भारतीय जनता पार्टी को 'पार्टी विद डिफरेंस' का तमगा निश्चित ही लखीराम जी अग्रवाल जैसे ईमानदार, जनसरोकारी और स्वच्छ छवि के राजपुरुषों के कारण ही मिला होगा। सादगी और मिलनसारिता की प्रतिमूर्ति थे लखीराम अग्रवाल। उनको जानने वाले बताते हैं कि राजनीति में लखीराम जैसे आदर्श राजनेता अब कम ही दिखते हैं। वे अलग ही माटी के बने थे। वे उस परम्परा के राजनेता थे, जिसका उद्देश्य राजनीति के मार्फत समाज की बेहतरी, जनसेवा और रचनात्मक सोच को आगे बढ़ाना था। जनसंघ से भाजपा के देशव्यापी पार्टी बनने के सफर में लखीराम अग्रवाल के योगदान को याद करना, सही मायने में भव्य और आलीशान इमारत की नींव के पत्थरों को याद करना है। उनको याद करते हैं तो एक वैचारिक योद्धा की राजनीतिक यात्रा भी याद आती है। इस यात्रा में स्थापित किए मील के पत्थर भी याद आते हैं। वह सब याद आता है जो आज की राजनीति में कम ही नजर आता है। लोकतंत्र के जीवत बने रहने के लिए किस तरह के राजनेताओं की जरूरत है, यह भी याद आता है।
महज 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने खरसिया नगर पालिका के पार्षद का चुनाव जीतकर राजनीति में अपनी आमद दर्ज कराई। अपनी सक्रियता, संगठक क्षमता और सशक्त नेतृत्व के बल पर वे राजनीति में सोपान दर सोपान चढ़ते गए। वे उस दौर में जनसंघ से जुड़े जब देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था और जनसंघ कहीं नहीं था। दरअसल, लखीराम अग्रवाल बाल्यकाल से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे। संघ कहता है कि उसकी शाखा व्यक्ति निर्माण का कारखाना है। संघ की शाखा में पाए संस्कार ही थे कि लखीराम अग्रवाल राष्ट्रहित की सबसे पहले चिंता करने वाले राजनीतिक दल जनसंघ के सदस्य बने। पार्षद का चुनाव जीतने से शुरू हुई राजनीतिक यात्रा वर्ष 1964 में खरसिया नगर पालिका के अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होने तक ही नहीं रुकी बल्कि अविभाजित मध्यप्रदेश (मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़) के दो बार भाजपा प्रदेश अध्यक्ष और छत्तीसगढ़ बनने के बाद पहले प्रदेशाध्यक्ष तक पहुंची। अपनी राजनीतिक समझ और अनथक मेहनत के बूते उन्होंने मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में भाजपा की जड़ें ही मजबूत नहीं की बल्कि भाजपा को सत्ता की कुर्सी तक भी पहुंचाया। वे भाजपा के पितृपुरुष कुशाभाऊ ठाकरे, अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के आत्मीय थे। लखीराम जी की राजनीतिक सक्रियता काबिल-ए-तारीफ थी। लेकिन, वे कभी भी कुर्सी के लिए नहीं दौड़े। पार्टी ने जो कहा, सो किया। अपने ही पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता कैलाश जोशी के खिलाफ भाजपा प्रदेशाध्यक्ष का चुनाव भी पार्टी के कहने पर ही लड़ा था। वे विचारधारा की राजनीति करते थे। इसीलिए भाजपा को मजबूत करने में जीवन खपा देने के बाद भी कभी मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री या अन्य कोई पद नहीं मांगा। संगठन ने उन्हें जो काम सौंपा, उसे ही प्राथमिकता और पूरी लगन से किया। वरिष्ठ पत्रकार लोकेन्द्र पाराशर कहते हैं कि लखीराम अग्रवाल राजनीतिक क्षितिज पर ऊंचाइयां प्राप्त करने के बाद भी सदैव विनम्र, सरल और सहज बने रहे। कोयले की खान कही जाने वाली राजनीति में भी धवल ही रहे। उनके जैसे राजनेताओं से ही लोकतंत्र मजबूत हुआ है।
व्यापारिक पृष्ठभूमि से होने के बावजूद लखीराम अग्रवाल राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे। राजनीति की बिसात पर अपने प्रतिद्वंद्वी को वे इस तरह उलझाते कि उसे कुछ सूझता नहीं था। चुनाव प्रबंधन की उनकी क्षमता को बताने के लिए वर्ष 1988 में हुए खरसिया उपचुनाव की नजीर दी जाती है। इस चुनाव में लखीराम अग्रवाल ने ऐसी व्यूह रचना की थी कि तत्कालीन मुख्यमंत्री और मध्यप्रदेश की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अर्जुन सिंह को पसीना आ गया था। अर्जुन सिंह बड़ी मुश्किल से दिलीप सिंह जूदेव से चुनाव जीते सके थे। राजनीतिक विश्लेषक आज भी इसे अर्जुन सिंह की जीत नहीं बल्कि हार मानते हैं। इसे तो लखीराम अग्रवाल की व्यूह रचना की जीत माना जाता है। भाजपा ने भी इस घटना को अपनी जीत ही माना था और खरसिया में चुनाव हारने के बाद भी दिलीप सिंह जूदेव का विशाल और भव्य जुलूस निकाला गया था।
छत्तीसगढ़ की राजनीति के भीष्म पितामह की संज्ञा पाये लखीराम जी ने शुचिता की राजनीति में नित नये प्रतिमान स्थापित किए। राजनीति में जब सब ओर वंशवाद की विषबेल फैल रही थी तब भी वे इससे अछूते रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कार्य की पद्धति है कि कार्यकर्ता को सादगी, ईमानदारी, त्याग सहित अन्य संस्कार भाषण देकर नहीं बल्कि अपने कर्म से सिखाए जाते हैं। किसी को शिक्षा देने के लिए अपना उदाहरण पेश करना चाहिए। एक बच्चे को अधिक मीठा खाना छोडऩे की सीख देने के लिए रामकृष्ण परमहंस द्वारा मीठा खाना कम करना भी ऐसा ही एक प्रतिमान है। सामाजिक जीवन में संघ के कार्यकर्ता जैसा जीवन जीते हैं राजनीति में लखीराम जी वैसा ही करते थे। उन्होंने हमेशा अपना उदाहरण प्रस्तुत कर शुचिता की राजनीति को आयाम दिया। अपने व्यवहार से उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को सीख दी कि परिवार को मजबूत करने के लिए राजनीति नहीं है बल्कि समाज को मजबूत करने के लिए है। उन्होंने कभी भी अपने पुत्र की पैरवी नहीं की। उनके पुत्र अमर अग्रवाल युवा अवस्था से ही राजनीति के रास्ते पर चल पड़े थे। वे समाज जीवन में सक्रिय थे। अपने बलबूते पर लोकप्रिय भी हो रहे थे लेकिन इस सबके बावजूद जब भी अमर अग्रवाल को टिकट देने या आगे बढ़ाने की बात आती थी, लखीरामजी पार्टी के दूसरे नेताओं पर छोड़ देते थे। वे वंशवाद की राजनीति के आरोप से बचने के लिए यहां तक करते थे कि अमर अग्रवाल को पद या टिकट देने की बात चलती थी तो वे बैठक छोड़कर बाहर आ जाते थे। लखीराम जी ने हमेशा पार्टी के हित को सामने रखा। वे खरा-खरा बोलते थे लेकिन मीठा। मीठा उन्हें बेहद पसंद था। संभवत: यही कारण था कि उनकी जुबान बहुत मीठी थी। दो मीठे बोल से वे सबको अपना कर लेते थे। वे ऐसे नेता थे, जिनसे कोई भी कार्यकर्ता बेझिझक अपनी बात कह देता था। कार्यकर्ताओं पर नाराज होते, चीखते-चिल्लाते हुए उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा था। वे बहुत संयमी और धैर्यवान थे। लखीराम जी सरल और सहज व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनको याद करते हुए ग्वालियर-चम्बल संभाग की भाजपा कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार अपर्णा पाटिल कहती हैं कि जब कोई कार्यकर्ता एक बड़ा नेता बन जाता है तो उसका वैचारिक स्तर ऊपर उठ जाता है। इस कारण वह बड़ी-बड़ी बातों में लगा रहता है, छोटी और सामान्य बातों पर ध्यान नहीं दे पाता। लेकिन, लखीराम जी की विशेष बात यह थी कि वो प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद भी स्वयं ही छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं से मिलते थे और उनकी परेशानियों को दूर करने का प्रयत्न करते। प्रदेश के हर हिस्से के कार्यकर्ताओं को इत्मिनान से सुनते थे। भाजपा के पितृपुरुष कुशाभाऊ ठाकरे की परिपाटी का उन्होंने सदैव अनुसरण किया। पार्टी को मजबूत करने के लिए प्रदेश के लगभग प्रत्येक मण्डल का प्रवास उन्होंने किया था। पार्टी के लिए पैसा जुटाना हो या योग्य कार्यकर्ता, इसमें लखीराम जी सिद्धहस्त थे। उनके अथक प्रयासों से ही भोपाल में पार्टी का सुन्दर और व्यवस्थित प्रदेश कार्यालय बन सका था। बहरहाल, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, कुशाभाऊ ठाकरे, लखीराम अग्रवाल, नारायण शेजवलकर और माधवशंकर इंदापुरकर के प्रयासों से प्रदेश में पार्टी और राष्ट्रवादी विचारधारा की जड़ें गहरी हो सकीं। वर्तमान में भाजपा को इन्हीं महान राजपुरुषों की मेहनत का प्रतिफल प्राप्त हो रहा है।
राष्ट्रवादी विचारधारा की राजनीति के लिए अपना जीवन खपा देने वाले लखीराम अग्रवाल के संबंध में बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि वे पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कुछ समय गुजार चुके थे। लखीरामजी पत्रकारिता की ताकत को समझते थे यही कारण था कि उन्होंने न केवल पत्रकारिता में खबरनबीसी की बल्कि खुद का एक समाचार-पत्र 'लोकस्वर' भी शुरू किया। कालान्तर में लोकस्वर छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में शुमार होता रहा। 'नागपुर टाइम्स' और 'युगधर्म' में संवाददाता रह चुके लखीराम अग्रवाल पत्रकारिता के मूल्यों का सम्मान करते थे। ऐसे किसी प्रसंग का कहीं जिक्र नहीं मिलता कि उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए संपादक के काम में दखल दिया हो। वे निष्पक्ष पत्रकारिता के पक्षधर थे। संपादक को उसके हिसाब से काम करने की आजादी थी। वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक रमेश नैयर लोकस्वर के संस्थापक संपादक रहे हैं। अपने कार्यकाल को याद कर वे जिक्र करते हैं कि प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार थी। बिलासपुर प्रवास पर आए विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष अर्जुन सिंह का उन्होंने साक्षात्कार लिया। बातचीत में अर्जुन सिंह ने जनता पार्टी और उसके प्रमुख घटक दल जनसंघ की कड़ी आलोचना की। इस साक्षात्कार को लोकस्वर में प्रकाशित किया गया। चूंकि लोकस्वर के मालिक लखीराम अग्रवाल जनसंघ के लोकप्रिय और सशक्त नेता थे। उनके ही अखबार में इस तरह की खबर प्रकाशित होने पर जनसंघ के कई कार्यकर्ताओं और नेताओं ने लखीरामजी से शिकायत की। लेकिन, लखीराम जी ने इस संबंध में संपादक को किसी प्रकार की चेतावनी नहीं दी। इस घटना से जाहिर होता है कि उन्होंने कभी भी संपादक पर खबरों को तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करने के लिए दबाव नहीं बनाया। न ही कभी इस बात पर आपत्ति जताई कि प्रतिद्वंद्वी पार्टी के नेता का साक्षात्कार उनके अखबार में क्यों प्रकाशित हो गया। वे पत्रकारिता के मूल्यों का सम्मान करते थे। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में लम्बा अरसा बिताने वाले वरिष्ठ पत्रकार और इस पुस्तक के संपादक संजय द्विवेदी बताते हैं कि उस वक्त जनसंघ के समाचार मुख्यधारा की मीडिया में कम ही जगह पाते थे। जनसंघ और राष्ट्रवादी विचार लोगों तक पहुंचें, इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लखीरामजी ने लोकस्वर का प्रकाशन शुरू किया था। लेकिन, उनके अखबार के पन्नों पर सभी विचारों और पार्टियों को बराबर जगह मिलती थी। लोकस्वर के दरवाजे-खिड़की सबके लिए खुले थे। कहीं किसी विचार की अनदेखी नहीं। संपादक को काम करने की पूरी आजादी थी।
विचार के लिए समर्पित, धवल राजनीति के पैरोकार और पत्रकारिता की निष्पक्षता के हिमायती लखीराम अग्रवाल से आज के वैचारिक योद्धाओं, राजनेताओं और मीडिया घरानों के मुखियाओं को बहुत कुछ सीखना चाहिए। लखीराम अग्रवाल किसी भी स्थिति में विचार से डिगे नहीं। जिस विचार को धारण किया, उसे अंत तक निभाया। आपातकाल में 19 माह जेल में भी बिता आए। वे सच्चे अर्थों में राजपुरुष थे। राजनीति का यथेष्ठ उपयोग समाजसेवा के लिए किया। शुचिता की राजनीति की नई लकीर खींच दी। शिखर पर पहुंचकर भी साधारण बने रहे। खुद को महत्वपूर्ण मानकर असामान्य व्यवहार कभी नहीं किया। वे अंत तक खुद को सच्चे अर्थों में जनप्रतिनिधि साबित करते रहे। उन्होंने निष्पक्ष पत्रकारिता की और करने दी। प्रतिष्ठित समाचार पत्र का मालिक होकर भी पत्रकारिता का स्वार्थ के लिए दुरुपयोग नहीं किया। बाजारवाद के समय में भी पत्रकारिता के मूल्यों की स्थापना पर जोर दिया। लखीराम अग्रवाल अलग ही माटी के बने थे। वे प्रत्येक भूमिका में फिट रहे। एक वाक्य में उन्हें व्यक्त करना हो तो- वे सम्पूर्ण मनुष्य थे।
यह आलेख प्रो. संजय द्विवेदी द्वारा सम्पादित पुस्तक 'लक्ष्यनिष्ठ लखीराम' में प्रकाशित है।
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