हा ल ही में
पहली बार मैंने दो फिल्म एक ही दिन में देखीं। एक डॉन-२ और दूसरी लेडीज वर्सेस रिक्की
बहल। डॉन-२ में भारतीय सिनेमाई परंपरा के विपरीत कहानी है जबकि लेडीज वर्सेस रिक्की
बहल में कहानी समाज की सोच के साथ ही बहती है। पैसा वसूल नजरिए से तो दोनों फिल्में
मुझे पसंद आईं लेकिन विद्रोही मन ने इन्हें नहीं स्वीकारा। मेरे मन ने डॉन-२ में सिनेमाई
परंपरा का उल्लंघन और लेडीज वर्सेस रिक्की बहल में समाज की सोच का फिल्मांकन स्वीकार
नहीं किया। दरअसल, डॉन-२ के अंत में विलेन विजयी होता है। फिल्म में एक अंतरराष्ट्रीय
बदमाश को हीरो की तरह प्रस्तुत किया गया है। यहां मेरा मन फिल्म निर्माता का विरोध
करता है। साहित्य और सिनेमा समाज के शिक्षक-मार्गदर्शक होते हैं इस बात का मैं हिमायती
हूं। ऐसे में डॉन-२ से क्या सीखा जा सकता है, अपराध जगत का बेताज बदशाह होना? कहानी
में एक अपराधी को हीरो की जगह रखा गया है। फिल्म का अंत अच्छाई की जगह बुराई की जीत
पर हुआ। एक गुंडा पुलिस-इंटरपोल सबको ठेंगा दिखाता हुआ उनकी गिरफ्त से दूर चला जाता
है। अभी तक भारतीय सिनेमा में बहुत कम मौके आए होंगे की प्यार-रिश्ते-नाते दायित्व
पर भारी पड़े हों। कर्तव्य को हमेशा भावनाओं के बंधन से ऊपर माना गया और दिखाया गया।
हमारा सिनेमा अब तक सिखाता रहा है कि कर्तव्य मार्ग पर अगर अपने भी बाधा बनकर खड़े
हों तो परवाह नहीं करनी चाहिए। कर्तव्य पहली प्राथमिकता है लेकिन फिल्म में कर्तव्य
की मां-बहन एक कर दी गई। वरधान (बोमन ईरानी), रोमा (प्रियंका चोपड़ा) से कहता है कि
डॉन (शाहरुख खान) को गोली मार दो। यहां रोमा के हाव-भाव देखकर ही दर्शक समझ जाता है
भैंस गई पानी में। ये नहीं मारेगी गोली। हुआ भी यही। जिस गुंडे ने उसके भाई का कत्ल
किया (डॉन-१ में) और जिसे दुनियाभर की पुलिस जिंदा या मुर्दा पकडऩा चाहती है रोमा उसके
लिए खुद गोली खा लेती है। खैर, जो भी हो फरहान अख्तर ने बढिय़ा मसाला मूवी बनाई लेकिन
माफ करना भाई अपुन को पसंद नहीं आई।
वहीं, लेडीज
वर्सेस रिक्की बहल में लड़कियों को बेवकूफ दिखाया गया है। दुनिया लड़कियों की प्रतिभा
का लोहा मान रही है वहीं डायरेक्टर महाशय (मनीष शर्मा) ठग (रणवीर सिंह) के माध्यम से
लड़कियों को कहानी के अंत तक आसानी से बेवकूफ बनाई जानी वाली 'गऊ' दिखा रहे हैं। रणवीर फिल्म में अगल-अलग जगह की लड़कियों
को अपने प्रेमजाल में फंसाता है फिर उनको 'स्टूपिड' (चूतिया) बनाकर उनका पैसा ऐंठकर दूसरे शिकार की तलाश में निकल जाता था। बाद
में इशिका (अनुष्का शर्मा) की मदद से तीन लड़कियां रणवीर को 'कॉन' (छल से लूटना, ठगना) करने का प्लान बनाती हैं। धूर्त ठग
इशिका के जाल में फंस भी जाता है लेकिन डायरेक्टर का पुरुष अहंकार जाग जाता है। उसने
सोचा होगा कि लड़कियां कैसे लड़कों को 'कॉन' कर
सकती हैं। दुनिया में 'स्टूपिड' होने का ठेका तो
लड़कियों ने ही लिया है। भैय्ये जबकि यह सच नहीं है। डायरेक्टर महाशय अपने पुरुषार्थ
को उच्च रखने के लिए कहानी को गर्त में धकेल देते हैं। किवाड़ के पीछे से ठग लड़कियों
का प्लान जान लेता है। आखिर में लड़कियों को फिर से ठग लेता है। साबित कर देता है कि
वे निरी बेवकूफ ही रहेंगी। पुरुषों से जीत की होड़ न लगाएं। अच्छी भली कहानी इसी मोड़
से सड़ान मारने लगती है। उसके बाद आगे के सीन दर्शक पहले ही गेस कर लेता है।
मैंने दोनों में से कोई भी नहीं देखी!! वैसे भी इतना समय नहीं होता!!
जवाब देंहटाएंनववर्ष की शुभकामनाएं!!
चलिये इस पोस्ट से बहुत लोगों का वक़्त बर्बाद होने से बचेगा। नववर्ष की शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंइस प्रकार की फिल्मे समाज में एक नकारात्मकता पैदा करती हैं| अपराध की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं| ऐसी फिल्मे देखकर ही आजकल युवाओं में आपराधिक प्रवृति का प्रसार हुआ है| नैतिकता के समस्त मापदंड भुला दिए जाते हैं|
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर पहली दफा आना हुआ.
जवाब देंहटाएंआपका लेखन बहुत अच्छा लगा.
नववर्ष की आपको हार्दिक शुभकामनाएँ.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है,लोकेन्द्र जी.
सहमत हूँ सुन्दर समीक्षा से...
जवाब देंहटाएंआपको एवं आपके परिवार के सभी सदस्य को नये साल की ढेर सारी शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंउम्दा समीक्षा!
पहली फिल्म का आख़री सीन देख मुझे भी अनपच हुआ.
जवाब देंहटाएंवैसे फिल्मे बहुत कम ही देखता हूँ. आपकी समीक्षा महत्पवपूर्ण है.