'अभिव्यक्ति
की आजादी' पर एक बार फिर देशभर में विमर्श प्रारंभ हो गया
है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर विवादित टिप्पणी करने और वीडियो
शेयर करने के मामले में एक स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी से यह
बहस प्रारंभ हुई है। इस बहस में एक जरूरी पक्ष 'अभिव्यक्ति
की आजादी की सीमाएं एवं मर्यादा' पर तथाकथित प्रगतिशीलों को
छोड़कर हर कोई बात कर रहा है। प्रशांत 'द वायर' जैसी प्रोपोगंडा वेबसाइट के लिए काम कर चुके हैं। जब पत्रकारों ने प्रशांत
के फेसबुक और ट्वीटर पेज देखे, तब ज्यादातर की राय यही थी कि
वह एक पत्रकार की भूमिका में काम नहीं कर रहा। उसकी ज्यादातर टिप्पणियां आपत्तिजनक
और पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। पत्रकार की भूमिका निष्पक्ष होकर सत्य को समाज के
सामने लाने की होती है, न कि अफवाहों को फैलाना। प्रशांत
अकसर मोदी सरकार, हिंदू समाज एवं हिंदू संगठनों के संबंध में
भ्रामक जानकारियां अपने सोशल मीडिया मंचों से जारी करता रहा है। यह सब जानने के
बाद भी उदारता दिखाते हुए पत्रकारों ने कहा कि प्रशांत की टिप्पणियां सही नहीं हैं,
लेकिन उत्तरप्रदेश पुलिस को उसे गिरफ्तार नहीं करना चाहिए था। जब
सर्वोच्च न्यायालय में यह प्रकरण पहुँचा तब वहाँ भी माननीय न्यायमूर्तियों ने इसी
तरह की टिप्पणी की- 'हम पत्रकार के ट्वीट की सराहना नहीं
करते लेकिन उनकी गिरफ्तारी नहीं हो सकती।'
सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की याद दिलाई और कहा कि लोगों की आजादी से कोई
समझौता संभव नहीं है। यह संविधान की ओर से दिया गया अधिकार है जिसका कोई उल्लंघन
नहीं कर सकता। अब यहाँ एक संकट खड़ा हो जाता है कि क्या संविधान किसी को
अभिव्यक्ति की इतनी अधिक आजादी देता है कि वह किसी के चरित्र की हत्या कर दे?
क्या किसी का मान-मर्दन करना अभिव्यक्ति की आजादी है? हम भूल जाते हैं कि संविधान के जिस अनुच्छेद 19(1) में हमें अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक अधिकार दिया गया है, उसी संविधान के अनुच्छेद 19(2)
में उस पर युक्ति-युक्त प्रतिबंध लगाया गया है। संविधान निर्माता जानते थे कि
मनुष्य अधिकार पाकर अमर्यादित व्यवहार कर सकता है, जो
राष्ट्रीय और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए नुकसानदेह हो सकता है। किसी व्यक्ति की
गरिमा का हनन करने की स्वतंत्रता भारतीय संविधान नहीं देता है। इसलिए ही संविधान
निर्माताओं ने अनुच्छेद 19(2) में इस
बात की व्यवस्था कर दी कि वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहाँ तक है। यहाँ
सर्वोच्च न्यायालय को इस बात का समाधान भी देना चाहिए कि आखिर अभिव्यक्ति की आजादी
का दुरुपयोग कैसे रोका जाए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़
में अपने विरोधी की प्रतिष्ठा और उसकी छवि को बिगाडऩे वाले लोगों को कैसे सबक
सिखाया जाए?
यह आश्चर्यजनक नहीं है, बल्कि स्वाभाविक ही है कि एडिटर्स गिल्ड जैसी संस्था प्रशांत के समर्थन
में खड़ी हो गई है। क्या सिर्फ इसलिए किसी का पक्ष लेना चाहिए कि वह हमपेशे से
जुड़ा हुआ है? इस तरह फिर 'गलत को गलत
कहने' के पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत का क्या होगा?
क्या एडिटर्स गिल्ड को एक खुला पत्र प्रशांत कनौजिया जैसे पत्रकारों
के नाम नहीं लिखना चाहिए, जो पत्रकारिता के सिद्धांतों को
तार-तार कर रहे हैं? एडिटर्स गिल्ड को इस समय पत्रकारों को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं बतानी चाहिए थीं, जो
उसने नहीं किया।
यह भी देखने में आया है कि विशेष प्रकरणों
में ही इस प्रकार की संस्थाएं और तथाकथित बुद्धिजीवी सक्रिय दिखाई देते हैं। चूँकि
मामला भाजपा शासित राज्य और भाजपा के मुख्यमंत्री से जुड़ा हुआ है, इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर बहस हो रही है। जबकि केरल में कम्युनिस्ट
मुख्यमंत्री पिनरई विजयन और एलडीएफ के दूसरे नेताओं के खिलाफ टिप्पणी के चलते लगभग
138 प्रकरण दर्ज किए गए हैं। किंतु, अभी
तक एक भी प्रकरण पर आपत्ति या राष्ट्रव्यापी विरोध दर्ज नहीं कराया गया है। एक ही
प्रकार के मामलों में यह अलग-अलग रवैया भी आपत्तिजनक है। एक प्रकार के विरोध में
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित और अनियंत्रित चाहिए और दूसरे प्रकार के विरोध
में यह मर्यादित होनी चाहिए। यह दोहरी व्यवस्था क्यों हो? वास्तव
में होना यह चाहिए कि संविधान के अनुरूप ही अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग हो। यह
उपयुक्त समय है कि प्रशांत कनौजिया के प्रकरण से शुरू हुई बहस में जिम्मेदार
संस्थाएं और व्यक्ति अभिव्यक्ति की आजादी की सीमाएं तय करें। अन्यथा यह मौलिक
अधिकार विद्रूप हो जाएगा।
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