छो टा-सा बच्चा एक दिन घर-घर खेल रहा था। उसने अपने घर का डिजाइन बनाया। बच्चे ने एक छोटा-सा कमरा मुख्य भवन से दूर बनाया था। बालक के पिता ने डिजााइन देखा और बेटे को शाबासी देते हुए पूछा - वाह! सोनू, बहुत अच्छा घर बनाया है। यह कहकर उसने अपने बेटे को गोद में उठा लिया। फिर पिता ने पूछा कि - अच्छा बेटे, एक बात तो बताओ कि ये छोटा-सा कमरा क्यों बनाया है। तब उस बच्चे ने कहा - यह कमरा आपके और मम्मी के लिए है, जब आप बूढ़े हो जाएंगे। मैं और मेरी पत्नी इस घर में रहेंगे और आप उस कमरे में रहेंगे। जैसे अभी दादा-दादी रहते हैं। बाहर बने दूसरे कमरे में।
बच्चे की बात सुनकर पिता को अपनी गलती का अहसास हुआ। फिर उसने अपनी गलती सुधारी या नहीं, पता नहीं। लेकिन, इस कहानी से साफ होता है कि हम अपने माता-पिता के साथ जैसा कर रहे हैं, वैसा ही बुढ़ापे में हमारे बेटे हमारे साथ करने वाले हैं।
दरअसल, भेल की ओर से भोपाल में संचालित वृद्धाश्रम 'आनंदम्' के वाकये से यह कहानी याद आई। भेल प्रबंधन के एक फैसले से 'आनंदम्' में रह रहे कई बुजुर्गों के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। उन्हें खबर लगी थी कि 'आनंदम्' बंद होने वाला है। ऐसे में उन्हें यहां से जाना होगा। लेकिन, कहां जाएंगे? यह तय नहीं था। सभी बुजुर्गों को उनके अपनों ने घर से तो पहले ही बेदखल कर दिया था। इसलिए घर का रास्ता तो वे जानबूझकर याद करना नहीं चाहते थे। इन बुजुर्गों ने अपनी तमाम युवा अवस्था बच्चों की बेहतर परवरिश में खपा दी थी। एक आस थी कि बच्चे बुढ़ापे की लाठी बन जाएंगे और उनको खुश देखकर सुकून से जिंदगी बसर हो जाएगी। बच्चे बड़े भी हो गए और बड़े आदमी भी बन गए, लेकिन बुजुर्ग अब भी जिंदगी की जंग में हैं। अपने बेटों के आलीशान घरों, बंगलों और फ्लैटों में उन्हें इतनी सी भी जगह मयस्सर नहीं कि वे अपनी जिन्दगी की शाम वहां बिता सकें। यह भी संभव है कि बेटों ने अपने माता-पिता को बेदखल कर जिन भवनों पर कब्जा जमा रखा है उनकी नींव में इनकी पसीने की इक बूंद तक न हो। वह भी मां-बाप की कमाई हो।
हालांकि भेल प्रबंधन ने 'आनंदम्' को बंद करने की बात को कोरी अफवाह बताया है। लेकिन, इस मसले से कई सवाल उपजे। उनमें सबसे महत्वपूर्ण है कि भारत और भारतवासियों की दशा और दिशा क्या हो गई हैं। उनकी प्राथमिकताएं ऐश-ओ-आराम है या सेवा और कर्तव्य। युवा सोच को क्या हो गया है? किस रास्ते पर चल निकले हैं ये? जिन मां-बाप ने तमाम कष्ट सहकर, अपनी इच्छाओं को तिलांजलि देकर पहले अपने बच्चे की ख्वाहिश पूरी की। आज उनके बच्चे उन्हें अपने साथ रखने को तैयार नहीं। ऐसी परिस्थितियों में जब कई बार मां-बाप बच्चों पर हक जताते हुए कहते हैं कि बेटे हमने अपना सारा जीवन तुम्हारी बेहतरी के लिए लगा दिया, क्या अब तुम्हारा इतना भी फर्ज नहीं बनता कि हमें बुढ़ापे में दो वक्त की रोटी और सिर छुपाने को छत दे सको। तब अधिकांश मामलों में बच्चों द्वारा जवाब दिया जाता है - 'यह तो आपका फर्ज था। इतना भी नहीं कर सकते थे तो हमें पैदा क्यों किया?' इन नालायक औलादों से पूछना चाहिए कि जिस तरह आज तुम अपना फर्ज भूल रहे हो वैसे ही यदि जब तुम इनकी तरह असहाय थे और ये अपना फर्ज भूल जाते तब तुम्हारा क्या होता? निश्चित ही कहीं सड़ रहे होते। दरअसल, ये लोग इस भ्रम में होते हैं कि हम जैसा कर रहे हैं वैसा हमें नहीं भोगना होगा। लेकिन, दोस्त पृकृति का नियम है जैसा करोगे वैसा भरोगे। आज नहीं तो कल।
यह दास्तान सिर्फ भेल भोपाल के 'आंनदम्' में रहने वाले बुजुर्गों की नहीं है। देशभर में यह बीमारी फैली हुई है। इसका इलाज जरूरी है। कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि केरल के एर्नाकुलम में 88 वर्षीय वृद्ध भास्करन नायर ने बेटों द्वारा जबरन वृद्धाश्रम भेजे जाने से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। वृद्ध के आठ बेटे थे। एक भी बेटा उन्हें अपने साथ रखने को तैयार नहीं हुआ। सोचो! कभी एक ने आठ को पाला था। आज आठ एक को नहीं पाल पा रहे हैं। वहीं मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर के एक बेटे ने एक प्लॉट को पाने के लिए अपनी जीवित मां को मृत घोषित कर दिया। दरअसल 62 वर्षीय रेशमा वेदी पाल के नाम से ग्वालियर में एक प्लॉट था। इसे हथियाने के लिए उसके बेटे नीरज ने कागजों में अपनी मां को मार दिया। गांव से उसने अपनी मां का फर्जी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाया। इसके बाद उस प्लॉट अपने नाम करवाकर बेच दिया। अब विधवा अबला न्याय की उम्मीद लिए नगर निगम और पुलिस अफसरों के दफ्तरों में चक्कर काट रही है। ऐसी दु:खद और शर्मनाक घटनाएं भरी पड़ी हैं। एक खोजो चार मिलेंगी। क्योंकि लोग अधिकारों की बात तो कर रहे हैं लेकिन जिम्मेदारी और कर्तव्य से बच रहे हैं। अपने लिए तो सम्मान की चाह है लेकिन दूसरे के सम्मान की फिक्र नहीं। एक और बात है घर से बुजुर्गों को दूर करना एक तरह से घर से छत हटाने जैसा है। बुजुर्ग घर में संस्कार की पाठशाला भी होते हैं। लेकिन, अब घर में उनके नहीं होने से नौनिहालों का लालन-पालन भी मशीनी हो गया है। इसीलिए उनमें संस्कारों की कमी साफ देखी जा रही है।
आखिर में इतना ही, क्या इन वृद्ध दंपत्तियों ने भी कहानी के अनुसार गलती की थी। माना कि इन्होंने वह गलती की थी। अब इनके बच्चे उसी परंपरा पर चल निकले हैं। ऐसे में क्या यह माना जाना चाहिए कि यह परंपरा हमेशा के लिए बन जाएगी।
बच्चे की बात सुनकर पिता को अपनी गलती का अहसास हुआ। फिर उसने अपनी गलती सुधारी या नहीं, पता नहीं। लेकिन, इस कहानी से साफ होता है कि हम अपने माता-पिता के साथ जैसा कर रहे हैं, वैसा ही बुढ़ापे में हमारे बेटे हमारे साथ करने वाले हैं।
दरअसल, भेल की ओर से भोपाल में संचालित वृद्धाश्रम 'आनंदम्' के वाकये से यह कहानी याद आई। भेल प्रबंधन के एक फैसले से 'आनंदम्' में रह रहे कई बुजुर्गों के माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। उन्हें खबर लगी थी कि 'आनंदम्' बंद होने वाला है। ऐसे में उन्हें यहां से जाना होगा। लेकिन, कहां जाएंगे? यह तय नहीं था। सभी बुजुर्गों को उनके अपनों ने घर से तो पहले ही बेदखल कर दिया था। इसलिए घर का रास्ता तो वे जानबूझकर याद करना नहीं चाहते थे। इन बुजुर्गों ने अपनी तमाम युवा अवस्था बच्चों की बेहतर परवरिश में खपा दी थी। एक आस थी कि बच्चे बुढ़ापे की लाठी बन जाएंगे और उनको खुश देखकर सुकून से जिंदगी बसर हो जाएगी। बच्चे बड़े भी हो गए और बड़े आदमी भी बन गए, लेकिन बुजुर्ग अब भी जिंदगी की जंग में हैं। अपने बेटों के आलीशान घरों, बंगलों और फ्लैटों में उन्हें इतनी सी भी जगह मयस्सर नहीं कि वे अपनी जिन्दगी की शाम वहां बिता सकें। यह भी संभव है कि बेटों ने अपने माता-पिता को बेदखल कर जिन भवनों पर कब्जा जमा रखा है उनकी नींव में इनकी पसीने की इक बूंद तक न हो। वह भी मां-बाप की कमाई हो।
हालांकि भेल प्रबंधन ने 'आनंदम्' को बंद करने की बात को कोरी अफवाह बताया है। लेकिन, इस मसले से कई सवाल उपजे। उनमें सबसे महत्वपूर्ण है कि भारत और भारतवासियों की दशा और दिशा क्या हो गई हैं। उनकी प्राथमिकताएं ऐश-ओ-आराम है या सेवा और कर्तव्य। युवा सोच को क्या हो गया है? किस रास्ते पर चल निकले हैं ये? जिन मां-बाप ने तमाम कष्ट सहकर, अपनी इच्छाओं को तिलांजलि देकर पहले अपने बच्चे की ख्वाहिश पूरी की। आज उनके बच्चे उन्हें अपने साथ रखने को तैयार नहीं। ऐसी परिस्थितियों में जब कई बार मां-बाप बच्चों पर हक जताते हुए कहते हैं कि बेटे हमने अपना सारा जीवन तुम्हारी बेहतरी के लिए लगा दिया, क्या अब तुम्हारा इतना भी फर्ज नहीं बनता कि हमें बुढ़ापे में दो वक्त की रोटी और सिर छुपाने को छत दे सको। तब अधिकांश मामलों में बच्चों द्वारा जवाब दिया जाता है - 'यह तो आपका फर्ज था। इतना भी नहीं कर सकते थे तो हमें पैदा क्यों किया?' इन नालायक औलादों से पूछना चाहिए कि जिस तरह आज तुम अपना फर्ज भूल रहे हो वैसे ही यदि जब तुम इनकी तरह असहाय थे और ये अपना फर्ज भूल जाते तब तुम्हारा क्या होता? निश्चित ही कहीं सड़ रहे होते। दरअसल, ये लोग इस भ्रम में होते हैं कि हम जैसा कर रहे हैं वैसा हमें नहीं भोगना होगा। लेकिन, दोस्त पृकृति का नियम है जैसा करोगे वैसा भरोगे। आज नहीं तो कल।
यह दास्तान सिर्फ भेल भोपाल के 'आंनदम्' में रहने वाले बुजुर्गों की नहीं है। देशभर में यह बीमारी फैली हुई है। इसका इलाज जरूरी है। कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि केरल के एर्नाकुलम में 88 वर्षीय वृद्ध भास्करन नायर ने बेटों द्वारा जबरन वृद्धाश्रम भेजे जाने से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। वृद्ध के आठ बेटे थे। एक भी बेटा उन्हें अपने साथ रखने को तैयार नहीं हुआ। सोचो! कभी एक ने आठ को पाला था। आज आठ एक को नहीं पाल पा रहे हैं। वहीं मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर के एक बेटे ने एक प्लॉट को पाने के लिए अपनी जीवित मां को मृत घोषित कर दिया। दरअसल 62 वर्षीय रेशमा वेदी पाल के नाम से ग्वालियर में एक प्लॉट था। इसे हथियाने के लिए उसके बेटे नीरज ने कागजों में अपनी मां को मार दिया। गांव से उसने अपनी मां का फर्जी मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाया। इसके बाद उस प्लॉट अपने नाम करवाकर बेच दिया। अब विधवा अबला न्याय की उम्मीद लिए नगर निगम और पुलिस अफसरों के दफ्तरों में चक्कर काट रही है। ऐसी दु:खद और शर्मनाक घटनाएं भरी पड़ी हैं। एक खोजो चार मिलेंगी। क्योंकि लोग अधिकारों की बात तो कर रहे हैं लेकिन जिम्मेदारी और कर्तव्य से बच रहे हैं। अपने लिए तो सम्मान की चाह है लेकिन दूसरे के सम्मान की फिक्र नहीं। एक और बात है घर से बुजुर्गों को दूर करना एक तरह से घर से छत हटाने जैसा है। बुजुर्ग घर में संस्कार की पाठशाला भी होते हैं। लेकिन, अब घर में उनके नहीं होने से नौनिहालों का लालन-पालन भी मशीनी हो गया है। इसीलिए उनमें संस्कारों की कमी साफ देखी जा रही है।
आखिर में इतना ही, क्या इन वृद्ध दंपत्तियों ने भी कहानी के अनुसार गलती की थी। माना कि इन्होंने वह गलती की थी। अब इनके बच्चे उसी परंपरा पर चल निकले हैं। ऐसे में क्या यह माना जाना चाहिए कि यह परंपरा हमेशा के लिए बन जाएगी।
बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय?
जवाब देंहटाएं"लोग अधिकारों की बात तो कर रहे हैं लेकिन जिम्मेदारी और कर्तव्य से बच रहे हैं। अपने लिए तो सम्मान की चाह है लेकिन दूसरे के सम्मान की फिक्र नहीं। एक और बात है घर से बुजुर्गों को दूर करना एक तरह से घर से छत हटाने जैसा है। बुजुर्ग घर में संस्कार की पाठशाला भी होते हैं। लेकिन, अब घर में उनके नहीं होने से नौनिहालों का लालन-पालन भी मशीनी हो गया है। इसीलिए उनमें संस्कारों की कमी साफ देखी जा रही है।"
जवाब देंहटाएंबस यही समझ लें सब.
--
लोकेन्द्र जी, जिम्मेदार आलेख के लिए बधाई!!
सही बात लेकिन लोग समझ कर भी नहीं समझते हैं.
जवाब देंहटाएंyah kahani katu satya hai Lokendra ji...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लगा! सत्य कहानी को बहुत सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है!
जवाब देंहटाएंसुलभ का उठाया प्वाईंट बहुत मायने रखता है। कर्तव्य भुलाकर अहिकार को सबकुछ मान लेने की मानसिकता के फ़ल हैं ये सब।
जवाब देंहटाएं