शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना के हथियार और उनकी विशेषताएं

रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता का मंत्र देनेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज

सिंहगढ़ किले पर तानाजी मालुसरे और अन्य मावलों की अलग-अलग हथियारों के साथ प्रतिमाएं बनी हुई हैं।

एक उन्नत राष्ट्र के लिए रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। शासन में ‘स्व बोध’ की स्थापना करनेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज ने रक्षा उत्पादन में भी स्वदेशी के महत्व को स्थापित किया। उन्होंने पैदल सैनिकों के हथियारों से लेकर नौसेना के लिए लड़ाकू जहाज तक स्वदेशी तकनीक पर तैयार कराए थे। सैन्य उपकरणों एवं हथियारों के निर्माण में छत्रपति की दृष्टि अत्यंत सूक्ष्म थी, वे देश-काल-परिस्थिति को ध्यान में रखकर हथियारों के डिजाइन को अंतिम रूप देते थे। छत्रपति ने विदेशी नौकाओं एवं जहाजों की होड़ करके वैसे ही बड़े जहाज नहीं बनवाए बल्कि उन्होंने अपने समुद्री तटों पर तेजी से चलनेवाली छोटी नौकाओं पर जोर दिया। इन्हीं छोटी लड़ाकू नौकाओं ने अंग्रेजों, पुर्तगालियों और मुगलों के हथियारों से सुसज्जित सैन्य जहाजों को हिन्द महासागर के किनारे पर डुबो दिया था। हिन्दवी स्वराज्य की नौसेना के बेड़े में बड़े आकार के जहाज भी शामिल थे। 

हिन्दवी स्वराज्य की सेना के पास अलग-अलग प्रकार के अस्त्र-शस्त्र थे। इनमें से कई अस्त्र ऐसे थे, जिनके निर्माण एवं उपयोग का श्रेय छत्रपति शिवाजी महाराज को जाता है। महाराज की सेना की यह ताकत थी कि उनके पास ऐसे अस्त्र-शस्त्र रहते थे, जिनकी कोई पूर्व जानकारी शत्रुसेना को नहीं होती थी। उन शस्त्रों से बचने का उपाय भी शुत्र सैनिक नहीं कर पाते थे। ऐसा ही एक शस्त्र था- बाघनखा, जिससे छत्रपति शिवाजी महाराज ने बीजापुर सल्तनत के आदिलशाही वंश के सेनापति अफजल खान का पेट चीरकर उसे मृत्यु के द्वार पहुँचा दिया था।

बाघनख से छत्रपति शिवाजी महाराज ने दुष्ट आतातायी अफजल खान का पेट फाड़ दिया था

‘बाघनखा’ ऐसा हथियार है, जिसे अंगुलियों के पोर में सटीक बैठने के हिसाब से बनाया जाता है। इसमें बाघ के नाखूनों की तरह तेज धारवाले चार-पांच लोहे के नख होते हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज के मावलों द्वारा उपयोग में लाए जानेवाले कुछ प्रमुख शस्त्रों के नाम इस प्रकार हैं- कट्यार (कटार), खंजीर, गदा, गोफण, तलवार, तिरकमठा (धनुष-बाण), दगडधोंडे, दांडपट्टा, बरची, बिचवा, भाला (विभिन्न प्रकार के भाले) इत्यादि। हिन्दवी स्वराज्य के योद्धा भाला और कुरहाड़ जैसे कई तरह के हथियार प्रयोग में लाते थे। 

गुर्ज– लोहे की गदा जैसा था, जिस पर कीलें उभरी होती थीं। इससे उस योद्धा पर वार किया जाता था, जिसने सिर पर टोप और शरीर पर कवच पहन रखा हो। 

मदु– हैंडल वाला कवच था, जिसके दोनों ओर से हिरण की तरह सींग निकले होते थे। बिछवा– दोधारी, एस के आकार की कटार थी जो दिखने में बिच्छू जैसी लगती थी।

मुगलों से मुकाबला करने के लिए हथियार भी उच्च कोटि के चाहिए। इस बात को समझ-बूझकर छत्रपति शिवाजी महाराज हथियारों के निर्माण पर खूब ध्यान देते थे। आज भी किसी देश की सैन्य शक्ति का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि उनके पास कितने घातक हथियार हैं। हथियार निर्माण के कार्य में छत्रपति कुशल कारीगरों को नियोजित करते थे। हथियार निर्माण करनेवालों को महाराज विशेष निर्देश देते थे। उन्होंने तलवार की धार के तीखेपन और मूठों के बारे में कड़े निर्देश दे रखे थे। अपनी पुस्तक ‘नियति को चुनौती’ में मेधा देशमुख-भास्कर लिखती हैं कि शिवाजी महाराज तलवार की मूठ भी एक खास आकार में बनवाते थे। मूठ पर बेहतर पकड़ के लिए उन पर अच्छा और गद्देदार कपड़ा मढ़वाया जाता। तलवार की धार को भारी बनाने के लिए मूठ के पास वाले हिस्से में और अधिक धातु लगाई जाती थी। इस तरह गुरुत्वाकर्षण का केंद्र मूठ के पास आ जाता यानी तलवार पकड़ने वाले के हाथ के पास आ जाता। 

हिन्दवी स्वराज्य के मावले युद्ध में कई तरह की तलवारों का प्रयोग करते थे। धोप तलवार लगभग चार फीट लंबी होती थी। इससे घोड़े पर सवार योद्धा पैदल सैनिक को मार सकता था। धार का निचला हिस्सा इतना तेज था कि उससे आसानी से किसी को चीरा जा सकता था। ऊपरी धार पिपला भी आसानी से मांस को चीर सकती थी। अगर शत्रु तलवार के वार से बच जाता तो उसके पिछले वार से नहीं बच पाता था। मूठ के कोने को भी इतना तीखा बनाया जाता था कि वह किसी को भी मारने के लिए काफी थी। अगर शत्रु बहुत पास होता तो मूठ को इस तरह पकड़ा जा सकता था कि तलवार को कटार की तरह प्रयोग में लाया जा सके।

दांडपट्टा तलवार चार फीट से ज्यादा लंबी होती थी उसे तोड़ना या मोड़ना आसान नहीं था। इसका आर्म–गार्ड तलवारबाज की बाजू को कोहनी तक छिपाए रखता था। इस तरह तलवार उसके हाथ का ही हिस्सा बन जाती। एक बार उसे हाथ में जमाने के बाद अपनी बाजुओं का पूरा जोर लगाया जा सकता था। यह दूसरी तलवारों की तरह नहीं थी, इसका हैंडलबार सीध में नहीं था। इस तरह यह क्षितिज की समानांतर दिशा में वार करने वाला हथियार बन जाता था। तलवारबाज अक्सर एक हाथ में तलवार और दूसरे में ढाल लेते थे पर पट्टा तलवारबाज दोनों हाथों में तलवार लेते थे। कुछ लोग कुल्हाड़ों का भी प्रयोग करते थे। बाजी प्रभु देशपांडे, तानाजी मालुसरे, मुरारबाजी देशपांडे और छत्रपति शिवाजी को भी पट्टा तलवार चलाने में महारत हासिल थी। सिनेमाघरों में प्रदर्शित फिल्म ‘छावा’ में छत्रपति शंभूराजे को हम एक दृश्य में दांडपट्टा चलाते हुए देख सकते हैं।

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