मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

हिन्दूहित यानी राष्ट्रहित

भाग्यनगर (हैदराबाद) में चल रहे रामानुजाचार्य सहस्राब्दी समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने जो उद्बोधन दिया है, वह वर्तमान राजसत्ता एवं समाजसत्ता के लिए दिशासंकेत है। उनके उद्बोधन पर संकीर्ण राजनीतिक दृष्टि से नहीं अपितु वृहद भारतीय दृष्टिकोण से चिंतन करने और उसका अनुसरण करने की आवश्यकता है। अपने व्याख्यान में सबसे पहले उन्होंने एक लोककथा के माध्यम से भारतीय समाज को उसके सामर्थ्य से परिचित कराया। भारतीय समाज के सामर्थ्य का ही परिणाम है कि विगत एक हजार वर्षों में अनेक बाह्य आक्रमणों के बाद भी हिन्दू संस्कृति जीवित है। अनेक ताकतों ने हिन्दुओं को नष्ट करने के लिए पूरी ताकत लगा ली लेकिन परिणाम क्या है, सब जानते हैं। इस ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने कहा कि "हमें खत्म करने के अनेक कोशिशें की गईं लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। अगर हमें खत्म होना होता होता तो पिछले 1000 साल में ऐसा हो गया होता लेकिन लगभग पाँच हजार साल पुराना सनातम धर्म आज भी टिका हुआ है और अक्षुण्ण है। जिन्होंने हिन्दुओं को खत्म करने की कोशिश की वो आज पूरी दुनिया में आपस में संघर्ष कर रहे हैं। इतने अत्याचारों के बाद भी आज हमारे पास मातृभूमि है। हमारे पास संसाधनों की कमी नहीं है इसलिए हमें डरने की जरूरत भी नहीं है"।

  हम टिके इसलिए हैं क्योंकि हमारे सामथ्र्य के आगे कोई टिक नहीं सकता। आज हिन्दू समाज को यह बात समझने की आवश्यकता है। एक और बात सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवतजी ने बहुत महत्वपूर्ण कही है, जो पूर्णत: सत्य है- "हिन्दूहित यानी राष्ट्रहित"। पिछले कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि हिन्दू विरोधी ताकतें हिन्दुओं को भ्रमित और भयाक्रांत करने के षड्यंत्र रच रही हैं। नागरिकों को भाषा, जाति, पंथ और प्रांत के आधार पर एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। यह ताकतें हिन्दुओं को भड़काने का प्रयास कर रही हैं ताकि हिन्दू देश में अंदरूनी झगड़े बढ़ानेवाले मामलों में शामिल हो जाए और हिन्दू भी उनकी तरह स्वहित को प्राथमिकता दे। यदि हिन्दू का चरित्र ऐसा हो गया, तब सबसे अधिक नुकसान उसके अपने राष्ट्र भारत का ही होगा। जब तक हिन्दू सामर्थ्यशाली है, आपसी झगड़ों से दूर है और राष्ट्रहित उसकी प्राथमिकता में है, तब तक न तो हिन्दुओं को और न ही इस देश को कोई नुकसान पहुँचा सकता है। इसलिए सरसंघचालकजी कहते हैं कि "हमारा सामर्थ्य किसी से झगड़ा करने के लिए नहीं है। हमें किसी से लडऩा नहीं है। हमें स्वयं को और अपने लोगों को पहचानना है। हम सम्मान और इज्जत के साथ रहेंगे। मेरा अपना हित, परिवार का हित, भाषा का हित, मेरी जाति का हित, मेरे प्रांत का हित मेरे पंथ का हित, ये हमेशा दूसरे स्थान पर रहने चाहिए। पहला स्थान हिन्दूहित होना चाहिए यानी राष्ट्रहित"। 

स्मरण रखें कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत भारत को अपनी मातृभूमि माननेवाले और इसके प्रति आस्था रखनेवाले प्रत्येक नागरिक को हिन्दू के रूप में परिभाषित करते हैं। इसलिए यहाँ हिन्दू का अभिप्राय पंथ और धर्म की अपेक्षा राष्ट्रीय पहचान से है। इसलिए जो भी स्वयं को हिन्दू मानता है, उसे इस पथ का अनुसरण करना चाहिए। हिन्दू का जीवन कैसा होना चाहिए, उसके लिए क्या करणीय कार्य हैं और क्या नहीं, यह सब विचार भी सरसंघचालकजी ने देेश के मान्य संत समाज की उपस्थिति में प्रस्तुत किए हैं। हमें सब प्रकार की बातों में हिन्दू हित को प्राथमिकता देना चाहिए।

भारत को जोड़ने का काम करता है-हिन्दुत्व




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