पि ताजी बेहद सख्त हैं। नारियल की तरह कठोर। अंतर्मन से नरम हैं या नहीं, कह नहीं सकता, क्योंकि कभी पिताजी के भीतर झांककर नहीं देखा। लेकिन, मां का व्यवहार बेहद मुलायमियत भरा है। उसकी तुलना नहीं की जा सकती। मां सृष्टि का केन्द्र है। खुदा है। भगवान है। जब भी ऐसा लगता था कि अपने से कुछ गड़बड़ हो गई है और पिताजी की डांट पडऩा तय है। तब पिताजी के शब्द-बमों से बचने का एक ही सुरक्षित बंकर नजर आता था, मां का आंचल। असल में मां का आंचल मेरे हिस्से का सबसे सुंदर आसमान भी था। उसकी साड़ी में जड़े मोती और सितारे, मेरे अपने चंदा मामा और तारे हुआ करते थे। पिताजी की नजरों से बचना होता था तो इसी आसमान को ओढ़ लिया करता था। मां ने बहुत पोथी तो नहीं पढ़ीं, लेकिन वह मेरी आंखें अच्छे से पढ़ लिया करती है, तब भी और आज भी। मां दुनिया को अच्छे से समझती है। जब वह इस दुनिया में मुझे लेकर आई तो उसे हमेशा मेरी सुरक्षा की फिक्र रहने लगी थी। कहीं किसी की नजर न लग जाए। तब कुछ लोगों की काली नजर से बचाने के लिए मां अपने आंचल में मुझे छिपा लिया करती थी। फिर जब बड़ा हुआ तो तेज धूप, लपट, धूल-धक्कड़ से बचाने के लिए भी वह इसी आसमान को मेरे सिर पर रख दिया करती थी और मैं दुनियावी झंझटों से बेफिक्र अपने चांद-तारों में खो जाया करता था।
एक दिन का वाकया अच्छे से याद है मुझे। तब मैं करीब दस बरस का था। शाम को दोस्तों के साथ खेलने पुलिस ग्राउंड गया था। वहां लाल रंग से पुते लगभग गोल और चिकने कंकर सड़क के दोनों ओर डाले गए थे। मैं रोज एक गिलास दूध पीता था और मेरा दोस्त गिलास भरकर चाय। मां की धारणा है कि दूध पीने वाला बच्चा अंदर से ताकतवर और फुर्तीला होता है जबकि ज्यादा चाय पीने वाला अंदर से फुंका हुआ रहता है। मां के इसी दर्शन पर दोस्त से बहस हो गई। मां सही कहती है या गलत इसको साबित करने के लिए शर्त रखी गई कि मैं दौड़कर उसकी साइकिल से आगे निकलकर दिखाऊं। दौड़ शुरू हुई। मां को सच साबित करने के लिए पूरी जान लगाकर दौड़ा। लक्ष्य तक पहुंचने के चंद कदम पहले ही मेरा पैर उन गोल और चिकने कंकरों पर पड़ गया। मैं फिसलता हुआ तय स्थान तक पहुंच गया। कौन हारा-जीता, नहीं देख सका। मेरी कनपटी बुरी तरह छिल गई थी। अरबी की सब्जी बनाने से पहले जैसे मां उसे टाट पर छीला करती है, ठीक वैसे ही मेरे गाल की खाल निकल आई थी। इसी गाल पर तो मां स्कूल जाने से पहले मुझे प्यार किया करती थी।
मैं दर्द से तड़प रहा था। दोस्त ने किसी तरह मुझे घर पहुंचाया। मुझे डर था कि पिताजी आज सिर्फ डांटेंगे ही नहीं बल्कि पीट भी सकते हैं। डर के मारे मैं चादर ओढ़कर सो गया। बिना खाना खाए जल्दी सोने पर मां को शक हुआ। उसने चादर उठाकर देखा, मैं जख्मी कनपटी को छिपाकर सो रहा था। लेकिन, चेहरे पर दर्द के भाव को उसने पढ़ लिया। मां ने हाथ पकड़ा। मैं बुखार में तप रहा था। मेरी हालत देखकर उसकी आंखों से आंसू छलक आए।
उसने गुस्से से कहा- 'तूने बताया क्यों नहीं।'
मैंने रोते हुए कहा- 'पिताजी का डर था। वो मारते मुझे।'
मैं कुछ और बता पता, तब तक पिताजी आ गए। मां ने हमेशा की तरह आज फिर मेरे चेहरे पर अपना आंचल डाल दिया। मेरे सारे दर्द और डर जाते रहे। मां ने पिताजी को मेरी चोट के बारे में बताया। पिताजी ने कुछ नहीं कहा। जल्दी से ऑटो बुलाई और दोनों मुझे डॉक्टर के पास ले गए। रास्ते भर मैं मेरे हिस्से के आसमान में खोया रहा। ऐसे कई वाकये हैं जब सारे दर्द, व्यथाएं और चिंताएं मां के आंचल में कहीं खो जाती थीं। अब जब बड़ा हो गया तो लगता है कि मेरे हिस्से का वह आसमान कहीं खो गया है। मां है, उसका आंचल भी है लेकिन मैं ही अब पहले जैसा नहीं रहा हूं।
super like bhai
जवाब देंहटाएंशुक्रिया संजय जी
हटाएंLv it :)
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अभिषेक भाई
हटाएंलेख की हर एक लाइनें तरंग के संचार के साथ मन को छू रहीं हैं...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रभात जी
हटाएंबहुत ही सुन्दर और मार्मिक प्रसंग प्रस्तुत किया है भाई लोकेन्द्र । और यह कथन और भी कि मैं ही पहले जैसा नही रहा ।निस्चित ही समयके साथ कुछ बदलाव होता है लेकिन इतना भी नही वरना यह पोस्ट नही लिख रहे होते ।
जवाब देंहटाएंसमय के साथ आया बदलाव ही है और कुछ नहीं दीदी....
हटाएंबाकि तो आप मुझे समझती ही हैं... माँ मेरे लिए आज भी सर्वोपरि है, उसका इशारा ही मेरे लिए हुक्म के समान है...
बचपन छूटने के साथ बहुत कुछ छूट जाता है... वही एक बदलाव है.
nice line ma ke liye jo apne write hi k bhai sb ji
जवाब देंहटाएंpar ho sab si last m write kiya h apne vo sahi nahi h
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