शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

वैचारिक योद्धा

 प्र ख्यात लोहियावादी-समाजवादी चिंतक राजकिशोर को क्रांतिकारी पत्रकार, लेखक और साहित्यकार कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। अपने समय की राजनीति, पत्रकारिता, साहित्य और समाज व्यवस्था पर अपनी कलम को पैना करना और तमाम सवालों की खोज में उनके समाधान प्रस्तुत करते हुए नए सवाल खड़े करना सचमुच एक क्रांतिकारी कदम ही तो है। राजकिशोर द्वारा संपादित लोकप्रिय पुस्तक शृंखला 'आज के प्रश्न' इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस शृंखला के अंतर्गत अब तक 17 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ये पुस्तकें आज के प्रश्नों के उत्तर तो देती ही हैं साथ ही प्रत्येक विषय पर एक नई बहस जो जन्म भी देती हैं। 
      02 जनवरी 1947 को कलकत्ता में जन्मे राजकिशोर ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.कॉम (ऑनर्स), एलएलबी और एमए (हिन्दी) किया। इतना पढ़-लिखने के बाद वे चाहते तो कहीं बेहतर स्तर पर शासन व्यवस्था का हिस्सा हो सकते थे। लेकिन, अगस्त 1977 में आनंद बाजार पत्रिका समूह द्वारा प्रकाशित प्रतिष्ठित हिन्दी साप्ताहिक 'रविवार' से उन्होंने अपने पत्रकारिता के सफर की शुरुआत की। 1986-87 में इत्यादी प्रकाशन से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक 'परिवर्तन' का संपादन किया। नवभारत टाइम्स दिल्ली में 1990 से 1996 तक वरिष्ठ सहायक संपादक रहे। इसके बाद उन्होंने जुलाई 1996 से सितंबर 1998 तक प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की त्रैमासिक पत्रिका 'विदुर' में बतौर संयुक्त संपादक काम किया। उन्होंने फरवरी 1997 से फरवरी 1998 तक 'दूसरा शनिवार' और 1998 से इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की मासिक पत्रिका 'पंचायती राज का अपडेट' का भी संपादन किया। 
      कुछ अलग, कुछ सार्थक, वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने के साथ ही आने वाले भविष्य को भी कुछ राह दिखा सके, ऐसा कुछ रचने की खदबदाहट उनके मन को व्यथित कर रही थी। सक्रिय पत्रकारिता के बीच ही 1996 से स्वतंत्र पत्रकारिता एवं स्तम्भ लेखन की शुरुआत राजकिशोर ने कर दी थी। पत्रकारिता और लेखन के प्रति अपने समर्पण, मेधा और कठिन परिश्रम से उनके ख्वाब कुछ बुनते हुए नजर आए। राजकिशोर द्वारा लिखित और संपादित तमाम पुस्तकों से होकर ये ख्वाब हमारी आंखों में भी उतर रहे हैं। पत्रकारीय लेखन में उनकी सक्रियता को देखकर उम्मीद ही नहीं भरोसा है कि और भी कुछ सार्थक ख्वाब वे भविष्य के लिए बोएंगे। विचार-क्रांति की अलख जगाती उनकी कुछ चुनिंदा पुस्तक हैं - आजादी एक अधूरा शब्द है, एक अहिन्दू का घोषणा-पत्र, हिन्दी लेखक और उसका समाज, स्त्री-पुरुष : कुछ पुनर्विचार, उदारीकरण की राजनीति, समाजवाद का भविष्य, रोशनी कहां है और तुम्हारा सुख (उपन्यास)। 'जाति कौन तोड़ेगा' पुस्तक के लिए तो उन्हें हिन्दी अकादमी, दिल्ली की ओर से साहित्यिक कृति पुरस्कार भी प्रदान किया गया है। इसके अलावा लोहिया पुरस्कार (1988), हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा साहित्यकार सम्मान (1990), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा राजेन्द्र माथुर पत्रकारिता पुरस्कार (1995) सहित अन्य सम्मान भी उनके माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को गौरवान्वित कर चुके हैं। 
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"साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता में उनकी बराबर की गति है। उनका ज्यादा झुकाव सांस्कृतिक और साहित्यिक है।"   
- डॉ. विजय बहादुर सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार
-  जनसंचार के सरोकारों पर केन्द्रित त्रैमासिक पत्रिका "मीडिया विमर्श" में प्रकाशित आलेख
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राजकिशोर के प्रति मेरा अद्यतन अभिमत 
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राज किशोर जी का बहुत सम्मान है। ये पढ़ने-लिखने वाले वामपंथियों में प्रमुख हैं। आज से पहले मैं भी इनका बहुत सम्मान करता था। लेकिन, यह भी फ्रस्टेड हैं। उनकी इस टिप्पणी की भाषा "असहमति" के प्रति इनकी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है।
      अभद्र भाषा और शब्दावली कम्युनिस्ट खेमे की पहचान है। यह बात इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि इस खेमे के न केवल साधारण व्यक्ति इस भाषा में संवाद करते हैं, अपितु शीर्ष नामवालों का भी यही हाल है।
मुझे दुःख है कि मैंने कभी इनके वैचारिक (कम्युनिस्ट) लिखत-पढ़त को सम्मान दिया था। हिंदी ब्लॉग अपनापंचू और मीडिया विमर्श पत्रिका के 'हिंदी के हीरो' विशेषांक में प्रकाशित अपने इस लेख में व्यक्त अपनी भावनाओं और शब्दों को मैं वापस लेता हूँ।
        यह टिपण्णी मैंने (लोकेन्द्र सिंह) अपने फेसबुक पर 3 फरवरी, 2018 को उस समय लिखी जब मैंने राजकिशोर के फेसबुक पर यह अभद्र टिप्पणी पढ़ी।

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