बो ल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल ज़बाँ अब तक तेरी है। अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े मसले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद दिल-ओ-दिमाग में सबसे पहले ये ही पंक्तियां गूँजी। अभिव्यक्ति की आजादी के मायने समझने के लिए फैज़ अहमद फैज़ की लोकप्रिय गजल का यह शेर मुकम्मल है। बहरहाल, सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने के लिए आईटी एक्ट की कुख्यात धारा-66A को उच्चतम न्यायालय ने जब रद्द किया तो फैज़ साहब के इस शेर की दूसरी पंक्ति को कुछ इस तरह दोहरा रहा हूं- '...बोल ज़बाँ फिर से तेरी है।' आईटी एक्ट (सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम) की धारा-66A अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के खिलाफ थी। फेसबुक, ट्विटर और अन्य सोशल माध्यम पर की गई किसी भी टिप्पणी को आपत्तिजनक बताकर टिप्पणीकर्ता को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा सकता था। इसके तहत पांच लाख रुपये तक का जुर्माना और तीन साल कैद की सजा का प्रावधान था। यही नहीं किसी के कमेंट को लाइक करने तक की आजादी आपको नहीं थी। वर्ष 2012 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के निधन के बाद मुम्बई बंद पर फेसबुक पोस्ट लिखने वाली शाहीन ढड्ढा को ही नहीं बल्कि उनकी पोस्ट को लाइक करने वाली रीनू श्रीनिवासन को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। दोनों लड़कियों की गिरफ्तारी के बाद से आईटी एक्ट की धारा-66A पर काफी विवाद हुआ था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक बहस और लड़ाई शुरू हुई। कई संगठनों और नागरिकों ने धारा-66A के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट के दर से नतीजा सुखद आया है। दरअसल, अभिव्यक्ति की आजादी किसी भी लोकतंत्र की खूबसूरती है। सबसे बड़े लोकतंत्र और सांस्कृतिक राष्ट्र भारत में तो सबको अपनी बात कहने की आजादी हमेशा से रही है और रहनी भी चाहिए। यह बात इस देश को औरों से अलग करती है। यहां विरोध की आवाज को जब-जब दबाने का प्रयास किया गया है, तब-तब वह और बुलंद हुई है। सच हमेशा जीता है।
सोशल मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे बड़े माध्यम के रूप में हमारे सामने मौजूद है। यहां सबको बराबर से अपनी बात कहने की आजादी है। यहां गूंगे भी वाचाल हैं। गलत नीतियों या दुराचरण पर यहां आम आदमी भी दबंगई से राजपुरुषों की बखिया उघेडऩे का सामर्थ्य रखता है। कांग्रेसनीत यूपीए-2 सरकार में भारतीय राजनीति दिशा भटक गई थी तो उसे रास्ते पर लाने के लिए देश की जनता जमकर सोशल मीडिया का उपयोग कर रही थी। यूपीए के कद्दावर मंत्रियों-सांसदों के खिलाफ खूब लिखा जा रहा था। इससे यूपीए सरकार तंग आ गई थी। सोशल मीडिया के माध्यम से अपने खिलाफ देश में बन रहे माहौल पर लगाम लगाने के उद्देश्य से साल 2009 में मनमोहन सिंह की सरकार आईटी एक्ट में विवादास्पद धारा-66A लेकर आई। लेकिन, भ्रष्टाचार, अनाचार, नेताओं की अनर्गल बयानबाजी और दुराचरण से त्रस्त जनता का क्रोध ठण्डा नहीं पड़ा। सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ और तेज हमले हुए। सामान्य आदमी से लेकर देश के प्रबुद्धजनों ने भी सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना जारी रखी। इसी बीच सरकार ने धारा-66A का खौफ दिखाना शुरू कर दिया। सामान्य टिप्पणियों, फोटो और कार्टून पर लोगों को गिरफ्तार किया जाने लगा। वर्ष 2012 में ममता बनर्जी, तत्कालीन रेलमंत्री मुकुल राय और पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी से संबंधित एक कार्टून को ईमेल से भेजने पर यादवपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर को गिरफ्तार कर लिया गया। इसी तरह 2014 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ फेसबुक पर टिप्पणी करने के मामले में 25 वर्ष के युवक बापी पाल को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। अभी हाल ही में, मार्च, 2015 में उत्तरप्रदेश सरकार के मंत्री और कौमी नेता आजम खान के खिलाफ टिप्पणी करने पर एक छात्र को महज 24 घण्टे में गिरफ्तार कर लिया गया। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी और शिवपुरी (मध्यप्रदेश) के एक युवक को भी इसी विवादास्पद धारा-66A के तहत गिरफ्तार किया गया था। स्पष्ट है कि कहीं न कहीं धारा-66A अभिव्यक्ति की आजादी को कुंद कर रही थी। धारा-66A भारत की मूल प्रकृति के खिलाफ थी।
आईटी एक्ट की धारा-66A में यह व्यवस्था थी कि यदि कोई हमारी टिप्पणी से नाराज हो गया तो उसकी शिकायत पर हमारा जेल जाना तय था। लेकिन, अभिव्यक्ति की आजादी और सच के लिए लडऩे वाले योद्धाओं ने इस तुगलकी कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। तीन साल में ही एक अच्छा फैसला सामने आ गया। 24 मार्च, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले में आईटी एक्ट की धारा-66A को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने वाला माना है। धारा-66A को असंवैधानिक करार दिया। सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी से हमें हमारी आवाज वापस मिल गई है। हम फिर से खुलकर सोशल मीडिया पर लिख सकेंगे। सच कहने पर किसी के नाराज होने का डर भी नहीं रहेगा।
बहरहाल, अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की है। जिस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक हो जाता है। जस्टिस जे. चेलमेश्वर और जस्टिस आरएफ नरीमन की बेंच ने कहा है कि आप कुछ भी नहीं लिख सकते हैं लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला नहीं होना चाहिए। धारा-66A को रद्द कर अभिव्यक्ति की आजादी को मजबूत करते हुए अपने इस कथन से दोनों न्यायमूर्तियों ने समाज को एक संदेश देने की कोशिश की है। उस संदेश की गंभीरता को समझने की जरूरत है। उनके कथन में यह इशारा भी है कि अभिव्यक्ति की आजादी का सम्भलकर उपयोग नहीं किया तो फिर से कोई दूसरे प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। ऐसी परिस्थितियां बार-बार उत्पन्न न हों इसके लिए अभिव्यक्ति की आजादी के साथ जुड़ी जिम्मेदारी को पहचानिए और उस के अनुरूप सोशल मीडिया पर आचरण कीजिए। संविधान की धारा-19A के तहत हर नागरिक के पास अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार है। लेकिन, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हमें असीमित आजादी भी नहीं है। कुछ मर्यादाएं भी तय हैं। हमें जानबूझकर किसी की छवि को धूमिल करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। सोशल मीडिया कोई छोटा मंच नहीं है। यह दुनिया को जोड़ता है। हम कोई एक पोस्ट डालते हैं तो वह तुरंत वल्र्ड वाइड प्रसारित हो जाती है। तत्काल लाखों लोगों तक पहुंच जाती है। ऐसे में हमारे एक झूठ, एक मजाक और एक गलत बात से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का बहुत नुकसान हो सकता है। सोशल मीडिया पर लिखते समय अधिक सावधानी बरतने की जरूरत है। ज्यादा सजग रहने की जरूरत है। अधिक जिम्मेदारी के भाव से कलम चलाने की आवश्यकता है। हाल की कुछ घटनाओं से भी हमें सबक लेना चाहिए। कैसे एक फोटो से सांप्रदायिक तनाव हो जाता है। कैसे आपसी संबंधों में कड़वाहट घुल जाती है। यह कड़वाहट स्थायी रूप भी ले लेती है। कहते भी हैं कि तलवार का घाव भर जाता है लेकिन शब्दों से हुआ घाव हमेशा रहता है। शब्द ब्रह्म हैं। भ्रम फैलाने की कोशिश हमें नहीं करनी चाहिए। किसी की भावनाओं को जानबूझकर ठेस पहुंचाने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए। दुनिया में शांति, सद्भाव और सकारात्मक माहौल बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस जिम्मेदारी के भाव से हम सोशल मीडिया जैसे विशाल जनमाध्यम का उपयोग करेंगे तो निश्चित ही हमसे भविष्य में कोई हमारी अभिव्यक्ति की आजादी नहीं छीनेगा। यदि हम अपनी जिम्मेदारी समझेंगे, सोशल मीडिया के प्रभाव को समझेंगे, अभिव्यक्ति की आजादी के महत्व को समझेंगे, शब्दों-चित्रों की ताकत को समझेंगे तो निश्चित ही संवाद सार्थक होगा, रचनात्मक होगा और समाज को जोडऩे वाला होगा। जब यह होगा तो फिर अभिव्यक्ति का गला घोंटने का साहस कोई नहीं कर सकेगा। सोशल मीडिया पर हम अपनी बात तीखे अंदाज में कहें, जोरदार ढंग से कहें, कटु आलोचना करें लेकिन सत्य के साथ रहकर, मर्यादा में रहकर। फिर देखिए अभिव्यक्ति की आजादी कितनी मजबूत होती है। आखिर में फैज़ अहमद फैज़ की उसी गजल की अंतिम पंक्तियां भी देखें- 'बोल कि सच जि़ंदा है अब तक, बोल जो कुछ कहना है कह ले।'
(दैनिक स्वदेश ग्वालियर, भोपाल, साप्ताहिक एलएन स्टार और मासिक अटल स्वराज में प्रकाशित आलेख)
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