मंगलवार, 26 जुलाई 2022

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का प्रेरक उद्बोधन

 “देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर मेरा निर्वाचन इस बात का सबूत है कि भारत का गरीब सपने देख सकता है और उसे पूरा भी कर सकता है"


देश की पहली अनुसूचित जनजाति महिला राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मु ने शपथ ली तो संसद भवन का केंद्रीय कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इस अवसर पर उनकी सरलता-सहजता के दर्शन समूचे देश ने किये। बहुत ही सहजता के साथ उन्होंने अपना वक्तव्य हिन्दी में दिया। राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मु का यह पहला उद्बोधन लम्बे समय तक याद रखा जायेगा। प्रेरणा से भरे हुए इस उद्बोधन को बार-बार पढ़ा और सुना जाना चाहिए। उनका यह उद्बोधन भारत के प्रत्येक सामान्य नागरिक के मन में सपनों के दीप जलाता है। राष्ट्रपति ने अपने पहले उद्बोधन में महत्वपूर्ण सन्देश दिया है- “देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर मेरा निर्वाचन इस बात का सबूत है कि भारत का गरीब सपने देख सकता है और उसे पूरा भी कर सकता है। मैंने अपनी जीवन यात्रा ओडिशा के एक छोटे से आदिवासी गांव से शुरू की थी। मैं जिस पृष्ठभूमि से आती हूं, वहां मेरे लिए प्रारंभिक शिक्षा हासिल करना भी सपने जैसा था लेकिन अनेक बाधाओं के बावजूद मेरा संकल्प दृढ़ रहा और मैं कॉलेज जाने वाली अपने गांव की पहली व्यक्ति थी”।

यकीन करना मुश्किल होता है कि एक छोटे से गाँव से शुरू हुआ सफ़र रायसीना हिल तक पहुँच सकता है। वैसे तो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का समूचा जीवन ही हम सबके लिए प्रेरणा का केंद्र है। हमें उनके जीवन से सीखना चाहिए कि कैसे सबकुछ खोकर भी उन्होंने अपने आत्मविश्वास को बनाये रखा, गहरे अवसाद से बाहर निकलकर अपने जीवन को दिशा दी और कमजोर लोगों का सहारा बनीं। उन्होंने जन-सेवा का रास्ता चुनकर अपने जीवन को सार्थकता प्रदान की है। जगन्नाथ क्षेत्र के एक प्रख्यात कवि भीम भोई जी की कविता का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा – “मो जीवन पछे नर्के पड़ी थाउ, जगत उद्धार हेउ। यानी अपने जीवन के हित-अहित से बड़ा जगत कल्याण के लिए कार्य करना होता है”। जब हम बड़े उद्देश्य से स्वयं को जोड़ लेते हैं तो हमारी पीड़ा, विप्पत्ति और कष्ट गौण हो जाते हैं। 

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का जीवन हिन्दू संस्कृति की श्रेष्ठता को भी प्रकट करता है। घनघोर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी हिन्दू संस्कृति से उन्होंने संबल पाया। आज जब अनेक लोग छोटी-मोटी असफलता या हानि पर अपना जीवन ही समाप्त कर लेते हैं, उन्हें राष्ट्रपति मुर्मु का जीवन देखना चाहिए कि सबकुछ ख़त्म होने के बाद भी जीवन को कैसे सार्थक किया जा सकता है।  

राष्ट्रपति के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर सुशोभित होकर द्रौपदी मुर्मु भारत के लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं लोकतान्त्रिक परम्परा की सुदीर्घ यात्रा को भी सिद्ध करती हैं। राजनीति के विद्वान अक्सर कहते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा और सफल लोकतंत्र है। दरअसल, भारत ही लोकतंत्र की जननी है। इसलिए यहाँ लोकतंत्र सफल भी है और मजबूत है। भारत के एक गाँव से, सामान्य परिवार से, एक महिला का देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पहुंचना इस बात का प्रमाण है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share