीं किया गया है। जिस तरह सना शेख ने कट्टरपंथियों को करारा जवाब दिया है, वैसा जवाब यहाँ भी उदार मुसलमानों की ओर से दिया जाना चाहिए। दोनों मामलों ने समाज के सामने एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया है। इस अवसर का उपयोग प्रगतिशील समाज के निर्माण के लिए किया जाना चाहिए। एक ओर, सना शेख ने मजहबी संकीर्णता पर खुलकर प्रश्न खड़े किए हैं। इन प्रश्नों पर समाज में संवाद शुरू होने से मजहबी संकीर्णता, सांप्रदायिकता और असहिष्णुता परास्त होगी। महिला अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मजबूती मिलेगी। वहीं, मदरसा प्रकरण पर उदार समाज की खामोशी भी तमाम सवाल खड़े करती है। एक सकारात्मक विमर्श के जरिए इस खामोशी को भी तोड़ा जाना चाहिए। मध्याह्न भोजन पर मजहबी हाय-तौबा मदरसों पर लगने वाले आरोपों को भी पुष्ट कर रही है कि 'मदरसे सांप्रदायिक कट्टरता के केंद्र हैं।' बच्चों की रोटी पर धर्म का ठप्पा लगाकर, क्या मदरसे में सांप्रदायिक कट्टरता के पाठ नहीं रटाए जा रहे हैं? सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि मदरसा संचालकों को मुस्लिम समाज ही उचित जवाब दे। यह सामाजिक सद्भाव और साझा विरासत के लिए जरूरी कदम होगा।
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