अमरकंटक की पहली
पहचान माँ नर्मदा नदी के उद्गम और वन्यप्रदेश के रूप में है। लेकिन, यह सामाजिक आंदोलन के प्रख्यात संत कबीर साहेब की तपस्थली भी है। अमरकंटक
में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित कबीर चबूतरा वह स्थान है, जहाँ कबीर की उपस्थिति को आज भी अनुभव किया जा सकता है। कबीर साहेब ऐसे संत हैं
जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर बिना किसी भेदभाव के चोट कर समाज को बेहतर बनाने
का प्रयास किया। कबीर साहेब आज के विद्वानों की तरह संप्रदाय और जाति के आधार पर
घटनाओं/परंपराओं/समस्याओं को चीन्ह-चीन्ह कर आलोचना नहीं करते थे। जब वह
मूर्तिपूजक हिंदुओं की आलोचना में कहते हैं कि 'पाथर पूजे
हरि मिलें तो मैं पूजू पहाड़, याते चाकी भली पीस खाये संसार'
तब वह निराकार को पूजने वाले मुस्लिम समाज को भी आड़े हाथ लेते हुए
कहने से चूकते नहीं हैं- 'कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय,
ता चढि़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।' सबको समान दृष्टि से देखने वाले ऐसे संत कबीर की तपस्थली होने के कारण
कबीर चबूतरा का अपना महत्त्व है। यह केवल धार्मिक पर्यटन का प्रमुख स्थल मात्र
नहीं है, बल्कि कबीर साहेब के नजदीक जाने की भी जगह है। यहाँ
प्रकृति भी हमें कबीर साहेब के अहसास से मिलाने में भरपूर सहयोग करती है। कबीर चबूचरे पर
आच्छादित घने साल के वृक्षों की सरसराहट, पक्षियों की आवाजें
और कबीर कुण्ड से प्रवाहित जल धार, मानो सब के सब सुबह-सबरे संत कबीर के दोहे गुनगुनाते हैं। इसलिए यहाँ आने पर हमें कबीरत्व को आत्मसात करने का
प्रयास अवश्य करना चाहिए। अगर हम सफल हो गए तो निश्चय जानिए कि हमारे जीवन को एक
नई दिशा मिलेगी- समाज जीवन की दिशा। आप सुंदर समाज बनाने की प्रक्रिया का उपकरण
बनने के लिए लालायित हो उठेंगे।
प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध इस स्थान पर
महान गुरुओं की वाणी की सुवास भी हम महसूस कर सकते हैं। यह मिलन का अद्भुत स्थान
है। यहाँ दो प्रदेशों का मिलन होता है। प्रकृति और दर्शन भी यहाँ एकसाथ उपस्थित
होते हैं। लौकिक और अलौकिक विमर्श का स्थान भी यही है। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण दो
पंथों (कबीरपंथ और सिख पंथ) के प्रणेताओं संत कबीर साहेब और गुरु नानकदेव महाराज का
मिलन भी सात्विक ऊर्जा से सम्पन्न इसी स्थान पर हुआ। लगभग 500 वर्ष पूर्व न केवल दो दिव्य आत्माओं का मिलन हुआ, बल्कि
उन्होंने समाज की उन्नति के लिए यहाँ एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर विमर्श भी किया।
निश्चित ही दोनों भविष्यदृष्टाओं ने समानतामूलक समाज के निर्माण पर विमर्श किया
होगा। चूँकि दोनों ही गुरु ऐसे समाज का सपना लेकर आजीवन चले, जिसमें धार्मिक असहिष्णुता, कट्टरता, कटुता, वैमनस्य, जात-पांत का
भेद, ऊंच-नीच, असमानता के लिए कोई
स्थान नहीं है। दोनों महापुरुषों की चिंतन के साक्षी के तौर पर वह वटवृक्ष अब भी
यहाँ उपस्थित है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह बूढ़ा वटवृक्ष दोनों महान संतों का
संदेश सुनाने के लिए अब तक यहाँ खड़ा है।
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कबीर वटवृक्ष : कबीर साहेब और गुरु नानकदेव के मिलन एवं सत्संग का स्थल |
वर्ष 1569 में जब
सदगुरु कबीर साहेब जगन्ननाथ पुरी के लिए जा रहे थे, तब
वह अमरकंटक में इस स्थान पर रुके। परंतु, उन्हें यह स्थान
इतना अधिक अच्छा लगा कि कुछ समय के लिए यहीं ठहर गए। यहाँ ध्यान-साधना की और अपने
शिष्यों को उपदेश दिया था। कबीर साहेब के मुख्य शिष्य धर्मदास महाराज नित्य यहीं
अपने सद्गुरु के सम्मुख बैठकर उनसे पाथेय प्राप्त करते थे। सद्गुरु कबीर महाराज के
सत्यलोक गमन के बाद कबीरपंथ के प्रचार की जिम्मेदारी धर्मदास महाराज ने ही संभाली
थी। धर्मदास जी मध्यप्रदेश के ही बांधवगढ़ के निवासी थे। प्रारंभ से ही संत-संगति
में उनका मन लगता था। सद्गुरु कबीर साहेब से उनकी पहली भेंट मथुरा में हुई थी।
उसके बाद संत कबीर साहेब जी से दूसरा साक्षात्कार मोक्ष की नगरी काशी में हुआ।
धर्मदास जी शुरुआत में कट्टर मूर्तिपूजक थे, लेकिन सद्गुरु
कबीर साहेब जी के प्रवचन सुनकर उन्होंने निर्गुण भक्ति को अपना लिया। बहरहाल, कबीर चबूतरा में स्थित कबीर कुटी सद्गुरु कबीर धरमदास साहब वंशावली
प्रतिनिधि सभा दामाखेड़ा जिला बलौदा बाजार के अधीनस्थ लगभग 500 साल पुराना आश्रम है। यहां की व्यवस्था कबीर के वंशज और गद्दी दामाखेड़ा
के आचार्य द्वारा नियुक्त महंत ही करते हैं। कबीरपंथियों के लिए इस स्थान का विशेष
महत्त्व है।
नर्मदा उद्गम स्थल से कबीर चबूतरा की दूरी
तकरीबन पाँच किलोमीटर है। अमरकंटक आने वाले ज्यादातर श्रद्धालु और पर्यटक कबीर
चबूतरा जरूर आते हैं। यहाँ प्रमुख स्थल हैं- कबीर कुटी, कबीर
कुण्ड, कबीर चबूतरा और कबीर वटवृक्ष। कबीर कुटी अब एक तरह से
कबीर मंदिर है। कबीर चबूतरा वही स्थान है, जहाँ सद्गुरु अपने
शिष्यों को उपदेश देते थे। कबीर चबूतरा के पास ही कबीर वटवृक्ष है, जहाँ संत कबीर साहेब और गुरु नानकदेव महाराज के बीच अध्यात्म पर चर्चा हुई।
यहाँ एक कुण्ड भी है। इस कबीर कुण्ड की विशेषता यह है कि प्रात:काल इसका पानी
दूधिया हो जाता है। कुण्ड में दूधिया पानी की महीन धाराएं निकलती हैं, जिसके कारण कुण्ड का पूरा जल दूधिया हो जाता है। इन धाराओं को देखने के
लिए सुबह छह बजे के आसपास हमें यहाँ पहुँचना होता है। आश्रम में रहने वालों के लिए
यह कुण्ड ही मुख्य जलस्रोत है।
अपने अमरकंटक प्रवास के दौरान 1 जून 2017 को पहली बार मैं यहाँ पहुँचा। पहले ही अनुभव में प्राकृतिक-नैसर्गिक
सौंदर्य से भरपूर इस स्थान ने अमिट छाप मन पर छोड़ दी। अच्छी बात यह है कि यहाँ
अभी तक बाजार की पहुँच नहीं हुई है। इसलिए यह तीर्थ-स्थल अपने मूल को बचाए हुए है।
यहाँ के वातावरण में अब तक गूँज रहे कबीर के संदेश को अनुभूत करने के लिए लगभग
तीन-चार घंटे तक यहाँ रहा। यकीन मानिये, माँ नर्मदा के तट पर
बैठना और यहाँ कबीरीय वातावरण में बैठना, अमरकंटक प्रवास के
सबसे सुखकर अनुभव रहे। उस समय आश्रम में रह रहे कंबीरपंथी संन्यासी रुद्रदास के
पास बैठकर कबीर वाणी सुनी-
कबीर
बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई।
अंतरि
भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥
अर्थात् संत कबीर कहते
हैं- 'प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पड़ा, जिससे
अंतरात्मा तक भीग गई, आस-पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया,
खुश हाल हो गया, यह प्रेम का अपूर्व प्रभाव
है। हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते।' यकीनन, कबीर की वाणी हमारी अंतरात्मा को भिगो देती है। कबीर चबूतरा से जब लौटे तो
लगा कि कबीर प्रेम गहरे पैठ गया है। अंतर्मन एक अल्हदा अहसास में डूबा हुआ है।
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कबीर चबूतरा : संत कबीर साहेब की तपस्थली, इसी स्थान पर उन्होंने धर्मदास महाराज को उपदेश दिए थे |