रविवार, 15 जून 2025

संघ सृष्टि में रचे-बसे लेखक की अनुभूति 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र'

पुस्तक चर्चा : RSS की कहानी-प्रचारक की जुबानी


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की ओर कदम बढ़ा रहा है। ऐसे में संघ को लेकर गहरी रुचि और जिज्ञासा सामान्य लोगों से लेकर बौद्धिक जगत में दिखायी दे रही है। संघ के संबंध में अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिन्हें विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से लिखा है। इस शृंखला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुनील आंबेकर की पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। जब संघ की सृष्टि में रचा-बसा लेखक कुछ लिखता है, तब उसे पढ़कर संघ को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। यह एक ऐसी पुस्तक है, जो लेखक की प्रत्यक्ष अनुभूति के साथ विकसित हुई है। संघ की यात्रा और विभिन्न मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण बताते हुए सुनील आंबेकर अपनी संघ यात्रा को भी रेखांकित करते हैं। यह प्रयोग संघ को व्यवहारिक ढंग से समझने में हमारी सहायता करता है। मनोगत में स्वयं लेखक सुनील जी लिखते हैं कि यह पुस्तक उनके लिए है जो व्यवहार रूप में संघ को समझना चाहते हैं, उसके माध्यम से जिसने संघ को जिया है। उल्लेखनीय है कि सुनील आंबेकर वर्तमान में संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख हैं। इससे पूर्व उनका लंबा समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को गढ़ने में बीता है। सुनील जी बाल्यकाल से स्वयंसेवक हैं। संघ के साथ उनके संबंध नैसर्गिक रूप से विकसित हुए हैं। नागपुर में उनका घर संघ मुख्यालय के पड़ोस में ही है। उनके घर का द्वार संघ कार्यालय के प्रांगण में ही खुलता था।

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ अपने पाठकों को न केवल संघ की बुनियादी जानकारी देती है अपितु ‘भविष्य के भारत’ को लेकर संघ की क्या सोच है, उस पर भी यह पुस्तक बात करती है। पुस्तक के प्रारंभिक अध्यायों में संघ की स्थापना की पृष्ठभूमि पर चर्चा है। संघ की स्थापना के उद्देश्य, उसकी आवश्यकता और उसकी कार्यप्रणाली को ठीक प्रकार से समझना है, तब हमें संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जीवन चरित्र अवश्य पढ़ना और जानना चाहिए। इस पुस्तक में भी यह उल्लेख एक से अधिक स्थानों पर आया है। डॉक्टर साहब क्रांतिकारी संगठनों में रहे, कांग्रेस में भी सक्रिय रहे। वे नागपुर में कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। डॉक्टर साहब के पास सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र का समृद्ध अनुभव था, उसी में से उनके हृदय में संघ बीज का प्रस्फुटन हुआ। सुनील जी लिखते हैं कि “डॉक्टर साहब का मानना था कि भारत की गुलामी का कारण केवल विदेशी ताकतें नहीं हैं, जिन्होंने आक्रमण किए अपितु आंतरिक कलह और मतभेद भी इसके कारण रहे हैं। एक ऐसे स्थान की आवश्यकता थी, जहाँ सब बड़े-छोटे या अन्य लोग किसी भी प्रकार के भेदभाव को भूलकर संवाद कर सकें। इसी विचार ने आगे चलकर शाखा की संकल्पना को जन्म दिया”। समर्थ गुरु रामदास और छत्रपति शिवाजी महाराज के चरित्र से समाज को संगठित करने का पाठ सीखकर डॉक्टर हेडगेवार ने एक ऐसे संगठन का निर्माण किया, जो व्यक्ति केंद्रित नहीं अपितु तत्व उसके मूल में है। 

देखिए : संघ दर्शन: अपने मन की अनुभूति | Sangh Darshan: Apne Man ki Anubhuti | लोकेन्द्र सिंह

‘संघ की मूल अवधारणाएं’ बताते हुए लेखक सुनील जी लिखते हैं- “जिन मूल केंद्रीय अवधारणाओं से संघ के विचार का जन्म हुआ, ये हैं- राष्ट्रीयता, एकात्मता और सामूहिकता”। वे आगे लिखते हैं कि “संघ के साथ जितना मेरा अनुभव रहा है, मुझे लगता है कि यह सामंजस्य, विश्वास एवं पारस्परिक आदर का भाव स्थापित करनेवाली और एकत्व स्थापित करनेवाली एक शक्ति है”। पुस्तक में अन्य स्थानों पर भी संघ की मूल अवधारणाओं की व्याख्या की गई है, उन्हें अलग-अलग ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है। संघ के बारे में एक बात सबको समझनी चाहिए कि यह कोई जड़ संगठन नहीं है। समाज के साथ बहनेवाला जीवंत संगठन है, जो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार समाज हित में अपने दृष्टिकोण को विस्तार देता है। लेकिन संघ की मूल अवधारणाएं स्थायी हैं, उनमें परिवर्तन स्वीकार्य नहीं है। जैसे- राष्ट्रीयता को लेकर संघ का स्पष्ट मत है कि यह देश ‘हिन्दूराष्ट्र’ है, संघ इसी अवधारणा के साथ जन्मा और उसी को लेकर आजतक चल रहा है। इस संबंध में पूर्व सरसंघचालक बालासाहब देवरस को उल्लेखित करते हुए वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहते हैं- “जब हमसे पूछा जाता है कि यह कैसे हुआ, वह कैसे हुआ? हमने पहले वैसा कहा था, अब ऐसा क्यों कह रहे हैं? इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बालासाहब ने कहा था कि देखो भाई, हिन्दुस्थान हिन्दूराष्ट्र है, इस एक बात को छोड़कर बाकी सब बदल सकता है, क्योंकि हिन्दुस्थान हिन्दूराष्ट्र है यह किसी के दिमाग की उपजी हुई बात नहीं है। श्री आंबेकर पुस्तक में एक स्थान पर लिखते हैं कि संघ का विचार स्पष्ट और सरल है बेशक कई विद्वानों ने संघ पर कई गहन एवं जटिल ग्रंथ लिखे हैं किंतु केंद्रीय अथवा मूल विचार एक ही है- “अच्छे बनो और उस अच्छाई को दूसरों की भलाई के कार्य करते हुए समाज में प्रकट करो”।

संघ की शाखा क्या है, संघ किस प्रकार काम करता है, संगठन की रचना किस प्रकार की है? ये ऐसे प्रश्न हैं, जो उन सबके मन में रहते हैं जो संघ को समझना चाहते हैं। इस सबका उत्तर पुस्तक में मिलता है। वहीं, आजकल बहुत से नेता एवं तथाकथित बुद्धिजीवी भ्रम का वातावरण बनाने के लिए और संघ के प्रति लोगों के मन में संदेह पैदा करने के कपटपूर्ण उद्देश्य से एक प्रश्न उछालते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में संघ का क्या योगदान रहा है? इसका भी तथ्यापूर्ण उत्तर पुस्तक में हमें मिलेगा। बहुत कम लोग हैं जो यह जानते हैं कि संघ का स्वयंसेवक बनने के बाद स्वयंसेवक एक प्रतीज्ञा करते हैं और उसे बार-बार स्मरण करते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व उस प्रतिज्ञा में एक पंक्ति आती थी- मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए संघ का स्वयंसेवक बना हूँ। अब चूँकि स्वतंत्रता मिल गई तो ‘हिन्दू राष्ट्र की स्वाधीनता’ का स्थान ‘हिन्दू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति’ ने ले लिया। यह एक पंक्ति-एक तथ्य ही, एक अदने से प्रश्न का विराट उत्तर है। इसके बाद भी अन्य तथ्य भी हमारे सामने पुस्तक में आते हैं, जो बताते हैं कि संघ के स्वयंसेवक न केवल आंदोलन में शामिल रहे अपितु उन्होंने बलिदान भी दिया। जेल की सजा भी काटी। जब पहली बार कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया, तब संघ ने अपनी सभी शाखाओं पर 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाने और प्रभात फेरी निकालने का निर्णय लिया। 

देखिए : स्वतंत्रता आंदोलन में संघ की भूमिका

कुछ मूढ़मति हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व की मनमानी व्याख्याएं करते हैं। यह लोग हिन्दुत्व को संघ की उपज मानकार, संघ को खारिज करने के साथ-साथ एक नैसर्गिक चिंतन ‘हिन्दुत्व’ को भी खारिज करने की कोशिशें करते हैं। पांचवे अध्याय ‘हिन्दुत्व का पुनरोदय’ में लेखक श्री आंबेकर जी ने इस पर विस्तार से चर्चा की है। वह लिखते हैं कि हिन्दुत्व शब्द का सर्वप्रथम उपयोग 1880 में चंद्रनाथ बसु ने किया, जो एक उप-न्यायाधिकारी एवं लेखक थे। ‘हिन्दुत्व’ नाम से 1892 में लिखी अपनी पुस्तक में बसु ने हिन्दू धर्म के अंतर्गत समाहित विभिन्न दर्शनों एवं राजनीतिक चिंतन का वर्णन किया है। यहाँ वह स्पष्ट करते हैं कि हिन्दुत्व शब्द संघ के चिंतन से नहीं जन्मा बल्कि वह तो जीवन जीने की आदर्श पद्धति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है। वे लिखते हैं कि “संघ का विश्वास है कि हिन्दुत्व ज्ञान का ऐसा भंडार है, जिसमें विश्व के सामने मुँह बाए खड़ी सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरण संबंधी समस्याओं के समाधान के मंत्र हैं तथा भारत में व्याप्त अनेक कुरीतियों के उपचार विद्यमान हैं”। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दुत्व राजनीति के लिए नहीं है, यह तो समूची मानवता के कल्याण के लिए है। इसके बाद भी यदि कोई हिन्दुत्व की गलत व्याख्याएं करता है, तब यही मानना चाहिए कि हिन्दू धर्म के प्रति उसके मन में मैल है। 

कला-संस्कृति, इतिहास, राजनीति, हिन्दुत्व, जातिगत भेदभाव, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तिकरण, वैश्विक मुद्दे-आंदोलन, पर्यावरण और परिवार जैसे ज्वलंत विषयों पर भी संघ के दृष्टिकोण को लेकर अपनी पुस्तक में लेखक ने पर्याप्त चर्चा की है। हम जानते हैं कि संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक भारत को परम-वैभव पर देखना चाहता है। वह प्रतिदिन संघ स्थान पर भगवा ध्वज के सामने खड़े होकर प्रार्थना को मंत्र रूप में गाता है और अपने इस संकल्प का घोष करता है। इस संकल्प का विस्तार ही सुनील आंबेकर की पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ है। यह पुस्तक मूल रूप में अंग्रेजी में ‘द आरएसएस : रोडमैप फॉर द 21 सेंचुरी’ नाम से प्रकाशित हुई थी, जिसके विमोचन अवसर पर बहुत ही सारगर्वित उद्बोधन सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी का हुआ था। उनका यह उद्बोधन हिन्दी अनुवाद में ‘प्रस्तावना’ के रूप में शामिल किया गया है। पुस्तक का अनुवाद डॉ. जितेन्द्र वीर कालरा ने किया है। अनुवाद इतना सहज-सरल है कि कहीं भी विषय का प्रवाह बाधित नहीं होता है। 272 पृष्ठों की इस पुस्तक का प्रकाशन प्रभात प्रकाशन, दिल्ली ने किया है। संघ की संरचना और उसकी चिंतन प्रक्रिया को समझने में यह पुस्तक बहुत उपयोगी है।

पुस्तक : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र

लेखक : सुनील आंबेकर

मूल्य : 250 रुपये (पेपर बैक)

पृष्ठ : 272

प्रकाशक : प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली

देखिए : संघ का राजनीति से क्या है संबंध, जानिए

सोमवार, 9 जून 2025

भारत के स्वराज्य की हुंकार : हिन्दू साम्राज्य दिवस

वीडियो देखें : हिन्दू साम्राज्य दिवस का महत्व | Hindu Samrajya Divas


छत्रपति शिवाजी महाराज भारत की स्वतंत्रता के महान नायक हैं, जिन्होंने ‘स्वराज्य’ के लिए संगठित होना, लड़ना और जीतना सिखाया। मुगलों के लंबे शासन और अत्याचारों के कारण भारत का मूल समाज आत्मदैन्य की स्थिति में चला गया था। विशाल भारत के किसी न किसी भू-भाग पर मुगलों के शोषणकारी शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष तो चल रहा था लेकिन उन संघर्षों से बहुत उम्मीद नहीं थी। भारत के वीर सपूत अपने प्राणों की बाजी तो लगा रहे थे लेकिन समाज को जागृत और संगठित करने का काम नहीं कर पा रहे थे। जबकि छत्रपति शिवाजी महाराज ने समाज के भीतर विश्वास जगाया कि हम मुगलों के शासन को जड़ से उखाड़कर फेंक सकते हैं, यदि सब एकजुट हो जाएं। यही कारण है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के देवलोकगमन के बाद भी ‘हिन्दवी स्वराज्य’ का विचार पल्लवित, पुष्पित और विस्तारित होता रहा। ‘हिन्दू साम्राज्य दिवस’ या ‘श्रीशिव राज्याभिषेक दिवस’ भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना ने दुनिया को बताया कि भारत के भाग्य विधाता मुगल नहीं हैं। भारत का हिन्दू समाज ही भारत का भाग्य विधाता है। भारत में हिन्दुओं का राज्य है। उनके शासन का नाम है- ‘हिन्दवी स्वराज्य’।

साक्षात्कार : छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य की चर्चा | Discussion on Hindvi Swarajya Darshan

विक्रम संवत 1731, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी (6 जून, 1674) को स्वराज्य के प्रणेता एवं महान हिन्दू राजा श्रीशिव छत्रपति के राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से भारतीय इतिहास को नयी दिशा मिली। दासता के घोर अंधकार में स्वराज्य की एक चमकदार रोशनी था- हिन्दवी स्वराज्य। हिन्दू साम्राज्य दिवस को हम भारत के स्वराज्य की हुंकार भी कह सकते हैं, जब हिन्दुओं ने आत्मविश्वास से सीना ठोंककर मुगलों को ललकारा और कहा कि भारत में एक बार फिर स्वराज्य की स्थापना हो गई है, जिसमें सबका कल्याण है। अनेक इतिहासकार एवं विद्वान कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना न की होती, तो भारत का इतिहास कुछ और होता। यह अतिशयोक्तिपूर्ण विचार नहीं है। अपितु भारत के पड़ोसी देशों एवं दूर-दराज के उन देशों की स्थिति को देखकर सहज कल्पना की जा सकती हैं, जहाँ मूल समाज की अपेक्षा बाहरी आक्रांताओं का शासन स्थायी हो गया। ऐसे देशों में वहाँ के मूल समाज की संस्कृति लगभग समाप्त हो गई है। हम कल्पना ही कर सकते हैं कि जिस प्रकार के अत्याचार मुगल शासक भारत में कर रहे थे, उसके बाद हिन्दू समाज किस स्थिति को प्राप्त होता। 

देखें : लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' पर चर्चा एवं विमोचन

प्रसिद्ध मराठा इतिहासकार जीएस सरदेसाई ने लिखा है कि “मुस्लिम शासन के अधीन पूर्ण अंधकार छाया हुआ था। न कोई पूछताछ होती थी, न न्याय मिलता था। अधिकारी जो चाहें, वही करते थे। स्त्रियों के सम्मान का हनन, हत्याएं, हिंदुओं का जबरन धर्म परिवर्तन, उनके मंदिरों का विध्वंस, गायों का वध- ऐसे घिनौने अत्याचार उस शासन में आम बात थे। निजामशाही ने तो खुलेआम जीजाबाई के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की हत्या कर दी थी। फलटन के बजाजी निंबालकर को जबरन मुसलमान बनाया गया। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं। हिंदू सम्मानजनक जीवन नहीं जी सकते थे। यही बातें थीं, जिन्होंने शिवाजी के भीतर धर्मसम्मत क्रोध जगा दिया। विद्रोह की प्रबल भावना ने उनके मन को पूरी तरह घेर लिया। उन्होंने तुरंत कार्य आरंभ कर दिया। उन्होंने मन ही मन सोचा, जिसके हाथ में शस्त्र की शक्ति है, उसे कोई भय नहीं होता, कोई कठिनाई नहीं आती”। औरंगजेब का शासन तो हिन्दुओं के लिए किसी नर्क से कम नहीं था। 

देखें : हिन्दवी स्वराज्य दर्शन पर युवा पत्रकार कृष्ण मुरारी अटल के साथ विशेष चर्चा

मुगलों के अनीतिपूर्ण शासन के बरक्स छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित स्वराज्य में लोकहित सर्वोपरि था। उन्होंने शासन को ‘स्व’ के आधार पर विकसित किया, इसलिए वह सबका अपना स्वराज्य था। महाराज ने राज्य के प्रत्येक तत्व यानी जल, जंगल, जमीन और जन के लिए नीतियां बनायीं। भारत की संस्कृति का संरक्षण किया। हिन्दू धर्म और उसके पवित्र स्थलों को प्राथमिकता दी। आज भी हम हिन्दू साम्राज्य को याद करते हैं, उसका कारण है कि वह सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक है। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि “शिवाजी के राजनीतिक आदर्श ऐसे थे जिन्हें हम आज भी बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर सकते हैं। उनका उद्देश्य था अपने प्रजा को शांति देना, सभी जातियों और धर्मों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना, एक कल्याणकारी, सक्रिय और निष्पक्ष प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करना, व्यापार को बढ़ावा देने के लिए नौसेना का विकास करना और मातृभूमि की रक्षा के लिए एक प्रशिक्षित सेना तैयार करना”। छत्रपति शिवाजी महाराज की नीतियों पर चलकर हम आज भी एक श्रेष्ठ भारत का निर्माण कर सकते हैं। यह देखना सुखद है कि देश में ऐसी सरकार है, जो छत्रपति की स्वराज्य की अवधारणा में विश्वास करती है, उनको अपना आदर्श मानती है और उनके बनाए मार्ग पर चलने का प्रयास करती है। 

सुनिए : छत्रपति शिवाजी महाराज पर साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे का प्रेरक उद्बोधन


हिन्दू साम्राज्य दिवस के प्रसंग पर 9 जून 2025 को स्वदेश ज्योति में प्रकाशित यह लेख

शुक्रवार, 6 जून 2025

सबका स्वागत करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

अपने कार्यक्रमों में विभिन्न विचारों के महानुभावों को आमंत्रित करने की संघ की परंपरा, नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग 'कार्यकर्ता विकास वर्ग-2' के समापन समारोह में बतौर मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध जनजातीय नेता अरविंद नेताम आमंत्रित

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सबके लिए खुला संगठन है। इसके दरवाजे किसी के लिए बंद नहीं है। कोई भी संघ में आ सकता है। कोई विपरीत विचार का नेता, सामाजिक कार्यकर्ता या विद्वान व्यक्ति जब संघ के कार्यक्रम में शामिल होता है, तब उन लोगों को आश्चर्य होता है, जो संघ को एक ‘क्लोज्ड डोर ऑर्गेनाइजेशन’ समझते हैं। जो संघ को समझते हैं, उन्हें यह सब सहज ही लगता है। इसलिए नागपुर में आयोजित संघ शिक्षावर्ग ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-2’ के समापन समारोह में जब मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के जनजाति वर्ग के कद्दावर नेता अरविंद नेताम को आमंत्रित किया गया, तब संघ को जाननेवालों को यह सहज ही लगा लेकिन संघ के प्रति संकीर्ण सोच रखनेवाले इस पर न केवल हैरानी व्यक्त कर रहे हैं अपितु वितंडावाद भी खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, उनके वितंडावाद की हवा स्वयं जनजातीय नेता अरविंद नेताम ने यह कहकर निकाल दी कि “वनवासी समाज की समस्याेओं और चुनौतियों को संघ कार्यक्रम के माध्याम से रखने का सुअवसर मुझे मिला है”। उन्होंने संघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह भी की है कि “इस संगठन में चिंतन-मंथन की गहरी परंपरा है। भविष्य में जनजातीय समाज के सामने जो चुनौतियां आनेवाली हैं, उसमें आदिवासी समाज को जो संभालनेवाले और मदद करनेवाले लोग/संगठन हैं, उनमें हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मानते हैं”। सुप्रसिद्ध जनजातीय नेता अरविंद नेताम श्रीमती इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव सरकार में मंत्री रहे हैं। उल्लेखनीय है कि संघ के कार्यक्रमों में महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और जय प्रकाश नारायण से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी एवं प्रणब मुखर्जी तक शामिल हो चुके हैं। संघ ने कभी किसी से परहेज नहीं किया। संघ अपनी स्थापना के समय से ही सभी प्रकार के मत रखनेवाले विद्वानों से मिलता रहा है और उन्हें अपने कार्यक्रमों में आमंत्रित करता रहा है।