केंद्र सरकार ने वर्तमान और भविष्य को देखते हुए ‘नये संसद भवन’ की योजना बनायी थी, जिसका निर्माण कार्य अब अपने अंतिम चरण में है। विश्वास है कि इस वर्ष के अंत तक समूचा कार्य पूरा हो जायेगा। नये संसद परिसर के लोकार्पण का क्षण ऐतिहासिक होगा। यह बात संसद भवन के निर्माण में लगे श्रमिकों को भी भली प्रकार पता है। सोमवार को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नये संसद भवन में राष्ट्रीय प्रतीक ‘अशोक स्तम्भ’ का अनावरण किया, तब वहां उन्होंने श्रमिकों से भी बातचीत की। उन्होंने जब श्रमिकों से पूछा, “आपको क्या लगता है कि आप भवन बना रहे हैं या इतिहास?” तब सभी श्रमिकों ने सामूहिक स्वर में उत्तर दिया- “इतिहास”। यकीनन नये संसद भवन के निर्माण के साथ एक इतिहास रचा जा रहा है, जिस पर हम सबको गौरव होना चाहिए। कितना सुखद संयोग है कि देश जब अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है तब उसे अपना नया संसद भवन मिल रहा है।
एक ओर संसद भवन के निर्माण कार्य में संलग्न श्रमिकों को गौरव की अनुभूति है, वहीं दूसरी ओर भारत में ऐसा भी वर्ग है, जिसे पहले दिन से नये संसद भवन को लेकर पीड़ा है। नये संसद भवन के निर्माण कार्य को रुकवाने के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयास किया, लेकिन उनकी एक नहीं चली। जनता के बीच से लेकर न्यायपालिका तक मुंह की खाने के बाद भी यह वर्ग शांत नहीं बैठा है। सोमवार को जब प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रीय प्रतीक ‘अशोक स्तम्भ’ का अनावरण किया तो सबने इस पर अलग-अलग ढंग से वितंडावाद शुरू कर दिया। हैरानी की बात यह है कि विपक्ष और उनका तथाकथित बुद्धिजीवी समूह ‘अशोक स्तम्भ’ में सिंहों की मुख मुद्रा को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस संचालित कर रहा है। उनका दावा है कि अशोक स्तम्भ के ‘सिंह’ शांत दिख रहे हैं, जबकि नये परिसर में स्थापित राष्ट्रीय चिन्ह के ‘सिंह’ आक्रामक दिख रहे हैं। मतलब इस बात को लेकर उन्होंने ‘तिल का ताड़ बनाना’ शुरू कर दिया है। जबकि अशोक स्तम्भ में शामिल सिंहों की मुख मुद्रा को लेकर कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख और दिशा-निर्देश नहीं हैं। पूर्व में अलग-अलग स्थानों पर मिले और पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा स्थापित किये गए अशोक स्तंभों में भी सिहों की मुख मुद्रा बदलती रही है। अनेक जगह आपको मुंह बंद किये हुए शेर दिखेंगे तो कई जगह मुंह खोले हुए, दहाड़ते हुए सिंह भी दिखाई देंगे।
इसलिए ऐसा कहना कि मोदी सरकार ने राष्ट्रीय चिन्ह ‘अशोक स्तम्भ’ के सिंह बदल दिए, निहायती बेतुकी बात है। जो चित्र साझा किया जा रहा है, वह ‘लो-एंगल’ से लिया गया चित्र है, जिसके कारण भी सिंहों के खुले हुए जबड़े प्रमुखता से दिखाई दे रहे हैं।
अपना ‘सिंह’ भी दहाड़ता है...
— लोकेन्द्र सिंह (Lokendra Singh) (@lokendra_777) July 14, 2022
केवल अरिदल को भयाक्रांत रखता है, बाकी तो बालक भरत के साथ जी–भर खेलता है।
कॉलेज के शुरुआती दिनों में यह चित्र अपनी काव्य डायरी में बनाया था। 🙂#Lions #AshokStambh #drawing #drawingoftheday #drawingsketch #LionsRoar @PMOIndia @narendramodi pic.twitter.com/GDumO4sBqb
दरअसल, विपक्षी दलों, नेताओं और उनके समर्थित तथाकथित बुद्धिजीवियों की वास्तविक आपत्ति तो यह है कि ‘नये संसद भवन का निर्माण प्रधानमंत्री मोदी करा रहे हैं’। प्रधानमंत्री मोदी की पहल पर जो भी बड़े काम हुए हैं, उनको अस्वीकार करना ही उन्होंने अपना धर्म मान लिया है। विपक्षी दलों और मोदी विरोधियों की यह मानसिकता ही उनकी सोच को लगातार संकीर्ण करती जा रही है। कम्युनिस्ट और कुछ कांग्रेसी नेताओं को तो इस बात से भी आपत्ति है कि राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह का अनावरण हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाज के साथ क्यों किया गया? इसके लिए उन्होंने शब्द खोजा है- ब्राह्मण रीति। भारतीय परंपरा से यह चिढ़ ही उन्हें जनता की नज़रों से उतार रही है। आज तो इन लोगों का बस नहीं चलता, अन्यथा जब ये प्रभावशाली थे तब देश के राष्ट्रपति तक को नियंत्रित करने का प्रयास करते थे। याद हो कि भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में जाने से रोकने के भरसक प्रयास किये थे। पंडित नेहरू ने पत्र में लिखा था, “भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है, राष्ट्रपति के किसी मंदिर के कार्यक्रम में जाने से गलत संदेश जाएगा और इसके कई निहितार्थ लगाए जा सकते हैं”। प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद उसके उद्घाटन समारोह से दूरी बनाकर रही परन्तु राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू की राय को अस्वीकार किया और समारोह में शामिल हुए। आखिर भारत की परम्परा से मुंह क्यों मोड़ना चाहिए? यह सुखद है कि नया भारत और उसका वर्तमान नेतृत्व अपनी परम्पराओं के पालन में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता है।
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