गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

इस्लाम के कठोर आलोचक थे बाबा साहेब

बाबा साहेब डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर द्वारा की गईं हिन्दू धर्म की आलोचनात्मक टीकाओं को खूब उभारा जाता है, इसके पीछे की मंशा ठीक नहीं होती। बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म में व्याप्त जातिप्रथा, जातिगत भेदभाव और उसके लिए जिम्मेदार प्रसंगों की आलोचना की, उसके मानवीय कारण हैं। उनकी आलोचनाओं को हिन्दू समाज ने स्वीकार भी किया क्योंकि उन आलोचनाओं के पीछे पवित्र नीयत थी। किन्तु जो लोग हिन्दू धर्म को लक्षित करके नुकसान पहुँचाने के लिए बाबा साहेब के कंधों का दुरुपयोग करने का प्रयत्न करते हैं, वे भूल जाते हैं कि बाबा साहेब ने सिर्फ हिन्दू धर्म की कमियों की ही आलोचना नहीं की, बल्कि उन्होंने ईसाई और इस्लाम संप्रदाय को भी उसके दोषों के लिए कठघरे में खड़ा किया है। ‘बहिष्कृत भारत’ में 1 जुलाई, 1927 को लिखे अपने लेख ‘दु:ख में सुख’ में बाबा साहेब लिखते हैं- “ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि प्रकार के भेद सिर्फ हिन्दू धर्म में ही हैं, ऐसी बात नहीं, बल्कि इस तरह के भेद ईसाई और इस्लाम में भी दिखाई देते हैं”। इस्लाम पर तो बाबा साहेब ने खूब कलम चलाई है। परंतु यहाँ तथाकथित प्रगतिशील बौद्धिक जगत एवं अन्य लोगों की बौद्धिक चालाकी उजागर हो जाती है, जब वे इस्लाम के संबंध में बाबा साहेब के विचारों पर या तो चुप्पी साध जाते हैं या फिर उन विचारों पर पर्दा डालने का असफल प्रयास करते हैं। आज बाबा साहेब होते तो वे निश्चित ही ‘भीम-मीम’ का खोखला, झूठा और भ्रामक नारा देने वालों को आड़े हाथों लेते।

इस्लाम के विषय पर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का गहरा अध्ययन था। दरअसल, उन्होंने जब हिन्दू धर्म छोडऩे की घोषणा की तो उसके बाद उन्होंने सिख, इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म का बहुत अध्ययन किया। जब तक उन्होंने इस्लाम का अध्ययन नहीं किया था, तब तक अवश्य ही उन्होंने एक-दो बार हिन्दुओं को चेतावनी देने के लिए कहा कि अस्पृश्य वर्ग के लोग इस्लाम स्वीकार करें, तो यही सवर्ण हिन्दू उन्हें गले लगाने लग जाएंगे। ‘बहिष्कृत भारत’ के 15 मार्च, 1929 के अंक में तो उन्होंने एक लेख ही लिख दिया था, जिसमें उन्होंने अस्पृश्य वर्ग को कह दिया कि यदि हिन्दू धर्म में रहते हुए आपको सम्मान एवं समान अधिकार नहीं मिल रहे और आपको धर्म परिवर्तन ही करना हो तो मुसलमान हो जाईए। परंतु जैसे-जैसे बाबा साहेब इस्लाम का अध्ययन करते गए, इस्लाम के प्रति उनकी दृष्टि बदल गई। उसके बाद उन्होंने अस्पृश्य वर्ग के बंधुओं को समझाना शुरू किया कि मुसलमान बनने पर हम भारतीयता की परिधि से बाहर चले जाएंगे, हमारी राष्ट्रीयता संदिग्ध हो जाएगी। इसके साथ ही बाबा साहेब यह भी मानते थे कि “यदि वे इस्लाम स्वीकार करते हैं तो मुसलमानों की संख्या इस देश में दूनी हो जाएगी और मुस्लिम प्रभुत्व का खतरा उत्पन्न हो जाएगा”। अर्थात् बाबा साहेब मुसलमानों की बढ़ती संख्या को देश के लिए संकट के तौर देखते थे। इसलिए बाबा साहेब ने न केवल समय-समय पर इस्लाम की आलोचना की है, बल्कि अल्पसंख्यक के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण करने के सभी प्रकार के प्रयासों का भी विरोध किया है। 

18 जनवरी, 1929 को ‘नेहरू कमेटी की योजना और हिन्दुस्थान का भविष्य’ इस शीर्षक से उनका एक अग्रलेख ‘बहिष्कृत भारत’ में प्रकाशित हुआ है। कांग्रेस के अग्रणी नेता मोतीलाल नेहरू ने भारत के भावी संविधान का एक मसौदा प्रस्तुत किया। कांग्रेस के प्रचार तंत्र के जरिये जोर-शोर से यह बताया जा रहा था कि नेहरू कमेटी समिति का यह मसौदा कितना अच्छा है। जबकि बाबा साहेब ने इस मसौदे की विवेचना करके बताया कि नेहरू समिति की योजना देश के लिए घातक है। 

बाबा साहेब लिखते हैं- “जो कोई भी व्यक्ति एशिया के नक्शे को देखेगा उसे यह ध्यान में आ जाएगा कि किस तरह यह देश दो पाटों के बीच फंस गया है। एक ओर चीन व जापान जैसे भिन्न संस्कृतियों के राष्ट्रों का फंदा है तो दूसरी ओर तुर्की, पर्शिया और अफगानिस्तान जैसे तीन मुस्लिम राष्ट्रों का फंदा पड़ा हुआ है। इन दोनों के बीच फंसे हुए इस देश को बड़ी सतर्कता से रहना चाहिए, ऐसा हमें लगता है... इन परिस्थितियों में चीन एवं जापान में से किसी ने यदि हमला किया तो... उनके हमले का सब लोग एकजुट होकर सामना करेंगे। मगर स्वाधीन हो चुके हिन्दुस्थान पर यदि तुर्की, पर्शिया या अफगानिस्तान जैसे तीन मुस्लिम राष्ट्रों में से किसी एक ने भी हमला किया तो क्या कोई इस बात की आश्वस्ति दे सकता है कि इस हमले का सब लोग एकजुटता से सामना करेंगे? हम तो यह आश्वस्ति नहीं दे सकते”

उन्होंने स्पष्ट संकेत किया है कि जब मुस्लिम देश भारत पर हमला करेंगे तो एकजुटता से उसका सामना नहीं किया जाएगा। मुस्लिम राष्ट्रों के हमलों के विरुद्ध कौन खड़ा नहीं होगा, तो उनका संकेत मुस्लिम समुदाय की ओर था। बाबा साहेब की यह अनुभूति इसलिए आई होगी क्योंकि भारत का बहुसंख्यक मुसलमान आज भी भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रांताओं को अपना नायक मानता है। यदि इसी बात को बाबा साहेब के नाम का उल्लेखन न करते हुए लिखा जाए, तो इसे किसी ‘हिन्दूवादी’ नेता के विचार ठहराया जाएगा। इस लेख के अंत में बाबा साहेब लिखते हैं- “नेहरू कमेटी की छानबीन हमने स्वार्थ से अंधे होकर नहीं की है। नेहरू कमेटी की योजना का हमने जो विरोध किया है, वह इसलिए नहीं कि कमेटी ने अस्पृश्यों के प्रति तिरस्कार युक्त व्यवहार किया है बल्कि हमने विरोध इसलिए किया है क्योंकि उससे हिन्दुओं को खतरा है और हिन्दुस्थान पर अनिष्ट आया है”।   

‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ मुसलमानों के विषय में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस ग्रंथ में उन्होंने कहा है कि “मुसलमान कभी भी मातृभूमि के भक्त नहीं हो सकते। हिन्दुओं से कभी उनके दिल मिल नहीं सकते। देश में रह कर शत्रुता पालते रहने की अपेक्षा उन्हें अलग राष्ट्र दे देना चाहिए। भारतीय मुसलमानों का यह कहना है कि वे पहले मुसलमान हैं और फिर भारतीय हैं। उनकी निष्ठाएं देश-बाह्य होती हैं। देश से बाहर के मुस्लिम राष्ट्रों की सहायता लेकर भारत में इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करने की उनकी तैयारी है। जिस देश में मुस्लिम राज्य नहीं हो, वहाँ यदि इस्लामी कानून और उस देश के कानून में टकराव पैदा हुआ तो इस्लामी कानून ही श्रेष्ठ समझा जाना चाहिए। देश का कानून झटक कर इस्लामी कानून मानना मुसलमान समर्थनीय समझते हैं”। मुसलमानों के संदर्भ में बाबा साहेब के इन विचारों ने ही उन्हें सदैव मुसलमानों से राजनीतिक समझौते और धर्म के रूप में इस्लाम स्वीकारने से रोका। 

इसी पुस्तक में बाबा साहेब ने प्रमाणों एवं तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया है कि मुस्लिम आक्रांतों ने सिर्फ वैभव सम्पन्नता को लूटने के लिए भारत पर आक्रमण नहीं किए थे, बल्कि उसके पीछे जेहादी मानसिकता काम कर रही थी। बाबा साहेब लिखते हैं कि- “मुस्लिम आक्रांता नि:संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परंतु वे घृणा का गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगाकर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो वरदान माना जाता। वे इतने नकारात्मक परिणाम से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने तो भारत में इस्लाम का पौधा रोपा। इस पौधे का विकास बखूबी हुआ और यह एक बड़ा ओक का पेड़ बन गया”। मुस्लिम समुदाय क्यों अन्य समुदायों के साथ घुल-मिल नहीं पाता, उसका कारण स्पष्ट करते हुए बाबा साहेब ने लिखते हैं कि इस्लाम एक क्लोज कॉर्पोरेशन है और इसकी विशेषता ही यह है कि मुस्लिम और गैर मुस्लिम के बीच वास्तविक भेद करता है। इस्लाम का बंधुत्व मानवता का सार्वभौम बंधुत्व नहीं है। यह बंधुत्व केवल मुसलमान का मुसलमान के प्रति है। दूसरे शब्दों में इस्लाम कभी एक सच्चे मुसलमान को ऐसी अनुमति नहीं देगा कि आप भारत को अपनी मातृभूमि मानो और किसी हिन्दू को अपना आत्मीय बंधु। वे लिखते हैं- “मुसलमानों में एक और उन्माद का दुर्गुण है। जो कैनन लॉ या जिहाद के नाम से प्रचलित है। एक मुसलमान शासक के लिए जरूरी है कि जब तक पूरी दुनिया में इस्लाम की सत्ता न फैल जाए तब तक चैन से न बैठे। इस तरह पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी है दार-उल-इस्लाम (इस्लाम के अधीन) और दार-उल-हर्ब (युद्ध के मुहाने पर)। चाहे तो सारे देश एक श्रेणी के अधीन आयें अथवा अन्य श्रेणी में। तकनीकी तौर पर यह मुस्लिम शासकों का कर्तव्य है कि कौन ऐसा करने में सक्षम है। जो दार-उल-हर्ब को दर उल इस्लाम में परिवर्तित कर दे। भारत में मुसलमान हिजरत में रुचि लेते हैं तो वे जिहाद का हिस्सा बनने से भी हिचकेंगे नहीं”।

जब धर्म के आधार पर भारत का विभाजन सुनिश्चित हो गया, तब बाबा साहेब ने पूर्ण जनसंख्या अदला-बदली की बात कही। वे अपने अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर यह स्पष्ट देख पा रहे थे कि यदि जनसंख्या की अदला-बदली नहीं की गई, तो भविष्य के भारत में फिर किसी ‘नये पाकिस्तान’ की मांग उठेगी। यह बात तो सबके ध्यान में ही है कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद मुस्लिम नेताओं की ओर से खुलकर कहा गया- ‘लड़कर लिया है पाकिस्तान, हंसकर लेंगे हिंदुस्तान’। विभाजन के समय बाबा साहेब ने लिखा- “प्रत्येक हिन्दू के मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि पाकिस्तान बनने के बाद हिन्दुस्तान से साम्प्रदायिकता का मामला हटेगा या नहीं, यह एक जायज प्रश्न था और इस पर विचार किया जाना जरूरी था। यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के बन जाने से हिन्दुस्तान साम्प्रदायिक प्रश्न से मुक्त नहीं हो पाया। पाकिस्तान की सीमाओं की पुनर्रचना कर भले ही इसे सजातीय राज्य बना दिया गया हो लेकिन भारत को तो एक मिश्रित राज्य ही बना रहेगा। हिन्दुस्तान में मुसलमान सभी जगह बिखरे हुए हैं, इसलिए वे ज्यादातर कस्बों में एकत्रित होते हैं। इसलिए इनकी सीमाओं की पुनर्रचना और सजातीयता के आधार पर निर्धारण सरल नहीं है। हिन्दुस्तान को सजातीय बनाने का एक ही रास्ता है कि जनसंख्या की अदला-बदली सुनिश्चित हो, जब तक यह नहीं किया जाता तब तक यह स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी, बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की समस्या और हिन्दुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी रहेगी”। उनका कहा आज के भारत में कड़वे सच के रूप में उपस्थित है। 

इस्लाम के संबंध में बाबा साहेब के विचारों की एक कल्पना उपरोक्त चर्चा से मिलती है। इस्लाम के संबंध में बाबा साहेब ने गहराई से अध्ययन किया और उसे अपने लेखन में प्रस्तुत किया। उन्होंने इतिहास से दृष्टि प्राप्त कर इस्लामिक मानसिकता के वर्तमान एवं भविष्य की एक तस्वीर बनाने का जतन बाबा साहेब ने किया है। एक तरह से उन्होंने भारतीय मुसलमानों को आईना भी दिखाया और उन्हें उनकी कमजोरियां एवं गलत धारणाएं भी बताईं। हिन्दू समाज ने तो बाबा साहेब के विचारों को स्वीकार करते हुए उनके बताए अनेक सुधारों को स्वीकार कर लिया, अब देखना यह है कि मुसलमान कब बाबा साहेब की बातों पर चिंतन एवं उस पर क्रियान्वयन करते हैं। 

बाबा साहब आंबेडकर और उनकी पत्रकारिता



1 टिप्पणी:

  1. बाबा साहेब ने पाकिस्तान का विचार में साफ समझाया है इन बातों को ।आपका लेख बहुत ही सहाराहनीय और तथ्यपरक है

    जवाब देंहटाएं

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share