भा रतीयों के लिए खुशी की बात है कि उनका प्रधानमंत्री दुनिया से हिन्दी में बात कर रहा है। हिन्दी के सौंदर्य, सौम्यता और समृद्धि से दुनिया को परिचित करा रहा है। विदेशी भाषा में बोलने वाले भारत का सिर, अब स्वाभिमान से थोड़ा ऊंचा हुआ है। अपनी भाषा में संवाद करके वह गौरव का अनुभव कर रहा है। अपनी जुबान पाकर वह सबसे खुलकर हंस-बोल रहा है। हिन्दी के प्रति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आग्रह प्रसंशनीय और सराहनीय है। उनका स्वागत है, वंदन है। वे महज हिन्दी के ही हामी नहीं हैं, भारतीय भाषाओं के संरक्षण-संवर्धन की भी उन्हें चिंता है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं का सम्मान अंग्रेजी को टा-टा बाय-बाय बोले बिना संभव नहीं है। लम्बे अरसे बाद देसीपन की महक समेटकर चलने वाले प्रधानमंत्री के कारण सरकार की सभी महत्वपूर्ण वेबसाइट हिन्दी में अपडेट होना शुरू हो गईं हैं। सोशल मीडिया पर नेताओं और मंत्रियों ने भी अपनी निज भाषा में चहकना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री ने तो पूरी तैयारी कर ली है कि वे दुनिया से अब सिर्फ हिन्दी में ही बात करेंगे। शपथ ग्रहण समारोह में आए विभिन्न देशों के राजनयिकों से हिन्दी में बात करके उन्होंने हिन्दी को सम्मान दिलाने की शुरुआत कर दी थी। अब विदेशी दौरों पर भी वे अपने प्रण का पालन कर रहे हैं। नेपाल, भूटान और अब जापान में सबसे हिन्दी में बात की है। अंग्रेजी भाषी अमरीका से भी बुलावा उन्हें आ चुका है, वहां भी वे हिन्दी में ही बात करेंगे, यह भरोसा है।
यह मान लिया गया है अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है। जबकि वास्तविकता यह नहीं है, यह तो महज एक भ्रम है। दुनिया से संवाद करने के लिए यह एकमात्र खिड़की भी नहीं है। दुनिया में तमाम देश हैं जहां बहुत पढ़े-लिखे लोग भी अंग्रेजी में अंगूठाछाप हैं, उन्हें अंग्रेजी की जरूरत भी नहीं है। अच्छी अंग्रेजी बोलने में सक्षम नरेन्द्र मोदी ने भी यही साबित करने का प्रयास किया है कि संवाद करने के लिए भाषा का कोई बंधन नहीं है। आप अपनी भाषा में बोलिए, लोग सुनेंगे और मानेंगे भी। दुनिया सम्मान भी करेगी कि आप अपनी भाषा में संवाद करते हैं, आपकी अपनी बोली है, दुनिया से संवाद करने के लिए आप किसी और की भाषा के मोहताज नहीं। अपनी भाषा से परहेज और अंग्रेजी भाषा से प्रेम के कारण भारत को कई बार अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ा है। विजयलक्ष्मी पण्डित जब राजदूत का पद ग्रहण करने रूस गईं थी तब अंग्रेजी में लिखे उनके परिचय-पत्र को स्तालिन ने उठाकर फेंक दिया था। स्तालिन ने विजयलक्ष्मी पण्डित से पूछा था कि क्या आपकी अपनी कोई भाषा नहीं है? दुनियाभर में तमाम देश हैं, जहां उनकी मातृभाषा ही संवाद और कामकाज की भाषा है। यहूदी तो अपनी भूमि-भाषा दोनों खो चुके थे लेकिन मातृभूमि और मातृभाषा से अटूट प्रेम का ही परिणाम था कि यहूदियों ने अपनी जमीन (इजराइल) भी वापस पाई और अपनी भाषा (हिब्रू) को भी जीवित किया। करीब सवा सौ साल पहले तक फिनलैंड के निवासी स्वीडी भाषा का इस्तेमाल करते थे लेकिन एक दिन उन्होंने तय किया कि अपनी भाषा को सम्मान देंगे। तभी से फिनी भाषा में वहां सारा कामकाज चल रहा है। इसी तरह जार के जमाने में रूस में फ्रांसीसी भाषा का दबदबा था। लेकिन अब वहां रूसी भाषा सर्वोपरि है। शिक्षा, व्यापार, अनुसंधान-आविष्कार अपनी भाषा में संभव ही नहीं बल्कि अधिक सहज भी है, यह इन देशों ने साबित करके दिखा दिया है। लेकिन, स्वतंत्रता के ६० साल बाद तक भी अंग्रेजी के मोहपाश में फंसे हम भारतीय यह ही समझते रहे कि यही एकमात्र भाषा है जो हमारा कल्याण कर सकती है। वर्ष १९५९ में भारतीय संसद में एक दु:खद प्रकरण हुआ। संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अहिन्दी भाषी राज्यों को यह आश्वासन दे दिया कि जब तक ये राज्य चाहेंगे संघ के कार्यों में अंग्रेजी का रुतबा कायम रहेगा। अपनी भाषा को स्थापित करने की जगह हमने स्वार्थों और वोट बैंक की दूषित राजनीति के कारण भाषाई विवाद खड़े कर दिए। आपसी झगड़े के कारण अंग्रेजी धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं के माथे पर चढ़ गई और उनके वजूद के लिए खतरा बन गई है। मजबूत इरादों वाले नरेन्द्र मोदी से उम्मीद है कि वे राजभाषा में संसोधन कराएंगे और हिन्दी को उसका हक दिलाएंगे। हिन्दी को सिंहासन पर बैठाने के लिए आम सहमति बनाने के लिए भी नरेन्द्र मोदी प्रयास करेंगे, ऐसी उनसे उम्मीद है, वे यह कर सकते हैं।
यह स्पष्ट कर देना उचित है कि अंग्रेजी से किसी को दिक्कत नहीं है। भाषाएं जितनी भी सीखी जाएं, अच्छा ही है। दिक्कत तो अंग्रेजियत से है। अंग्रेजी भाषा के साथ जो अंग्रेजियत जुड़ी है, उससे सबसे अधिक नुकसान हो रहा है। महज दो प्रतिशत अंग्रेजी बोलने वाले अंग्रेजीदां लोगों के कारण अन्य भारतीयों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। सरकार-व्यवस्था में इन अंग्रेजीदां लोगों का वर्चस्व है। काले अंग्रेजों ने अंग्रेजी को इतना महिमामंडित कर रखा है कि हिन्दी अपने ही देश में दोयम दर्जे की भाषा हो गई है। अंग्रेजी महारानी हो गई, महारानी हिन्दी दासी हो गई। अंग्रेजीदां लोगों द्वारा हिन्दी भाषियों के अपमान-उपहास की घटनाएं अकसर सामने आती रही हैं। कॉन्वेंट स्कूलों में हिन्दी भाषी बच्चों को मानसिक तौर पर प्रताडि़त किया जाना आम बात है। कॉन्वेंट स्कूलों में अंग्रेजी नहीं बोलने पर 'मैं हिन्दी बोलता हूं, मैं गधा हूं' लिखी तख्तियां मासूम बच्चों के गले में लटका दी जाती हैं। चाय-समोसा बेचने वाले साधारण आदमी पर भी अंग्रेजी का इतना दबाव है कि वह 'चिल्लर या खुल्ले पैसे' नहीं बल्कि 'चेंज' मांगता है। आज के 'कूल डूड' को पैंतालीस समझ नहीं आता, उन्हें तो बस 'फोर्टीफाइव' ही मामूल है। 'हाय-हैल्लो' कहने वाले उनके 'फास्टफ्रेंड' हैं, नमस्ते से स्वागत करने वाले को ये 'एटीट्यूड' दिखाते हैं। अंग्रेजी परवरिश में पले-बढ़े ये नौजवान हिन्दी परिवार से आए युवाओं के सामने ऐसा माहौल खड़ा कर देते हैं कि मजबूरन उन्हें भी 'राम-राम' की जगह 'गुड मोर्निंग' कहना पड़ता है। अंग्रेजी के दबाव में हिन्दी भाषी युवाओं की स्थिति यह हो जाती है कि उन्हें अंग्रेजी में एक वाक्य भी शुद्ध बोलना भले न आता हो लेकिन ये सेव को 'एप्पल', भिण्डी को 'लेडीज फिंगर', कुत्ते को 'डॉगी' और रूमाल को 'हैंकी' जरूर कहते हैं। यह सब अंग्रेजी के वर्चस्व का ही प्रतीक तो है। यह सर्वमान्य सत्य है कि व्यक्ति अपनी भाषा में अधिक रचनात्मक हो सकता है, अधिक शिक्षा प्राप्त कर सकता है, सीख सकता है और समझ सकता है लेकिन भारतीय शिक्षा संस्थानों में स्थिति उलट है। उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का बोलबाला है। निश्चित ही शिक्षा संस्थानों में हिन्दी की अनदेखी का खामियाजा भारत उठा रहा है।
भारतीय भाषाओं और उन्हें जीने वाले देसी लोगों को अंग्रेजी के आगे झुकना नहीं पड़े, अंग्रेजी के कारण रुकना नहीं पड़े, अंग्रेजी के कारण शर्मिंदा नहीं होना पड़े बल्कि अपनी मातृभाषा में संवाद करने के लिए दूसरों को भी प्रेरित करने के भाव को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, हिन्दी के अच्छे दिन लाकर वे भारतीयों का स्वाभिमान तो जगा ही रहे हैं, गुलामी की खुरचन को भी साफ करने की कोशिश कर रहे हैं। वर्ष २०१३ में एक सर्वेक्षण में खुलासा किया गया था कि २०६० तक अंग्रेजी से आगे निकल जाएगी हिन्दी। कारण, हिन्दी सर्वसमावेशी है। हिन्दी के पास भारतीय भाषाओं और बोलियों की अपार संपदा है। कई भाषाओं से नए-नए शब्दों को स्वीकार करने के कारण हिन्दी समय के साथ और अधिक समृद्ध होती जा रही है। भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण ने पहली बार यह सर्वेक्षण कराया था। हिन्दी के लिए लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जज्बे को देखकर तो लगता है अंग्रेजी के भूत को भगाने का यह सपना २०६० नहीं बल्कि उससे कहीं पहले पूरा हो जाएगा। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लिए काम कर रहे योद्धाओं के साथ ही आमजन को भी प्रधानमंत्री के साथ हो लेना चाहिए। अपने आम जीवन में हमें हिन्दी के उपयोग को बढ़ा देना चाहिए। यह बहुत आसान है। अपने बच्चे को 'काऊ को रोटी खिलाना' नहीं सिखाएं बल्कि उसे 'गाय को रोटी खिलाना' ही सिखाएं। हस्ताक्षर हिन्दी में करें। बैंक में धन निकासी की पर्ची हिन्दी में भरने का अभ्यास करें। अगर आपकी दुकान-मकान पर नाम पट्टिका अंग्रेजी में है तो उसे बदलकर हिन्दी में कर दें। घर के बाहर 'वेलकम' की जगह 'सुस्वागत' लिखें। अभिवादन भारतीय परंपरा से करें। आपसी संवाद हिन्दी में करें। निमंत्रण-पत्र हिन्दी में ही छपवाएं। ऐसे अनेक छोटे-छोटे प्रयोग हैं, जिनकी मदद से हम अपने स्तर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हो सकते हैं। हिन्दी को ही नहीं वरन सभी भारतीय भाषाओं के सम्मान को लौटा सकते हैं। सार्थक बदलाव का छोटा प्रयास भी बड़ा आंदोलन बन जाता है इसलिए आप आगे तो आइए। गौरवशाली भारत के 'शक्तिशाली' प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हौसला बढ़ाइए।
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हिन्दी का गौरव बढ़ा रहे हैं प्रधानमंत्रीजी। वे हिन्दी का ही गौरव नहीं बढ़ा रहे हैं अपितु देश का और यहाँ की संस्कृति को भी स्थापित कर रहे हैं। उनका एक कदम भारतीयों के सवा सौ करोड़ के बराबर है। हमें गर्व है ऐसे प्रधानमंत्री को पाकर।
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