बुधवार, 10 दिसंबर 2014

'सिटी ऑफ जॉय' : कोलकाता

 को लकाता अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत के लिए जितना प्रसिद्ध है, उतना ही अपनी भव्य इमारतों और दौड़ती-भागती जिन्दगी के लिए भी। यह दीगर बात है कि ज्यादातर भव्य इमारतें बूढ़ी हो चुकी हैं। ये ठीक वैसे ही दुर्दशा की शिकार हैं, जैसे नालायक औलाद की अनदेखी से बूढ़े मां-बाप का हाल होता है। साक्षात मां काली इस ऐतिहासिक शहर की संरक्षक देवी हैं। यह भगवान रामकृष्ण परमहंस और युवा नायक स्वामी विवेकानन्द की साधना-स्थली भी है। नजदीक ही हावड़ा स्थित बेलूर मठ में आत्मिक सुख की अनुभूति होती है। यहां पक्षियों की चहचहाहट क्लासिकल संगीत का सुख देती है। दक्षिणेश्वरी और कालीघाट के काली मंदिर में आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है। मैदान में हुगली (गंगा) किनारे टहलते हुए दिल बाग-बाग हो उठता है। कोलकाता के कॉफी हाउस आज भी बौद्धिक बहसों के अड्डे हैं। पुराने बाजारों का अपना ही ठाठ है। मिष्टी दोई, संदेश, रॉसगुल्ला का स्वाद और खुशबू कोलकाता से मोहब्बत करने के लिए काफी है।
       सात नवम्बर, २०१४ को चम्बल एक्सप्रेस (ग्वालियर से हावड़ा) से हावड़ा पहुंचा। कोलकाता में पीले रंग की टैक्सी यातायात के प्रमुख साधनों में से एक है। भारत की पहली भूमिगत मेट्रो ट्रेन भी कोलकाता में है। यह इकलौता शहर है जहां अब भी ट्रॉम चलती है। ट्रॉम दो-तीन बोगी की छोटी ट्रेन है जो सड़क पर बिछे ट्रेक पर टैक्सी, बस और दीगर साधनों के साथ-साथ मंद गति से चलती हुई आपको दिख जाएगी। हावड़ा रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही मैं प्रीपेड टैक्सी कर पार्क स्ट्रीट पहुंचा। पत्रकार मित्र तनय सरकार यहां मेरा इंतजार कर रहे थे। कोलकाता उनका गृहनगर है। उन्होंने ग्वालियर के लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षण संस्थान से खेल पत्रकारिता में डिप्लोमा किया है। मैंने जीवाजी विश्वविद्यालय से मास्टर ऑफ जर्नलिज्म एण्ड मास कम्युनिकेशन (एमजेएमसी) किया है। लेकिन, हम दोनों के शिक्षक एक ही रहे हैं। जयंत सिंह तोमर। तनय अभी आकाशवाणी के लिए प्रोग्राम बनाते हैं। उनके सहयोग से पार्क स्ट्रीट में एक होटल तलाशा। सामान रखा। तैयार हुए। कैमरा निकाला और चल दिए 'सिटी ऑफ जॉय' से मिलने के लिए। कहते हैं कि ब्रिटिश अधिकारी जॉब चार्नोक ने वर्ष १६९० में कोलकाता की स्थापना की थी। हालांकि इस अवधारणा को कोलकाता हाईकोर्ट की एक खण्डपीठ ने १६ मई, २००३ को एक फैसले में यह कह कर पलट दिया है कि जॉब चार्नोक कोलकाता का संस्थापक नहीं है। पहले यह शहर कलकत्ता के नाम से जाना जाता था। लेकिन एक जनवरी, २००१ के बाद से पश्चिम बंगाल की राजधानी का आधिकारिक नाम कोलकाता हो गया। ज्यादातर लोगों का मानना है कि देवी काली की भूमि होने के कारण इसका नाम कोलकाता है। हालांकि कुछ लोगों की दूसरी दलीलें हैं इसके नाम को लेकर। वैसे मुगल बादशाह अकबर (शासनकाल १५५६-१६०५) के राजस्व खाते और बंगाली कवि बिप्रदास (सन् १४९५) की कृति 'मनसामंगल' में भी कालीकाता के नाम से शहर का जिक्र है। 
     
       तनय सरकार और मैंने तय किया कि ज्यादातर कोलकाता हम पैदल ही घूमेंगे ताकि तबियत से शहर को जान सकें। पार्क स्ट्रीट के पास ही स्थित सुनियोजित बाजार न्यू मार्केट और बस स्टैण्ड धर्मतला होते हुए हम मैदान पहुंचे। कोलकाता अपनी स्पोर्ट्स स्प्रिट के लिए खास पहचान रखता है। मैदान के समीप कई प्रसिद्ध फुटबाल, हॉकी और क्रिकेट क्लब हैं। अपने १५० साल पूरे कर रहे विश्व प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान 'ईडन गार्डन' के सामने खड़े होकर फोटो खिंचवाया। यहां पांच दिन बाद भारत-श्रीलंका के बीच एकदिवसीय मैच खेला जाना था। उसकी तैयारी जोर-शोर से चल रही थी। जब मैं यह यात्रा वृत्तांत लिख रहा हूं, तब भारत-श्रीलंका के बीच वह मैच खेला जा चुका है। १३ नवम्बर, २०१४ को एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड ईडन गार्डन के खाते में आ गया। रोहित शर्मा ने वनडे मैच की सबसे बड़ी पारी खेली। उन्होंने २६४ रन का पहाड़ खड़ा कर दिया। सन् १९२० में स्थापित किया गया प्रसिद्ध ईस्ट बंगाल क्लब भी देखा। यहां से थोड़ा चलने पर सन् १८८९ में स्थापित किए गए मोहन बागान एथलेटिक क्लब के मैदान में पहुंच गए। इसे एशिया के सबसे पुराने फुटबॉल क्लब होने का गौरव प्राप्त है। देर शाम को शहर में स्थित मोहन बागान स्ट्रीट भी पहुंचे। यहां गली के बाहर उन धुरंधर खिलाडिय़ों की टीम की प्रतिमाएं स्थापित हैं जिन्होंने सन् १९११ में ईस्ट यॉर्कशायर रेजीमेंट को हराया था। यह पहली बार था जब किसी भारतीय टीम ने किसी यूरोपीय टीम को हराया था। यॉर्कशायर रेजीमेंट की टीम फुटबॉल  बूट पहनकर खेली थी जबकि मोहन बागान के टाइगर नंगे पैर ही मैदान में उतरे थे। लेकिन, उनके हौसले के सामने अंग्रेज टिक नहीं सके। परास्त हो गए। यहां आसपास कोलकाता पुलिस और आबकारी सहित अन्य स्पोर्ट्स क्लब भी हैं।
इन जांबाजों ने नंगे पैर फुटबॉल खेलकर यूरोपीय टीम को हराया था.
      हुगली (गंगा) के किनारे विशाल पार्क में टहलते हुए एक स्तम्भ तक पहुंचे। तनय ने बताया कि इसका संबंध ग्वालियर के मराठाओं से है। उनकी स्मृति में यह स्तम्भ बनाया गया है। थोड़ा आगे चले तो प्रिंसेस घाट देखा। अब अगला पड़ाव विक्टोरिया मेमोरियल था। सन् १९०६-२१ के बीच निर्मित यह स्मारक रानी विक्टोरिया को समर्पित है। मेमोरियल का स्थापत्य देखते ही बनता है। भवन के आसपास सुन्दर बगीचे हैं। इन बगीचों में कुछ प्रेमी युगल आपत्तिजनक हालत में दिख रहे थे। उनके सिर पर मोहब्बत (संभवत: वासना) का बेताल इस कदर चिपका हुआ था कि उन्हें ख्याल ही नहीं था कि यहां बहुत से लोग अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ भी आते हैं। बड़े-बुजुर्ग भी इन दृश्यों को देखकर असहज नजर आ रहे थे। खैर, संग्रहालय में शहर के इतिहास को संजोकर रखा गया है। इसमें विक्टोरिया से संबंधित वस्तुओं को भी प्रदर्शन के लिए रखा गया है। 
       अब अगला ठिकाना था नंदन। नंदन में एक साथ नौ फिल्मों का प्रदर्शन किया जा सकता है। सार्थक सिनेमा के प्रेमियों के लिए यह शानदार जगह है। हमेशा से कोलकाता फिल्म फेस्टीवल का आयोजन नंदन में होता रहा है। लेकिन, इस बार सरकार ने २०वें कोलकाता फिल्म फेस्टीवल का स्थान बदलकर नेताजी स्टेडियम रख दिया। कई सिनेप्रेमियों ने इसका विरोध किया है। बहरहाल, पैदल चल-चलकर थक गए थे। तरोताजा होने के लिए चाय पीने का मन था। मैंने तनय से पूछा कि मुझे नींबू चाय मांगनी है तो बांग्ला में कैसे बोलेंगे? उसके बताने के बाद मैंने जुबान संभालते हुए, शब्दों को जमाते हुए चायवाले को कहा - 'दो टो लीमूचा दीन।' चायवाले ने दो चाय दीं और दस टका लिए। यहां रुपये को टका कहते हैं। हालांकि तकनीकीतौर पर रुपये को टका कहना गलत है। टका बांग्लादेश की आधिकारिक मुद्रा है, जो रुपये से आधा होता है। लेकिन, पूरे पश्चिम बंगाल में रुपये को टका ही कहते हैं। एक खास बात यहां बताना चाहूंगा कि सुबह से एक बात मैंने बार-बार दुकान, होटल और शोरूम में पढ़ी - '५०० और १००० के नोट स्वीकार नहीं किए जाएंगे।' जिस बात का अंदेशा था, पूछताछ के बाद वही सच निकला। बांग्लादेश और पाकिस्तान से भारी संख्या में पश्चिम बंगाल में जाली नोट खपाए जा रहे हैं। बांग्लादेश के अवैध घुसपैठियों के कारण यहां के लोग बहुत परेशान हैं। बेरोजगारी, जनसंख्या दबाव और अपराध का बड़ा कारण बांग्लादेशी घुसपैठ है। इस घुसपैठ को वोटबैंक के चक्कर में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। कोलकाता अपनी दुर्दशा पर जो आंसू बहा रहा है, उसके पीछे कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीति है। लम्बे समय तक पश्चिम बंगाल में शासन करने के बाद भी कम्युनिस्ट कोलकाता को संवार नहीं सके बल्कि अपनी विरासत का संरक्षण भी ठीक से नहीं कर सके। कभी ब्रिटिश भारत की राजधानी रहा कोलकाता आज अन्य शहरों के मुकाबले प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ गया है। 
       ठाकुरबाड़ी में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का घर है। यहां उनका जन्म हुआ था। उनके घर को देखने के लिए देश-दुनिया से लोग आते हैं। देर से पहुंचने के कारण वह बंद हो गया था। बाहर से ही देखकर हम लौट आए। कॉलेज स्क्वायर के आसपास किताबों का सबसे बड़ा बाजार देखा। कोलकातावासी पढऩे-लिखने में गहरी रुचि रखते हैं। आपको समाचार-पत्र, पत्रिका और किताबों की दुकानें सब दूर मिल जाएंगी। कोलकाता विश्वविद्यालय के नजदीक ही कॉलेज स्ट्रीट में मशहूर कॉफी हाउस है। असल में यह है तो बंकिम चटर्जी स्ट्रीट पर लेकिन, लोग कॉलेज स्ट्रीट कॉफी हाउस के नाम से ही जानते हैं। यहां कॉफी-कल्चर अब भी जिन्दा है। पुरानी रवायत के साथ। शाम के वक्त बमुश्किल कोई सीट खाली मिलती है। करीब १५ मिनट इंतजार के बाद बैठने के लिए जगह मिली। सब ओर दीवारों पर खूबसूरत पेंटिग्स लगे हैं। पेंटिंग देखकर मन आल्हादित हो रहा था लेकिन मीनू देखा तो चिंता बढ़ गई। पचास व्यंजन में से महज तीन व्यंजन ही शाहकारी थे। वेटर उत्तरप्रदेश का था। उसने भावनाओं को समझा और फ्राइड राइस लेकर आ गया। बताया जाता है कि यह भवन सन् १८८२ में बना था। तब इसे अल्बर्ट हॉल कहते थे। वर्ष १९४२ कॉफी बोर्ड ने यहां कॉफी हाउस शुरू किया। कहते हैं कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सुभाषचंन्द्र बोस, सत्यजीत रे और अमर्त्य सेन जैसी हस्तियां भी यहां आते रहें हैं। गपशप, बौद्धिक बहस, वाग्विलास और धुंए के छल्ले उड़ाने का यह बेहतर ठिकाना है। अगले दिन कालीघाट, बेलूर मठ और दक्षिणेश्वरी जाने की योजना के साथ तनय सरकार से विदा ली। विदा क्या ली, वह मुझे ही मेरे होटल तक छोडऩे आया था। 
       
युवा नायक स्वामी विवेकानन्द की साधना-स्थली देखने की हूक ने रातभर ठीक से सोने नहीं दिया। बहुत थकने के बाद भी सुबह जल्दी हो गई। जैसे सूरज दादा अपने उजाले में कोलकाता दिखाने के लिए घर से जरा जल्दी निकल आए हों। तनय सरकार के आने तक अकेले ही कोलकाता के बाजार में टहला। इमारतों पर खूबसूरत नक्काशी का काम देखा। कोलकाता में बहुत सी इमारतें गोथिक, बरोक, रोमन और इंडो-इस्लामिक स्थापत्य शैली की हैं। पार्क स्ट्रीट मेट्रो स्टेशन से भारत की पहली भूमिगत मेट्रो में बैठे कालीघाट स्टेशन तक। दिन की शुरुआत कोलकाता की संरक्षक देवी मां काली के दर्शन से की। बेलूर जाने के लिए सबसे पहले बस से हावड़ा रेलवे स्टेशन पहुंचे। यहां से दूसरी बस पकड़ी। बस ने ठीक बेलूर मठ के सामने उतारा। बेलूर मठ के परिसर में प्रवेश करने के बाद सचमुच असीम शांति की अनुभूति हुई। वैराग्य। लेकिन, सामाजिक जिम्मेदारियों से भरा वैराग्य। स्वामी विवेकानन्द की तरह। बेलूर मठ रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय है। इसकी स्थापना १८९९ में स्वामी विवेकानंद ने की थी। मुख्य मंदिर में भगवान रामकृष्ण परमहंस की आदमकद प्रतिमा है। परिसर गंगा के किनारे है। यहां घाट पर बैठकर आप घंटों आनंद के साथ गुजार सकते हैं। गंगा को छूकर आने वाली ठण्डी हवा झौंके मां के आंचल की शीतलता का अहसास कराते हैं। हुगली नदी के पूर्वी तट पर स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर जाने के लिए यहीं से बोट मिलती है। महज दस रुपये प्रतिव्यक्ति किराया। करीब २०-३० मिनट बोट ने दक्षिणेश्वर काली मंदिर के घाट पर पहुंचा दिया। रास्ते में गंगा किनारे पर जमीदारों के निजी घाट भी देखे। हालांकि अब वे सार्वजनिक घाट हो गए हैं। कोलकाता के बंगाली बाबुओं के किस्से भी खूब मशहूर हैं। बाबू लोग अय्यास और शौकीन थे। बताते हैं कि बाबू अंग्रेजों के प्रभाव में आ गए थे। उनके रंग में रंगने के लिए हरसंभव प्रयास करते थे। उनकी तरह कपड़े पहनना। उनके जैसे शौक पालना। भारतीय मूल्यों को हिकारत की नजर से देखते थे। लेकिन, अंग्रेज उन्हें अपने से हीन ही समझते रहे। बंगाल के क्रांतिकारियों, समाजसेवियों और बौद्धिक जगत के लोगों ने 'बाबू संस्कृति' का जमकर विरोध किया। फिल्म आनंद में अपने समय से सुरपस्टार राजेश खन्ना ने तो 'बाबू मोशाय' शब्द बोलकर प्रत्येक भारतवासी के जुबान पर यह शब्द चढ़ा दिया है। हालांकि अब बाबू का मतलब वह नहीं रह गया है जिसका कभी बंगाल के स्वतंत्रतासेनानियों ने विरोध किया। अब तो किसी को प्यार से बुलाने के लिए बाबू शब्द का इस्तेमाल करते हैं। 
       कम समय था इसलिए बहुत सा कोलकाता छूट गया। एशिया में अपनी तरह का पहला शहर साइंस सिटी, भारतीय विरासत का विशाल भण्डार भारतीय संग्रहालय (इंडियन म्यूजियम) और बॉटनीकल गार्डन, जहां विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बरगद का पेड़ है। ये नहीं देख सका। देखने का मन है। कोलकाता फिर बुलायेगा, तब कोलकाता दर्शन पूरा करूंगा। किसी को भी 'दा' कहकर बुलाना, भयंकर जाम में बस का सफर, ट्रॉम की टन-टन, शाकाहारी खाने की तलाश, रॉसगुल्ला की मिठास सदैव स्मृतियों में रहेगा। बहरहाल, पर्यटन के नजरिए से नवम्बर से मार्च के बीच में कोलकाता जाना बेहतर रहेगा।
प्रिंसेस घाट के पार्क में.

दक्षिणेश्वरी काली मंदिर

बेलूर मठ से दक्षिणेश्वरी के लिए नाव से जाते हुए.

हुगली के किनारे मैदान पार्क में ग्वालियर के मराठों की स्मृति में निर्मित स्तम्भ.

दक्षिणेश्वरी काली मंदिर.

विक्टोरिया मेमोरियल में कर्जन की प्रतिमा.

खेल पत्रकार तनय सरकार के साथ ईस्ट बंगाल क्लब के बाहर.

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