गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

महाभियोग की तुच्छ राजनीति

 मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध महाभियोग लाने का निर्णय कर कांग्रेस ने न्यायपालिका पर आखिरकार सीधा हमला कर ही दिया है। अपने इस निर्णय से कांग्रेस ने देश की जनता में ही नहीं, बल्कि अपने भीतर भी किरकिरी करा ली है। भले ही कांग्रेस ने भाजपा पर हमला करने के लिए महाभियोग को राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग किया है, किंतु इस बार यह हथकंडा कांग्रेस को भारी पड़ सकता है। जज बीएच लोया की कथित संदिग्ध मौत के मामले को खारिज करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि इस मामले की आड़ में न्यायपालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता पर प्रहार करने का प्रयास किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का यह अंदेशा सत्य साबित हुआ। 
           महाभियोग को लेकर कांग्रेस ने जो वातावरण बनाया है, वह एक तरह से न्यायालय की अवमानना है। न्यायालय को कठघरे में खड़ा करने की साजिश है। इस प्रकरण में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को अपने ही वरिष्ठ नेता एवं सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता सलमान खुर्शीद को सुनना चाहिए। उल्लेखनीय है कि महाभियोग के प्रस्ताव पर खुर्शीद ने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। उनका कहना है- 'चाहे जज लोया का मामला हो या कोई अन्य, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ही अंतिम होता है। अगर शीर्ष न्यायालय के फैसले को लेकर किसी को कोई आपत्ति है तो पुनर्विचार याचिका, उपचारात्मक याचिका दाखिल करने की छूट होती है। यह अलग बात है कि इनका दायरा बहुत सीमित होता है। वकील का काला गाउन और सफेद बैंड पहनने वाले किसी भी आदमी को कोर्ट के फैसले पर सोच समझ कर सवाल उठाने चाहिए।' खुर्शीद का यह बयान स्पष्ट संकेत कर रहा है कि कांग्रेस ने मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग लाने का निर्णय बहुत सोच-विचार कर नहीं लिया है। 
          हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों ने जब प्रेसवार्ता का आयोजन किया, कांग्रेस तभी से मुख्य न्यायाधीश पर दबाव बनाने के लिए महाभियोग की चर्चा कर रही है। परंतु, मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा कांग्रेस के महाभियोग हथियार से न तो भयभीत हुए और न ही दबाव में आए। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कांग्रेस के व्यवहार और उसके इस कदम पर उचित ही टिप्पणी की है कि जजों को धमकाने के लिए कांग्रेस महाभियोग का प्रस्ताव लेकर आई है। कांग्रेस के नेताओं ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि यदि आप हमारी बातों से सहमत नहीं हो, हमारे पक्ष में निर्णय नहीं सुनाया जाएगा तो हम उस संस्था को बदनाम करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। 
          दीपक मिश्रा को जिस तरह कांग्रेस निशाने पर ले रही है, उससे यह संदेह पुष्ट होता है कि वह किसी भी प्रकार राममंदिर पर निर्णय को रोकना चाहती है। मुख्य न्यायाधीश की बेंच ही राममंदिर प्रकरण की सुनवाई कर रही है। यह बेंच इस प्रकरण पर सुनवाई तेजी से कर निर्णय देना चाहती है। इसी कारण मुख्य न्यायाधीश पर हमलावर होने का आरोप कांग्रेस पर लग रहा है। कांग्रेस मुख्य न्यायाधीश को घेर कर अपने वोटबैंक को संदेश देना चाहती है। 
          कांग्रेस सहित सब जानते हैं कि यह महाभियोग पारित नहीं हो पाएगा, क्योंकि संसद में कांग्रेस का बहुमत नहीं है। इसलिए यह स्पष्टतौर पर कहा जा सकता है कि वह महाभियोग का राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग कर रही है। कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के लिए इस प्रकार का अभ्यास बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। संवैधानिक संस्थाओं पर इस प्रकार हमला करने की परंपरा ठीक नहीं। बहरहाल, महाभियोग लाने के पक्ष में कांग्रेस ने जो तर्क दिए हैं, वे सब बचकाने हैं। देश की जनता में चर्चा है कि क्या अपने मनमुताबिक फैसले  नहीं होने पर न्यायपालिका की गरिमा पर सवाल खड़ा किया जा सकता है? क्या दीपक मिश्रा के खिलाफ उस पद की गरिमा को कम करने का आरोप साबित हुआ है? क्या किसी तरह के कदाचार का आरोप साबित हो गया है? 
          सर्वोच्च न्यायालय के जज के खिलाफ मुख्य रूप से महाभियोग तब लाया जा सकता है जब या तो वो 'नाकाबिल' हों या फिर उन पर 'कदाचार का आरोप' साबित हो चुका हो, लेकिन कांग्रेस पार्टी और उनके दोस्तों ने महाभियोग को राजनीतिक हथियार बना लिया है। कांग्रेस बहुत उत्साहित होकर कह रही है कि उसने महाभियोग के प्रस्ताव पर 71 सांसदों के हस्ताक्षर करा लिए हैं, जबकि जरूरत सिर्फ 50 सांसदों के हस्ताक्षर की ही है। कांग्रेस के बड़बोले नेताओं को समझना चाहिए कि यह कोई मुश्किल काम नहीं है कि किसी भी तुच्छ और छोटे से मसले पर भी 50 सांसदों के हस्ताक्षर एकत्रित न किए जा सकें। लेकिन इस शक्ति का इस्तेमाल किसी को धमकाने के लिए उस समय करना, जब न तो आप के पास किसी तरह का कदाचार को साबित करता हुआ कोई सबूत है, और न ही आपके पास पर्याप्त संख्या बल हो, बहुत गलत है। यह न्यायिक स्वतंत्रता पर गंभीर खतरा है।

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