दुनिया के महान साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचंद को स्थान दिया जाता है। भारत में उन्हें 'कलम के सिपाही' के नाम से भी याद किया जाता है। जिस तरह उनकी रचनाएं कालजयी हैं और आज भी प्रेरणा देने वाली हैं, उसी तरह मुंशी प्रेमचंद का जीवन भी कालजयी है, उनका व्यक्तित्व साहित्यकारों का पथप्रदर्शन करता है। प्रेमचंद और उनकी रचनाएं सदैव प्रासंगिक रहने वाली हैं। गांव, गरीब और आम समाज की कहानियां रचने वाले महान साहित्यकार प्रेमचंद का आज 136वां जन्मदिन है। 1880 में उत्तरप्रदेश के लमही गांव में जन्मे प्रेमचंद की कलम से आज के कलमकारों को सीख लेनी चाहिए कि आखिर कलम चलाने का उद्देश्य क्या हो? समाज में दो तरह का लेखन किया जा रहा है- प्रगतिशील लेखन और आदर्शवादी लेखन। प्रगतिशील लेखन में यथार्थ लेखन पर जोर रहता है। लेकिन, इस तरह के लेखक समाज का यथार्थ लिखते समय लेखन की मर्यादाओं को तोड़ देते हैं। समाज की बुराइयों को अपने लेखन में इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि मानो समूचा समाज ही मूल्यहीन हो गया है। सब ओर व्याभिचार और भ्रष्टाचार पसर गया है। जबकि ऐसा नहीं है। आज भी भारत में सामाजिक जीवनमूल्यों का महत्त्व है और यह हमेशा रहने वाला है।
भारत आज मजबूती से खड़ा है क्योंकि वह अपने सामाजिक मूल्यों को बचा पाया है। समाज का अधिकांश हिस्सा भारतीय परंपरा से प्राप्त सामाजिक मूल्यों को ही जी रहा है। प्रगतिशील लेखक यथार्थ के नाम पर एक तरह से अपराध और अश्लील लेखन को बढ़ावा देते हैं। कई बार अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि यह प्रगतिशील साहित्य है या लुगदी साहित्य। मजेदार बात यह है कि प्रगतिशीलता का लबादा ओढऩे वाले लेखक प्रेमचंद पर प्रगतिशील (वामपंथी) होने का ठप्पा तो लगाते हैं लेकिन उनकी प्रगतिशीलता का अनुसरण करते दिखाई नहीं देते हैं। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में समाज की बुराइयों पर चोट तो की है लेकिन उस बुराई पर कलम चलाते समय उन्होंने समाज में उसके अनुपात का ध्यान रखा। उनके लेखन में कभी भी बुराई 'ग्लोरीफाई' नहीं हुई है। उन्होंने भारतीय मूल्यों और परंपरा को ही समृद्ध किया है, उसको नुकसान नहीं पहुंचाया है। उनकी लेखनी सामाजिक मूल्यों का पक्ष लेती है। समाज में व्याप्त तात्कालिक बुराईयों के खिलाफ कलम उठाते समय वह इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि इन बुराईयों को मिटाते समय उनकी कलम से नई बुराईयां जन्म न ले लें। अपने लेखन से वह सदैव आदर्श समाज का शब्दचित्र खींचते हैं और कोशिश करते हैं कि समाज आदर्श स्थिति को प्राप्त करे। जबकि आज के दौर में तथाकथित प्रगतिशील लेखक अपने साहित्य से समाज को सुधार कम रहे हैं, बिगाड़ अधिक रहे हैं।
आज के प्रगतिशील लेखक स्वतंत्रता की बात करते-करते स्वच्छंदता को बढ़ावा देने लगते हैं। श्लील-अश्लील की बहस में उनकी कलम समाज के सामने अश्लीलता को परोसने का काम करती है। भारतीय समाज की कुछेक बुराईयों पर प्रहार करते वक्त वह भारतीयता पर ही प्रहार करने लगते हैं। यथार्थ लिखते समय वह अनुपात का कतई ध्यान नहीं रखते और समूचे समाज को व्याभिचारी और भ्रष्टाचारी के तौर चित्रित कर देते हैं। सांप्रदायिकता पर प्रहार करते वक्त सिर्फ उदारवादी हिन्दू समाज को ही चिह्नित करते हैं। दूसरे संप्रदायों के विकार पर उनकी लेखन की स्याही सूख जाती है। जबकि प्रेमचंद जेहाद पर भी कहानी लिखते हैं और जेहाद की मानसिकता को उजागर करते हैं। प्रगतिशील लेखकों को समझना चाहिए कि प्रेमचंद पर अपना ठप्पा लगाने से कहीं अधिक उनकी रचनाओं के मर्म को समझना जरूरी है। उनकी कलम के उद्देश्य को अपनी कलम में उतारना जरूरी है।
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