शनिवार, 30 सितंबर 2017

सज्जनशक्ति को जगाने का 'जामवन्ती' प्रयास


विजयादशमी उत्सव के उद्बोधन में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि निर्भयतापूर्वक सज्जनशक्ति को आगे आना होगा, समाज को निर्भय, सजग और प्रबुद्ध बनना होगा
 विश्व  के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए विजयादशमी उत्सव का बहुत महत्त्व है। वर्ष 1925 में विजयादशमी के अवसर पर ही संघ की स्थापना स्वतंत्रतासेनानी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। विजयादशमी के अवसर पर होने वाला सरसंघचालक का उद्बोधन देश-दुनिया में भारतवंदना में रत स्वयंसेवकों के लिए पाथेय का काम करता है। इस उद्बोधन से संघ की वर्तमान नीति भी स्पष्ट होती है, इसलिए स्वयंसेवकों के अलावा बाकी अन्य लोग भी सरसंघचालक के उद्बोधन को ध्यानपूर्वक सुनते हैं। इस दशहरे पर संघ के वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपने उद्बोधन में महत्त्वपूर्ण विषयों पर संघ के दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। अपने इस उद्बोधन में उन्होंने समाज की सज्जनशक्ति को जगाने का 'जामवन्ती' प्रयास किया है। समाज में सज्जन लोगों का प्रतिशत और उनकी शक्ति अधिक है, लेकिन महावीर हनुमान की तरह समाज को अपनी सज्जनशक्ति का स्मरण नहीं है। रामकथा में माता सीता की खोज पर निकले हनुमान सहित अन्य वीर जब समुद्र के विस्तार को देखते हैं, तब उनका उत्साह कम हो जाता है। तब जामवन्त ने हनुमान को उनके पराक्रम से परिचित कराया था। जब पराक्रमी हनुमान को अपनी शक्ति का स्मरण होता है, तब 100 योजन विशाल समुद्र भी उनके मार्ग में बाधा नहीं बन सका। जब समाज की सज्जनशक्ति को अपने बल का परिचय प्राप्त हो जाएगा, तब भारत को विश्वगुरु की खोयी हुई प्रतिष्ठा प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता। 
          संघ समाज जागरण के महत्त्वपूर्ण कार्य में अहर्निश जुटा हुआ है, क्योंकि वह मानता है कि समाज को जागृत किए बिना राष्ट्र निर्माण संभव नहीं है। शासन के स्तर पर जो बदलाव दिख रहे हैं, देश की जो अच्छी तस्वीर बन रही है, उसे और सुंदर एवं स्थायी बनाने के लिए समाज की सज्जनशक्ति का जागृत होना आवश्यक है। इस संदर्भ में सरसंघचालक डॉ. भागवत ने कहा कि समाज को राष्ट्रगौरव से परिपूर्ण पुरूषार्थ के लिए खड़ा करना है तो देश के चिंतकों और बुद्धिधर्मियों को पहले अपने स्वयं के चित्त से उस विदेशी दृष्टि के विचारों को व संस्कारों को हटा कर मुक्त होना होगा, जो गुलामी के कालखंडों में हमारे चित्त को व्याप्त कर उसे आत्महीन, भ्रमित व मलिन कर चुके हैं। उनका कहना उचित ही है। जब तक हम मानसिक औपनिवेशिकता से मुक्त नहीं होंगे, भारत का निर्माण भारतीयता के अनुरूप नहीं कर पाएंगे। मानसिक दासिता से मुक्त नहीं होने के कारण हम सभी समस्याओं का समाधान पश्चिम के दृष्टिकोण से ही खोजते हैं। ऐसे में समाधान तो नहीं मिलते, बल्कि हम नई प्रकार की समस्याएं और खड़ी कर लेते हैं। 
          सरसंघचालक डॉ. भागवत ने उस अराष्ट्रीय विचारधारा और चिंतनशैली की ओर भी इशारा किया, जो बहुलतावाद की आड़ में समाज में विभिन्न प्रकार के अलगाव उत्पन्न कर रही है। उन्होंने कहा- 'भाषा, प्रान्त, पंथ-संप्रदाय, समूहों की स्थानीय तथा समूहगत महत्वाकांक्षाओं को उभारकर समाज में आपस में असंतोष, अलगाव, हिंसा, शत्रुता या द्वेष तथा संविधान एवं कानून के प्रति अनादर का वातावरण बढ़ाते हुए अराजकसदृश्य स्थिति उत्पन्न करने का खेल राष्ट्रविरोधी शक्तियाँ अन्य सीमावर्ती राज्यों में भी खेलती हुई दिखाई देती हैं। बंगाल एवं केरल की परिस्थितियाँ किसी से छिपी नहीं हैं।' दरअसल, कम्युनिस्ट विचारधारा का आधार ही 'वर्ग संघर्ष' है। कम्युनिस्ट विचारधारा के विद्वान प्रारंभ से ही मानते हैं कि उनकी विचारधारा का विस्तार वर्ग संघर्ष से ही होगा। इसलिए उनका सदैव यही प्रयास रहा है कि कैसे समाज में असंतोष उत्पन्न किया जाए। इन राष्ट्रविरोधी शक्तियों के षड्यंत्र को असफल करने के लिए निश्चित ही समाज की सज्जनशक्ति को उठ कर खड़े होने की आवश्यकता है। 
          स्पष्टत: भारत एक कृत्रिम राष्ट्र नहीं है। यह स्वाभाविक सांस्कृतिक राष्ट्र है। प्रकृति निर्मित राष्ट्र है। भारत की संस्कृति विशिष्ट है। हम सब भाषा, प्रांत, पंथ-संप्रदाय, जाति, उपजाति, रीति-रिवाज, रहन-सहन के नाम पर अलग जरूर दिखते हैं, लेकिन हमारी संस्कृति हमें एकसूत्र में जोड़कर रखती है। इसलिए हम विविधता के बावजूद बहुलतावाद संस्कृति के नहीं, बल्कि एक संस्कृति के उपासक हैं। हम अपनी विविधताओं को विशेषता की तरह स्वीकार करते हैं, उसे अलगाव का कारण नहीं बनाते। 'हमभावना' हमें एकसूत्र में पिरोती है। यह विचार हम सबके मन में है, बस इसे बार-बार स्मरण करने और कराने की आवश्यकता है। यह काम समाज की सज्जनशक्ति भली प्रकार कर सकती है। 
          सरसंघचालक डॉ. भागवत ने रोंहिग्या मुस्लिम समुदाय पर भी स्पष्टता से संघ का पक्ष प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा कि रोंहिग्या अपनी अलगाववादी हिंसक, आपराधिक गतिविधियों और आतंकियों से साठगांठ के कारण म्यांमार से खदेड़े जा रहे हैं। सरकार की तरह वह भी यह मानते हैं कि रोंहिग्या सब प्रकार से देश के लिए संकट बनेंगे। इस मुद्दे पर वह सरकार की नीति का समर्थन करते हैं। यहाँ फिर से उन्होंने समाज से अपेक्षा की है कि इस जटिल मसले पर पूर्ण सफलता समाज के सहयोग के बिना मिलना संभव नहीं है। इसलिए सीमावर्ती प्रदेशों की सज्जनशक्ति से उन्होंने निर्भयतापूर्वक आगे आने का आह्वान किया है। वह कहते हैं कि संगठित होकर अधिक मुखर व सक्रिय होते हुए समाज को भी निर्भय, सजग व प्रबुद्ध बनाना पडेगा। मानवता की याद दिला कर रोंहिग्या समुदाय को भारत में शरण देने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे लोगों को भी उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया है। मानवता का पालन होना ही चाहिए, लेकिन तब तक ही जब तक कि वह आत्मघाती न हो। रोंहिग्या मामले में मानवता का पालन करना, मतलब अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा। 
          हिंसा की आड़ में जिस तरह से गौसेवा जैसे पवित्र कार्य पर हमला किया जा रहा है, उस संदर्भ में भी सरसंघचालक ने महत्त्वपूर्ण विचार रखे। गौरक्षा के नाम पर हुई हिंसा में संघ विरोधियों ने षड्यंत्रपूर्वक राष्ट्रीय विचार परिवार को बदनाम करने का प्रयास किया। प्रत्येक हिंसा को संघ एवं उसके समविचारी संगठनों से जोड़ा गया। बिना जाँच-पड़ताल तथाकथित सेकुलर बुद्धिजीवियों और वामपंथी पत्रकारों ने राष्ट्रवादी विचार को अपराधी की तरह प्रस्तुत किया। जबकि किसी भी प्रकरण में संघ के स्वयंसेवकों की कोई भूमिका सामने नहीं आई है। हिंसा की आड़ में दुष्प्रचार करने वालों को कठघरे में खड़ा करते हुए संघचालक ने उचित ही कहा कि अहिंसक तरीके से गौरक्षा करने वाले कई कार्यकर्ताओं की इन दिनों हत्या की गई है, उनके साथ सामूहिक मारपीट की गई है, परंतु इस सबकी न कोई चर्चा है और न ही कोई कार्रवाई हुई है। गौ-तस्करी या गौ-हत्या को रोकने के प्रयास में समाजकंटकों ने पुलिस प्रशासन पर भी हमले किए हैं। किंतु, दुर्भाग्य है कि तथाकथित बुद्धिजीवी इस प्रकार की हिंसा पर चुप्पी साध जाते हैं। क्योंकि, इसमें राष्ट्रत्व को बदनाम करने का कोई कारण उन्हें नजर नहीं आता। इसलिए वस्तुस्थिति न जानते हुए अथवा उसकी उपेक्षा करते हुए गौरक्षा व गौरक्षकों को हिंसक घटनाओं के साथ जोडऩा व सांप्रदायिक प्रश्न के नाते गौरक्षा पर प्रश्नचिन्ह लगाना ठीक नहीं। अनेक मुस्लिम भी गौरक्षा, गौपालन व गौशालाओं का उत्तम संचालन करते हैं। अपने उद्बोधन में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और देश की सुरक्षा नीति से जुड़े महत्त्वपूर्ण विषयों पर संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट किया है। उम्मीद है कि समाज के सभी वर्ग उनके उद्बोधन का समग्रता में अध्ययन कर अनुपालन करेंगे। सरसंघचालक ने एक और महत्त्वपूर्ण बात कही कि संघ किसी को दुश्मन नहीं मानता, लेकिन कुछ लोग अपने आप ही संघ को अपना विरोधी मानने लगे हैं। इस बात को ध्यान में रखकर भी संघ को समझने का प्रयास करना चाहिए।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-010-2017) को
    "अनुबन्धों का प्यार" (चर्चा अंक 2745)
    पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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