मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता में राष्ट्रीयता और संस्कृति

कर्मवीर संपादक माखनलाल चतुर्वेदी | Makhanlal Chaturvedi | कलम के योद्धा

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राट्रीयता के जागरण एवं स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता, दोनों को स्वतंत्रता आंदोलन में जन-जागरण का माध्यम बनाया। वैसे तो दादा माखनलाल का मुख्य क्षेत्र साहित्य ही रहा, किंतु एक लेख प्रतियोगिता उनको पत्रकारिता में खींच कर ले आई। मध्यप्रदेश के महान हिंदी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी पंडित माधवराव सप्रे समाचार पत्र 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन कर रहे थे। हिंदी केसरी ने 'राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार' विषय पर लेख प्रतियोगिता आयोजित की। इस लेख प्रतियोगिता में माखनलाल जी ने हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। आलेख इतना प्रभावी और सधा हुआ था कि पंडित माधवराव सप्रे माखनलाल जी से मिलने के लिए स्वयं नागपुर से खण्डवा पहुंच गए। इस मुलाकात ने ही पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता की नींव डाली। सप्रे जी ने माखनलाल जी को लिखते रहने के लिए प्रेरित किया। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र लिखते हैं- “इन दोनों महापुरुषों के मिलन ने न केवल महाकोशल, मध्यभारत, छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड एवं विदर्भ को बल्कि सम्पूर्ण देश की हिंदी पत्रकारिता और हिंदी पाठकों को राष्ट्रीयता के रंग में रंग दिया।”  दादा ने तीन समाचार पत्रों; प्रभा, कर्मवीर और प्रताप, का संपादन किया।

अपनी बात सामान्य जन तक पहुँचाने के लिए समाचार-पत्र को प्रभावी माध्यम के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी ने देखा। किंतु, उस समय उनके लिए समाचार-पत्र प्रकाशित करना कठिन काम था। इसलिए उन्होंने अपने शब्दों को लिखने और रचने की प्रेरणा देने के लिए एक वार्षिक हस्तलिखित पत्रिका 'भारतीय-विद्यार्थी' निकालना शुरू की। इस पत्रिका लिखने के लिए वह विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते थे। पत्रकारिता के माध्यम से युवाओं में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए यह उनका पहला प्रयास था।  

इसके बाद खण्डवा से प्रकाशित पत्रिका ‘प्रभा’ में वह सह-संपादक की भूमिका में आ गए। एक नई पत्रिका को पाठकों के बीच स्थापित करना आसान कार्य नहीं होता। चूँकि माखनलाल चतुर्वेदी जैसी अद्वितीय प्रतिभा ‘प्रभा’ के संपादन में शामिल थी, इसलिए पत्रिका ने दो-तीन अंक के बाद ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। उस समय की सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के प्रभाव की छाया में ‘प्रभा’ ने अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया। प्रभा के संपादन में दादा माखनलाल का मन इतना अधिक रमने लगा कि उन्होंने शासकीय सेवा (अध्यापन) से त्याग-पत्र दे दिया और पत्रकारिता को पूर्णकालिक दायित्व के तौर पर स्वीकार कर लिया। उस समय वे खण्डवा की बंबई बाजार पाठशाला में 13 रुपए मासिक वेतन पर अध्यापक थे। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लगातार लिखने और स्वतंत्रता की चेतना जगाने के प्रयासों के कारण अंग्रेज शासकों ने प्रभा का प्रकाशन बंद करा दिया। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी भी एक ओजस्वी समाचार-पत्र ‘प्रताप’ का संपादन-प्रकाशन करते थे। माखनलाल जी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। जब गणेश शंकर विद्यार्थी को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार किया, तब माखनलाल जी ने आगे बढ़ कर ‘प्रताप’ के संपादन की जिम्मेदारी संभाली। उनके संपादन में भी ‘प्रताप’ वैसा ही रहा, जैसी संकल्पना उस पत्र को लेकर गणेश शंकर विद्यार्थी की थी।

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का आदर्श ‘कर्मवीर’ के संपादन में प्रकट होता है। कर्मवीर और माखनलाल एकाकार हो गए। दोनों एक-दूसरे के पर्याय हैं। स्वतंत्रता के प्रति एक वातावरण बनाने के लिए पंडित विष्णुदत्त शुक्ल और पंडित माधवराव सप्रे की प्रेरणा से जबलपुर से 17 जनवरी, 1920 को साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादन का दायित्व सौंपने का प्रश्न जब उपस्थित हुआ तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का नाम सामने आया। ‘प्रभा’ के सफलतम संपादन से माखनलाल जी ने सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच लिया था। परिणामस्वरूप सर्वसम्मति से माखनलाल जी को कर्मवीर के संपादन की महती जिम्मेदारी सौंप दी गई। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण माखनलाल जी को जेल जाना पड़ा और 1922 में कर्मवीर का प्रकाशन बंद हो गया। बाद में, माखनलाल जी ने 4 अप्रैल, 1925 से कर्मवीर का पुन: प्रकाशन खण्डवा से प्रारंभ किया। 11 जुलाई, 1959 का कर्मवीर का अंक दादा द्वारा संपादित अंतिम अंक था। 

कर्मवीर के संपादन को लेकर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की स्पष्टता को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रसंग है।  भारतीय भाषाई पत्रकारिता से अंग्रेजी शासन भयंकर डरा हुआ था। भाषाई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन को प्रतिबंधित करने के लिए तमाम प्रयास प्रशासन ने कर रखे थे। यदि किसी को भारतीय भाषा में समाचार पत्र प्रकाशित करना है तो उसका अनुमति पत्र जिला मजिस्ट्रेट से प्राप्त करनी होती थी। अनुमति प्राप्त करने से पहले समाचार-पत्र के प्रकाशन का उद्देश्य स्पष्ट करना होता था। इसी संदर्भ में जब माखनलाल जी कर्मवीर के घोषणा पत्र की व्याख्या करने जबलपुर गये, तब वहाँ सप्रेजी, रायबहादुर जी, पं. विष्णुदत्त शुक्ल सहित अन्य लोग उपस्थित थे। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर मिथाइस आईसीएस के पास जाते समय रायबहादुर शुक्ल ने एक पत्र माखनलाल जी को दिया, जिसमें लिखा था कि मैं बहुत गरीब आदमी हूँ, और उदरपूर्ति के लिए कोई रोजगार करने के उद्देश्य से कर्मवीर नामक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहता हूँ। रायबहादुर शुक्ल समझ रहे थे कि मजिस्ट्रेट के सामने माखनलाल जी कुछ बोल नहीं पाएंगे तो यह आवेदन देकर अनुमति पत्र प्राप्त कर लेंगे। किंतु, माखनलाल चतुर्वेदी साहस और सत्य के हामी थे, उन्होंने यह आवेदन मजिस्ट्रेट को नहीं किया। जब मिस्टर मिथाइस ने पूछा कि एक अंग्रेजी साप्ताहिक होते हुए आप हिन्दी साप्ताहिक क्यों निकालना चाह रहे हैं? तब दादा माखनलाल ने बड़ी स्पष्टता से कहा- “आपका अंग्रेजी पत्र तो दब्बू है। मैं वैसा पत्र नहीं निकालना चाहता। मैं ऐसा पत्र निकालना चाहूँगा कि ब्रिटिश शासन चलते-चलते रुक जाए”। मिस्टर मिथाइस माखनलाल जी के साहस से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने बिना जमानत राशि लिए ही कर्मवीर निकालने की अनुमति दे दी। यह घटना ही माखनलालजी की पत्रकारिता के तेवर का प्रतिनिधित्व करती है। यह साहस और बेबाकी कर्मवीर की पहचान बनी।  उनकी बेबाकी उनकी इन पंक्तियों में भी झलकती है – 

अमर राष्ट्र, उदंड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र, यह मेरी बोली

यह सुधार-समझौतों वाली मुझको भाती नहीं ठिठोली।

माखनलाल चतुर्वेदी उस समय पत्रकारिता में आ रही विकृतियों और समझौतावादी प्रवृत्तियों को देखकर चिंतित हुए। वे तो पत्रकारिता को अधिक उत्तरदायी एवं जिम्मेदार माध्यम के रूप में विकसित करने का स्वप्न देख रहे थे। पत्रकारिता को नाना प्रकार के लांछनों से बचाने के लिए उस समय आचार-सहिंता की आवश्यकता और महत्ता को रेखांकित किया। उनका यह चिंतन बताता है कि वे बहुत दूर की देख लेते थे। भविष्य में उत्पन्न होने वाले संकटों का अंदाज़ा वे अपने समय में ही लगा लेते थे। वे समाचारपत्रों के प्रकाशन के लिए जिस प्रकार की आचार सहिंता की बात करते थे, उसे सबसे पहले स्वयं के समाचारपत्र पर लागू किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने जो संपादन-सिद्धांत बनाए थे उन्हें ‘कर्मवीर’ में प्रकाशित कर घोषित एवं अंगीकृत किया- 

  1. ‘कर्मवीर’ संपादन और ‘कर्मवीर परिवार’ की कठिनाइयों का उल्लेख न करना।
  2. कभी धन के लिए अपील न निकालना।
  3. ग्राहक संख्या बढ़ाने के लिए ‘कर्मवीर’ के कालमों में न लिखना।
  4. क्रांतिकारी पार्टी के खिलाफ वक्तव्य नहीं छापना। (इस सन्दर्भ में गांधीजी के वक्तव्य भी कर्मवीर में प्रकाशित नहीं किये जाते थे।)
  5. सनसनीखेज खबरें नहीं छापना।
  6. विज्ञापन जुटाने के लिए किसी आदमी की नियुक्ति न करना।

इन सिद्धांतों को अपनाकर आज तो क्या, उस समय भी समाचारपत्र का प्रकाशन करना कठिन था। लेकिन माखनलाल चतुर्वेदी ने ऐसा करके दिखाया। वे ऐसे समाचारपत्रों की निंदा करते थे, जिनका न कोई आदर्श एवं उद्धेश्य है और न ही कोई दायित्व। वे साहित्यकारों से भी यही अपेक्षा करते थे कि उनके लेखनी राष्ट्र निर्माण के लिए चलनी चाहिए। माखनलाल चतुर्वेदी ने मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित कराया था कि ‘साहित्यकार स्वराज्य प्राप्त करने के ध्येय से लिखें’। “जीवन को हम एक रामायण मान लें। रामायण जीवन के प्रारंभ का मनोरम बालकाण्ड ही नहीं किन्तु करुना रस में ओतप्रोत अरण्यकाण्ड भी है और धधकती हुई युद्धाग्नि से प्रज्वलित लंकाकाण्ड भी है”। जीवन के प्रति माखनलाल चतुर्वेदी की इस अवधारणा से ही स्पष्ट होता है कि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष के लिए तैयार रहने के आग्रही थे। अपने लंबे पत्रकारीय जीवन के माध्यम से माखनलाल जी ने रचना, संघर्ष और आदर्श का जो पाठ पढ़ाया वह आज भी हतप्रभ कर देने वाला है। इस आदर्श की स्थापना के लिए उन्हें बहुत कीमत चुकानी पड़ी। उनके संपादकीय कार्यालय यानी घर पर 63 बार छापे पड़े, तलाशियां हुयीं। 12 बार वे जेल गए। कर्मवीर को अर्थाभाव में कई बार बंद होना पड़ा। 

उनके द्वारा सम्पादित समाचारपत्र ‘कर्मवीर’ में प्रकाशित सामग्री का चयन राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक मूल्यों की कसौटी पर ही किया जाता था। कर्मवीर के माध्यम से माखनलाल चतुर्वेदी ने ऐसे अनेक नौजवानों (जो बाद में बड़े साहित्यकार/पत्रकार के रूप में विख्यात हुए) को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान, रमाशंकर शुक्ल, भवानी प्रसाद तिवारी, भवानी प्रसाद मिश्र, डॉ. प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध, वीरेंद्र जैन, शिवमंगल सिंह सुमन, धर्मवीर भारती ही नहीं दिनकर, रामबृक्ष बेनीपुरी और सोहनलाल द्विवेदी जैसे कलम के साधक कर्मवीर में लिखते थे। डॉ. प्रभाकर माचवे ने स्वयं लिखा है कि 1934 में उनकी पहली कविता ‘कर्मवीर’ में प्रकाशित हुई। डॉ. गिरिजा कुमार माथुर ने 1936 में अपने लेखन की शुरुआत ‘कर्मवीर’ से की। डॉ. माथुर लिखते हैं- “नयी प्रतिभाओं की अभिव्यक्ति का प्रथम मंच ‘कर्मवीर’ बना था, जहाँ न केवल मेरी कविताएं सर्वप्रथम प्रकाश में आई थीं बल्कि अनेक उदयीमानों का भी, जिनका आज हिंदी में विशिष्ट स्थान बन चुका है। एक पूरी पीढ़ी इस ज्योति केंद्र (माखनलाल चतुर्वेदी) के आसपास एकत्र रही थी.... यही नहीं, राष्ट्रीय सांस्कृतिक उन्मेष के प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में माखनलालजी का प्रभाव-वृत्त सुदूर क्षेत्रों तक था”। 

पत्रकारिता के दायित्वबोध पर उन्होंने 1927 में भरतपुर संपादक सम्मलेन में अध्यक्षीय आसंदी से बहुत महत्वपूर्ण अभिभाषण दिया था। उन्होंने कहा था- यदि समाचारपत्र संसार की एक बड़ी ताकत है तो उसके सर जोखिम भी कम नहीं। पर्वत की जो शिखरें हिम से चमकती और राष्ट्रीय रक्षा की महान दीवार बनती हैं, उन्हें ऊँची होना पड़ता है। जगत में समाचारपत्र यदि बड़प्पन पाए हुए हैं, तो उनकी जिम्मेवारी भी भारी है। बिना जिम्मेवारी के बड़प्पन का मूल्य ही क्या है? और वह बड़प्पन तो मिट्टी के मोल हो जाता है, जो अपनी जिम्मेवारी को संभाल नहीं सकता। समाचारपत्र तो अपनी गैर-जिम्मेवारी से, स्वयं ही मिट्टी के मोल का हो जाता है, वरन वह देश के अनेक महान अनर्थों का उत्पादक और पोषक हो जाता है”। स्पष्तः पत्रकारिता का जिम्मेवार होना किसी भी देश के स्वास्थय के लिए बहुत आवश्यक है। यह भी आवश्यक हैं कि उसके ध्यान में उस देश के राष्ट्रीय महत्व के प्रश्न और सांस्कृतिक मूल्य भी हों। माखनलाल चतुर्वेदी मानते थे कि समाचारपत्र ‘जनमत निर्माण’ का कार्य करते हैं। यदि पत्रकारिता राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्य विहीन होगी तो निस्संदेह वे महान अनर्थ उत्पन्न हो सकते हैं, जिनकी आशंका माखनलाल चतुर्वेदी ने जताई थी। इसलिए हम देखते हैं कि दादा ने कभी भी मूल्यों से समझौता नहीं किया। उन्होंने राष्ट्रीयता, राष्ट्रभाष, स्वदेशी और गो-संरक्षण जैसे मुद्दों पर भी भारतीय दृष्टि प्रस्तुत की, जिन पर बात करने वालों को कट्टरपंथी, सांप्रदायिक और संकीर्ण घोषित कर दिया जाता है। गोहत्या के विरोध में तो उन्होंने अपनी पत्रकारिता के बल पर राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा कर दिया था। 

आज की पत्रकारिता के समक्ष जैसे ही गो-हत्या का प्रश्न आता है, वह हिंदुत्व और सेकुलरिज्म की बहस में उलझ जाता है। इस बहस में मीडिया का बड़ा हिस्सा गाय के विरुद्ध ही खड़ा दिखाई देता है। सेकुलरिज्म की आधी-अधूरी परिभाषाओं ने उसे इतना भ्रमित कर दिया है कि वह गो-संरक्षण जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय को सांप्रदायिक मुद्दा मान बैठा है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में गो-संरक्षण कितना महत्वपूर्ण है, इस बात को समझना कोई टेड़ी खीर नहीं। हद तो तब हो जाती है जब मीडिया गो-संरक्षण या गो-हत्या को हिंदू-मुस्लिम रंग देने लगता है। गो-संरक्षण शुद्धतौर पर भारतीयता का मूल है। इसलिए ही ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से विख्यात महान संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी गोकशी के विरोध में अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी पत्रकारिता के माध्यम से देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर देते हैं। गोकशी का प्रकरण जब उनके सामने आया, तब उनके मन में द्वंद्व कतई नहीं था। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी- भारत के लिए गो-संरक्षण आवश्यक है। कर्मवीर के माध्यम से उन्होंने खुलकर अंग्रेजों के विरुद्ध गो-संरक्षण की लड़ाई लड़ी और अंत में विजय सुनिश्चित की।

Ratauna Andolan | रतौना आंदोलन | ब्रिटिश सरकार को देखना पड़ा हार का मुंह | हिंदी पत्रकारिता की जीत 

1920 में मध्यप्रदेश के शहर सागर के समीप रतौना में ब्रिटिश सरकार ने बहुत बड़ा कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया। इस कसाईखाने में केवल गोवंश काटा जाना था। प्रतिमाह ढाई लाख गोवंश का कत्ल करने की योजना थी। अंग्रेजों की इस बड़ी परियोजना का संपूर्ण विवरण देता हुआ चार पृष्ठ का विज्ञापन अंग्रेजी समाचार-पत्र हितवाद में प्रकाशित हुआ। परियोजना का आकार कितना बड़ा था, इसको समझने के लिए इतना ही पर्याप्त होगा कि लगभग 100 वर्ष पूर्व कसाईखाने की लागत लगभग 40 लाख रुपये थी। गो-मांस के परिवहन के लिए कसाईखाने तक रेल लाइन डाली गई थी। तालाब खुदवाये गए थे। कत्लखाने का प्रबंधन सेंट्रल प्रोविंसेज टेनिंग एंड ट्रेडिंग कंपनी ने अमेरिकी कंपनी सेंट डेविन पोर्ट को सौंप दिया था, जो डिब्बाबंद बीफ को निर्यात करने के लिए ब्रिटिश सरकार की अनुमति भी ले चुकी थी। गोवंश की हत्या के लिए यह कसाईखाना प्रारंभ हो पाता उससे पहले ही दैवीय योग से महान कवि, स्वतंत्रता सेनानी और प्रख्यात संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने यात्रा के दौरान यह विज्ञापन पढ़ लिया। वह तत्काल अपनी यात्रा खत्म करके वापस जबलपुर लौटे। वहाँ उन्होंने अपने समाचार पत्र “कर्मवीर” में रतौना कसाईखाने के विरोध में तीखा संपादकीय लिखा और गो-संरक्षण के समर्थन में कसाईखाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाने का आह्वान किया। सुखद तथ्य यह है कि इस कसाईखाने के विरुद्ध जबलपुर के एक और पत्रकार उर्दृ दैनिक समाचार पत्र 'ताज' के संपादक मिस्टर ताजुद्दीन मोर्चा पहले ही खोल चुके थे। उधर, सागर में मुस्लिम नौजवान और पत्रकार अब्दुल गनी ने भी पत्रकारिता एवं सामाजिक आंदोलन के माध्यम से गोकशी के लिए खोले जा रहे इस कसाईखाने का विरोध प्रारंभ कर दिया। मिस्टर ताजुद्दीन और अब्दुल गनी की पत्रकारिता में भी गोहत्या पर वह द्वंद्व नहीं था, जो आज की मीडिया में है। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की प्रतिष्ठा संपूर्ण देश में थी। इसलिए कसाईखाने के विरुद्ध माखनलाल चतुर्वेदी की कलम से निकले आंदोलन ने जल्द ही राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया। देशभर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में रतौना कसाईखाने के विरोध में लिखा जाने लगा। लाहौर से प्रकाशित लाला लाजपत राय के समाचार पत्र वंदेमातरम् ने तो एक के बाद एक अनेक आलेख कसाईखाने के विरोध में प्रकाशित किए। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का प्रभाव था कि मध्यभारत में अंग्रेजों की पहली हार हुई। मात्र तीन माह में ही अंग्रेजों को कसाईखाना खोलने का निर्णय वापस लेना पड़ा। आज उस स्थान पर पशु प्रजनन का कार्य संचालित है। जहाँ कभी गो-रक्त बहना था, आज वहाँ बड़े पैमाने पर दुग्ध उत्पादन हो रहा है। कर्मवीर के माध्यम से गो-संरक्षण के प्रति ऐसी जाग्रती आई कि पहले से संचालित कसाईखाने भी स्वत: बंद हो गए। हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र का वातावरण बना सो अलग। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का यह प्रसंग किसी भव्य मंदिर के शिखर कलश के दर्शन के समान है। यह प्रसंग पत्रकारिता के मूल्यों, सिद्धांतों और प्राथमिकता को रेखांकित करता है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने एक शोधपूर्ण पुस्तक 'रतौना आंदोलन : हिंदू-मुस्लिम एकता का सेतुबंध' का प्रकाशन किया है, जिसमें विस्तार से इस ऐतिहासिक आंदोलन और पत्रकारिता की भूमिका की विवेचना है।

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माखनलाल चतुर्वेदी ने अपनी पत्रकारिता से मूक, अनपढ़, किसान और गरीब जनता की शिकायतों को आवाज दी। उन्होंने पत्रकारिता को राजनीति पर बेबाक और निर्भीक टिप्पणियां लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने प्रलोभन का शिकार न होकर निर्भीक पत्रकारिता को स्थापित किया। विज्ञापनदाताओं की याचना नहीं की, उनके आगे झुके भी नहीं। इसके साथ ही माखनलालजी ने पत्रकारिता में साहित्य का संगम कराया। विभिन्न विचारधारा के लेखकों और कवियों की अभिव्यक्ति को पूरा सम्मान और आजादी दी। स्त्रियों के समानाधिकार की मांग को बढ़ाया। उनके पत्रकारीय लेखन में राष्ट्रीय आन्दोलन के अलावा राष्ट्रभाषा, शिक्षा, संस्कृति, गो-संरक्षण, आयुर्वेद, सांप्रदायिक सद्भाव, कृषि, किसान, रोजगार, बाल-विवाह जैसे सामाजिक एवं राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे प्रमुखता से शामिल रहे हैं।

यह ‘पत्रकारिता’ का सौभाग्य था कि उसे दादा माखनलाल जैसा सुयोग्य संपादक प्राप्त हुआ, जिसने भारत की पत्रकारिता में ‘भारतीयता’ के भाव की स्थापना की। उन्होंने इस विधा को किसी कुशल शिल्पी की तरह एक सुन्दर आकार देने का प्रयत्न किया। उन्होंने पत्रकारिता का उपयोग केवल भारत के स्वाभिमान से जुड़े अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही नहीं किया, बल्कि इस विधा को मजबूत भी बनाया। यह बात उनके चिन्तक/ऋषि व्यक्तित्व को रेखांकित करती है कि वे केवल साध्य पर ध्यान नहीं देते बल्कि साधन की भी चिंता करते हैं। भारत में हिंदी पत्रकारिता की स्थिति पर उन्होंने अनेक बार गहरी चिंता व्यक्त की और उसके उत्थान के लिए महत्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किये। उन्होंने बार-बार पत्रकारिता को उसकी जिम्मेदारी एवं उसका आदर्श स्मरण कराया। माखनलाल चतुर्वेदी भारतीय पत्रकारिता के ऐसे प्रकाश स्तम्भ हैं, जिनसे आज भी भारत की पत्रकारिता आलोकित हो सकती है। अपने समाचार-पत्रों और लेखन से माखनलाल चतुर्वेदी ने न केवल ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता की अलख जगाई अपितु राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक महत्व के प्रश्नों पर भी समाज का प्रबोधन किया। 

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