सोमवार, 24 सितंबर 2018

सहिष्णुता और सादगी से प्रश्न करती ‘हम असहिष्णु लोग’

- सुदर्शन वीरेश्वर प्रसाद व्यास
‘हम असहिष्णु लोग’...यकीनन, पुस्तक के शीर्षक से यह तो पूर्व में ही आभास हो जाता है कि लेखक इस पुस्तक के पाठकों से प्रत्यक्ष संवाद के साथ ही एक अप्रत्यक्ष संवाद उन लोगों से भी करना चाहते हैं जो एक विचारधारा (वर्ग) विशेष के प्रति ‘असहिष्णु’ शब्द की रट लगाए बैठे हैं। हालांकि, पुस्तक चर्चा से पूर्व हमें यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि असल में इस ‘असहिष्णु’ शब्द के मायने क्या हैं? देशभर के ख्यातिलब्ध विद्वानों ने इस शब्द को अपने हिसाब से विभिन्न परिभाषाओं में गढ़ा है, किसी का मानना है कि दूसरे धर्म या विचार से असहमति ही असहिष्णुता है, कोई कहता है कि अनायास क्रोधित होकर तेश में आना असहिष्णुता है, किसी का मानना है दूसरों की आवाज़ दबाकर अपनी आवाज़ बुलन्द करना असहिष्णुता है तो किसी का मानना है कि जो पसन्द न हो, उसे बर्दाश्त करना असहिष्णुता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो जो व्यक्ति को निजी तौर पर पसंद ना हो, उसके खिलाफ जाना या उसे बर्दाश्त ना कर पाना असहिष्णुता है। इसके अतिरिक्त किसी के विचारों से सहमत न हो पाना तथा बिना किसी कारण के उनकी काट करना (सिरे से नकारना) असहिष्णुता का प्रतीक है। या कहें कि उसे सहन ना करना, जो अपने से भिन्न हो, फिर चाहे वह धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, नस्लीय हो या किसी अन्य प्रकार से भिन्न हो, उसे बर्दाश्त ना करना असहिष्णुता कहलाती है। असहिष्णुता को अंग्रेजी में इनटॉलरेंस (Intolerance) कहा जाता है।
          भारतीय संस्कृति के संदर्भ में यदि बात करें, तो यह शब्द इस देश के लिए एकदम नया सा है, क्योंकि ये वो देश है जहां पुरातनकाल से मानवों से इतर नदी, पहाड़, पौधे वृक्ष, सागर, पक्षी, नाग यहां तक कि पशुओं को भी देवतुल्य माना गया है। जिस संस्कृति में यह निहित हो कि घर में बनने वाली पहली रोटी गाय और अंतिम श्वान (कुत्ते) की होती है, जहां चीटियों तक के भोजन की व्यवस्था का विधान है, वे लोग भला मनुष्यों से बैर कैसे कर सकते हैं? ऐसी संस्कृति जो समूचे विश्व को अपना कुटुम्ब मानती हो, जिसके आराध्य स्थल यानी मंदिरों में रोज़ाना सुबह–शाम धर्म की जय होने के साथ प्राणियों में सद्भावना और विश्व के कल्याण की कामना की जाती हो, वे लोग किसी दूसरे धर्म, विचार, नस्ल आदि किसी भी भिन्नता से बैर, विरोध या घृणा या ईर्ष्या कदापि नहीं रख सकते और जब उसी विचारधारा के लोगों को वर्ग विशेष द्वारा ऐसी संज्ञा दी जाए, जो उनके लिए अकल्पनीय हो, तो उन्हें एक संवाद स्थापित करना ही होगा यह स्वीकार करते हुए कि ‘हां वे असहिष्णु लोग हैं’…इसी शीर्षक के साथ एक पीड़ा को जीवंत कर समूचे विश्व से संवाद का अतुलनीय प्रयास किया है लोकेन्द्र सिंह ने...।
          हालांकि, लेखक ने पुस्तक में नीहित प्रस्तावना से पूर्व ही इसे ऐसी विभूतियों को समर्पित किया है जो झूठ, अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध सीना तानकर सदैव खड़े हो रहे हैं। ऐसे में पुस्तक का सार लेखक की इसी निष्ठा में ही प्रतीत होता है। कुल दो सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में लेखक द्वारा अपने बहत्तर आलेखों को समन्वित किया है, इन आलेखों का समय देश में मौजूद राष्ट्रवादी विचारधारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक अनुषांगिक संगठन भारतीय जनता पार्टी की सरकार द्वारा सत्ता में रहकर देशसेवा के दौर का है। यदि सभी आलेखों के सार की बात करें तो ऐसा कोई आलेख नहीं मिलेगा, जिसमें उन लोगों से तर्कों के साथ यह संवाद करने की कोशिश की गई है, जिसमें कदम–कदम पर मौजूद सरकार और राष्ट्रवादी विचारधारा पर तरह–तरह के विभिन्न आरोपों की मूसलधार-सी की गई है।
          लेखक ने इस पुस्तक में शामिल आलेखों के द्वारा उन तमाम तथाकथित सहिष्णु लोगों से यह सवाल भी करने की चेष्टा की है कि आखिर उन्हें जब असहिष्णु करार दे ही दिया है, तो फिर उन असहिष्णुओं के ऐतिहासिक, धार्मिक, वैचारिक, मानवीय, सांस्कृतिक, पुरातन, पारम्परिक तमाम पहलुओं पर लगातार हमले क्यों किये जा रहे हैं? इसके साथ ही लेखक ने उन तमाम कृत्यों, हरकतों और बयानों (नारों) को सामने रखकर यह पूछने की भी चेष्टा की है कि एक विचारधारा के विरोध में किये गए सारे कृत्य धीरे–धीरे आखिर राष्ट्र विरोधी क्यों होते जा रहे हैं? अपनी बात में लेखक यह स्वयं कहते हैं कि बीते कुछ सालों से असहिष्णुता का ऐसा हौव्वा खड़ा किया गया है कि आम आदमी भी भौंचक्का-सा रह गया है। तमाम बुद्धिवादी लोग मैजिक बुलेट थ्यौरी का उपयोग करते हुए आम आदमी के आसपास ऐसा माहौल खड़ा करने पर आमादा हैं कि उसे स्वयं की असुरक्षा का डर पैदा हो जाए? सारे देश में यह माहौल भी बनाया जाता है कि उन्हें बोलने, खाने-पीने, अभिव्यक्ति के साथ ही तमाम तरह की आज़ादी से वंचित किया जा रहा है? असल में, वे जिस आज़ादी के छिनने का रूदन करते हैं, उसी आज़ादी का भरपूर उपयोग करते हुए आज भी स्वतंत्र हैं।
           निश्चित रूप से विभिन्न सारगर्भित चुनिंदा आलेखों में लेखक ने इसी सच्चाई को सामने लाने की एक कोशिश इस पुस्तक के सहारे की है। पेज नंबर 21– 22 का शीर्षक – ‘नाटक नहीं संवाद कीजिए’ आलेख हो या पेज नंबर 27–28 पर मौजूद शीर्षक – गांधी और बुद्ध का देश है भारत, या पेज नंबर 29–30 पर शीर्षक – क्या राष्ट्रपति की सुनेंगे साहित्यकार? और पेज नंबर 31–32 पर शीर्षक – भारत असहिष्णु या अतुल्य ? ये तमाम आलेख इस बात का प्रमाण है कि यदि राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग असहिष्णु हैं तो वे आपसे सार्थक संवाद के साथ प्रगतिशीलता की बात क्यों कर रहे हैं?
          वहीं, सहिष्णुता पर नसीहत न दे पाकिस्तान, जायरा की माफी पर शर्मनाक चुप्पी, रामजस पर हल्ला, केरल पर चुप्पी क्यों? और 16 साल की आफरीन के विरुद्ध 46 मौलवी जैसे कई आलेख हैं, जो शूल से सवालों की तरह प्रतीत होते हैं।
          इस समूची पुस्तक में पाठकों को सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाले दो आलेख प्रमुख हैं, जिसमें पेज नंबर 196 पर मौजूद ‘धन्यवाद जेन’ में लेखक एक जर्मन युवती को धन्यवाद ज्ञापित कर रहे हैं, जिनकी नज़रों में भारत और भारतीय समाज गर्वानुभूति कराता है, तो वहीं सबसे अंतिम आलेख जो एक टीस की तरह है कि तथाकथिक देशभक्त आसानी से किस तरह के दस नुस्खों को अपनाने से बना जा सकता है। पुस्तक में लेखक ने सीधी और सरल भाषा का उपयोग किया जो, आमजनों के ज़हन में मौजूद तमाम सवालों के साथ ही उनकी अपनी संस्कृति के संरक्षण के संकल्प को और भी दृढ़ करने में सहायक होगी। 
          इस पुस्तक के लेखक लोकेन्द्र सिंह की लेखनी में राष्ट्रवाद सहज ही झलकता है। वीरांगना लक्ष्मीबाई की रणभूमि ग्वालियर में जन्में लोकेन्द्र सिंह ने मूलत: स्वदेश ग्वालियर से पत्रकारिता का ककहरा सीखा। आपने नईदुनिया, दैनिक भास्कर, पत्रिका में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। वर्तमान में आप माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं। आपकी पुस्तक ‘देश कठपुतलियों के हाथ में’ प्रमुख रूप से राजनीति और पत्रकारिता के मोहल्ले में खासी चर्चित रही तो वहीं इस पुस्तक के लिए ‘राष्ट्रीय पत्र लेखक मंच’ द्वारा आपका अभिनन्दन भी किया गया। आपके काव्य संग्रह ‘मैं भारत हूं’ ने भी साहित्य जगत का ध्यान आकर्षित किया। आप ‘अपना पंचू’ के माध्यम से ब्लॉग जगत में सक्रिय हैं। अर्चना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य दो सौ रूपये है। नि:संदेह यह पुस्तक पत्रकारिता, साहित्य और राजनीति की नव पीढ़ी अर्थात् युवा तरुणाइयों को खासा आकर्षित करेगी, क्योंकि इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने पूरी सादगी, संजीदगी के साथ अपनी संस्कृति का परिचय कराते हुए यह भी संदेश दिया है कि यदि अपनी संस्कृति या राष्ट्र के प्रति प्रेम ही असहिष्णुता है तो हां ‘हम असहिष्णु हैं’…शायद यही कारण होगा जो पुस्तक का शीर्षक ‘हम असहिष्णु लोग’ रखा गया, जिसमें लेखक उन सहिष्णुओं से पूरी सहिष्णुता के साथ प्रश्न पूछ रहे हैं। अशेष मंगलकामनाएं, बधाई।
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पुस्तक :  हम असहिष्णु लोग
लेखक : लोकेन्द्र सिंह
प्रकाशक  : अर्चना प्रकाशन
17, दीनदयाल परिसर, ई-2 महावीर नगर,
भोपाल (मध्यप्रदेश)- 462016
दूरभाष  - 0755-4236865
मूल्य :  दो सौ रूपये मात्र  
18 फरवरी, 2018 को सुबह सवेरे में प्रकाशित "हम असहिष्णु लोग" की समीक्षा


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