जि स समय दुनिया में आधुनिक भारत के निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को 'वैश्विक आदर्श' के रूप में मान्यता मिल रही है। संयुक्त राष्ट्र में बाबा साहब की जयंती मनाई जा रही है और कहा जा रहा है कि उनके सपनों को पूरा करने के लिए सबको भारत के साथ मिलकर चलना होगा। लेकिन, विडम्बना देखिए कि उसी समय महामानव को लेकर भारत में संकीर्ण राजनीति का प्रदर्शन किया जा रहा है। अम्बेडकर हमारे हैं, उनके नहीं। हम असली अम्बेडकरवादी, वे नकली अम्बेडकरवादी। हम अम्बेडकर को जीते हैं, वे अम्बेडकर को ओढऩा चाहते हैं। जिनको आरोपित किया जा रहा है, सिर्फ उन्हीं को छोड़कर कोई भी यह नहीं कह रहा कि बाबा साहब सबके हैं। डॉ. अम्बेडकर को समग्र रूप से याद करने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निशाना क्यों बनाया जा रहा है। जबकि संघ और भाजपा को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए था कि उन्होंने डॉ. भीमराव अम्बेडकर को उचित स्थान दिलाने के लिए एक विमर्श खड़ा कर दिया है।
आज समाज में विमर्श हो रहा है कि आखिर अम्बेडकर को वह स्थान क्यों हासिल नहीं हो सका, जो अन्य महापुरुषों को प्राप्त है। उनकी अनदेखी क्यों की गई? अम्बेडकर के संघर्ष, योगदान और विचार को राजनीतिक स्वार्थों की खातिर सीमित करने वाली विचारधाराएं और दल बता सकते हैं कि उनके अंतर्मन में किस बात की बेचैनी है? उन्हें बाबा साहब के योगदान पर समग्रता से विचार करने में डर क्यों लग रहा है? जिन्होंने ६० साल में अम्बेडकर के सपने को यथार्थ में बदलने के लिए कुछ नहीं किया, वे कह रहे हैं कि भाजपा और संघ अम्बेडकर को कब्जाना चाहते है? अम्बेडकर कोई संपत्ति हैं क्या कि कोई जबरन कब्जा जमा लेगा। अम्बेडकर एक विचार है, संकल्प है। उस विचार और संकल्प को जीने का अधिकार सबका है। यह तो स्वागत योग्य बात होनी चाहिए कि आज बाबा साहब के विचार को पूर्ण करने का संकल्प सब जता रहे हैं। लेकिन, अम्बेडकर के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों को पीड़ा होना स्वाभाविक है। क्योंकि, उनको अपनी राजनीतिक दुकानदारी की फिक्र है, समाज की नहीं।
हमारी समस्या यह है कि हम महापुरुषों को भी टुकड़ों में बाँटकर देखने के आदी हो गए हैं। हम समग्रता में उनके योगदान का मूल्यांकन करने के लिए तैयार नहीं है। यह समस्या इसलिए भी है क्योंकि हम चरित्र की नहीं, चित्र की पूजा करने वाले समाज में तब्दील होते जा रहे हैं। बाबा साहब के साथ यही हुआ। स्वयं को अम्बेडकर की विचार-विरासत का उत्तराधिकारी बताने वालों ने भी उनको ठीक से नहीं समझा। यह बात ठीक से समझने की जरूरत है कि अम्बेडकर किसी एक समाज/वर्ग के नेता या मसीहा नहीं थे। उनकी सोच सर्वसमावेशी थी। वह सभी को साथ लेकर आगे बढऩे में भरोसा रखते थे। यही कारण है कि उनके संघर्ष और आंदोलनों में भी सब समाज की भागीदारी रहती थी।
संविधान की रचना के समय भी उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि देश में सामाजिक समरसता का वातावरण बने। अम्बेडकर के लिए राष्ट्र सबसे पहले था। उन्होंने अपने किसी भी कदम से समाज और देश को चोट नहीं लगने दी। उनके इसी समग्र विचार-दर्शन को भाजपा और संघ देश-दुनिया के सामने लाने का प्रयास कर रहा है। संघ के इस कदम से बाबा साहब को खाँचों में बाँटकर अपनी राजनीति करने वाले लोगों का व्यथित और विचलित होना स्वाभाविक है। उनकी बौखलाहट भी खुलकर सामने आएगी। क्योंकि, बरसों से खड़े किए उनके षड्यंत्र और झूठ की पहाड़ दरकेंगे। उनके अम्बेडकर प्रेम की पोल खुलेगी। बहरहाल, यह शुभ संकेत है कि भुला दिए गए आधुनिक भारत के निर्माताओं को एक-एक करके याद किया जा रहा है।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " नो प्लेस फॉर मूत्र विसर्जन इन दिस कंट्री " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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