पि छले साल-छह महीनों से जिस तरह का वातावरण देश में बनाने की कोशिश की जा रही है, वह चिंता का विषय है। अपने विरोधों और स्वार्थों की पूर्ति में हम देश को बदनाम करने से भी बाज नहीं आए। चयनित दृष्टिकोण वाले साहित्यकारों, इतिहासकारों और कलाकारों ने देश को 'असहिष्णु विचारधारा' का शिकार बनाया। भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी से नफरत की हद तक मनभिन्नता रखने वाले राजनीतिक दलों की 'राजनीतिक असहिष्णुता' के निशाने पर संसदीय परंपराएं रहीं। संसद ठप रही। बुद्धिवादी अवसर खोजते रहे अपने वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों की लानत-मलानत करने के लिए। अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता का ऐसा हौव्वा खड़ा किया गया कि आम आदमी भौंचक रह गया। आम आदमी के आस-पास सबकुछ ठीक चल रहा है लेकिन बुद्धिवादी उसे बार-बार अहसास दिलाने का कुप्रयास करते रहे कि डेढ़ साल में तानाशाही आ गई है। न बोलने की आजादी। न खाने की आजादी। न पहनने की आजादी। न कहने की आजादी। न रहने की आजादी। मानो देश फिर गुलाम हो गया। मानो देश से गणतंत्र खत्म हो गया। मानो देश में कोई संविधान नहीं, कोई कानून व्यवस्था नहीं। लेकिन, सच क्या है, सब जानते हैं।
आमिर खान सुख से रह रहे हैं और उनकी पत्नी को भी कभी कोई असुविधा नहीं हुई लेकिन कह रहे हैं कि देश रहने लायक नहीं रह गया। हिन्दुत्व को कोस रहे हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जी भरके गाली दे रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हुज्जत कर रहे हैं और उनके समर्थकों का जमकर उपहास उड़ा रहे हैं फिर भी कह रहे हैं कि इस देश में बोलने की आजादी नहीं हैं। यह झूठ किसलिए? मंशा क्या है? मानो आपको सबकुछ कहने और करने की आजादी हो और दूसरे पक्ष को मुंह सिलकर बैठ जाना चाहिए। यह कैसी अभिव्यक्ति की आजादी है? और क्या अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी अंटशंट कहने-करने की आजादी होनी चाहिए? इस तरह तो हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मजाक बना रहे हैं। दादरी में निंदनीय हत्या के बाद देश में सांप्रदायिक जहर घोलने का षड्यंत्र किया गया। उससे भी मन नहीं भरा तो हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में एक छात्र रोहित वेमुला की अफसोसजनक मौत के बहाने देश में जाति का जहर घोलने की साजिश रची जा रही है। यह हो रहा है सिर्फ वैचारिक और राजनीतिक विरोध के कारण। जिन लोगों को देश ने खारिज कर दिया, अब वह इतने कुंठित हो उठे हैं कि किसी भी कीमत पर राष्ट्रवादी ताकतों को अपमानित करना चाह रहे हैं। वैचारिक लड़ाई को वैचारिक स्तर पर लडि़ए, राजनीतिक संघर्ष के लिए राजनीतिक मार्ग है, इस सब में देश को मत घसीटिए। वैचारिक और राजनीतिक विरोध में भारत और भारत के लोगों को अपमानित करने का प्रयास मत कीजिए।
आज हम ६७वाँ गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। सोचिए, क्या गणतंत्र को जी रहे हैं? पिछले साल-छह माह की घटनाओं और विमर्श पर नजर डालिए और फिर सोचिए कि क्या हमारे पुरखे ऐसा ही गणतंत्र बनाना चाहते थे? हम अपने अधिकारों की बात तो कर रहे हैं लेकिन कर्तव्य याद भी हैं क्या? सम्यक सोच और सम्यक दृष्टि से गणतंत्र सफल होता है। आइए, संकल्प करें कि खांचों और खानों में बंटकर नहीं बल्कि समग्रता से विमर्श करेंगे। वैचारिक और राजनीतिक द्वंद्व अपनी जगह लेकिन राष्ट्र को पहले रखकर सोचेंगे। आइए, ऐसा 'तंत्र' बनाते हैं, जिसमें सब 'गण' समभाव से रहें।
जिस सहजता से लोग भारत में रह रहे हैं उसकी तुलना में पड़ोसी या पश्चिमी एशिया के देशों का उदाहरण भर देख लें बुद्धजीवी।
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