एक ओर बाह्य विचारधारा के प्रभाव में कुछ राजनेता और उनके सहयोगी बुद्धिजीवी ‘हिन्दुत्व’ एवं ‘राष्ट्र’ की अवधारणा पर प्रश्न उठाकर उसे नकार रहे हैं। हिन्दुत्व को लेकर उनका विचार अत्यधिक नकारात्मक है। उन्हें जैसे ही अवसर मिलता है, नकारात्मक बातों के साथ हिन्दुत्व को जोड़कर, हिन्दुत्व के प्रति समाज में घृणा का भाव पैदा करने का प्रयास करते हैं। वहीं, दूसरी ओर राष्ट्रीय विचार से अनुप्रमाणित संगठन हैं, जो हिन्दुत्व को भारत का मूल बता रहे हैं। हिन्दुत्व को सही प्रकार से परिभाषित करते हुए उनकी ओर से बताया जाता है कि उसमें सबके लिए सम्मानपूर्वक स्थान है। इस विमर्श के क्रम में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के वक्तव्य को देखा जा सकता है। भाग्यनगर (हैदराबाद) में चल रहे रामानुजाचार्य सहस्राब्दी समारोह में शामिल होने पहुँचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि “हिन्दुत्व ही राष्ट्रत्व है। इसमें दो मत नहीं है। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं है”।
Nationality of India is Hindutva
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब यह बात कह रहे थे, तब वहाँ प्रबुद्ध संत समाज भी उपस्थित था और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत भी। संघ प्रारंभ से यह कहता रहा है कि भारत एक हिन्दूराष्ट्र है। भारत को हिन्दूराष्ट्र घोषित करने की माँग पिछले दिनों कथित धर्मसंसद में उठाई गई, जिसके संदर्भ में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने हाल ही में फिर से दोहराया कि अलग से इस देश को हिन्दूराष्ट्र घोषित करने की आवश्यकता नहीं, यह पहले से ही हिन्दूराष्ट्र है। ‘भविष्य का भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ शीर्षक से अपनी प्रसिद्ध व्याख्यानमाला में भी उन्होंने स्पष्ट किया था कि हिन्दुत्व धार्मिक पहचान नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पहचान है। यह राष्ट्रीयता है, जिसे कुछ लोग भारतीयता कहते हैं।
एकात्म मानवदर्शन जैसा अद्भुत विचार देने वाले चिंतक दीनदयाल उपाध्याय भी कहते थे कि भारत की जो आत्मा है, वह इस देश की संस्कृति है। इसी तरह, गांधीवादी चिंतक धर्मपाल ने भी अपनी पुस्तक ‘भारतीय चित्त, मानस और काल’ में भारत के सांस्कृतिक पक्ष को रेखांकित करते हुए उसके मूल को समझाने का प्रयास किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि जब तक हम भारत के चित्त को नहीं समझेंगे, उसे जानेंगे नहीं और उससे जुड़ेंगे नहीं, तब तक हम भारत को ‘भारत’ नहीं बना सकते। अब जरा विचार कीजिए कि धर्मपालजी भारत के जिस मूल की बात कर रहे हैं, वह क्या है? क्या वह भारत का अध्यात्म नहीं है? क्या वह भारत की हिन्दू पहचान नहीं है? क्या वह भारतीय संस्कृति के तत्व नहीं हैं? उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक भारत को जो एकसूत्र में बांधने का काम करता है, वह हिन्दुत्व ही है। इसलिए यह ही भारत की राष्ट्रीय पहचान है।
आयातित विचारधाराओं ने भारत की मूल पहचान को बदलने के भरसक प्रयास किए हैं। भारतीयता के विरुद्ध अपने इस षड्यंत्र को सफल बनाने के लिए उन्होंने अकादमिक, संचार, राजनीति एवं सेवा सहित अन्य क्षेत्रों का प्रमुखता से उपयोग किया। एक इको-सिस्टम बनाकर सब क्षेत्रों से एकसुर में उन्होंने भारत को उसके ‘स्व’ से दूर करनेवाला शोर पैदा किया। परंतु, यह शोर भारत के कोमल स्वर को कुचल नहीं सका। आज वह कोमल स्वर बलशाली हो रहा है। परिणामस्वरूप भारत के ‘स्व’ को ढंकने के लिए बनाए गए अनेक प्रकार के कृतिम भ्रम के बादल अब छंटने लगे हैं। अब यह भ्रम बहुत कम लोगों के मन में बचा है कि भारत की पहचान क्या है? सब इस बात को समझने लगे हैं कि हिन्दुत्व ही भारत की राष्ट्रीयता है। भारत की पहचान को लेकर चल रहे वैचारिक विमर्श में एक पक्ष ‘हिन्दुत्व’ और ‘राष्ट्र’ की अवधारणा पर चोट कर रहा है, तो दूसरा पक्ष इनकी उदार एवं वृहद संकल्पना को प्रस्तुत कर रहा है। इस विमर्श के आधार पर भारत के नागरिक भली प्रकार यह समझ पा रहे हैं कि भारत के पक्ष में कौन है और किसकी सोच भारत के विरुद्ध है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share