भा रतीय हिन्दी सिनेमा यानी बॉलीवुड को १००वां साल लग गया है। पता नहीं यह बॉलीवुड का शैशव काल ही चल रहा है या फिर वो जवानी की दहलीज पर है, यह भी संभव है कि वह सठियाने के दौर में हो। खैर जो भी हो, इन ९९ सालों में भारतीय सिनेमा में कई बदलाव देखे गए। कई मौके ऐसे आए जब बॉलीवुड के कारनामे से हमारा सीना चौड़ा हो गया। कई बार बॉलीवुड ने लज्जित भी खूब कराया। शुरुआती दौर में भारतीय सिनेमा लायक बना रहा। समाज को शिक्षित करता रहा। देश-दुनिया को भारतीय चिंतन, पंरपरा और इतिहास से परिचित कराता रहा। लेकिन, नई शताब्दी के पहले दशक की शुरुआत से ही इसके कदम बहकने लगे। धीरे-धीरे यह नालायक हो गया। फिलवक्त इस नालायक बॉलीवुड की रील बेहद डर्टी है।
यह तो सभी जानते हैं कि भारत में सिनेमा की शुरुआत दादा साहब फाल्के ने की। दादा साहब फाल्के का सही नाम धुन्दीराज गोविंद फाल्के था। १९११ में उन्होंने ईसा मसीह के जीवन पर बनी फिल्म देखी। इसके बाद उनके मन में विचारों का ज्वार उमडऩे लगा। भारत के महापुरुषों और इतिहास को आधार बनाकर फिल्म बनाने के विचार दादा साहब के मन में आने लगे। जब विचारों ने मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया तो उन्होंने फिल्म बनाने का संकल्प लिया। फिल्म निर्माण की कला सीखने के लिए वे लंदन पहुंच गए। लंदन में दो साल रहकर उन्होंने सिनेमा निर्माण की तकनीकी सीखी। वहां से कुछ जरूरी उपकरण लेकर वे भारत वापस आए। काफी मेहनत-मशक्कत के बाद उन्होंने भारतीय जन-जन में रचे-बसे चरित्र राजा हरिशचन्द्र पर फिल्म बनाई। ३ मई १९१३ को भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म प्रदर्शित हुई। यह मूक फिल्म थी। दादा साहब को उनके साथियों ने खूब कहा कि फिल्म का आइडिया बकवास है, तुम्हारी फिल्म कोई देखने नहीं आएगा, भारत की जनता को फिल्म देखने का सऊर नहीं। लेकिन, 'राजा हरिशचन्द्र' की लोकप्रियता ने सारे कयासों को धूमिल कर दिया। इस तरह भारत में दुनिया के विशालतम फिल्म उद्योग बॉलीवुड की नींव पड़ी।
यहां गौर करने लायक बात है कि दादा साहब जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने एक सुने-सुनाए, जन-जन में रचे-बसे चरित्र पर फिल्म क्यों बनाई? संभवत: उन्हें सिनेमा के प्रभाव का ठीक-ठीक आकलन था। सिनेमा लोगों के अंतर्मन को प्रभावित करता है। उनके जीवन में बदलाव लाने का सशक्त माध्यम है। इसके अलावा उनके मन में सिनेमा से रुपयों का ढेर लगाने खयाल नहीं था। ईसा मसीह के जीवन पर बनी फिल्म को देखकर उनके मन में पहला विचार यही कौंधा कि भारत के महापुरुषों पर भी फिल्म बननी चाहिए। ताकि लोग उनके जीवन से प्रेरणा लेकर स्वस्थ्य समाज का निर्माण कर सकें। हरिशचन्द्र सत्य की मूर्ति हैं। सत्य मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी पूंजी, उपलब्धी और सर्वोत्तम गुण है। 'राजा हरिशचन्द्र' के बाद भी लंबे समय तक भारत में बनाई जाने वाली फिल्में संस्कार और शिक्षाप्रद थीं। १४ मार्च १९३१ को प्रदर्शित पहली बोलती फिल्म आलमआरा और १९३७ में प्रदर्शित पहली रंगीन फिल्म किसान कन्या की कहानी साहित्य से उठाई गई थी। भारतीय सिनेमा लंबे समय तक सीधे तौर पर भारतीय साहित्य से जुड़ा रहा। बंकिमचन्द्र और प्रेमचंद की कृतियों पर सिनेमा रचा गया, जिसने समाज को दिशा दी। रचनात्मक सिनेमा गढऩे के लिए गुरुदत्त, हिमांशु रॉय, सत्यजीत रे, वी. शांताराम, विमल रॉय, राजकपूर, नितिन बॉस, श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों को हमेशा याद किया जाएगा। लेकिन, २१ वीं सदी की शुरुआत से ही बॉलीवुड के रंग-ढंग बदलने लगे। महेश भट्ट जैसे तमाम भटके हुए निर्देशकों ने भारतीय सिनेमा की धुरी साहित्य और संस्कृति से हटाकर नग्नता पर टिका दी। मनुष्य के दिमाग को शिक्षा देने वाले साधन को दिमाग में गंदगी भरने वाला साधन बना दिया। 'आज बन रहीं फिल्में परिवार के साथ बैठकर देखने लायक नहीं है' यह वाक्य बॉलीवुड के लिए आज हर कोई कहता है। इसके बावजूद भट्ट सरीखे निर्देशक कहते हैं कि हम वही बना रहे हैं जो समाज देखना चाहता है। अब ये किस समाज से पूछकर सिनेमा बनाते हैं यह तो पता नहीं। लेकिन, मेरे आसपास और दूर तक बसा समाज तो इस तरह की फिल्म देखना कतई पसंद नहीं करता। खासकर अपने माता-पिता, भाई-बहन और बच्चों के साथ तो नहीं ही देखता। ऐसी फिल्में समाज देखना नहीं चाहता इसका ताजा उदाहरण है- टेलीविजन पर डर्टी फिक्चर के प्रसारण का विरोध। यहां इस बात को भी समझिए कि समाज घर में तो ऐसी फिल्म नहीं देखना चाहता लेकिन घर के बाहर उसे परहेज नहीं है। इसी डर्टी फिक्चर की कमाई यह सच बताती है। लेकिन, इस सब में एक बात साफ है कि डर्टी टाइप की फिल्में समाज हित में नहीं हैं। डेल्ही बेल्ही, लव सेक्स और धोखा, ब्लड मनी, मर्डर, हेट स्टोरी, जिस्म और आने वाली फिल्म जिस्म-२ (इसमें पॉर्न एक्ट्रेस नायिका है) जैसी फिल्में समाज में क्या प्रभाव छोड़ रहीं हैं कहने की जरूरत नहीं है। इनके प्रभाव से निर्मित हो रहा समाज भारत के लोगों की चिंता जरूर बढ़ा रहा है लेकिन वे भी हाथ और मुंह बंद किए बैठे हैं। भारतीय सिनेमा के पिछले पांच-छह सालों को देखकर इसका आने वाला भविष्य उज्वल नहीं दिखता। आज बॉलीवुड १००वें साल में प्रवेश कर रहा है, इसकी और समाज की बेहतरी के लिए निर्माताओं, निर्देशकों और दर्शकों को विचार करना होगा। निर्माता-निर्देशकों को विचार करना होगा क्या कैमरे को नंगई के अलावा कहीं और फोकस नहीं किया जा सकता? दर्शकों को विचार करना होगा कि जिस सिनेमा को हम अपने परिवार के साथ नहीं देख सकते या जिसे हम अपने बच्चों को नहीं दिखा सकते, उसका बहिष्कार क्यों न किया जाए?
यह तो सभी जानते हैं कि भारत में सिनेमा की शुरुआत दादा साहब फाल्के ने की। दादा साहब फाल्के का सही नाम धुन्दीराज गोविंद फाल्के था। १९११ में उन्होंने ईसा मसीह के जीवन पर बनी फिल्म देखी। इसके बाद उनके मन में विचारों का ज्वार उमडऩे लगा। भारत के महापुरुषों और इतिहास को आधार बनाकर फिल्म बनाने के विचार दादा साहब के मन में आने लगे। जब विचारों ने मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया तो उन्होंने फिल्म बनाने का संकल्प लिया। फिल्म निर्माण की कला सीखने के लिए वे लंदन पहुंच गए। लंदन में दो साल रहकर उन्होंने सिनेमा निर्माण की तकनीकी सीखी। वहां से कुछ जरूरी उपकरण लेकर वे भारत वापस आए। काफी मेहनत-मशक्कत के बाद उन्होंने भारतीय जन-जन में रचे-बसे चरित्र राजा हरिशचन्द्र पर फिल्म बनाई। ३ मई १९१३ को भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म प्रदर्शित हुई। यह मूक फिल्म थी। दादा साहब को उनके साथियों ने खूब कहा कि फिल्म का आइडिया बकवास है, तुम्हारी फिल्म कोई देखने नहीं आएगा, भारत की जनता को फिल्म देखने का सऊर नहीं। लेकिन, 'राजा हरिशचन्द्र' की लोकप्रियता ने सारे कयासों को धूमिल कर दिया। इस तरह भारत में दुनिया के विशालतम फिल्म उद्योग बॉलीवुड की नींव पड़ी।
यहां गौर करने लायक बात है कि दादा साहब जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने एक सुने-सुनाए, जन-जन में रचे-बसे चरित्र पर फिल्म क्यों बनाई? संभवत: उन्हें सिनेमा के प्रभाव का ठीक-ठीक आकलन था। सिनेमा लोगों के अंतर्मन को प्रभावित करता है। उनके जीवन में बदलाव लाने का सशक्त माध्यम है। इसके अलावा उनके मन में सिनेमा से रुपयों का ढेर लगाने खयाल नहीं था। ईसा मसीह के जीवन पर बनी फिल्म को देखकर उनके मन में पहला विचार यही कौंधा कि भारत के महापुरुषों पर भी फिल्म बननी चाहिए। ताकि लोग उनके जीवन से प्रेरणा लेकर स्वस्थ्य समाज का निर्माण कर सकें। हरिशचन्द्र सत्य की मूर्ति हैं। सत्य मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी पूंजी, उपलब्धी और सर्वोत्तम गुण है। 'राजा हरिशचन्द्र' के बाद भी लंबे समय तक भारत में बनाई जाने वाली फिल्में संस्कार और शिक्षाप्रद थीं। १४ मार्च १९३१ को प्रदर्शित पहली बोलती फिल्म आलमआरा और १९३७ में प्रदर्शित पहली रंगीन फिल्म किसान कन्या की कहानी साहित्य से उठाई गई थी। भारतीय सिनेमा लंबे समय तक सीधे तौर पर भारतीय साहित्य से जुड़ा रहा। बंकिमचन्द्र और प्रेमचंद की कृतियों पर सिनेमा रचा गया, जिसने समाज को दिशा दी। रचनात्मक सिनेमा गढऩे के लिए गुरुदत्त, हिमांशु रॉय, सत्यजीत रे, वी. शांताराम, विमल रॉय, राजकपूर, नितिन बॉस, श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों को हमेशा याद किया जाएगा। लेकिन, २१ वीं सदी की शुरुआत से ही बॉलीवुड के रंग-ढंग बदलने लगे। महेश भट्ट जैसे तमाम भटके हुए निर्देशकों ने भारतीय सिनेमा की धुरी साहित्य और संस्कृति से हटाकर नग्नता पर टिका दी। मनुष्य के दिमाग को शिक्षा देने वाले साधन को दिमाग में गंदगी भरने वाला साधन बना दिया। 'आज बन रहीं फिल्में परिवार के साथ बैठकर देखने लायक नहीं है' यह वाक्य बॉलीवुड के लिए आज हर कोई कहता है। इसके बावजूद भट्ट सरीखे निर्देशक कहते हैं कि हम वही बना रहे हैं जो समाज देखना चाहता है। अब ये किस समाज से पूछकर सिनेमा बनाते हैं यह तो पता नहीं। लेकिन, मेरे आसपास और दूर तक बसा समाज तो इस तरह की फिल्म देखना कतई पसंद नहीं करता। खासकर अपने माता-पिता, भाई-बहन और बच्चों के साथ तो नहीं ही देखता। ऐसी फिल्में समाज देखना नहीं चाहता इसका ताजा उदाहरण है- टेलीविजन पर डर्टी फिक्चर के प्रसारण का विरोध। यहां इस बात को भी समझिए कि समाज घर में तो ऐसी फिल्म नहीं देखना चाहता लेकिन घर के बाहर उसे परहेज नहीं है। इसी डर्टी फिक्चर की कमाई यह सच बताती है। लेकिन, इस सब में एक बात साफ है कि डर्टी टाइप की फिल्में समाज हित में नहीं हैं। डेल्ही बेल्ही, लव सेक्स और धोखा, ब्लड मनी, मर्डर, हेट स्टोरी, जिस्म और आने वाली फिल्म जिस्म-२ (इसमें पॉर्न एक्ट्रेस नायिका है) जैसी फिल्में समाज में क्या प्रभाव छोड़ रहीं हैं कहने की जरूरत नहीं है। इनके प्रभाव से निर्मित हो रहा समाज भारत के लोगों की चिंता जरूर बढ़ा रहा है लेकिन वे भी हाथ और मुंह बंद किए बैठे हैं। भारतीय सिनेमा के पिछले पांच-छह सालों को देखकर इसका आने वाला भविष्य उज्वल नहीं दिखता। आज बॉलीवुड १००वें साल में प्रवेश कर रहा है, इसकी और समाज की बेहतरी के लिए निर्माताओं, निर्देशकों और दर्शकों को विचार करना होगा। निर्माता-निर्देशकों को विचार करना होगा क्या कैमरे को नंगई के अलावा कहीं और फोकस नहीं किया जा सकता? दर्शकों को विचार करना होगा कि जिस सिनेमा को हम अपने परिवार के साथ नहीं देख सकते या जिसे हम अपने बच्चों को नहीं दिखा सकते, उसका बहिष्कार क्यों न किया जाए?
बहिस्कार तो लोग करने लगे है,,,अब कहाँ कौन से थियेटर में सिल्वर जुबली मनाई जाती है,,न जाने कितने थियेटर बंद होगये है और कई बंद होने के कगार पर हैआपसे सहमत हूँ कि ऐसी फिल्मो का बहिस्कार होनाही चाहिए,,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: आश्वासन,,,,,
चिंता कुछ लोगों के लिए बची है, ज्यादा तो मुंह हाथ समेटे बैठे हैं|
जवाब देंहटाएंगलत चीज का सही विरोध भी होना चाहिए और सही चीज का सही प्रचार भी| याद कीजिये रामायण, महाभारत सीरियल्स का समय, मेरा मतलब ये है कि अच्छी सामग्री अगर रोचक तरीके से पेश की जाए तो दर्शकों के सामने एक विकल्प रहता है| आपकी 'उपनिषद गंगा' वाली पिछली पोस्ट को उसी दिशा में मानकर चल रहा हूँ|
आपकी बताई फिल्मों में मैं 'धूम' 'बंटी और बबली' जैसी फिल्मों का भी नाम लेना चाहूँगा| ग्लैमर का तडका देकर युवाओं को easy money वाले रास्ते की तरफ उकसाती हैं ऐसी फ़िल्में जिनसे कुछ समय की मौज मस्ती और भविष्य अंधकारमय होता है|
हटाएंshrimaan lokendra...
जवाब देंहटाएंaapka ye article padha jo nihayati dakiyanoosi aur diplomatic hai...
ham kab tak samaaj ko duhayee dekar wo saare kaam karne ya karne walon ka bahishkaar karte rahenge jo sach hain...sachchayee par tiki hain...films hame kisi raah ki taraf jaane ko majboor nhi karti...ye hame sirf apna raasta chunne ki aazadi deti hain...hamari soch mazboot karti hain, hamara nazariya badhati hain, hamare saamne wo saari cheezein bilkul tatasth bhav se rakhti hain jo hamara ye tathakathit samaaj hame kabhi nahi sikha sakta...aapke article me jin bhi filmon ke naam ginaye kya kabhi aapne un films ke ant par gaur kiya...wo bilkul sapeksh hain aur tamam tarah ki mushkilon se guzarne ke baad bhi insaan ki androoni taqat, uski sachchayee ko hi dikhati hai...
so i am sorry to say ki ye article nihayati bakwaas hai...
ये तो अपनी अपनी पसंद है स्मृति जी, आपको आर्टिकल बकवास लगता है और आपने कहा भी वैसे ही किसी को ये फ़िल्में भी सिर्फ बकवास नहीं बल्कि निहायत बेहूदी भी लग सकती हैं और वही इन्होने लिखा भी है|
हटाएंस्मृति मिश्रा जी, आप अपनी जगह सही है और लोकेन्द्र जी अपनी जगह ! शायद आपको लगा होगा कि लोकेन्द्र जी का लेख इकतरफा है, किन्तु अगर आप गौर करें तो आपकी प्रतिक्रया भी तो इकतरफा ही है !हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां एक और सिनेमाजगत का इस समाज में एक विशिष्ठ योगदान है तो वहीं दूसरी तरफ इस दौर में जब हर कोई सिर्फ आर्थिक उन्नति के शिखर को छूने की बात करता हैं, जरूरी है कि समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाने हेतु वचनबद्ध भी हों, क्योंकि यदि हम सामाजिक दुष्प्रभावों को भुला बैठेंगे तो आत्मघात के बीज बो बैठेंगे! जिम्मेदारी वो चाहे सिनेमाजगत की हो या फिर आम नागरिक की उसे निभाना मानव प्रगति की ऊर्जा है! इसे भुलाते ही हम विफल हो जाएंगे और बिखर भी जाएंगे!
हटाएंअच्छा आलेख. मैंने नरेन्द्र कोहली के पुस्तक की समीक्षा भी पढी थी. बढियाँ. बधाई.
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपके लेख से ... सिनेमा जहाँ एक जिम्मेदारी की भूमिका निभा सकता है वहीं वो सिर्फ चंद लोगों की मिलकियत बन के जो मर्जी आए परोस रहा है .... देखने वाले मजबूर हैं ...
जवाब देंहटाएंभारतीय सिनेमा ने निसंदेह एक इतिहास रचा है , लेकिन पिछले एक दशक में अश्लीलता और फूहड़ता ने भी अपना रिकार्ड कायम किया है। बेस्वाद, अभद्र गाने, भाषा, और परिधान ने बहुत लज्जित किया है।
जवाब देंहटाएंभारतीय सिनेमा के सफर पर आपने दिलचस्प टिप्पणी लिखी है दादा साहब के दोस्तों की टिप्पणी के बारे में हमें खबर ही नहीं थी। आपकी चिंता जायज है भारतीय सिनेमा सुंदर से डर्टी होता जा रहा है लेकिन यहाँ हमें यह भी सोचना होगा कि डेल्ही बेली और डर्टी पिक्चर की उम्र लंबी नहीं है लोग उन्हें मुन्नी और शीला की तरह भूल गए हैं आप जैसे लोग जो बालीवुड पर बारीक नजर रखते हैं दादा साहब और गुरुदत्त जैसे लोगों को ही भविष्य में भी याद रखेंगे।
जवाब देंहटाएंकभी आदर्श भी अपने थे फिर उनकी बुतशिकनी हुई, फिर आदर्श आयात करने की ज़रूरत पड़ी और अब इतना कष्ट भी क्यों उठाया जाये, बनी बनाई फ़िल्म की नकल टीपना सबसे आसान काम है। राजा हरिश्चन्द्र फिल्म नहीं देखी पर उनके चरित्र को खूब पढा-गुना है और दादा साहब फाल्के की भावनाओं को आसानी से समझा जा सकता है। सत्पुरुषों के सामने अपना उद्देश्य ही रहता है साधन कोई भी हो लेकिन उसका विलोम भी उतना ही सच है। कुसंस्कार और अपसंस्कृति को ही ओढने बिछाने वाले भी हैं। खैर, शतकवीर होने की बधाई, कई अच्छी फ़िल्में आज भी बनती हैं, इसी में खुश हो लेते हैं।
जवाब देंहटाएंभारतीय सिनेमा के 99 सालों के सफर और समाज के लिए उसकी उपादेयता पर अच्छा और सारगर्भित विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंआज की फिल्में समाजोपयोगी कतई नहीं हैं।
बढ़िया आलेख।
भारतीय सिनेमा के सफ़र की बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंachchha lekh...recently " gang of vasseypur" ne galiyon ke sare record tod diye hai.bhagwan bachaye.........
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