सोमवार, 3 नवंबर 2025

जब आरएसएस के संस्थापक और आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा- “मैं अपनी आँखों के सामने लघु भारत देख रहा हूँ”

संघ शताब्दी वर्ष : संघ के विकास का पहला चरण


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। यह बात संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को पहले दिन से पता थी। संघ सृष्टि और संघ दृष्टि सब डॉक्टर साहब की दूरदृष्टि में शामिल थी। संघ के विकास के लिए जिस प्रक्रिया की आवश्यकता थी, उसी के अनुरूप उन्होंने संघ का वातावरण तैयार किया। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”। हनुमानजी में असीम शक्तियां पहले से विद्यमान थी लेकिन उन्हें भान नहीं है। जामवंत जी ने हनुमान जी से कहा, “कवन सो काज कठिन जग माहीं” (ऐसा कौन-सा कार्य है जो इस दुनिया में कठिन है), जो आपसे नहीं हो सकता है। उन्होंने रामकाज के लिए हनुमान जी को उनकी शक्ति और बुद्धि का स्मरण कराया। इसी प्रकार हिन्दू समाज सब प्रकार से सामर्थ्यवान है, उसे बस बीच-बीच में जागृत करना पड़ता है। हिन्दू समाज को उसका सामर्थ्य याद दिलाने के लिए समय-समय पर अनेक महापुरुष आए और उन्होंने अपने दृष्टिकोण से कार्य किया। इसलिए डॉक्टर साहब ने कहा कि वह कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहे हैं। लेकिन यह याद रखना होगा कि संघ कार्य की पद्धति बाकी सबसे अलग है, जिसका विकास देश-काल परिस्थिति के अनुरूप हुआ है। जैसे-जैसे संघ का सामर्थ्य बढ़ा, संघ ने अपने कार्य का विस्तार किया है। यह भी कह सकते हैं कि समाज को जब जिस प्रकार की आवश्यकता रही, संघ ने उसके अनुसार अपना कार्य विस्तार किया है। जब हम आरएसएस की 100 वर्ष की यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं तो संघ के विकास के पाँच चरण प्रमुखता से दिखायी देते हैं- 

1. संगठन (1925 से 1950) 

2. कार्य विस्तार (1950 से 1988)

3. सेवाकार्यों को गति (1889 से 2006) 

4. समाज की सज्जनशक्ति के साथ कदमताल (2006 से 2025)

5. समाज ही बने संघ (शताब्दी वर्ष से आगे की योजना) 

अपनी स्थापना के बाद पहले चरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व ने पूरा ध्यान संगठन की जड़ों को मजबूत करने पर दिया। क्योंकि डॉक्टर साहब देख रहे थे कि भविष्य में स्वयंसेवकों को समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में कार्य करना है, उसके लिए मजबूत संगठन चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेन्द्र कुमार लिखते हैं कि “डॉ. हेडगेवार ने संघ स्थापना का लक्ष्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित कर हिन्दुत्व के अधिष्ठान पर भारत को समर्थ और परमवैभवशाली राष्ट्र बनाना रखा। इस महत्वपूर्ण कार्य हेतु वैसे ही गुणवान, अनुशासित, देशभक्ति से ओत-प्रोत, चरित्रवान एवं समर्पित कार्यकर्ता आवश्यक थे। ऐसे कार्यकर्ता निर्माण करने के लिए उन्होंने एक सरल, अनोखी किन्तु अत्यंत परिणामकारक दैनन्दिन ‘शाखा’ की कार्यपद्धति संघ में विकसित की”। 

नागपुर के बाहर भी संघ की शाखाएं शुरु होनी चाहिए इसी उद्देश्य के साथ 18 फरवरी, 1926 को डॉक्टर साहब अप्पाजी जोशी के पास वर्धा गए। अर्थात् नागपुर के बाहर वर्धा में पहली शाखा लगी। 1930 से डॉक्टर साहब ने कार्यकर्ताओं को प्रचारक के रूप में देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजकर शाखाएं शुरु करायीं। भाऊराव देवरस (लखनऊ), राजाभाऊ पातुरकर (लाहौर), वसंतराव ओक (दिल्ली), एकनाथ रानाडे (महाकौशल), माधवराव मूळे (कोंकण), जनार्दन चिंचालकर एवं दादाराव परमार्थ (दक्षिण भारत), नरहरि पारिख एवं बापूराव दिवाकर (बिहार) और बालासाहब देवरस (कोलकाता) ने संघ कार्य का विस्तार करना शुरू किया। परिणामस्वरूप, लगभग एक दशक बाद देशभर में 600 से अधिक शाखाएँ और लगभग 70,000 स्वयंसेवक सक्रिय हो गए। वर्ष 1939 तक दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रांत, बंबई (वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात) में संघ शाखाएँ लगनी शुरू हो गईं। सन् 1940 तक असम तथा उड़ीसा छोड़कर शेष सभी प्रान्तों में संघ शाखाएँ प्रारम्भ हो गई थीं। 

डॉक्टर साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे। इस दौरान शाखाओं के माध्यम से संगठन खड़ा करने की प्रणाली उन्होंने विकसित कर ली थी। डॉक्टर साहब कहते थे- “अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिए, उस जाल को अधिकतम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघ शाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय स्वतंत्रता से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएं निश्चित रूप से हल हो जाएंगी”।

संघ ठीक प्रकार से चले इसके लिए प्रशिक्षण का महत्व ध्यान में आया तब 1927 से संघ शिक्षा वर्ग प्रारंभ किए गए। पहले वर्ग 17 चयनित कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण हुआ, तब इसे ‘अधिकारी शिक्षण वर्ग’ कहते थे। 1940 में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग में 1400 स्वयंसेवक शामिल हुए थे। तब डॉक्टर साहब ने कहा था कि “मैं अपनी आँखों के सामने एक लघु भारत देख रहा हूँ”। संघ कार्य को दृढ़ करने के लिए संगठन का आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। इसी दृष्टि से डॉक्टर साहब ने 1928 में गुरु दक्षिणा की अभिनव पद्धति प्रारंभ करके संघ को स्वावलंबी बना दिया। उसी वर्ष पहली बार ‘प्रतिज्ञा’ कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ। प्रतिज्ञा, संघ कार्य के प्रति स्वयंसेवकों के मन में श्रद्धा एवं निष्ठा उत्पन्न करती है।

स्वदेश ज्योति में संघ शताब्दी वर्ष पर प्रति रविवार प्रकाशित होनेवाले कॉलम में प्रकाशित आलेख

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

आरएसएस की पहली शाखा में 6 स्वयंसेवक और आज 83 हजार से अधिक दैनिक शाखाएं

संघ शताब्दी वर्ष : संघ के विकास की तस्वीर


नागपुर के मोहिते के बाड़े में लगी आरएसएस की पहली शाखा (Chat GPT और Google Gemini से निर्मित छवि)

आज संघ कार्य का विस्तार समूचे भारत में है। जन्मजात देशभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जब नागपुर में संघ की स्थापना की थी, तब उनके अलावा शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह बीज एक दिन वटवृक्ष बनेगा। नागपुर में मोहिते के बाड़े में 6 लोगों के साथ पहली शाखा प्रारंभ हुई, जिनमें 5 छोटे बच्चे थे। इस कारण उस समय में लोगों ने हेडगेवार जी का उपहास उड़ाया था कि बच्चों को लेकर क्रांति करने आए हैं। परंतु डॉक्टर साहब लोगों के इस उपहास से विचलित नहीं हुए। व्यक्ति निर्माण के अभिनव कार्य को स्थापित करने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। बच्चों की शाखा देखकर संघ कार्य का उपहास उड़ा रहे लोगों को ही नहीं अपितु संघ कार्य के प्रति सद्भावना रखनेवाले बंधुओं ने भी सोचा नहीं होगा कि मोहिते के बाड़े से निकलकर संघकार्य देश-दुनिया में फैल जाएगा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन बन जाएगा।

जहाँ 1925 में संघ की पहली शाखा में 6 स्वयंसेवक थे, वहीं आज संघ करोड़ों कार्यकर्ताओं का ‘संघ परिवार’ हो गया है। वर्तमान में सम्पूर्ण भारत के कुल 924 जिलों (संघ की योजना अनुसार) में से 98.3 प्रतिशत जिलों में संघ की शाखाएँ चल रही हैं। कुल 6,618 खंडों में से 92.3 प्रतिशत खंडों (तालुका), कुल 58,939 मंडलों (मंडल अर्थात 10–12 ग्रामों का एक समूह) में से 52.2 प्रतिशत मंडलों में, 51,710 स्थानों पर 83,129 दैनिक शाखाओं तथा अन्य 26,460 स्थानों पर 32,147 साप्ताहिक मिलन केंद्रों के माध्यम से संघ कार्य का देशव्यापी विस्तार हुआ है, जो लगातार बढ़ रहा है। इन 83,129 दैनिक शाखाओं में से 59 प्रतिशत शाखाएँ छात्रों की हैं तथा शेष 41 प्रतिशत व्यवसायी स्वयंसेवकों की शाखाओं में से 11 प्रतिशत शाखाएँ प्रौढ़ (40 वर्ष से ऊपर आयु) स्वयंसेवकों की हैं। बाकी सभी शाखाएँ युवा व्यवसायी स्वयंसेवकों की हैं।

देखें- RSS की शाखा में आए डॉ. भीमराव अंबेडकर

संघ की शाखा यानी स्वयंसेवकों का नित्य का मिलन स्थान, जहाँ स्वयंसेवक एकत्र आते हैं, व्यायाम करते हैं, खेल खेलते हैं, गीत गाते हैं और भारत माता को परम वैभव पर ले जाने का संकल्प लेते हुए प्रार्थना करते हैं। संघ में शाखा का बहुत महत्व है। संघ कार्य की प्राण शाखा है। कार्यकर्ता निर्माण का केंद्र भी यही शाखा है। संघ की शाखा का विकास और उसके पाठ्यक्रम भी समय के साथ विकसित हुए हैं। प्रारंभिक दिनों में संघ के आज के समान प्रतिदिन के कार्यक्रम नहीं थे। स्वयंसेवकों से केवल इतनी अपेक्षा थी कि सभी किसी भी व्यायामशाला में जाकर पर्याप्त व्यायाम करें। संघ के सभी स्वयंसेवक नागपुर की ‘महाराष्ट्र व्यायामशाला’ के एकत्र आते थे। वहीं, रविवार के दिन सभी स्वयंसेवक ‘इतवारी दरवाजा पाठशाला’ में एकत्र होते थे। कुछ दिनों पश्चात् मार्तण्डराव जोग की देखरेख में सैनिक प्रशिक्षण भी प्रारम्भ कर दिया गया। प्रारम्भ में कुछ महीनों तक रविवार और गुरुवार को राजकीय वर्ग (जिसे 1927 के बाद ‘बौद्धिक वर्ग’ कहा जाने लगा) होता था। इस वर्ग में देश की वर्तमान परिस्थिति, अपने कर्तव्य का बोध और संगठन मजबूत करने के लिए क्या प्रयत्न किए जाएँ, इसकी जानकारी दी जाती थी। इसी प्रकार, शाखा में व्यायाम, खेल, समता और बौद्धिक के कालखंड प्रारंभ हुए।

देखें- लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक 'संघ दर्शन - अपने मन की अनुभूति' पर वरिष्ठ पत्रकार के विचार

संघ कार्य तीन प्रकार के अवरोधों को पार करके समाज व्यापी हुआ है। सबसे पहले संघ कार्य का उपहास उड़ाया गया। स्वभाविक ही लोगों का लगा होगा कि एक अच्छे-भले प्रतिष्ठित स्वतंत्रतासेनानी डॉ. हेडगेवार को क्या हो गया कि ये बच्चों को कबड्डी खिलाकर क्रांति करना चाहते हैं? भला बच्चों को एकत्र करने से कौन-सा आंदोलन खड़ा होगा? इसलिए भी लोगों ने पहले उपहास उड़ाया। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें डॉक्टर साहब की क्षमताओं पर विश्वास था। इसलिए उन्होंने प्रारंभ में ही संघ का कार्य ठप हो जाए, इस उद्देश्य से स्वयंसेवकों को हतोत्साहित करने के लिए उपहास उड़ाया। परंतु, संघकार्य के सहायक बने लोगों को डॉक्टर साहब की सोच पर पूर्ण विश्वास था। इसलिए उपहास के इस अवरोध को स्वयंसेवक हवा में उड़ाकर अपने संघ कार्य को आगे लेकर निकल पड़े। जब उपहास से कुछ न हुआ तो संघ विरोधियों ने उपेक्षा करना प्रारंभ किया। मानो, संघ का अस्तित्व ही नहीं है। यह कोई प्रभावी कार्य या आंदोलन नहीं है, जिसको महत्व दिया जाए। विरोधियों को क्या ही पता था कि जिन्होंने प्रसिद्धि परांगमुखता को अपनी साधना का मंत्र बनाया हो, उन्हें उपेक्षा की क्या चिंता? उपेक्षा भी संघ के विस्तार को रोक नहीं सकी तब विरोधियों ने अनेक विधि से संघकार्य का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। यहाँ तक कि लोगों (शासकीय कर्मचारी) को संघ में शामिल होने से रोकने के लिए अंग्रेजों के बनाए कानून को स्वतंत्र भारत में भी लागू किया गया। इससे भी बात नहीं बनी तो संघ की बदनामी की साजिश रची गईं। संविधान और लोकतंत्र की हत्या करते हुए संघ पर प्रतिबंध भी लगाए जाते रहे लेकिन संघ के बढ़ते कदमों को मदमस्त सत्ता रोक नहीं सकी। तथाकथित बुद्धिजीवियों ने भी अपनी बौद्धिकता का दुरुपयोग करते हुए संघ की छवि को बिगाड़ने का भरसक प्रयास किया लेकिन संघ की शाखा से निकले स्वयंसेवकों के प्रति समाज का विश्वास इतना पक्का था कि संघ की छवि कुंदन की तरह दमकती ही रही। इन तीनों अवरोधों को पार करते हुए संघ समाज के साथ एकरस होने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। आज संघ का कार्य सर्वस्पर्शी-सर्वव्यापी हो गया है। 

देखें- RSS के कार्यक्रमों में शामिल हो सकते हैं सरकारी कर्मचारी

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने जन्मा ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’

संघ शताब्दी वर्ष शृंखला : संघ की स्थापना की कहानी

Google Gemini AI द्वारा निर्मित छवि

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना किस उद्देश्य को लेकर हुई थी? यह प्रश्न संघ की 100 वर्ष की यात्रा को देखने और समझने में हमारी सहायता करता है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित व्याख्यानमाला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा : नये क्षितिज’ में इस प्रश्न के उत्तर में कहा- “डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और अन्य महापुरुषों का मानना था कि समाज के दुर्गुणों को दूर किए बिना स्वतंत्रता के सब प्रयास अधूरे रहेंगे। बार-बार गुलामी का शिकार होना इस बात का संकेत है कि समाज में गहरे दोष हैं। हेडगेवार जी ने ठाना कि जब दूसरों के पास समय नहीं है, तो वे स्वयं इस दिशा में काम करेंगे। 1925 में संघ की स्थापना कर उन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन का उद्देश्य सामने रखा”। यानी संघ की स्थापना का उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखनेवाले समाज को सुसंगठित करना और उसके मन में राष्ट्रभक्ति की प्रखर भावना को प्रज्वल्लित करना है। यही कार्य संघ पिछले 100 वर्षों से कर रहा है, जिसमें उसे बहुत हद तक सफलता भी मिली है।

स्मरण रहे कि जब डॉक्टर हेडगेवार जी संघ की स्थापना कर रहे थे, तब देश में अंग्रेजों का प्रभुत्व था। स्वराज्य के लिए हम संघर्ष कर रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार जी भी स्वराज्य के सब प्रकार के आंदोलन में शामिल थे। क्रांतिकारियों के साथ भी उन्होंने काम किया, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी कार्य का अनुभव उनके पास था। वर्ष 1915 से 1924 तक अपने विविध अनुभवों के आधार पर डॉक्टर साहब ने विचार किया कि इन मार्गों से देश स्वतंत्र नहीं होगा और देश स्वतंत्र हो जाएगा तब उस स्वतंत्रता को अक्षुण्य कैसे रख सकेंगे? उन्होंने उन कारणों की पड़ताल की, जिनके कारण भारत पर बार-बार बाहर से आक्रमण हो रहे थे। बहुत विचार करने के बाद डॉ. हेडगेवार इस परिणाम पर पहुँचे कि भारतीय समाज में राष्ट्रभक्ति और आत्मगौरव की भावनाओं को जगाए बिना देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता है। इसके लिए हिन्दू समाज का संगठन आवश्यक है। देश की सर्वांगीण स्वतंत्रता प्राप्त करने एवं उसका संरक्षण करने के लिए हिन्दू समाज को संगठित होने की अनिवार्य आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को स्वतंत्रता से पूर्व जो प्रतिज्ञा करायी जाती थी, उसमें स्वयंसेवक ईश्वर को साक्षी मानकर संकल्प लेते थे कि “मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ”।

नागपुर स्थित डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के घर के इसी कक्ष में आरएसएस की स्थापना की पहली बैठक आयोजित की गई थी।

अपने मन में आए संघ के विचार को समाज के मन में बोने के उद्देश्य से डॉक्टर साहब ने विजयदशमी के पावन प्रसंग (27 सितंबर 1925) पर अपने घर पर एक बैठक बुलाई, जिसमें 17 लोग शामिल हुए। देश-काल की परिस्थितियों पर चिंतन करने के बाद तय हुआ कि हम एक संगठन शुरू करते हैं। तब डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सबके बीच कहा- “हम सब मिलकर संघ प्रारंभ कर रहे हैं”। संघ की स्थापना की यह कहानी कितनी अनूठी है कि जिस दिन संघ शुरू हुआ, उस दिन उसका नाम, संविधान, पदाधिकारी, कार्यशाला, सूचना पट्ट, समाचार-पत्रों में प्रचार, चन्दा, सदस्यता आदि पर कोई चर्चा नहीं हुई थी। दूसरे दिन भी किसी भी समाचार पत्र में संघ की स्थापना का समाचार प्रकाशित नहीं हुआ। जबकि कोई भी संगठन शुरू होता है, तब जोर-शोर से उसका प्रचार-प्रसार होता है। संघ की शुरुआत ठीक उसी प्रकार हुई, जैसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्री रायरेश्वर महादेव को साक्षी मानकर अपने 9 मित्रों के साथ ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया था। कहते हैं जब संकल्प शुभ हों, तो ईश्वर उन्हें साकार करने में स्वयं सहायता करते हैं। अपनी अनुभूतियों के आधार पर संघ के स्वयंसेवक अपने संघकार्य को ईश्वरीय कार्य कहते हैं।

संघ स्थापना की इस बैठक में विश्वनाथ केलकर, भाऊजी कावरे, डा.ल.वा. परांजपे, रघुनाथराव बांडे, भय्याजी दाणी, बापूराव भेदी, अण्णा वैद्य, कृष्णराव मोहरील, नरहर पालेकर, दादाराव परमार्थ, अण्णाजी गायकवाड, देवघरे, बाबूराव तेलंग, तात्या तेलंग, बालासाहब आठल्ये, बालाजी हुद्दार और अण्णा साहोनी ने विचार-विमर्श के बाद नए संगठन तथा नई कार्य पद्धति का श्रीगणेश किया। डॉक्टर साहब ने सबके सामने प्रश्न रखा कि “संघ में प्रत्यक्ष क्या कार्यक्रम किए जाएं, जिससे हम कह सकें कि संघ शुरू हो गया?” यह प्रश्न उचित ही था। सबने अपने-अपने सुझाव दिए। सबके विचार सुनने के बाद में डॉक्टर साहब ने कहा कि संघ शुरू करने का अर्थ है कि “हम सभी को शारीरिक, बौद्धिक और हर तरह से खुद को ऐसा तैयार करना चाहिए कि अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें”।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की पहली बैठक में शामिल होनेवाले कार्यकर्ताओं के नाम। डॉ. हेडगेवार के घर पर आयोजित इस बैठक में 17 लोग शामिल हुए थे।

रोचक तथ्य है कि 6 महीने तक संघ का नामकरण ही नहीं हुआ था। दरअसल, डॉक्टर हेडगेवार ने प्रारंभ से ही संघ में सामूहिक निर्णय की परंपरा डाली। संघ प्रारंभ किया, तब भी अकेले घोषणा नहीं की। संघ का नाम भी स्वयं नहीं सुझाया। लगभग 6 माह बाद 17 अप्रैल 1926 को एक बार फिर 26 कार्यकर्ता डॉक्टर साहब के घर पर बैठे। उस बैठक में अपने संगठन के लिए इन प्रमुख नामों का सुझाव आया- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जरिपटका संघ, भारतीद्धारव मंडल और हिन्दू स्वयंसेवक संघ इत्यादि। इनमें से सर्वसम्मति से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का नाम स्वीकार किया गया। रामटेक के रामनवमी मेले में यात्रियों के सहयोग के लिए प्रथम बार स्वयंसेवकों ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के नाम से सहभाग किया। 

इस प्रकार संघ की विशिष्ट कार्यपद्धति का विकास एवं विस्तान धीरे-धीरे होता गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। अपने संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”। 

संघ शताब्दी वर्ष पर 'स्वदेश ज्योति' में प्रकाशित 'नियमित कॉलम' का पहला आलेख। यह 19 अक्टूबर, 2025 को छोटी दीपावली के पावन प्रसंग से शुरू हुआ।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

स्वयंसेवकों के परिश्रम, त्याग, समर्पण और सेवा की कमाई है यह सिक्का

आरएसएस 100 : संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने जारी किया स्मृति डाक टिकट एवं सिक्का

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट और 100 रुपये का सिक्का जारी किया है। यह साधारण सिक्का नहीं है, जो प्रसंगवश जारी किया गया है। संघ के स्वयंसेवकों ने यह सिक्का अपने परिश्रम, त्याग, समर्पण और राष्ट्र की सेवा से कमाया है। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज का संरक्षण कर देश की स्वतंत्रता एवं सर्वांगीण उन्नति का व्रत लेकर चलने वाले स्वयंसेवकों ने संघ रूपी राष्ट्रीय आंदोलन को यशस्वी बनाने में अपना जीवन खपाया है, तब जाकर यह अवसर आया है। अपनी स्थापना के प्रारंभ से ही संघ ने अनेक कठिनाइयों एवं अवरोधों का सामना किया। सत्ता के हठ से भी स्वयंसेवक टकराए। लेकिन, किसी के प्रति बैर भाव रखे बिना स्वयंसेवक राष्ट्र की साधना में समर्पित रहे। अपने कार्य की सिद्धि से स्वयंसेवकों ने उनका हृदय भी जीता, जो कभी संघ को समाप्त कर देना चाहते थे। इसलिए यह सिक्का केवल शताब्दी वर्ष का स्मृति चिह्न नहीं है अपितु संघ की वास्तविक कमाई का प्रतिनिधित्व है। सर्व समाज का विश्वास, अपनत्व, प्रेम और सहयोग, यही संघ की वास्तविक कमाई है। अपने संघ की 100 वर्ष की यात्रा में स्वयंसेवक सबको अपना बनाते हुए संघ यहाँ तक आ पहुँचे हैं कि समाज बाँहें फैलाकर उनका स्वागत कर रहा है। संस्कृति मंत्रालय की ओर से डॉ. अम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र, दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘100 वर्षों की गौरवपूर्ण यात्रा का स्मरणोत्सव’ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यही बात दोहरायी कि “संघ के स्वयंसेवकों ने कभी कटुता नहीं दिखाई। चाहे प्रतिबंध लगे, या साजिश हुई हो। सभी का मंत्र रहा है कि जो अच्छा है, जो कम अच्छा, सब हमारा है”। उन्होंने कहा कि संघ के स्वयंसेवक लगातार देश सेवा में जुटे हैं। समाज को सशक्त कर रहे हैं, इसकी भी झलक इस डाक टिकट में है। मैं इसके लिए देश को बधाई देता हूं।

संघ शताब्दी वर्ष पर जारी विशेष डाक टिकट पर एक लोगो अंकित है, जिस पर लिखा है- ‘राष्ट्र सेवा के 100 वर्ष (1925-2025)’। इसके साथ ही लोगो के नीचे लिखा है- राष्ट्रभक्ति, सेवा और अनुशासन। संघ की 100 वर्ष की यात्रा की झलक दिखाने के लिए दो चित्र भी डाक टिकट पर दिखायी देते हैं- पहला, 1963 की गणतंत्र दिवस में शामिल स्वयंसेवक और दूसरा, सेवा एवं राहत कार्य करते स्वयंसेवक। इन दोनों ही चित्रों का विशेष महत्व है। यह सबको ज्ञात है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पूर्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर पूर्वाग्रहों से ग्रसित थे, जिसके कारण वे संघ को समाप्त करने की इच्छा भी व्यक्त कर चुके थे। लेकिन 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में कम्युनिस्टों की गद्दारी देखकर उनका गहरा धक्का लगा। वहीं, जिस संगठन के प्रति उनके मन में सद्भाव नहीं था, वही संगठन युद्ध के समय सरकार के साथ सहयोगी के तौर पर खड़ा था। राजधानी से लेकर सीमारेखा तक, संघ के स्वयंसेवक सहायता कर रहे थे। सैनिकों की सहायता हो या नागरिक अनुशासन, संघ ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। इसी बात से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने के लिए आरएसएस को आमंत्रित किया। संघ के तीन हजार स्वयंसेवक इस राष्ट्रीय परेड में शामिल हुए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने भाषण में इस प्रसंग का उल्लेख किया। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष पर भारत सरकार की ओर से जारी विशेष डाक टिकट

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जारी किया विशेष सिक्का

जब भी देश में संकट का वातावरण बना है, स्वयंसेवक सबसे आगे खड़े मिले हैं। याद हो, 1965 में जब भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध प्रारंभ हुआ, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी संघ के सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्या श्रीगुरुजी को रणनीतिक बैठक में आमंत्रित करके महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी थी। इसी, डाक टिकट पर दूसरा चित्र बताता है कि देश में कहीं भी आपदा आती है, तब स्वयंसेवक आगे बढ़कर सेवाकार्य करते हैं। भारत विभाजन की विभीषिका से लेकर अभी हाल में आई वैश्विक महामारी कोरोना में संघ के स्वयंसेवकों का समाजसेवा का जज्बा दुनिया ने देखा। देशभर में कहीं भी बाढ़, सूखा, भूकंप या अन्य हादसे होते हैं, तो बिना देरी किए संघ के कार्यकर्ता अपने सामर्थ्य के अनुरूप सहयोग करने के लिए जुट जाते हैं। संघ के सेवाभाव को देखकर अकसर विरोधी भी खुलकर प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाते हैं। स्वयंसेवक की संकल्पना की कितनी सुंदर और सटीक परिभाषा प्रधानमंत्री मोदी ने दी है- “हमने देश को ही देव माना है और देह को ही दीप बनकर जलना हमने सीखा है”।

इसी प्रकार, 100 रुपये के स्मृति सिक्के पर एक ओर भारत का राष्ट्रीय चिह्न अंकित है। जबकि दूसरी ओर, सिंह के साथ वरद मुद्रा में भारत माता की सांस्कृतिक छवि और भारत माता को नमन करते स्वयंसेवकों को उकेरा गया है। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि स्वतंत्र भारत में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत की मुद्रा पर भारत माता की तस्वीर अंकित हुई है। सिक्के पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ कार्य को अभिव्यक्त करनेवाला ध्येय वाक्य- ‘राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम’ लिखा हुआ है। संघ के स्वयंसेवक ‘प्रसिद्धि परांगमुख भाव’ से समाजहित में कार्य करते हैं। सेवा कार्यों को उपकार की तरह देखने की अपेक्षा स्वयंसेवक सेवा को करणीय कार्य के तौर पर देखते हैं। इसलिए संघ के स्वयंसेवक को श्रेय, यश की लालसा नहीं होती, उसके लिए राष्ट्रहित ही सर्वोपरि होता है। कहना होगा कि यह डाक टिकट एवं सिक्का, स्वयंसेवकों की अहं से वयं की यात्रा को अभिव्यक्त करता है। 

इस प्रसंग पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संघ की व्यापक दृष्टि को ऐतिहासिक उदाहरण देकर स्पष्ट किया। संघ के अधिकारी अकसर कहते हैं कि संघ संपूर्ण समाज को अपना मानता है। यही कारण है कि संघ ने अपने पर हुए हमलों को भुलाते हुए सबको गले लगाया है। प्रधानमंत्री मोदी उल्लेख करते हैं कि “राष्ट्र साधना की यात्रा में ऐसा नहीं कि संघ पर हमले नहीं हुए, स्वतंत्रता के बाद भी संघ को मुख्यधारा में आने से रोकने के लिए षड्यंत्र हुए। पूज्य गुरुजी को जेल तक भेजा गया। जब वे बाहर आए तो उन्होंने कहा था कि कभी-कभी जीभ दांतों के नीचे आकर दब जाती है, कुचल जाती है, लेकिन हम दांत नहीं तोड़ देते, क्योंकि दांत भी हमारे हैं, जीभ भी हमारी है”। नि:संदेह, संघ की यही दृष्टि उसको व्यापक बनाती है। संघ की 100 वर्ष की यशस्वी यात्रा के पीछे यही दृष्टिकोण है। संघ को रोकने के लिए उस पर तीन-तीन बार प्रतिबंध लगाए गए, कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित किया गया लेकिन इसके बाद भी संघ ने सबके साथ आत्मीय भाव से संवाद जारी रखा। उसका परिणाम भी आया, अनेक लोगों के हृदय परिवर्तन हुए। जो कभी संघ को कोसते थे, बाद में संघ में आए, संघ कार्य को आगे बढ़ाया और संघ की प्रशंसा भी की। प्रधानमंत्री मोदी उचित ही कहते हैं कि “जिन रास्तों में नदी बहती है, उसके किनारे बसे गांवों को सुजलाम् सुफलाम् बनाती है। वैसे ही संघ ने किया। जिस तरह नदी कई धाराओं में अलग-अलग क्षेत्र में पोषित करती है, संघ की हर धारा भी ऐसी ही है”। 

देखें यह वीडियो ब्लॉग : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राजनीति

मध्यप्रदेश का स्वदेशी जागरण महाभियान

भारत को आत्मनिर्भर बनाने के संकल्प को पूरा करने के लिए मध्यप्रदेश की मोहन सरकार केंद्र की मोदी सरकार के साथ कदमताल कर ही रही थी कि अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वदेशी के आह्वान को जन-जन तक पहुँचाने के लिए मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने राज्य स्तरीय स्वदेशी जागरण सप्ताह का शुभारंभ करके स्वदेशी को जनाभियान बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। इसे केवल एक सरकारी कार्यक्रम के तौर पर देखना उचित नहीं होगा। यह तो आत्मनिर्भर भारत के व्यापक राष्ट्रीय लक्ष्य के प्रति मध्यप्रदेश की गंभीर प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भले ही इस महाभियान की योजना 25 सितंबर से 2 अक्टूबर तक (पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती से महात्मा गांधी की जयंती) की गई हो, लेकिन स्वदेशी के विचार को जन-जन तक पहुँचाने के लिए यह आंदोलन लंबा चलना चाहिए। कोई भी आंदोलन लंबा तब ही चलता है, जब समाज की सज्जनशक्ति उसे अपना आंदोलन मानकर चलती है। कहना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से प्रारंभ हुआ ‘स्वदेशी जागरण मंच’ लंबे समय से स्वदेशी के आंदोलन को चला रहा है, जिसके कुछ सुखद परिणाम हमें अपने आस-पास दिखायी पड़ते हैं।

शनिवार, 27 सितंबर 2025

तकनीक का सहारा लेकर बच्चों को सुनाएं दादी-नानी की कहानियां

भारत कहानियों का देश है। कहानियां, जो न केवल हमारा मनोरंजन करती हैं अपितु हमारे व्यक्तित्व विकास में भी सहायक हैं। कहानियां, हमारे मन में सेवा, संस्कार, साहस पैदा करती हैं। लोक जीवन की सीख देती हैं। इसलिए तो कहानियां सुनना और सुनाना हमारी परंपरा में है। कौन नहीं जानता कि छत्रपति शिवाजी महाराज के विराट व्यक्तित्व का निर्माण जिजाऊ माँ साहेब ने राम-कृष्ण की कहानियां सुनाकर किया। पंडित विष्णु शर्मा ने राजा अमरशक्ति के तीन अयोग्य राजकुमारों को नैतिकता, बुद्धिमत्ता और राजनीतिक ज्ञान ‘पंचतंत्र’ की कहानियां सुनाकर ही तो दिया। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनकर ही तो महात्मा गांधी के मन में सत्य के प्रति गहनी निष्ठा ने जन्म लिया। हमारे साहित्य में भरी पड़ी हैं- बच्चों की कहानियां, वीर बालकों की कहानियां, दयालु बालकों की कहानियां, दादी-नानी की कहानियां, पौराणिक कहानियां, पंचतंत्र की कहानियां। कहानियों की एक पूरी दुनिया है।

शनिवार, 20 सितंबर 2025

विक्रमादित्य वैदिक घड़ी : भारतीय कालगणना की ओर बढ़ते कदम

भारत का समय-पृथ्वी का समय

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मुख्यमंत्री आवास के बाहर लगी 'विक्रमादित्य वैदिक घड़ी'

पिछले कुछ वर्षों में मध्यप्रदेश की धरती सांस्कृतिक पुनरुत्थान का केंद्र बन गई है। सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इन प्रयासों में नयी कड़ी है- विक्रमादित्य वैदिक घड़ी का लोकार्पण। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने मुख्यमंत्री निवास पर ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ का अनावरण करके भारतीय कालगणना की ओर आम लोगों का ध्यान तो खींचा ही है, इसके साथ ही कालगणना की अपनी परंपरा को फिर से लोक प्रचलन में लाने के प्रयासों का केंद्र बिन्दु भी मध्यप्रदेश को बना दिया है। यह पहल उम्मीद जगाती है कि भविष्य में पंचांग पर आधारित यह ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ लोक प्रचलन में आ जाएगी और तिथि, मुहूर्त, माह, व्रत, त्योहार की सटीक जानकारी प्राप्त करने की हमारी कठिनाई को दूर कर देगी। सबको उम्मीद है कि हमारे हाथ पर बंधी डिजिटल घड़ियों में भी जल्द ही यह सुविधा आ जाएगी कि हम उनमें ‘भारत का समय’ देख सकें। फिलहाल ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ ऐप के रूप में उपलब्ध है, जिसे हम अपने मोबाइल फोन में उपयोग कर सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक नगर उज्जैन का कालगणना के साथ गहरा नाता है। यहाँ प्रकाशित ज्योतिर्लिंग को इसलिए ही ‘महाकाल’ कहा गया है। यह शुभ संयोग ही है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी महाकाल की नगरी उज्जैन से आते हैं।