शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

आनंद

टिक... टिक... टिक.... घड़ी की सुइयां भी इतने धीमे चल रही हैं लगता है इन्हें जंग लग गई है। कितनी देर से बैठा हूं, आधा घंटा नहीं हुआ अब तक। पिछले दस दिन, मेरी शादी के दस दिन तो कैसे फुर्र से बीत गए थे। पता ही नहीं चला था। तब तो बड़ा सरपट भाग रहा था वक्त। अब क्या हुआ? क्या किसी ने वक्त के पैर बांध दिए? नहीं, भला ऐसा हो सकता है क्या? समय पर किसका जोर है? वो तो मनमौजी है। अपनी ही धुन में चलता है। तभी तो अपने बुरे वक्त में आदमी लाख चाहे लेकिन अच्छे वक्त को उसकी मर्जी के खिलाफ खींचकर नहीं ला सकता। वह तो अपनी मर्जी से ही आता है। सार्थक बैंक में पैसा जमा करने आया था। बैंक का लंच टाइम खत्म ही नहीं हो रहा था। सार्थक के दिमाग को खाली देखकर ऊटपटांग विचारों ने आक्रमण कर दिया था। उसके अंतर्मन में खुद से ही यह संवाद चल रहा था। बैंक में कट्ट काले रंग से पुती लोहे की कुर्सियां पड़ी थी। इन्हीं में से एक कुर्सी पर आगे की ओर झुककर सार्थक बैठा था।
      हाल ही में उसकी शादी हुई थी। एक दिन पहले ही नवविवाहिता की विदाई हुई थी। उसकी छुट्टियां भी खत्म होने को थीं। शादी के बाद का थोड़ा-बहुत काम बाकी था, घर के सभी लोग उसी काम को खत्म करने में लगे थे। मां यहां-वहां से आए बर्तन व अन्य सामान वापिस पहुंचाने में व्यस्त थी। पिताजी हिसाब-किताब निबटा रहे थे। आज सुबह ही पिताजी ने सार्थक को कहा था- आज बैंक चले जाना। पैसा निकाल लाना ताकि हलवाई, सुनार और किराने वाले का हिसाब कर देंगे।
          फरवरी की दस तारीख थी। इन दिनों बैंक में पेंशन लेने वालों की खासी भीड़ रहती है। दोपहर बाद यह भीड़ छट जाती है। यही सोचकर सार्थक दोपहर बाद बैंक में पहुंचा था। लेकिन, आज तो उस वक्त भी भीड़ मौजूद थी। चार-छह बूढ़ी औरतें थीं, जो वहीं मंडल बनाकर बैठी थीं। सभी अपनी-अपनी बहुओं के गुण-दोष की विवेचना कर रहीं थीं। बीच-बीच में उनमें से एक-दो महिलाएं बैंक कर्मियों को महिलाओं वाली गालियां दे देतीं। नाशमिटे अभी तक लंच ही कर रहे हैं। कितना भकोसते हैं। अरे, भकोसते तो उतना ही हैं, हरामखोरी ज्यादा करते हैं। हजारों रुपए मिलते हैं, बैठकर रुपए गिनने के, तब भी मुंओं से काम नहीं किया जाता। हम बूढ़े लोग इतनी दूर से आए हैं हमारा काम करने की बजाय इन्हें गपियाने से फुरसत नहीं है। चल री छोड़ भी, इन्हीं नालायकों की वजह से हमें बतराने का मौका तो मिल जाता है, वरना तो हम कहां एक दूसरे का सुख-दु:ख बांट पाते हैं। हां, हां सही कह रही हो भौजी। बैंककर्मियों के लंच टाइम को सुख-दु:ख की पूछपरख का मौका बताने वाली बूढ़ी औरत ने आगे को सरकते हुए कहा- हां, तो मैं कह रही थी कि मेरी बहू हैं ना... उसे जरा-सा काम करने में भी कष्ट होता है। तुम्हें तो याद होगा हम लोग अपने जमाने में घंटों तक तो चक्की से आटा ही पीसा करते थे। इन्हें तो सब हाथ में मिलता है तब भी चार रोटी सेंकने में भी सिर दुखता है.......
      वहीं पास में ही कुछेक कुर्सियां छोड़कर सात-आठ वृद्ध पुरुष भी बैठे थे। वे अपने बीते दिनों को याद कर रहे थे। अपने दिनों के बहाने वे अपने दिनों की राजनीति की चर्चा कर रहे थे। सार्थक नहीं सोच पा रहा था कि महिलाओं को 'घर-घर की कहानी' से फुरसत क्यों नहीं मिलती। उनकी बातचीत का केन्द्र बिन्दु अकसर यही क्यों होता है। वहीं पुरुषों के पास राजनीति की चर्चा के अलावा और कोई मुद्दा नहीं है क्या? सार्थक ने वृद्ध पुरुषों की बातों पर कान दिया तो पता चला कि राष्ट्रीय-क्षेत्रीय नेताओं के चरित्र पतन की बातों में उलझे थे। राजनीति में यह इस समय हॉट टॉपिक था। हाल ही में दो-तीन नेताओं के सेक्स वीडियो सामने आए थे। वृद्धों के चर्चा मंडल में कोई अपने जमाने के चरित्रवान नेताओं के किस्से सुना रहा था तो कोई आज के भ्रष्ट नेताओं के कारनामों का बखान कर रहा था। सार्थक ने मन ही मन सोचा कि दोनों ही जगह जो बहस चल रही है उसका अंत नहीं है। कहानी घर-घर की जितनी खिंचेगी उतनी कम होगी। राजनीति पर चल रही बहस का तो कोई ओर-छोर ही नहीं है।
      इसी बीच सार्थक की नजर एक धवल वस्त्र पहने शांत भाव से बैठे एक वृद्ध पर पड़ी। वे किसी की तीन-तेरह में नहीं थे। एक कुर्सी पर बैठे थे, चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। शायद यह मुस्कान इस चेहरे पर हमेशा रहती होगी, ऐसा लग रहा था। बाल पूरे पके हुए थे। सिर के भी और दाड़ी के भी। हल्की घनी दूध-सी सफेद दाड़ी से झांकते मुस्काते होंठ इंद्रधनुष की तरह लग रहे थे। उस शस को देखकर अजीब-सा सुकून मिल रहा था। सार्थक एकटक उन सज्जन के माथे से प्रस्फुटित हो रहे तेज का आनंद ले ही रहा था तभी एक वृद्धा पैसा निकालने वाले काउंटर पर पहुंची। उसने कैशियर को डपटते हुए कहा - हम बुजुर्ग यहां परेशान हो रहे हैं और तुहारा लंच टाइम अभी तक खत्म ही नहीं हुआ। घड़ी में देखो जरा पूरे ढाई बजकर पांच मिनट ऊपर हो चुके हैं। कैशियर पर वृद्ध की बात का कोई असर नहीं हुआ। हालांकि उसने सिर नीचे की ओर रखकर ही जवाब दिया - माते अभी पूरे दस मिनट बाकी हैं। इस पर वृद्धा ने दीवार पर टंगी गोल घड़ी की ओर हाथ से इशारा करते हुए कहा- वो देखो घड़ी। बैंक ही ही घड़ी है न? क्या टाइम हो रहा है उसमें दिख रहा है या नहीं? पूरे पांच मिनट अधिक हो चुके हैं और तुमसे बात करने में समय जाया हो रहा है वो अलग। लेकिन, कैशियर का वही रूखा व्यवहार। उसने जवाब दिया - दादी वो दस मिनट आगे है। दस मिनट बाद ही खिड़की खुलेगी। दस मिनट मतलब दस मिनट। बूढ़े तो वैसे ही बच्चे होते हैं। कई बच्चे अपनी बात नहीं मनते देख बिगड़ जाते हैं। उन बूढ़ी औरत का स्वभाव भी कुछ इसी तरह के बच्चे के जैसा था। कैशियर का जवाब सुनकर बूढ़ी औरत उखड़ गई। वह और हल्ला करने लगी। विवाद बढ़ता देख सार्थक ने कैशियर से कहा- महोदय आपने लंच बे्रक तो इसी घड़ी से किया होगा तो काम भी इसी घड़ी के मुताबिक शुरू कर दीजिए। वह कुछ कह पाता इससे पहले ही एक दूसरे कैशियर ने अपनी खिड़की खोलकर उस बूढ़ी औरत को अपने पास बुला लिया। उसने साथी के बर्ताव के लिए उस वृद्धा से माफी भी मांग ली थी। 
    खिड़की खुलते ही सब लोग कतार में आ गए। वो सफेद दाड़ी वाले वृद्ध सार्थक के पीछे ही थे। जैसे ही सार्थक की बारी आई तो कैशियर ने सार्थक से कहा - आप युवा हैं। आपसे निवेदन है कि आपके पीछे जो सज्जन हैं उन्हें पहले पैसा निकालने का मौका दें। इस पर वृद्ध ने कैशियर को ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने सहज भाव से कहा - पहले इनकी ही बारी है इन्हें ही पैसा दें। सार्थक पैसा लेकर पास में ही असली-नकली नोट की जांच करने लगा। उसने देखा कि कैशियर ने उस वृद्ध को जैसे ही वृद्ध को उनका पैसा दिया, वृद्ध ने धन्यवाद कहा और झट से अपनी जेब से चार चॉकलेट निकालकर कैशियर को दे दीं। चॉकलेट देखकर कैशियर प्रफुल्लित हो गया, उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए कि जैसे उसे कोई खजाना मिल गया हो। सफेद दाड़ी वाले वृद्ध ने काउंटर छोड़ते हुए कैशियर को कहा - हमेशा ऐसे की ईमानदारी से काम करना और लोगों की मदद करना। कैशियर ने अपनी सीट से खड़े होकर उनका अभिवादन किया। सार्थक कुछ अचंभे में था। वृद्ध ने कैशियर को चॉकलेट क्यों दी? उसने कैशियर से पूछा - सर, ये सज्जन कौन थे? कैशियर ने मुस्काते हुए जवाब दिया - ये आनंद भाई थे। शहर इन्हें टॉफी वाले बाबा के नाम से भी जानता है। अनुशासन, ईमानदारी और लोगों की मदद करने वालों को ये इनाम स्वरूप टॉफी देते हैं। सार्थक बैंक से बाहर निकलते हुए सोच रहा था - वे देवदूत की तरह बाबा अपने नाम को किस तरह सार्थक कर रहे हैं। चहुंओर आनंद बिखेर रहे हैं।

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा...ईमानदारी की कद्र होनी चाहिए...सीख देती रगना !!

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  2. मन किया यह कहानी का पात्र सच होता..और हर जगह होता.

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  3. Such people are very rare on this earth. Fortunate are they who get to find one.

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  4. अगर आज देश में हर इंसान इमानदारी और अनुशासन का पालन करे,तो देश की काया ही पलट जायेगी,,,,,

    RECENT POST...: दोहे,,,,

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  5. बढ़िया कहानी है सच ही तो है,काश यह पात्र कल्पना नहीं बल्कि सच होता और हर जगह होता। समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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  6. ऐसे पात्र टकराते हैं कई बार ...बस संख्या में कम्है इसलिए कम मिलते हैं ...

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  7. हैं ऐसे भी आनंद, हमारे बैंक में भी आते हैं एक लेकिन वो चोकलेट की जगह 'मैंगो बाईट' देते हैं:)

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  8. मन आनन्द तो जग आनन्द! सजीव चित्रण, लगा जैसे अपने पिछले कार्यकाल से साक्षात्कार हो गया।

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  9. ज़िन्दगी जीने का तरीक़ा और आनंद बटोरने का उपाय, दिल छुने वाले प्रसंग के साथ आपने समझाया है।

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  10. ऐसे लोगों का मिलना विश्वास को मजबूत बनाता है । लोग आज भी हैं जो हमें निराश होने से बचाते हैं । और आप भी जो ऐसा कुछ लिख कर कर रहे हैं ।

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  11. बहुत प्रेरक और रोचक कहानी...

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  12. मैं शायद पहली बार आई हूँ, आपके ब्लॉग पर..
    सबसे पहले , आपका धन्यवाद आपने इतनी अच्छी कहानी (मालूम नहीं कहानी है या संस्मरण है ) पढवाई..
    भाषा, भाव और सन्देश सभी बहुत पसंद आए...
    एक प्रेरणा लेकर जा रही हूँ...जब मैं बुड्ढी हो जाऊँगी..बिल्कुल यही करुँगी...मुझे भी लोग चोकलेट वाली दादी कहेंगे...पक्का :)

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    1. हा हा हा... कुछ चॉकलेट लेने हम भी आ जायेंगे...
      ये एक संस्मरण है, जिसे कहानी का रूप देने की कोशिश की है...
      अदा जी, अब आते रहिएगा ब्लॉग पर....

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  13. जीवन में आत्मीयता के मायने आज भी बने हुए हैं ....हैं ऐसे पात्र आज भी समाज में..... प्रवाहमयी लेखन लिए कथा

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