आज हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के प्रकाशस्तंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) को स्मरण करने का दिन है। पिछले वर्ष अगस्त में वाराणसी प्रवास के दौरान संयोग से उनके घर के सामने से गुजरना हुआ।
काल भैरव के दर्शन करने के लिए तेज चाल से बनारस की प्रसिद्ध गलियों से हम बढ़ते जा रहे थे। बाबा विश्वनाथ और गंगा मईया के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे तो मन आध्यात्मिक ऊर्जा से भरा हुआ था। रिमझिम बारिश हो रही थी तो भीगते–बचते हुए और इधर–उधर नजर दौड़ाते हुए, अपन चल रहे थे।
चलते–चलते जैसे ही एक दीवार पर भारतेंदु हरिश्चंद्र का मोहक चित्र देखा, तो तेजी से बढ़ते कदम एकदम से ठिठक गए। मुझे कतई अंदाजा नहीं था कि यह भवन निज भाषा का अभिमान जगानेवाले साहित्यकार–पत्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र का है। लेकिन जैसे ही चित्र के थोड़ा ऊपर देखा तो पट्टिका पर लिखा था– ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता गोलोकवासी भारतेंदु हरिश्चंद्र का निवास स्थान’। यह शिलालेख नागरी–प्रचारिणी सभा, काशी ने 1989 में लगवाया था।
भारतेंदु हरिश्चंद्र श्रेष्ठ साहित्यकार होने के साथ ही उच्च कोटि के संपादक भी थे। उन्होंने हिन्दी की खूब सेवा की है। 35 वर्ष की अल्पायु में ही वे गोलोकवासी हो गए लेकिन उन्होंने जो सृजन किया, उसके कारण वे आज भी हमारे बीच प्रासंगिक हैं।
वे इतने प्रतिभाशाली थे कि 1868 में, केवल 18 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने पत्रिका ‘कवि वचन सुधा’ का प्रकाशित किया। इसके बाद हिन्दी पत्रकारिता का स्वरूप बदल गया। इसके साथ ही भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ और ‘बाला बोधिनी’ पत्रिका के संपादन के माध्यम हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वाराणसी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के भवन पर उनका चित्र / फोटो : लोकेन्द्र सिंह |
वाराणसी में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का भवन / फोटो : लोकेन्द्र सिंह |
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