रविवार, 16 फ़रवरी 2020

शम्भू धारा : अमरकंटक का 'गुमनाम' आकर्षक जल प्रपात



शम्भू धारा जल प्रपात माँ नर्मदा उद्गम स्थल से तकरीबन 5 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ तक पहुँचने के लिए घने जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है। यहाँ जंगल इतना घना है कि धूप धरती को नहीं छू पाती है। ऊंचे और हरे-भरे वृक्षों के बीच से कच्चा रास्ता शम्भूधारा तक पहुँचता है। घने जंगल से होकर शम्भूधारा तक पहुँचना किसी रोमांच से कम नहीं है। अमरकंटक के अन्य पर्यटन स्थलों की अपेक्षा यहाँ कम ही लोग आते हैं। दरअसल, लोगों को इसकी जानकारी नहीं रहती। किसी मार्गदर्शक के बिना यहाँ तक आना किसी नये व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। यह स्थान बेहद खूबसूरत है। प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। यहाँ पशु-पक्षियों की आवाज किसी मधुर संगीत की तरह सुनाई देती हैं। 
          ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव के एक नाम शम्भूनाथ पर इस जल प्रपात का नाम शम्भूधारा पड़ा है। हालाँकि यह माँ नर्मदा नदी पर बना हुआ जल प्रपात नहीं है, बल्कि बरसाती नाले का झरना है, जो लगभग 35 मीटर की ऊँचाई से नीचे गिरता है। यूँ तो आप वर्षभर इस जलप्रपात को देख सकते हैं। यदि आप बारिश के मौसम में यहाँ आएंगे तो अधिक आनंद आएगा। बारिश में शम्भूधारा जलप्रपात में जलराशि बढ़ जाती है और इसका सौंदर्य चरम पर पहुँच जाता है। शम्भू धारा से ठीक पहले एक स्टॉप डेम बनाया गया है। जहाँ एकत्र जल और उसके किनारे खड़े ऊँचे-पूरे पेड़ों के कारण मनमोहक दृश्य उपस्थित होता है। मानो जलराशि को दर्पण बना कर वृक्ष अपना रूप-यौवन निहार रहे हों। 


          शम्भूधारा के आसपास निर्जन वन होने के कारण यहाँ साधु-संन्यासी धूनी भी रमाते हैं। एक स्थान हमें ऐसा मिला भी, जहाँ किसी साधु ने अपनी ध्यान-साधना के लिए शिवलिंग की स्थापना कर रखी थी और वहाँ अग्नि भी धधक रही थी। हालाँकि उस समय वहाँ कोई साधु उपस्थित नहीं था। संभवत: नगर की ओर निकल गया होगा। अंधेरा घिरने लगा था। घने जंगल में वैसे भी शाम जल्दी ढल जाती है। हमारे लौटने का वक्त हो गया था। हालाँकि, मन में एक और जलप्रपात देखने की लालसा थी, जो शम्भू धारा से आगे जाकर था। उसे फिर कभी तसल्ली से देखने का इरादा करके हम लौट पड़े। मैं नर्मदे हर सेवा न्यास में रुका था, जो शम्भू धारा से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर होगा। अपने कमरे पर लौटने के बाद तय किया कि एक बार बारिश में या फिर बारिश के बाद इस जलप्रपात को अवश्य देखूंगा। संयोग से ईश्वर ने वह अवसर दिया और मैंने दिसंबर-जनवरी में इस सुंदर झरने का आनंद लिया।

योगी की तपस्थली, शिव लिंग और धूनी 

वृक्षों के बीच से शम्भू धारा की एक झलक 

बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

भारतीय दृष्टि से ‘राष्ट्रवाद’ को परिभाषित करती पुस्तक


डॉ. सौरभ मालवीय और लोकेंद्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रवाद और मीडिया’ का विमोचन

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अध्येता डॉ. सौरभ मालवीय एवं लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रवाद और मीडिया’ का विमोचन मीडिया विमर्श की ओर से आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक सम्मान समारोह में हुआ। भोपाल स्थित गाँधी भवन में पुस्तक विमोचन के लिए मंच पर प्रख्यात समाजवादी चिन्तक रघु ठाकुर, वरिष्ठ संपादक प्रो. कमल दीक्षित, सप्रे संग्रहालय के संस्थापक विजयदत्त श्रीधर, मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के पूर्व निदेशक डॉ. उमेश कुमार सिंह, व्यंग्यकार श्री गिरीश पंकज, संपादक कमलनयन पाण्डेय, मीडिया आचार्य प्रो. संजय द्विवेदी, डॉ. बीके रीना और साहित्यकार पूनम माटिया उपस्थित रहे। 
          इस अवसर पर समाजवादी विचारक एवं लेखक रघु ठाकुर ने कहा कि एक सच्चा राष्ट्रवाद वही होगा जो सच्चा विश्ववादी होगा। अगर सभी देश अपनी सीमाओं को छोड़ने के लिए तैयार हो जाए तभी असली राष्ट्रवाद की नींव रखी जा सकती है। उन्होंने कहा कि मीडिया और राष्ट्रवाद के बीच संघर्ष की स्थिति नहीं होनी चाहिए। वहीं, प्रख्यात साहित्यकार एवं व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने पुस्तक के संबंध में कहा कि आज भारत माता की जय बोलने पर और राष्ट्रवादी शब्द का प्रयोग करने पर लोग घूरने लगते हैं। ये लोग अविलम्ब आपको दक्षिणपंथी बोल देंगे और सर्टिफिकेट दे देंगे। ऐसे समय में जब सब ओर राष्ट्रवाद की चर्चा है और कुछ मीडिया घरानों पर भी राष्ट्रवादी होने के ठप्पे लगाये जा रहे हैं, तब इस पुस्तक का प्रकाशित होकर आना अत्यधिक प्रासंगिक हो जाता है। 
           मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के पूर्व निदेशक एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. उमेश कुमार सिंह ने कहा कि भारत एक सनातन राष्ट्र है। यहाँ दृष्टि रही है, दर्शन रहा है लेकिन कभी वाद नहीं रह है। उन्होंने कहा कि कोई एक वाद इस राष्ट्र का पर्याय नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद पाश्चात्य दृष्टि का शब्द है। उन्होंने कहा कि लेखकों ने पुस्तक में भारतीय राष्ट्रवाद को सही अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया है। उन्होंने राष्ट्रवाद की जगह ‘राष्ट्रत्व’ या ‘राष्ट्रीय विचार’ शब्द का उपयोग करने पर जोर दिया है। 
          पुस्तक में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद एवं मीडिया के सम्बन्ध, मीडिया की भूमिका जैसे विषयों पर मीडिया विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तम्भकारों के महत्वपूर्ण आलेख इस पुस्तक में शामिल किये गए हैं। इस पुस्तक में प्रो. संजय द्विवेदी, संतोष कुमार पाठक, डॉ. मयंक चतुर्वेदी, डॉ. शशि प्रकाश राय, डॉ. साधना श्रीवास्तव, डॉ. मंजरी शुक्ला, डॉ. मनोज कुमार तिवारी, डॉ. मीता उज्जैन, डॉ. सीमा वर्मा, उमेश चतुर्वेदी, अमरेंद्र आर्य, अनिल पांडेय आदि के लेख शामिल हैं। यश प्रकाशन, नईदिल्ली ने पुस्तक का प्रकाशन किया है।
---
पुस्तक ऑनलाइन बिक्री के लिए उपलब्ध है... अमेजन से आप इसे खरीद सकते हैं। लिंक पर क्लिक करें...


शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

गुलाब भेंट करने का शिष्टाचार

मैं ठहरा अल्हड़ प्रेमी
प्रेम की व्याकरण में शून्य
राजा गुलाब भेंट करने का
क्या जानूं मैं शिष्टाचार।

उस रोज पता चला
रंग अलग भाव अलग
जब पहली ही मुलाकात में
थमाया तुम्हें लाल गुलाब।

प्रभु, पूरे पागल तो तुम
कुछ तो तुम सोचो-समझो
भला कौन देता-लेता है
पहले-पहल लाल गुलाब।

प्रेम करने लगा हूँ तुम्हें
इसलिए ले आया लाल गुलाब
चलो छोड़ो तुम ही बताओ अब
तुम्हें कब कौन-सा दूं गुलाब।

सीधे प्रेम पर आने से पहले
थोड़ी दोस्ती करो तुम मुझसे
जाओ, रोज गार्डन चंडीगढ़
और लेकर आओ पीला गुलाब।

फिलहाल मेरी ओर से
तुम्हारी मासूमियत के लिए
गुलाब बाग, उदयपुर से
लाई हूं यह सफेद गुलाब।

तुम रचना चाहो यदि
मेरी प्रशंसा में कुछ गीत
रोज गार्डन, ऊंटी से
लाना मुस्कुराता गुलाबी गुलाब।

सीख जाएं हम दोनों प्रेम
सम्मान-स्वाभिमान एक-दूजे का
पहुंच जाना राष्ट्रीय गुलाब बाग
चुन लाना सुर्ख लाल गुलाब।

अच्छी तरह समझ लो यह भी
जिसे करते हैं टूटकर प्रेम
उसे कभी भी, विग्रह के बाद भी
सच्चे लोग नहीं देते काला गुलाब।

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

राम तेरी दुनिया

Lokendra Singh लोकेन्द्र सिंह | Raisen Fort, Madhya Pradesh 

राम तेरी दुनिया में आकर
रंग देख रहा हूं, जीने का ढंग देख रहा हूं।
पल-पल में बदल रहे हैं लोग
रंगे सियारों का रंग देख रहा हूं।।

महंगाई सुरसा-सा मुंह फाड़ रही है
आम आदमी दाने-दाने को मोहताज देख रहा हूं।
मेहनतकश, मजदूर, गरीबों के पसीने से
अमीरों की तिजोरी में जमा धन देख रहा हूं।।

परंपराएं धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं
राक्षसी संस्कृति जन्मते देख रहा हूं।
बाजारवाद का चमत्कार है
नए-नए फर्जी त्योहार मनते देख रहा हूं।।

गजब है! दोस्त-दोस्त कहते-कहते
दुश्मनों-सा अंदाज देख रहा हूं।
पहले तो आस्तीनों में ही सांप थे
अब, खीसे में भी अजगर पलते देख रहा हूं।।

मोहब्बत का भी रंग उड़ गया है
इश्क शौकिया, बाजारू बनते देख रहा हूं।
साथ जीने-मरने की कसमें नहीं, वादे नहीं
दो पल मौज में बिताने, रिश्ते बनते देख रहा हूं।।

- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

मंजिल की तलाश में

देखें वीडियो: Manjil Ki Talash Me | मंजिल की तलाश में | Lokendra Singh


मंजिल की तलाश में
जब निकला था
तब कुछ न था पास में
न थी जमीं और न आसमां था
बस सपने बहुत थे आंख में
अब तो...
मिल गया है रास्ता
पैर जमाना सीख रहा हूं
शिखर को जो छूना है।

चलता रहा मीलों
एक आस में भूखा-प्यासा
दर-दर घूमा खानाबदोश-सा
न तो दर मिला, न दरवेश कोई
पर उम्मीद की लौ बुझने न दी मैंने
अब तो...
दिया भी है, बाती भी
बस, प्रदीप्त होना सीख रहा हूं
जहां को रोशन जो करना है।

मुकाम बनाना है एक
इस जहां में
कब, कहां और कैसे
न जानता था, न किसी ने बताया
बस, सहयात्रियों से सीखता रहा
अब तो...
चांद-तारे हैं साथ में
टिमटिमाना सीख रहा हूं
क्षितिज पर जो चमकना है।

- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)


Lokendra Singh : Gopal Bag, GovindGarh, Rewa

रविवार, 8 दिसंबर 2019

लक्ष्य

Lakshya | लक्ष्य | हार और जीत ही काफी नहीं जिंदगी में | Lokendra Singh


हार और जीत ही काफी नहीं 
जिंदगी में मेरे लिए
मीलों दूर जाना है अभी मुझे। 
निराशा के साथ बंधी 
आशा की इक डोर थामे
उन्नत शिखर की चोटी पर चढ़ जाना है मुझे। 
हार और जीत ही....

है अंधेरा घना लेकिन
इक दिया तो जलता है रोशनी के लिए
उसी रोशनी का सहारा लिए 
भेदकर घोर तमस का सीना 
उस दिये का हाथ बंटाना है मुझे। 
हार और जीत ही...

चांद पर पहुंच पाऊंगा या नहीं
ये सोच अभी नहीं रुकना है मुझे
चलता रहा विजय की उम्मीद लिए 
तो चांद पर न सही
तारों के बीच टिमटिमाना है मुझे। 
हार और जीत ही...

- लोकेन्द्र सिंह -
(काव्य संग्रह "मैं भारत हूँ" से)

Narmda River, Sethani Ghat, Hoshangabad, MadhyaPradesh / Lokendra Singh

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

बेटी के लिए कविता-8

ऋष्वी के पांचवे जन्मदिन पर
नखरे तुम्हारे 
---
सुनो, मीठी
नखरे बढ़ गए हैं तुम्हारे
ज़िद्दी पहले ही
बहुत थी तुम।
अब गुस्सा होकर
कोप भवन में बैठना
बड़ा प्यारा लगता है।

बता नहीं सकता
मनाना तुम्हें
कितना भाता है मुझे।
यह बात तो
जानती हो तुम भी
इसलिए नौटंकी तुम्हारी
मेरे घर आने पर ही
होती है शुरू।

मुझे पता है
तुम स्वभाव से
नखराली-ज़िद्दी नहीं हो।
बस बातें मनवाने
मुझसे खुशामद कराने
करती हो चालाकी तुम।
भरी है मासूमियत
सब अदाओं में।

परंतु, ध्यान रखना
मेरी प्यारी बेटी
ये ज़िद-नखरे
बुरी आदत न बन जाएं।
अन्यथा, खो जाएगा
चैन-ओ-सुकून दोनों का
रखना है बचाकर
अपनी समझदारी।