शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

पंडित दीनदयाल उपाध्याय


11 फरवरी, पुण्यतिथि
 क हा जाता है कुछ लोग महान पैदा होते है, कुछ लोग महानता अर्जित करते है और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने महानता अर्जित की थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को नाना चुन्नीलाल शुक्ल के घर में हुआ था। पंडितजी के नाना राजस्थान के धनकिया गांव में रहते थे। यह गांव जयपुर-अजमेर रेललाइन पर स्थित है। चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया गांव के रेलवे स्टेशन के स्टेशन मास्टर थे। पंडित जी के पिता भगवतीप्रसाद उपाध्याय ब्रज के मथुरा जिले के छोटे-से गांव फराह में रहते थे। वे मथुरा में जलेसर रेलवे मार्ग पर एक स्टेशन में स्टेशन मास्टर थे। पं. दीनदयाल उपाध्याय का बचपन असहनीय परेशानियों के बीच बीता। दीनदयाल जी जब तीन साल के थे, उनके सिर से पिता का साया हट गया। सात वर्ष की छोटी-सी आयु में मां रामप्यारी का भी निधन हो गया। जिन्दगी की जिस अवस्था में मां-पिता के प्रेम की बहुत जरूरत होती है, उसी अवस्था में पंडितजी पिता के आश्रय और मां की ममता से वंचित हो गए थे।  
पंडितजी होनहार थे। बुद्धि से तेज थे। उन्होंने कल्याण हाई स्कूल सीकर से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उन्हें अजमेर बोर्ड और स्कूल दोनों की तरफ से एक-एक स्वर्ण पदक प्रदान प्रदान किया गया। दो वर्ष बाद बिड़ला कॉलेज पिलानी से हायर सेकंड्री परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। इस बार भी उन्हें दो स्वर्ण पदक मिले। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से गणित विषय से बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। यहीं उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं और अन्य राष्ट्रवादियों से हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के तपस्वी जीवन से प्रभावित होकर उनके मन में भी देश सेवा करने का खयाल आया। पंडितजी ने आगरा के सेंटजॉन्स कॉलेज में एमए के लिए दाखिला लिया परन्तु किन्हीं कारणों से पढ़ाई बीच में ही छोडऩी पड़ी। इस दौरान उन्होंने तय कर लिया था कि वे नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने राष्ट्रीय जाग्रति एवं राष्ट्रीय एकता के लिए कटिबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। 1951 तक वे संघ में विभिन्न पदों पर रहकर समाज चेतना का कार्य करते रहे। 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई तब से उन्होंने अपनी सेवाएं जनसंघ को अर्पित कर दी। डॉक्टर मुखर्जी उनकी संगठन क्षमता से इतने अधिक प्रभावित हुए कि कानपुर अधिवेशन के बाद उनके मुंह से यही उद्गार निकले कि यदि मेरे पास और दो दीनदयाल होते तो मैं भारत का राजनीतिक रूप बदल देता। दुर्भाग्य से 1953 में डॉक्टर मुखर्जी की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु अभी भी रहस्य है। कहा जाता है कि डॉक्टर मुखर्जी की हत्या राजनीतिक कारणों के चलते की गई थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत के बाद भारत का राजनीतिक स्वरूप बदलने  की जिम्मेदारी पंडित दीनदयाल के कंधों पर आ गया। उन्होंने इस कार्य को इतने चुपचाप और विशेष ढंग से पूरा किया कि जब 1967 के आम चुनाव के परिणाम सामने आने लगे तब देश आश्चर्यचकित रह गया। जनसंघ राजनीतिक दलों में दूसरे क्रमांक पर पंहुच गया। यद्यपि दीनदयालजी महान नेता बन गए थे परन्तु वे अति साधारण ढंग से ही रहते थे। अपने कपडे स्वयं ही साफ़ करते थे। स्वभाव से इतने सरल थे कि जब तक उनकी बनियान कि चिद्दी-चिद्दी नहीं उड़ जाती थी वे नई बनियान बनबाने के लिए तैयार नहीं होते थे। वे स्वदेशी के बारे में शोर तो नहीं मचाते थे परन्तु वे कभी भी विदेशी वस्तु नहीं खरीदते थे। 
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता का उपयोग राष्ट्रभक्ति की अलग जगाने के लिए किया। ऐसे नेताओं की कतार में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम भी शामिल है। प. दीनदयाल राजनीति में सक्रिय होने के साथ साहित्य से भी जुड़े थे। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। उनके बौद्धिक सामर्थ्य को समझने के लिए एक उदाहरण की काफी है। उन्होंने एक ही बैठक में (लगातार 16 घंटे बैठ कर) लघु उपन्यास 'चंद्रगुप्त मौर्य' लिख डाला था। दीनदयालजी ने लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की। राष्ट्रवादी विचारों को प्रसारित करने के लिए मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) और 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरुआत भी की। वे उच्च कोटि के पत्रकार थे। पंडितजी न केवल इन पत्रों का संपादन करते थे बल्कि मशीन भी चला लेते थे, वाइन्डर और डिस्पेचर का कार्य भी कर लेते थे। उनकी कृति एकात्म मानववाद तो विश्वस्तर पर सराही गई है। पंडित जी एकात्म मानववाद में कहते हैं कि भारतीय चिन्तन कहता है कि व्यक्ति और समाज न बांटी जा सकने वाली इकाई है। इसको आप बांट नहीं सकते। व्यक्ति और समाज जब बंट जाता है तो मानव मर जाता है, मानव रहता ही नहीं। दीनदयाल जी ने कहा, भारत की मनीषा के अनुसार समग्रता और सम्पूर्णता से देखो तो पाओगे कि मानव में व्यष्टि और समष्टि की एकात्मता है। दीनदयाल जी ने कहा भारत का संदर्भ उससे आगे है, व्यष्टि-समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि। इनमें भी एकात्मता है। इसलिए यह एकात्मता का विचार, यदि मानव के सुख का संधान करता है तो इस एकात्मकता के विचार को समझना होगा। इस एकात्मता के विचार को समझते समय हमें ध्यान देना होगा कि हमें केवल व्यक्ति के सुख की साधना नहीं करनी है। यदि हमने समाज को व्यक्तिवादी बनाया तो सुख की लूट मच जायेगी और कोई सुखी नहीं हो पाएगा और यदि हमने समाज के नाम पर व्यक्ति की अस्मिता को नकार दिया तो भारत नौकरों का देश बन जायेगा।
11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनकी लाश मिलने से सारे देश में शौक की लहर दौड़ गई थी। उनकी इस तरह हुई हत्या को कई लोगों ने भारत के सबसे बुरे कांडों में से एक माना। पंडित दीनदयाल जी की रहस्यमयी स्थिति में हुई हत्या की गुत्थी आज तक नहीं सुलझ सकी है। 

7 टिप्‍पणियां:

  1. विनम्र श्रद्धांजलि।
    बहुत कुछ जानने को मिला।

    जवाब देंहटाएं
  2. पं. दीनदयाल उपाध्याय के बारे में जानकर गर्व की अनुभूति हुई।

    जवाब देंहटाएं
  3. एक ही बैठक में एक उपन्यास पूरा कर डालना उनकी दृढ इच्छा शक्ति का परिचायक है। उनकी हत्या की जाँच अधूरी रह जाना दुखद है। श्रद्धांजलि!

    जवाब देंहटाएं
  4. पंडित जी की हत्या का रहस्य लगता है जान के बाहर नहीं आया अभी तक ...दुखद है ये बहुत ... विनम्र श्रधांजलि है उनको ..

    जवाब देंहटाएं
  5. अच्छी जानकारी विनम्र श्रद्धांजलि पंडित जी को

    जवाब देंहटाएं
  6. दीनदयाल जी के जन्म से लेकर मरण तक एवं आचार से लेकर विचार तक का बहुत ही उम्दा शाब्दिक वर्णन किया है।

    आपको साधुवाद। हम जैसे नाचीज भी पंडित दीनदयाल जी के कृतित्व व व्यक्तित्व को बहुत आसानी से समझ सकते हैं।

    जवाब देंहटाएं

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share