रा ष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत के बयान के बाद भारत बनाम इंडिया की बहस शुरू हुई है। संघ पर हमला करने के लिए तैयार बैठे रहने वाले लोग और संगठन कथ्य की गंभीरता को समझे बिना मोहनराव भागवत के बयान पर हाय तौबा मचा रहे हैं। इस बीच देखने और सुनने में आया कि भारत का अर्थ ज्यादातर लोग ग्रामीण क्षेत्र से और इंडिया का अर्थ शहरी क्षेत्र से लगा रहे हैं। यह सरासर गलत है। भारत का अर्थ किसी भी नजरिए से ग्रामीण क्षेत्र नहीं, संघ प्रमुख श्री भागवत की व्याख्या के अनुसार भी नहीं। संघ प्रमुख के मुताबिक तो भारत का अर्थ सांस्कृतिक भारत से हैं, जहां भारतीय मूल्यों और संस्कारों का पालन हो रहा है। इंडिया से अभिप्राय उस वर्ग से है जो पश्चिम से आई हवा के असर में हैं। स्पष्ट है कि पश्चिम की हवा टेलीविजन व अन्य संचार माध्यमों से गांव तक भी पहुंच गई है। इसके अलावा पहले भी कई गांव बुराइयों के लिए कुख्यात रहे हैं। ऐसे में इन गांवों को संघ प्रमुख की परिभाषा की कसौटी पर कसा जाए तो ये इंडिया ही होंगे, भारत नहीं। भारत का अर्थ तो भाव, राग और ताल से है। भाव से भरा है, संस्कारों से पूर्ण वर्ग ही भारत का प्रतिनिधित्व करता है। ये वर्ग शहर में भी आसानी से मिल जाएगा। ऐसा नहीं है कि यह परिभाषा अभी हाल ही में मोहनराव भागवत ने ही की है। भारत में बढ़ रहे सांस्कृतिक भेद को देखते हुए पहले भी कई विद्वान कह चुके हैं कि इस देश में दो राष्ट्र बन रहे हैं- भारत और इंडिया। जिसमें एक वर्ग पाश्चिात्य जीवनशैली, भोगवाद, चमक-दमक और स्वच्छंदचारिता से जीवन व्यतीत कर रहा है। जबकि एक वर्ग भारतीय संस्कारों को स्थापित कर रहा है और सहअस्तित्व के सिद्धांत का पोषण कर रहा है। खैर, इस विवाद को यहीं छोड़ते हैं। आइए देखते हैं कि आखिर इस देश का नाम क्या है? भारत और इंडिया में से अधिक गौरव की अनुभूति कौन कराता है? इस देश के लिए क्या नाम अधिक उपयुक्त है? क्या भारत गांव है और इंडिया शहर? इन सवालों के जबाव अभी तलाशना जरूरी है क्योंकि इनसे हमारा अतीत भी जुड़ा, वर्तमान का भी वास्ता है और भविष्य भी निर्भर है।
देश का नाम क्या है? भारत या इंडिया? अकसर यह सवाल देश के तमाम नौजवानों और नौनिहालों के दिमाग को नागपाश की तरह जकड़ता रहता है। दुनियाभर के देशों के एक ही नाम हैं। जापान, जापान है, अमेरिका, अमेरिका है, चीन, चीन है और नेपाल का नेपाल। लेकिन, क्या कारण है कि भारत के दो आधिकारिक नाम प्रचलित हैं - भारत और इंडिया। इस सवाल से परेशान लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा ने केन्द्र सरकार से इसका उत्तर पूछा था। सूचना के अधिकार कानून के तहत उर्वशी शर्मा ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि सरकारी तौर पर भारत का नाम क्या है? उसने यह भी पूछा कि किसने और कब इस देश का नाम भारत या इंडिया रखा? लेकिन, सरकार इसका अब तक स्पष्ट जवाब नहीं दे सकी है। हालांकि हम सभी जानते हैं कि इंडिया शब्द अंग्रेजों का दिया हुआ है। जिसे हम आज तक ढो रहे हैं। हमारे कर्णधारों को १९४७ में अंग्रेजों से सत्ता लेने के साथ ही देश का आधिकारिक नाम भारत ही घोषित कर देना चाहिए था। लेकिन, हुआ इसका उल्टा। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही लिख दिया गया -इंडिया दैट इज भारत। दरअसल, उस वक्त देश की कमान जिन हाथों में थी वे पाश्चात्य शैली में ही रचे-बसे थे। भारतीय राजनेताओं को अन्य देशों से प्रेरणा लेनी चाहिए थी, जिन्होंने आजाद होते ही या समय आने पर तत्काल अपने मूल नाम को स्थापित किया और गुलामी की याद दिलाने कारण को खत्म कर दिया। सीलोन ने अपना नाम बदलकर श्रीलंका, बर्मा ने म्यांमार और पौलेंड ने पोलेस्का कर लिया था। रूस में भी वामपंथी तानाशाही और क्रूर नेता लेनिन और स्टॉलिन के नाम ऐतिहासिक नगरों से हटा दिए गए। लेनिनग्राद को बदलकर सेंट पीटर्सबर्ग और स्टालिनग्राद को वोल्वोग्राद कर दिया था। दुनिया के इतिहास में ऐसे और भी उदाहरण भरे पड़े हैं लेकिन हमारे नेताओं ने इनसे कोई सीख नहीं ली।
भारतवर्ष ऐसा नाम है जिसके साथ तमाम गौरवान्वित करने वाले प्रसंग जुड़े हैं। महान प्रतापी और लोक कल्याणकारी राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया था लेकिन इंडिया किसके नाम पर रखा गया, किसी के पास कोई जवाब नहीं। सरकार के पास भी नहीं। इंडिया शब्द के साथ इस तरह का कोई गौरव का विषय भी नहीं जुड़ा। जुड़ा है तो बस गुलामी और पीड़ा का किस्सा। भारत नाम देश की भाषा, समाज और संस्कृति की थाती है। इस नाम के साथ हजारों वर्ष पुरानी परंपराएं, स्मृति, रीति और ज्ञान जुड़ा है। इस राष्ट्र के प्रत्येक काल, वर्ग और भाषा के साहित्य में इस देश का नाम भारतवर्ष बताया गया है। नाम अपने आप में बड़ा महत्व रखते हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। यही कारण है कि अपने बालक का नाम राम तो कोई भी रखने को तैयार हो सकता है लेकिन रावण संभवत: सामान्य आदमी नहीं रखना चाहेगा। ठीक इसी तरह अपनी बेटी का नाम सीता रखना सुखद है लेकिन सूपर्णखा कोई नहीं रखना चाहेगा। दरअसल, नाम अपने साथ इतिहास लेकर चलते हैं। नाम विशेष संस्कृति का भान कराते हैं।
भारत का अर्थ ग्रामीण और इंडिया का अर्थ शहर, किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। पिछड़ा है वह भारत है और जो प्रगतिशील है वह इंडिया है। दरअसल, इसी सोच के कारण दिक्कत बढ़ी है। भारत ग्रामीण और पिछड़ा है, यह सोच बनी क्यों? किसी भी देश या समाज को अपना अनुयायी बनाना है तो उसे उसकी जड़ों से काट देना चाहिए। मैकाले के मानसपुत्रों ने यही भारत के संदर्भ में किया। उन्होंने भारत को झाड़-फूंक, जादू-टोना करने वालों का देश बताया, वैज्ञानिक रूप से बंजर कहा तो आधुनिकता के नजरिए से बेहद पिछड़ा और रूढ़ीवादी ठहरा दिया। इसी का नतीजा रहा कि धीरे-धीरे भारत में इंडिया वर्चस्व बढ़ता रहा। इसके उलट यदि भारत के विचारकों ने युवा नागरिकों को भारत के उजले पृष्ठ पढ़ाए होते तो आज स्थिति कुछ और होती। अंग्रेजों के आने तक न तो भारत वैज्ञानिक तौर पर सुप्त था, न ही शिक्षा-दीक्षा के नजरिए और न ही शहरीकरण और आधुनिक तौर पर पिछड़ा था वरन भारत विश्व की तमाम सभ्यताओं के शीर्ष पर था। प्रथम सुव्यवस्थित नगर के प्रमाण भारत में ही मिले हैं। स्त्री-पुरुषों को जिस समान रूप से सम्मान भारत में मिलता रहा है, उतना संभवत: किसी अन्य देश में नहीं मिला। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जितना संरक्षण भारतीय परिवेश में हुआ, उतना शायद और कहीं नहीं। अधिकारों के अधिक यहां मनुष्य को उसके कर्तव्य के पाठ पढ़ाए गए।
खुले दिल से स्वीकारना होगा कि देश में फैली तमाम बुराइयों पर विजय पाना है तो भारत के महान संस्कार और परंपराओं को बढ़ावा देना ही होगा। भारत के संस्कार और जीवनशैली किसी भी वर्ग को दबा कर आगे बढऩे की नहीं है, हमें यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए। वरन भारतीय जीवन तो सहचार्य, सहकार्य, सहयोग, समभाव और समान आजादी पर आधारित है। इसमें मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं, स्त्री-पुरुष में भी भेद नहीं। भ्रष्टाचार, अनाचार, अपराध पर लगाम कसना है तो नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देना ही होगा। भारत को फिर से भारत बनाना ही होगा। निश्चिततौर पर बहुत समय बीत गया है, अब इंडिया का त्याग कर भारत को नाम स्वाभाविक रूप से भारत घोषित कर दिया जाना चाहिए। देश के कई नगरों और राज्यों के नाम हमने समय-समय पर सुधारे हैं। असम, तिरुअनंतपुरम्, चेन्नई, बेंगलूरू, मुंबई, कोलकाता और ओडिसा सहित अन्य राज्य और कई स्थान अब गौरव के साथ पहचाने जा रहे हैं।
देश का नाम क्या है? भारत या इंडिया? अकसर यह सवाल देश के तमाम नौजवानों और नौनिहालों के दिमाग को नागपाश की तरह जकड़ता रहता है। दुनियाभर के देशों के एक ही नाम हैं। जापान, जापान है, अमेरिका, अमेरिका है, चीन, चीन है और नेपाल का नेपाल। लेकिन, क्या कारण है कि भारत के दो आधिकारिक नाम प्रचलित हैं - भारत और इंडिया। इस सवाल से परेशान लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा ने केन्द्र सरकार से इसका उत्तर पूछा था। सूचना के अधिकार कानून के तहत उर्वशी शर्मा ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि सरकारी तौर पर भारत का नाम क्या है? उसने यह भी पूछा कि किसने और कब इस देश का नाम भारत या इंडिया रखा? लेकिन, सरकार इसका अब तक स्पष्ट जवाब नहीं दे सकी है। हालांकि हम सभी जानते हैं कि इंडिया शब्द अंग्रेजों का दिया हुआ है। जिसे हम आज तक ढो रहे हैं। हमारे कर्णधारों को १९४७ में अंग्रेजों से सत्ता लेने के साथ ही देश का आधिकारिक नाम भारत ही घोषित कर देना चाहिए था। लेकिन, हुआ इसका उल्टा। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही लिख दिया गया -इंडिया दैट इज भारत। दरअसल, उस वक्त देश की कमान जिन हाथों में थी वे पाश्चात्य शैली में ही रचे-बसे थे। भारतीय राजनेताओं को अन्य देशों से प्रेरणा लेनी चाहिए थी, जिन्होंने आजाद होते ही या समय आने पर तत्काल अपने मूल नाम को स्थापित किया और गुलामी की याद दिलाने कारण को खत्म कर दिया। सीलोन ने अपना नाम बदलकर श्रीलंका, बर्मा ने म्यांमार और पौलेंड ने पोलेस्का कर लिया था। रूस में भी वामपंथी तानाशाही और क्रूर नेता लेनिन और स्टॉलिन के नाम ऐतिहासिक नगरों से हटा दिए गए। लेनिनग्राद को बदलकर सेंट पीटर्सबर्ग और स्टालिनग्राद को वोल्वोग्राद कर दिया था। दुनिया के इतिहास में ऐसे और भी उदाहरण भरे पड़े हैं लेकिन हमारे नेताओं ने इनसे कोई सीख नहीं ली।
भारतवर्ष ऐसा नाम है जिसके साथ तमाम गौरवान्वित करने वाले प्रसंग जुड़े हैं। महान प्रतापी और लोक कल्याणकारी राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया था लेकिन इंडिया किसके नाम पर रखा गया, किसी के पास कोई जवाब नहीं। सरकार के पास भी नहीं। इंडिया शब्द के साथ इस तरह का कोई गौरव का विषय भी नहीं जुड़ा। जुड़ा है तो बस गुलामी और पीड़ा का किस्सा। भारत नाम देश की भाषा, समाज और संस्कृति की थाती है। इस नाम के साथ हजारों वर्ष पुरानी परंपराएं, स्मृति, रीति और ज्ञान जुड़ा है। इस राष्ट्र के प्रत्येक काल, वर्ग और भाषा के साहित्य में इस देश का नाम भारतवर्ष बताया गया है। नाम अपने आप में बड़ा महत्व रखते हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। यही कारण है कि अपने बालक का नाम राम तो कोई भी रखने को तैयार हो सकता है लेकिन रावण संभवत: सामान्य आदमी नहीं रखना चाहेगा। ठीक इसी तरह अपनी बेटी का नाम सीता रखना सुखद है लेकिन सूपर्णखा कोई नहीं रखना चाहेगा। दरअसल, नाम अपने साथ इतिहास लेकर चलते हैं। नाम विशेष संस्कृति का भान कराते हैं।
भारत का अर्थ ग्रामीण और इंडिया का अर्थ शहर, किसी भी नजरिए से ठीक नहीं है। पिछड़ा है वह भारत है और जो प्रगतिशील है वह इंडिया है। दरअसल, इसी सोच के कारण दिक्कत बढ़ी है। भारत ग्रामीण और पिछड़ा है, यह सोच बनी क्यों? किसी भी देश या समाज को अपना अनुयायी बनाना है तो उसे उसकी जड़ों से काट देना चाहिए। मैकाले के मानसपुत्रों ने यही भारत के संदर्भ में किया। उन्होंने भारत को झाड़-फूंक, जादू-टोना करने वालों का देश बताया, वैज्ञानिक रूप से बंजर कहा तो आधुनिकता के नजरिए से बेहद पिछड़ा और रूढ़ीवादी ठहरा दिया। इसी का नतीजा रहा कि धीरे-धीरे भारत में इंडिया वर्चस्व बढ़ता रहा। इसके उलट यदि भारत के विचारकों ने युवा नागरिकों को भारत के उजले पृष्ठ पढ़ाए होते तो आज स्थिति कुछ और होती। अंग्रेजों के आने तक न तो भारत वैज्ञानिक तौर पर सुप्त था, न ही शिक्षा-दीक्षा के नजरिए और न ही शहरीकरण और आधुनिक तौर पर पिछड़ा था वरन भारत विश्व की तमाम सभ्यताओं के शीर्ष पर था। प्रथम सुव्यवस्थित नगर के प्रमाण भारत में ही मिले हैं। स्त्री-पुरुषों को जिस समान रूप से सम्मान भारत में मिलता रहा है, उतना संभवत: किसी अन्य देश में नहीं मिला। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जितना संरक्षण भारतीय परिवेश में हुआ, उतना शायद और कहीं नहीं। अधिकारों के अधिक यहां मनुष्य को उसके कर्तव्य के पाठ पढ़ाए गए।
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अंग्रेजों ने ही भारत का नाम इंडिया रखा,जिसे हम आज तक ढो रहे है,,,
जवाब देंहटाएंrecent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंमकर संक्रान्ति के अवसर पर
उत्तरायणी की बहुत-बहुत बधाई!
आपको भी मकर संक्रांति की शुभकामनाएं
हटाएंमेरा तो बस यह मानना है की भगवत को ऐसे समय पर मुह नहीं खोलना चाहिए था 1बढ़िया विश्लेषण। मकर्संक्राती की शुभकामनाये !
जवाब देंहटाएंआपको भी मकर संक्रांति की शुभ कामनाएं....
हटाएंयह बात सही है कि इस वक़्त कोई भी तर्क सुनना नहीं चाहता... इसलिए भगवत जी को इस तरह के संवाद से बचना चाहिए था... खैर ये पोस्ट तो उनके बयां का न तो समर्थन करती है और न ही निंदा...
आपके विचारों से पूर्णतः सहमत ,अच्छे वैचारिक प्रश्न की मीमांशा के लिए साधुवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रवि जी
जवाब देंहटाएंअंग्रेजी की आदत क्यूं ?
जवाब देंहटाएंइण्डिया माने भारत क्यूं ?
हृदय न समझे मतलब जिसका ,
ऐसी जटिल इबारत क्यूँ ?
ऐसे सवाल मन में बचपन से ही उठते रहे हैं । पर आजतक उनका हल नही मिला ।लेकिन मिलना ही चाहिये । (अंग्रेजी की आदत का अर्थ यहाँ भाषा से नही सोच-विचार व जीवन शैली से है ।)
बहुत ही सार्थक आलेख
अपनी अच्छाईयों पर हम गर्व करें, अपनी कमियों\बुराईयों को पहचानें, अपनी कमजोरियों को दूर करें तभी उत्तरोत्तर विकास संभव है।
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