गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

राष्ट्रगान का सम्मान

 देश  के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रगान के सम्मान में सराहनीय निर्णय सुनाया है। कुछ समय पहले जब इस तरह के मामले सामने आए कि सिनेमाघर या अन्य जगह राष्ट्रगान बजाया गया तब कुछेक लोग उसके सम्मान में खड़े नहीं हुए। इस संबंध में उनका कहना था कि संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि जब राष्ट्रगान हो रहा हो, तब खड़े होना अनिवार्य है। इसी बीच सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य करने की माँग ने भी जोर पकड़ा। इस माँग के बाद देशभर में राष्ट्रगान के सम्मान और अपमान की बहस ने जन्म लिया था। इस बहस में आ रहे तर्क-कुतर्कों पर उच्चतम न्यायालय ने विराम लगा दिया है। न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा है कि सिनेमाघरों में फिल्मों का प्रदर्शन शुरू होने से पहले राष्ट्रगान अवश्य बजाया जाना चाहिए। साथ ही परदे पर राष्ट्रध्वज की तस्वीर भी दिखाई जानी चाहिए। जिस वक्त राष्ट्रगीत बज रहा हो, वहां उपस्थित लोगों को उसके सम्मान में खड़े रहना जरूरी है। इसके अलावा राष्ट्रगान का किसी भी रूप में व्यावसायिक इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। इसकी धुन को बदल कर गाने या फिर इसे नाटकीय प्रयोजन के लिए उपयोग नहीं होना चाहिए।
          न्यायालय के निर्णय के बाद इस अतार्किक बहस को बंद हो जाना चाहिए था कि राष्ट्रगान कहाँ बजाया जाना चाहिए और कहाँ नहीं? राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होना चाहिए या नहीं? लेकिन, ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है, बल्कि इस बहस ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। तथाकथित बुद्धिजीवी उच्चतम न्यायालय के निर्णय की आलोचना में यहाँ तक कह रहे हैं कि अब इस देश में देशभक्ति थोपी जा रही है। न्यायालय के निर्णय पर उनके कटाक्षों को बारीकी से देखें तो पाएंगे कि उन्होंने न्यायालय और सरकार को एक ही मान लिया है। दरअसल, बुद्धिजीवियों का यह वर्ग बेहद सुविधाजनक है। यह न्यायालय के निर्णयों को भी अपनी सुविधा के हिसाब से स्वीकारता/ नकारता है और उनकी व्याख्या करता है। राष्ट्रगान के बजाये जाने से इस बुद्धिजीवी वर्ग को पीड़ा क्यों है, इसका कारण अज्ञात है। सिनेमाघर में राष्ट्रगीत को बजाने से दर्शकों के मनोरंजन में क्या बाधा उत्पन्न हो जाएगी? राष्ट्रगीत के सम्मान में ५२ से ६० सेकंड तक खड़े होने में एक स्वस्थ व्यक्ति को कितनी तकलीफ पहुँचेगी? आम भारत से कटे इस बुद्धिजीवी वर्ग को संभवत: यह भान नहीं होगा कि हमारी नई पीड़ी में राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान के प्रति पुरानी पीड़ी जैसा भाव दिखाई नहीं दे रहा है। दरअसल, इसमें दोष नई पीड़ी का नहीं, बल्कि हमारा ही है। हमने ही उन्हें राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान का संस्कार हस्तातंरित नहीं किया है। 
          उच्चतम न्यायालय में इस प्रकरण को लेकर गए मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निवासी ७४ वर्षीय श्यामनारायण चौकसे ने जब राष्ट्रगान का उपहास बनते देखा, तब उनके हृदय को अत्यंत पीड़ा हुई और उन्होंने तय किया कि वह राष्ट्रगान को सम्मान दिलाकर रहेंगे। वर्ष २००२ में वह सिनेमाघर में 'कभी खुशी कभी गमÓ फिल्म देखने गए। फिल्म में जब राष्ट्रगान बजने का दृश्य आया, तब वह अपनी कुर्सी से उठकर सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। उनको ऐसा करते देख, बाकि दर्शकों ने सबक सीखने की जगह उनका मजाक बनाना शुरू कर दिया। तब उन्होंने राष्ट्रगान को सम्मान दिलाने के लिए न्यायालय जाना तय किया। 
           बहरहाल, सिनेमाघर में राष्ट्रगान बजाये जाने और उसके सम्मान में खड़े होने की अनिवार्यता का विरोध करने वाले लोगों को न्यायालय ने आईना दिखाते हुए कहा कि विदेशों में वहाँ के नियम मानने में गुरेज नहीं है, तब यहाँ अतार्किक स्वतंत्रता क्यों चाहिए? लोगों को समझना चाहिए कि देश है तभी हम स्वतंत्रता का लाभ ले पाते हैं। इसलिए राष्ट्रगान के प्रति सम्मान प्रकट करने में हमें गुरेज क्यों होना चाहिए? राष्ट्रगान चूंकि किसी भी देश के सम्मान का विषय है, उसके अनादर को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही है कि अब वक्त आ गया है कि देश के नागरिकों को समझना होगा कि यह उनका देश है। उन्हें राष्ट्रगान का सम्मान करना होगा, क्योंकि यह संवैधानिक देशभक्ति से जुड़ा मामला है। न्यायालय ने अपना निर्णय सुना दिया है। अब हमारी बारी है। किसी दण्ड या कानून के भय से नहीं, बल्कि अपने दायित्व बोध के साथ राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना चाहिए। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज शनिवार (03-12-2016) के चर्चा मंच

    "करने मलाल निकले" (चर्चा अंक-2545)

    पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही अच्छा post है, share करने के लिए धन्यवाद। :) :)

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