गु जराती पत्रकारिता की विशेषता है कि वे अपने अतीत को बहुत उज्ज्वल बताते हैं। उसे अपने अतीत पर गौरव है। यही कारण है कि गुजराती पत्रकारिता लम्बे समय तक परम्परागत पत्रकारिता की लकीर पर ही चलती रही है। नई सोच के कुछ अखबारों ने जब गुजरात की धरती पर कदम रखा तो परम्परावादी समाचार-पत्र और पत्रिकाओं ने भी अंगड़ाई ली है। बहरहाल, समय के साथ आ रहे बदलावों के बीच गुजराती पत्रकारिता में आज भी सौंधी 'खुशबू गुजरात' की ही है।
गुजराती पत्रकारिता को लेकर वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक महेश परिमल से लम्बी बातचीत का अवसर मिला। नवम्बर, 2013 में दो दिन गुजरात में उनके साथ गुजारने का अवसर भी मिला, तब जाना था कि गुजराती पत्रकारिता पर महेश जी की पैनी नजर है। गुजराती पत्रकारिता पर उनसे बात करना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वे भोपाल में रहकर नियमित तौर पर गुजराती अखबारों का अवलोकन करते हैं। सरल और सहज व्यक्तित्व के धनी महेश परिमल का गुजराती, हिन्दी, छत्तीसगढ़ी और अंग्रेजी भाषा पर पूरा अधिकार है। उनकी किताबें 'लिखो पाती प्यार भरी', 'अनदेखा सच' और 'अरपा की गोद में' काफी चर्चित हैं। श्री परिमल ने बताया कि गुजरात की पत्रकारिता परंपरावादी है। गुजराती पत्रकारों की खबर में न तो रोमांच होता है और न ही सस्पेंस। उनकी खबरों में नयेपन का पूरी तरह अभाव दिखता है। वे आदिकाल से चली आ रही परंपराओं के भीतर रहकर ही अपना काम करते हैं। गुजराती समुदाय पर पत्रकारिता का कितना गहरा असर है, इस संबंध में उन्होंने एक वाकया बताया। वे बताते हैं कि अमूमन गुजराती 'आतंकवादी' शब्द को 'आंतकवादी' कहते हैं। दरअसल, इसकी वजह यह है कि एक बार गुजरात के पुराने और प्रतिष्ठित अखबार ने आतंकवादी को आंतकवादी लिख दिया। फिर क्या था, गुजरातियों की जबान पर यही शब्द चढ़ गया। आज भी वहां कई लोग आतंकवादी को आंतकवादी बोलते हैं। भले ही वहां आतंकवादी लिखा हो, लेकिन वे उसे पढ़ेंगे, आंतकवादी ही।
गुजराती भाषा के प्रमुख अखबारों की सामग्री किस तरह की रहती है? इस सवाल के जवाब में भाषाविज्ञानी महेश परिमल कहते हैं कि परम्परागत लकीर पर चलने के कारण ज्यादातर गुजराती अखबार कंटेंट के साथ ज्यादा प्रयोग नहीं करते हैं। दिव्य भास्कर को छोड़कर दूसरे अखबार काफी पीछे हैं। हां, एकदम नये अखबार 'नव गुजरात समय' ने कुछ नया करने का साहस किया है। वह भी इसलिए, क्योंकि उसकी 90 प्रतिशत टीम दिव्य भास्कर की है। संपादक समेत सभी ने भास्कर से जो कुछ सीखा, उसे ही वे अब नई सोच के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। शेष अखबार कभी-कभी अपने होने का अहसास अवश्य कराते हैं। उन्होंने बताया कि पत्रिकाएं निश्चित रूप से कुछ नया करना चाहती हैं, लेकिन प्रबंधन के कारण उसमें लगातार नयापन नहीं रहता। वे आगे बताते हैं कि साहित्य की दृष्टि से देखें तो गुजराती समाचार पत्र-पत्रिकाएं काफी समृद्ध हैं। गुजराती साहित्य बहुत ही विपुल है। गुजरात की साहित्य सम्पदा पर गुजराती पत्रकारिता और जनमानस को गर्व भी है। अपने साहित्य को उन्होंने विरासत माना है। गुजराती पाठकों की रुचि भी खबरों में कम, आलेख या साहित्यिक सामग्री में अधिक रहती है। यही कारण है कि यहां नियमित अखबार से कहीं अधिक उसके साप्ताहिक विशेषांक की प्रतीक्षा पाठकों को रहती है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बुधवार को आने वाले साप्ताहिक विशेषांक 16 से 20 पृष्ठ के होते हैं। इनमें करीब 40 स्तम्भकार विविध आलेख तैयार करते हैं। हर तरह के विषय के आलेख होते हैं। आधुनिक विज्ञान, अध्यात्म, धर्म, पुरातत्व, स्वास्थ्य, सेक्स आदि पर केंद्रित आलेखों को खूब स्थान दिया जाता है। शनिवार का विशेषांक फिल्मों पर केंद्रित होता है। इसके अलावा रोज के अखबार में भी दो-तीन कॉलम ऐसे होते ही हैं, जो पठनीय हों। उन्होंने बताया कि जिस तरह से कहा जाता था कि 'नईदुनिया' के पत्र कॉलम में जो नहीं छपा, वह मालवा का साहित्यकार या पत्रकार हो ही नहीं सकता। ठीक इसी तरह गुजरात का जो पाठक अखबार के साप्ताहिक विशेषांक को नहीं पढ़ता, वह सच्चे रूप में पाठक हो ही नहीं सकता। इसलिए पाठकों को अखबार से कहीं अधिक प्रतीक्षा उसके साप्ताहिक विशेषांक की होती है। इसे वे अपनी भाषा में 'पूर्ति' कहते हैं। इसीलिए वहां पत्रकारों से अधिक इज्जत स्तंभकारों की होती है। स्तंभकारों का जुड़ाव पाठकों से अधिक होता है। इसी परम्परा के कारण वहां साहित्यकारों और पत्रकारों में परस्पर सम्मान देखा जाता है।
गुजराती और हिन्दी पत्रकारिता के अंतर को समझाने के लिए महेश परिमल ने बताया कि गुजराती पत्रकार हिंदी पत्रकारों की तरह हमेशा जूझते हुए दिखाई नहीं देते। हिंदी के पत्रकार एक साथ कई खबरों पर काम करते हैं। एक-एक खबर पर काम करते हैं। वे प्रत्येक खबर को खास खबर बनाकर अपने पाठकों के सामने पेश करने के लिए अनथक परिश्रम करते हैं। लेकिन, गुजराती पत्रकार आम खबरों को खास बनाने के इस संघर्ष से नहीं गुजरता। ज्यादातर गुजराती पत्रकार एक ही खबर पर मेहनत करते हैं और उसी खबर पर उनका फोकस होता है। दूसरा अंतर उन्होंने यह बताया कि हिन्दी का पत्रकार अपने पाठकों से ज्यादा जुड़ा रहता है। पाठकों से हिन्दी के पत्रकारों का सीधा संवाद रहता है। इसके साथ ही हिन्दी के अखबार खबरों के टेस्ट से लेकर ले-आउट तक काम कर रहे हैं। पत्रकारिता में आए बदलाव और लोगों की रुचि को गुजराती पत्रकारिता की अपेक्षा हिन्दी पत्रकारिता ने पहले पकड़ लिया। इसी क्रम में उनसे अगला प्रश्न था। ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद से हिन्दी पत्रकारिता में आमूलचूल परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन कंटेंट से लेकर समाचार माध्यमों (समाचार पत्र, पत्रिका) के रूप-रंग में भी आया है। गुजराती पत्रकारिता पर भी ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव दिख रहा है या नहीं? और परिवर्तन दिख रहा है तो आप उसे किस तरह देखते हैं? इसके जवाब में श्री परिमल कहते हैं कि खबरों पर कम किंतु विज्ञापन में अवश्य ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव दिखाई देता है। अखबार विज्ञापनों को आकर्षक बनाने के लिए परिश्रम कर लेते हैं, पर खबरों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। कुछ अखबारों के विदेशी संस्करण भी हैं, तो उनका ग्लोबलाइजेशन केवल विदेशी संस्करणों में ही दिखाई देता है। एक बात यह देखने में आई कि विदेशों में रहने वाले गुजरातियों पर अखबार वालों की विशेष दृष्टि होती है। कहीं भी, किसी भी गुजराती परिवार पर विपत्ति आई या गुजराती परिवार का कोई सदस्य किसी अपराध में शामिल हो गया, तो वहां के गुजराती ही अखबारों को इसकी जानकारी देते हैं। जिसे अखबार वाले विशेष रूप से परिश्रम कर उस खबर को हाइलाइट करते हैं।
गुजराती पत्रकारिता के भविष्य के संबंध में किए गए सवाल के जवाब में श्री महेश परिमल ने बताया कि अब बदलाव दिखाई देने लगा है। पत्रकार भी पाठकों के साथ-साथ जिज्ञासु होने लगे हैं। वे भी देश-दुनिया के बारे में अधिक से अधिक जानना चाहते हैं। पाठकों को अतीत से जोड़कर भी देखने लगे हैं। अतीत पर आज भी कई पत्रकारों के पास बेहतर कलेक्शन हैं। भले ही वह तस्वीरों के माध्यम से हो। पर जब कभी अखबार को गुजरात के अतीत के बारे में जानना हो, तो बुजुर्गों से या दिवंगत साहित्यकारों की किताबों से सामग्री लेने लगे हैं। यह तो गुजराती पत्रकारिता की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे अपने अतीत को बहुत ही अधिक उज्ज्वल बताते हैं। उनके लिए उनका अतीत गौरवशाली है। अब गुजरात के अखबारों में नई चेतना जाग्रत हुई है।
(जनसंचार के सरोकारों पर केन्द्रित त्रैमासिक पत्रिका "मीडिया विमर्श" में प्रकाशित साक्षात्कार)
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