भा रत की लोक कथाओं में जो ज्ञान समाहित है, उसे आधुनिक विज्ञान आधार देता नजर आ रहा है। रामायण-महाभारत काल और उससे जुड़ी कथाओं को खयाली पुलाव मानने वालों को समय-समय पर वैज्ञानिक खोजों और शोधों से जवाब मिलता रहता है लेकिन बावजूद इसके वे अपने दिमाग पर पड़ी धूल को हटाने के लिए तैयार नहीं होते हैं। मैकाले शिक्षा व्यवस्था से शिक्षित ज्यादातर बुद्धिजीवी पता नहीं यह मानने को क्यों तैयार नहीं होते कि भारत में विज्ञान, कला, व्यापार और राजनीति उन्नत शिखर पर थी, भारत विश्वगुरु था, भारत सोने की चिडिय़ा था। भारत आगे-आगे है और दुनिया पीछे-पीछे। जिस वैज्ञानिक सोच और प्रमाणों की बात वे करते हैं कम से कम उसी वैज्ञानिक सोच के माध्यमों से जो सच सामने आ रहा है उसे तो स्वीकार कर ही लेना चाहिए।
गर्भ में ही शिशु शिक्षित होने लगता है, यह भारत का बहुत पुराना मत है। वेदों में भी वर्णन है। यही कारण है कि घर-गांव के बुजुर्ग गर्भवती महिला को अच्छे माहौल में रहने की सीख देते हैं। उसे अच्छा खाना, अच्छा पहनना, अच्छे चिंतन की सलाह देते हैं। बढिय़ा पुस्तकें पढऩे के लिए प्रेरित करते हैं। ईष्टदेव का स्मरण करने को कहते हैं। गर्भ में ही शिशु सीखना शुरू कर देता है, इसके लिए यह सब किया जाना चाहिए, यह भारतवासियों के लोक-व्यवहार में दिखता भी है। भारत के महान विचारकों के इस मत को अब ताजा शोधों से बल मिला है। फिनलैण्ड की हेलसिंकी यूनिवर्सिटी के न्यूरोसांइटिस्ट इनियो पार्टानेन और उनके साथियों ने एक शोध से इस बात की पुष्टि की है कि शिशु गर्भ में शिक्षित होना शुरू कर देता है। उनके शोध को लेकर हाल ही में देश-दुनिया के अखबारों में समाचार प्रकाशित हुए हैं। वैज्ञानिकों ने स्वीडिश और अमरीकी बच्चों के ऊपर जन्म के सात से लेकर ७५ घंटे बाद तक परीक्षण किए। शोधकर्ताओं ने शिशु के मस्तिष्क की प्रतिक्रियाओं को इलेक्ट्रोड्स द्वारा जांचा तो गर्भावस्था में सुने गए शब्दों के प्रति उसने तंत्रकीय समानता दिखाई। शोध के नतीजे बताते हैं कि गर्भ में शिशु ने मातृभाषा के जिन शब्दों को पहचाना था, जो गीत-संगीत सुना था, उसे वे जन्म के चार माह बाद तक याद रख सकते हैं। पश्चिम का विज्ञान और विद्वान इस बात का पता अब लगा सके हैं, जबकि भारत में यह आमधारण है। इनियो पार्टानेन और उनके वैज्ञानिक साथी अभी भी इस बात को नहीं जान सके हैं कि गर्भ में शिशु के सीखने की क्षमता क्या है? वह किस सीमा तक और कितना सीख सकता है? जबकि भारतवर्ष में इस संबंध में कई उदाहरण मौजूद हैं। युद्ध से लेकर वेद तक की शिक्षा गर्भ में ही पाकर बालकों का जन्म भारत में हुआ। उन्होंने गर्भ में पाए ज्ञान का प्रकटीकरण और उपयोग भी किया।
गर्भ में ही शिक्षा प्राप्त करने वालों में सबसे बढिय़ा उदाहरण अभिमन्यु और अष्टावक्र का है। अभिमन्यु विश्वविख्यात धर्नुधर अर्जुन के पुत्र थे। अर्जुन अपनी पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदने की विधि सुना रहे थे। सुभद्रा गर्भवती थीं। गर्भ में महान योद्धा अभिमन्यु थे। इसी दौरान अभिमन्यु ने अपने पिता अर्जुन से चक्रव्यूह भेदना सीख लिया लेकिन अभिमन्यु चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं सीख सके, क्योंकि पूरी विधि सुनने से पहले ही उनकी मां सुभद्रा को नींद आ गई थी। महाभारत युद्ध के दौरान अभिमन्यु ही थे जिन्होंने कौरवों के चक्रव्यूह को भेदा। अभिमन्यु को चक्रव्यूह से बाहर निकलने की विधि नहीं पता थी, इसका लाभ कौरव पक्ष ने उठाया। कौरव पक्ष की ओर से रणभूमि में उतरे महारथियों ने मिलकर अभिमन्यु का वध कर दिया। गर्भ में ही शिक्षा पाए एक महान योद्धा के अंत की यह करुण कथा विश्वविख्यात है और भारत के उन्नत वैज्ञानिक दृष्टिकोण की एक झलक भी है। कुछ इसी तरह की अद्भुत कहानी है आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि अष्टावक्र की। अष्टावक्र के पिता कहोड़ ऋषि थे। वे वेदपाठी पण्डित थे। प्रतिदिन वेद पाठ करना उनकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा था। उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। एक रात जब कहोड़ ऋषि वेद पाठ कर रहे थे तो गर्भ से बालक की आवाज आई- 'हे पिता! आप रातभर वेद पाठ करते हैं लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।' ऋषि कहोड़ के पास उस समय और भी ऋषि बैठे थे। गर्भस्थ बालक की ऐसी बात सुनकर उन्होंने स्वयं को अपमानित महसूस किया। वेद पण्डित पिता का अंहकार जाग गया। वे क्रोध से आग-बबूला हो उठे। क्रोध में ही उन्होंने अपने गर्भस्थ शिशु को अभिशाप दे दिया - 'हे बालक! तुम गर्भ में रहकर ही मुझसे इस तरह का वक्र वार्तालाप कर रहे हो। मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम आठ स्थानों से वक्र होकर अपनी माता के गर्भ से पैदा होगे।' बाद में जब बालक का जन्म हुआ। बालक श्राप के अनुसार आठ स्थान से टेढ़ा-मेढ़ा था। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा। गर्भ में ही वेदों के सभी अंगों को जान लेना वाला यह बालक आगे चलकर महान विद्वान बने और विश्व विख्यात हुए। अभी तक अभिमन्यु और अष्टावक्र की कथाओं को महज कल्पना मानने वाले लोगों को अब मान लेना चाहिए कि सब सच है, अभिमन्यु पैदा हो सकते हैं।
हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों का बड़ा महत्व है। सोलह संस्कार का चरण जन्म से पहले और मृत्यु के बाद तक चलता है। सोलह में से दो संस्कार तो शिशु के पैदा होने से पहले के ही हैं। एक गर्भाधान संस्कार और दूसरा पुंसवन संस्कार। दोनों संस्कारों का उद्देश्य बलशाली, संस्कारी और स्वस्थ्य संतान को जन्म देना है। भारतीय मनीषियों ने इस ज्ञान को अच्छे से जान लिया था कि जैसा बीज होगा, वैसा ही पेड़ उगेगा यानी गर्भ में जैसे संस्कार बालक को दिए जाएंगे, उसका व्यक्तित्व उसी तरह बनेगा। श्रेष्ठ संतान उत्पन्न हों, इसके लिए उन्होंने धर्म में ही ऐसी व्यवस्था कर दी। उन्होंने गर्भाधान संस्कार के संबंध में समाज को बताया। गर्भाधान संस्कार के महत्व को शास्त्रों में इस तरह बताया गया है-
निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलम् स्मृतम।।
अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्य संबंधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन और क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान का फल है। बाद में चिकित्साशास्त्र भी तमाम शोधों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं, उसका असर रज-वीर्य पर पड़ता है और बाद में ये भाव शिशु में प्रकट होते हैं। भारतीय चिंतकों को मानना था कि जीव जब माता के गर्भ में आता है तभी से उसका शारीरिक विकास शुरू हो जाता है। शिशु का सही दिशा में शारीरिक और बौद्धिक विकास हो, इसके लिए हिन्दू धर्म का दूसरा संस्कार है। शास्त्रों में कहा गया है कि जब गर्भाधान का तीसरा महीना होता है, तब पुंसवन संस्कार किया जाता है। धर्मग्रथों में पुंसवन संस्कार करने के दो प्रमुख उद्देश्य मिलते हैं। पहला उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और दूसरा स्वस्थ, सुंदर तथा गुणवान संतान पाने का है।
भारत की थाती के बारे में जब चिन्तन करते हैं तो ध्यान आता है कि हम क्या थे और क्या हो गए। हम कहां थे, अब कहां हैं। दुनिया के नेता थे, अब अनुसरणकर्ता हो गए हैं। दुनिया पहले भारत की ओर देखती थी, अब हम दुनिया की ओर देख रहे हैं। ज्ञान-विज्ञान, खोज-आविष्कार, जीवनशैली में भारत आगे-आगे था, दुनिया पीछे-पीछे। अब हम कई मामलों में पीछे रह गए हैं, दुनिया आगे-आगे चल रही है। भारत की संतानें अपना अतीत भूल गईं। पुरखे जिस ऊंचाई पर ज्ञान-विज्ञान को लेकर पहुंचे थे, उनके बाद की पीढ़ी उसे आगे नहीं ले जा सकी। भारत को फिर से दुनिया का सिरमौर बनाना है तो हमें वेदों की ओर लौटना पड़ेगा। वेदों और धर्मशास्त्रों को कपोल कल्पना या महज धर्मग्रंथ मानने की मनोस्थिति से बाहर निकलना होगा। वे प्राचीन भारत के गौरवमयी इतिहास के साक्षी हैं। वेदों को आधार बनाकर खोज और शोध करने होंगे। भारत के प्राचीन ज्ञान को सामने लाना होगा। जिस पड़ाव पर भारत था, हमें उस बिन्दु से आगे बढऩा होगा। इस दिशा में बहुत काम करने की जरूरत है। कुछ संस्थान भारतीय धर्मग्रंथों और शास्त्रों को आधार बनाकर शोधकार्य कर रहे हैं लेकिन ये प्रयास अभी नाकाफी हैं। इनकी गति और दायरा बढ़ाने की जरूरत है। एक बार फिर भारत का प्राचीन ज्ञान-विज्ञान साकार हो जाए तो भारत फिर आगे-आगे होगा और दुनिया पीछे-पीछे।
विचारणीय ..... हमारा इतिहास नमन करने योग्य है ....
जवाब देंहटाएंसही कहा मोनिका जी। हमारा इतिहास हमे बहुत कुछ सिखाता है
हटाएंlokendra jiap bahut acchha lkhte hai, aapne to bhartiya itihas ko kureda hai bhartiya vangmay to aisi kathao se bhara pada hai, wastaw me jaha vigyan samapt hota hai wahi adhyatm shuru hota hai, bahut sundar dhang se likha gay alekh------------.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सूबेदार जी।
हटाएंsanatan dharm ne samaj,desh, dasha aur disha ko samajhne, badalne aur apne sanskaron mai samahit karne ki sekh di, hua yah ki adhunik sabhyata ke nam huye samajik patan aur iske karndharon ne aur beete 700 versh se mughal, brtish, portgal aur dutch ki neeti or kuretei ka jamakar prachar hua, kuch lalchi logo ne unko badhane mai sahyog kiya, iske bad rahi sahi kasar mecaley, nehru aur adhunikta ka dhindhora peetne walon ne poori kar di. rajneetik dalon ne bhi apni bhoomika sahi tareeke se nahi nibhayi, har aur se prahar kar yah jatane ki kosis ki gayi ki aryavert mai jo dharmgranth likhe gaye ve sab kapol kalpit hain, lekin wah to hamari jade itni mazoot hai ki aasani se ukhad nahi sakti, ab to nasa ho ya koi anya university sodh mai yah samne aane laga hai ki lanka ke liye samudra mai pull bhi bana tha aur garbhasth sishu sun aur samajh sakta hai, ham yah nahi kahte ki videshi sabhyata ya wahan ki sanskrati galat hai, unki bhasha ko bolne, sunne, padhne aur samajhne mai hame koi pareshani nahi, lekin jab ham unko aadar de rahe hain to ye kaise sahan kar sakte hain ki koi hamari sanskrati ko kapol kalpit kahe, astu, mazbooti se sanatan aadhar ko jab tak punarsthapit nahi kiya jayega tab tak sangharsh jari raahega, gulam apna kam kar rahe hain ham apna. ye mere vichar hain agar isse koi sahmat n ho to mai mafi nahi mangoonga,
जवाब देंहटाएंआपकी बातों से सहमत हूँ धर्मेन्द्र जी।
हटाएंस्वर्णिम अतीत है और असीम संभावनायें हैं, अतिविश्वास और अविश्वास दोनों से बचकर प्रयास करने होंगे।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही संजय जी।
हटाएंvicharniy aalekh
जवाब देंहटाएं:)
हटाएंसच कहा । हम जब तक अपनी जडों से नही जुडेंगे हमारा विकास सतही ही रहेगा ।
जवाब देंहटाएंसही कहा दीदी, जब तक जड़ों से नहीं जुड़ेंगे तब तक कैसे आगे विकास हो सकता है
हटाएंशुकदेव तो १६ वर्ष माँ के गर्भ में रहे और बाहर आते ही सन्यास ले लिये।
जवाब देंहटाएंलोकेश जी! हमने अपने गौरवशाली इतिहास को सिर्फ याद किया है और केवल उनका उद्धरण दिया है. कभी यह कोशिश नहीं की उसमें इज़ाफा किया जाए. बस जब किसी को नीचा दिखाना हो कह दिया कि हमने शून्य दिया और हमारे यहाँ वैज्ञानिक शोध दुनिया से पहले हो चुके थे. ओशो वैसे भी कहते हैं कि कोई भी राष्ट्र यदि भूतकाल में बातें करता हो तो समझो उसके गौरवपूर्ण अध्याय अतीत में ही हैं.
जवाब देंहटाएंअभी हाल ही में सैमसंग मोबाइल के शोध एवम विकास विभाग के एक युवा वैज्ञानिक का इण्टर्व्यू पढ़ा था. जब उससे यह पूछा गया कि इतने अनोखे ऐप्प बनाने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिलती है, तो उसका जवाब था हमारी पौराणिक घटनाओं और कथाओं से!! इसे कहते हैं अतीत को आगे बढाना.
रही बात गर्भस्थ शिशु की तो मैंने एक कहानी लिखी थी, सत्यघटना पर आधारित. एक व्यक्ति का पुत्र बड़ा होते होते अपने पिता के बहुत करीब होता गया और माँ से दूर.. यहाँ तक कि माँ से डर लगता था उसे. माँ का दूध भी नहीं पिया कभी उसने. कारण सिर्फ इतना था कि उसकी माँ उस शिशु को जन्म नहीं देना चाहती थी. अपने कैरियर के लिये गर्भपात की चेष्टा की, मगर डॉक्टर ने मना कर दिया.
अच्छा आलेख!!
सही कहा सलिल जी। चिंता इसी बात की है कि हम अपने ज्ञान को आगे नहीं बढ़ा रहे हैं।
जवाब देंहटाएंविचारणीय ... पर इसके लिए कितना त्याग औए समर्पण की जरूरत है ... क्या आज ऐसा हो सकता है ... हां इतिहास को जानना जरूरी है
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