मंगलवार, 1 जुलाई 2025

हमारे आसपास की जरूरी कहानियां, जो जीवन सिखाती हैं

17 साल की लेखिका की 13 चुनी हुई कहानियां – वत्सला@2211


अपने पहले ही कहानी संग्रह ‘वत्सला @2211’ के माध्यम से 17 वर्षीय लेखिका वत्सला चौबे ने साहित्य जगत में एक जिम्मेदार साहित्यकार के रूप में अपनी कोमल उपस्थिति दर्ज करायी है। उनके इस कहानी संग्रह में 13 चुनी हुई कहानियां हैं, जो हमें कल्पना लोक के गोते लगवाती हुईं, कठोर यथार्थ से भी परिचित कराती हैं। सुधरने और संभलने का संदेश देती हैं। बाल कहानियों की अपनी दुनिया है, जिसमें बच्चे ही नहीं अपितु बड़े भी आनंद के साथ खो जाते हैं। यदि ये बाल कहानियां किसी बालमन ने ही बुनी हो, तब तो मिथुन दा के अंदाज में कहना ही पड़ेगा- क्या बात, क्या बात, क्या बात। बहुत दिनों बाद बाल कहानियां पढ़ने का अवसर मिला। एक से एक बेहतरीन कहानियां, जिनमें अपने समय के साथ संवाद है। अतीत की बुनियाद पर भविष्य के सुनहरे सपने भी आँखों में पल रहे हैं। एक किशोर वय की लेखिका ने अपने आस-पास की दुनिया से घटनाक्रमों को चुना और उन्हें कहानियों में ढालकर हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इन कहानियों में मानवीय संवेदनाएं हैं। सामाजिक परिवेश के प्रति जागरूकता है। अपने कर्तव्यों के निर्वहन की ललक है। अपनी जिम्मेदारियों का भान है। संग्रह के प्राक्कथन में वरिष्ठ संपादक गिरीश उपाध्याय ने उचित ही लिखा है- “ये कहानियां भले ही एक बच्ची की हों, लेकिन इनमें बड़ों के लिए या बड़े-बड़ों के लिए बहुत सारे संदेश, बहुत सारी सीख छिपी हैं, बशर्ते हम उन्हें समझने की और महसूस करने की कोशिश करें”। 

वत्सला अपनी पहली कहानी ‘किट्टू की नर्मदा यात्रा’ के बहाने बच्चों को साहस देती हैं कि कभी मेले-ठेले में या अन्य किसी कारण से अपने परिवार से बिछड़ जाएं तो क्या करना चाहिए। यह पाठ पढ़ाने के लिए ‘किट्टू’ अपने पाठकों को मछलियों की रंगीन दुनिया की सैर कराती हैं। अगली कहानी में वह हमें नंदनकानन के वन में लेकर जाती हैं और स्वच्छता का महत्व सिखाती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत’ का सीधा असर किसी के मन पर पड़ा है, तो वह बच्चे हैं। कई बार देखा गया है कि बच्चे बड़ी उम्र के नादान लोगों को स्वच्छा की सीख दे रहे होते हैं। किट्टू की इस कहानी पर भी आपको प्रधानमंत्री मोदी और उनके स्वच्छ भारत अभियान का प्रभाव दिखायी देगा। जब मैं कहानी ‘बस्ते का बोझ’ पढ़ रहा था, तब मुझे वरिष्ठ साहित्यकार गिरिजा कुलश्रेष्ठ याद आईं, उनकी कहानी ‘बिल्लू का बस्ता’ याद आई। बिल्लू के बस्ते में किताबें कम खिलौने ज्यादा मिला करते हैं। विद्या के नाम पर किताबों में किसी पक्षी के रंगीन पंख और पौधे की पत्तियां। कंचे, डिब्बे-डिब्बियां, किताबों से काटे गए कार्टून और फूल के चित्र, न जाने क्या-क्या। यही तो उसके लिए कुबेर का खजाना है। गिरिजा दीदी के कहानी संग्रह ‘अपनी खिड़की से’ में आप यह रोचक और गुदगुदाने वाली कहानी पढ़ सकते हैं। बच्चों के बस्तों में क्या होना चाहिए, इसके प्रति हमें थोड़ा संवेदनशील होना पड़ेगा। बच्चों के बस्तों में बोझ नहीं, खुशियां होनी चाहिए। वैसे तो सभी कहानियों में आप ‘वत्सला’ की प्रत्यक्ष अनुभूति एवं उपस्थिति को देख पाएंगे परंतु यह कहानी तो साफतौर पर संकेत करती है कि ‘किट्टू’ ने अपने अनुभव से हम बड़ों को संदेश देने का प्रयास किया है कि बच्चों को बस्ते के बोझ से मुक्ति चाहिए। बोझ उन्हें आगे नहीं ले जाएगा, बल्कि उनके कंधे झुका देगा।

पर्यावरण को स्वस्थ रखना हम सबकी साझी जिम्मेदारी है। वत्सला ने इस अनुकरणीय विचार को अपनी कहानियों के जरिए हम सबके मन में उतारने का साधु कार्य किया है। इको वारियर्स, एकांत पार्क, सच्ची श्रद्धांजलि एवं पेड़ और तालाब जैसी कहानियां प्रकृति के प्रति नागरिक कर्तव्यों का स्मरण कराती हैं। वत्सला अपनी कहानियों से बच्चों के मन में साहस भी पैदा करती दिखायी देती हैं। ‘साथी हाथ बढ़ाना’ हर उस बच्चे की कहानी है, जो स्कूल वैन की खिड़की से कुछ बच्चों की पीठ और कंधों पर कूड़ा-करकट बीनने वाले थैले लटके हुए देखकर सोचता है कि ये स्कूल से दूर क्यों हैं? ये कैसे पढ़-लिख सकते हैं। क्या इन्हें पढ़ाने की हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं? स्वामी विवेकानंद ने अपने शिष्यों और गाँव-गाँव जानेवाले साधु-संतों से कहा था कि जो बच्चे विद्यालय तक नहीं आ सकते, तब हम शिक्षा को उन तक लेकर क्यों नहीं जा सकते हैं? किट्टू यही करती है, वह ऐसे बच्चों के पास जाती है, उनसे संवाद करती है और अपनी दोस्ती की डोर से उनकी दोस्ती किताबों से कराती है। कहानी का शीर्षक कहता है कि यदि हम सब अपने आसपास के चार-चार बच्चों को भी पढ़ाना शुरू कर दें, तो तस्वीर बदल सकती है। 

कहानी ‘दि ब्रांड’ उन सबको पढ़नी चाहिए, जो अपने परंपरागत व्यवसाय को छोटा मानकर कॉरपोरेट की नौकरी के लिए या कॉरपोरेट की नौकरी में जूते घिस रहे हैं। यह कहानी प्रेरणा देती है कि हम चाह लें तो अपने स्वदेशी उत्पाद को भी वैश्विक ‘ब्रांड’ में बदल सकते हैं। छोटे कार्य को बड़े कारोबार में बदल सकते हैं। हमें अपना दृष्टिकोण बड़ा करना चाहिए और किसी के काम को और उस काम को करने वाले व्यक्ति को छोटा नहीं समझना चाहिए।

‘सर्तकता ही बचाव’ में लेखिका ने मौजूदा समय के सबसे बड़े खतरे की ओर ध्यान आकर्षित किया है। नशे के कारोबारी जिस तरह स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों को नशे की अंधेरी खायी में धकेल रहे हैं, वह केवल इन बच्चों के लिए नहीं अपितु देश और समाज के लिए भी बड़ा खतरा है। अपने समय से संवाद करते हुए वत्सला किशोर लड़कियों को उस मानसिकता से भी सावधान करती हैं, जो सोशल मीडिया के जरिए लड़कियों को फंसाने और उनका शोषण करने के घिनौने अपराध को ‘सवाब’ का काम मान रहे हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘किट्टू की नर्मदा यात्रा’ से लेकर प्रतिनिधि कहानी ‘वत्सला @2211’ तक हम समय के साथ यात्रा करते हैं। किट्टू से वत्सला तक की यात्रा। यह यात्रा सुखद भी है और गंभीर चिंतन भी देती है। 

वत्सला की लेखनी की विशेषता है कि वह बच्चों से लेकर बड़ों तक को कहानी के पहले सिरे से आखिरी छोर तक बांधे रखती है। भाषा में सहज प्रवाह है। छोटे वाक्य हैं। आम बोल-चाल की शब्दावली है। कहानियों के विषय पाठकों को अपने से लगते हैं। इसलिए कोई भी आसानी से इन कहानियों के साथ जुड़ जाता है। वत्सला का यह कहानी संग्रह साहित्य जगत में न केवल पढ़ा जा रहा है, अपितु वरिष्ठों का दुलार, आशीर्वाद और उनके हाथों सम्मानित भी हो रहा है। इसका प्रकाशन आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल ने किया है। मूल्य केवल 200 रुपये है। याद रखें, मूल्य केवल कागज और छपायी से संबंधित लागत का है। कहानियां तो बेशकीमती हैं। अमूल्य हैं।  

पुस्तक : वत्सला @2211

मूल्य : 200 रुपये (पेपरबैक)

पृष्ठ : 54

प्रकाशक : आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल

शनिवार, 28 जून 2025

किसने बदली संविधान की मूल प्रस्तावना? इस पर चर्चा होनी चाहिए

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना में जबरन जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘सेकुलर’ शब्दों के औचित्य को प्रश्नांकित करके महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है। उन्होंने कहा कि "आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए Secularism और Socialism शब्दों की समीक्षा होनी चाहिए। ये मूल प्रस्तावना में नहीं थे। अब इस पर विचार होना चाहिए कि इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं?" ध्यान दें कि सरकार्यवाह श्री दत्ताजी ने दोनों शब्दों को सीधे हटाने की बात नहीं की है अपितु उन्होंने इस संदर्भ में विचार करने का आग्रह किया है। लेकिन उनके विचार को गलत ढंग से कौन प्रस्तुत कर रहा है, वे लोग जिन्होंने लोकतंत्र का गला घोंटकर, अलोकतांत्रिक ढंग से, बिना किसी चर्चा के, चोरी से संविधान की प्रस्तावना में सेकुलर और समाजवाद शब्द घुसेड़ दिए। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर और संविधान सभा द्वारा देश को सौंपी गई संविधान की प्रस्तावना को बदलने वाली ताकतों को वितंडावाद खड़ा करने से पहले अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए। और, स्वयं से प्रश्न पूछना चाहिए कि "इस विषय में कुछ कहने का उन्हें नैतिक अधिकार भी है?" सत्य तो यह है कि संविधान की मूल प्रस्तावना को बदलने का अपराध करने के लिए उन्हें देश की जनता से क्षमा मांगनी चाहिए। बहरहाल, इस बहस के बहाने कम से कम देश की जनता को पुन: याद आएगा कि सही अर्थों में संविधान की हत्या किसने की है? किसने बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को बदलने का काम किया है। वास्तव में यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जब देश में आपातकाल लगा था तब संसद में बिना किसी चर्चा के संविधान की प्रस्तावना में जबरन परिवर्तन करते हुए ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलर’ शब्द क्यों जोड़े गए? क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि संविधान की मूल प्रस्तावना से की गई छेड़छाड़ को ठीक किया जाए? संविधान को वापस वही प्रस्तावना मिले, जिसे बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर, संविधान सभा और देश की जनता ने आत्मार्पित किया था। याद रहे कि प्रस्तावना को संविधान की आत्मा कहा जाता है।

गुरुवार, 26 जून 2025

क्या आरएसएस के सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर आपातकाल का समर्थन किया था?

बौद्धिक जगत में एक वर्ग ऐसा भी है जो आपातकाल की भयावहता को छिपाने और आपातकाल की क्रूरता पर चर्चा की जगह यह साबित करने में आज भी अपनी बुद्धि खपा रहा है कि ‘संघ ने आपातकाल का समर्थन किया था’। कुतर्क की भी हद होती है। ये वही लोग हैं जो पहलगाम में इस तथ्य को झुठलाने की बेशर्म कोशिश कर रहे थे कि आतंकवादियों ने धर्म पूछकर पर्यटकों की हत्या नहीं की। जबकि मृतकों की परिजनों ने बिलखते हुए कहा है कि “उनके सामने ही आतंकवादियों ने धर्म पूछकर हत्याएं की हैं”। बहरहाल, एक बार फिर ‘संविधान हत्या दिवस’ पर कई तथाकथित विद्वान पूर्व सरसंघचालक श्रद्धेय बाला साहब देवरस के एक पत्र को प्रसारित करके दावा कर रहे हैं कि संघ ने आपातकाल का समर्थन किया और श्रीमती इंदिरा गांधी से माफी भी मांगी। मुझे आश्चर्य है कि उन्होंने किस दिव्य दृष्टि से इस पत्र को पढ़ा है। इस पत्र में एक भी स्थान पर, एक भी पंक्ति या शब्द में यह नहीं लिखा है कि संघ देश पर थोपे गए आपातकाल का समर्थन करता है।

रविवार, 15 जून 2025

संघ सृष्टि में रचे-बसे लेखक की अनुभूति 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र'

पुस्तक चर्चा : RSS की कहानी-प्रचारक की जुबानी


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की ओर कदम बढ़ा रहा है। ऐसे में संघ को लेकर गहरी रुचि और जिज्ञासा सामान्य लोगों से लेकर बौद्धिक जगत में दिखायी दे रही है। संघ के संबंध में अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिन्हें विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से लिखा है। इस शृंखला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक सुनील आंबेकर की पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। जब संघ की सृष्टि में रचा-बसा लेखक कुछ लिखता है, तब उसे पढ़कर संघ को ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। यह एक ऐसी पुस्तक है, जो लेखक की प्रत्यक्ष अनुभूति के साथ विकसित हुई है। संघ की यात्रा और विभिन्न मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण बताते हुए सुनील आंबेकर अपनी संघ यात्रा को भी रेखांकित करते हैं। यह प्रयोग संघ को व्यवहारिक ढंग से समझने में हमारी सहायता करता है। मनोगत में स्वयं लेखक सुनील जी लिखते हैं कि यह पुस्तक उनके लिए है जो व्यवहार रूप में संघ को समझना चाहते हैं, उसके माध्यम से जिसने संघ को जिया है। उल्लेखनीय है कि सुनील आंबेकर वर्तमान में संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख हैं। इससे पूर्व उनका लंबा समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को गढ़ने में बीता है। सुनील जी बाल्यकाल से स्वयंसेवक हैं। संघ के साथ उनके संबंध नैसर्गिक रूप से विकसित हुए हैं। नागपुर में उनका घर संघ मुख्यालय के पड़ोस में ही है। उनके घर का द्वार संघ कार्यालय के प्रांगण में ही खुलता था।

सोमवार, 9 जून 2025

भारत के स्वराज्य की हुंकार : हिन्दू साम्राज्य दिवस

वीडियो देखें : हिन्दू साम्राज्य दिवस का महत्व | Hindu Samrajya Divas


छत्रपति शिवाजी महाराज भारत की स्वतंत्रता के महान नायक हैं, जिन्होंने ‘स्वराज्य’ के लिए संगठित होना, लड़ना और जीतना सिखाया। मुगलों के लंबे शासन और अत्याचारों के कारण भारत का मूल समाज आत्मदैन्य की स्थिति में चला गया था। विशाल भारत के किसी न किसी भू-भाग पर मुगलों के शोषणकारी शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष तो चल रहा था लेकिन उन संघर्षों से बहुत उम्मीद नहीं थी। भारत के वीर सपूत अपने प्राणों की बाजी तो लगा रहे थे लेकिन समाज को जागृत और संगठित करने का काम नहीं कर पा रहे थे। जबकि छत्रपति शिवाजी महाराज ने समाज के भीतर विश्वास जगाया कि हम मुगलों के शासन को जड़ से उखाड़कर फेंक सकते हैं, यदि सब एकजुट हो जाएं। यही कारण है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के देवलोकगमन के बाद भी ‘हिन्दवी स्वराज्य’ का विचार पल्लवित, पुष्पित और विस्तारित होता रहा। ‘हिन्दू साम्राज्य दिवस’ या ‘श्रीशिव राज्याभिषेक दिवस’ भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना ने दुनिया को बताया कि भारत के भाग्य विधाता मुगल नहीं हैं। भारत का हिन्दू समाज ही भारत का भाग्य विधाता है। भारत में हिन्दुओं का राज्य है। उनके शासन का नाम है- ‘हिन्दवी स्वराज्य’।

शुक्रवार, 6 जून 2025

सबका स्वागत करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

अपने कार्यक्रमों में विभिन्न विचारों के महानुभावों को आमंत्रित करने की संघ की परंपरा, नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग 'कार्यकर्ता विकास वर्ग-2' के समापन समारोह में बतौर मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध जनजातीय नेता अरविंद नेताम आमंत्रित

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सबके लिए खुला संगठन है। इसके दरवाजे किसी के लिए बंद नहीं है। कोई भी संघ में आ सकता है। कोई विपरीत विचार का नेता, सामाजिक कार्यकर्ता या विद्वान व्यक्ति जब संघ के कार्यक्रम में शामिल होता है, तब उन लोगों को आश्चर्य होता है, जो संघ को एक ‘क्लोज्ड डोर ऑर्गेनाइजेशन’ समझते हैं। जो संघ को समझते हैं, उन्हें यह सब सहज ही लगता है। इसलिए नागपुर में आयोजित संघ शिक्षावर्ग ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-2’ के समापन समारोह में जब मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के जनजाति वर्ग के कद्दावर नेता अरविंद नेताम को आमंत्रित किया गया, तब संघ को जाननेवालों को यह सहज ही लगा लेकिन संघ के प्रति संकीर्ण सोच रखनेवाले इस पर न केवल हैरानी व्यक्त कर रहे हैं अपितु वितंडावाद भी खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, उनके वितंडावाद की हवा स्वयं जनजातीय नेता अरविंद नेताम ने यह कहकर निकाल दी कि “वनवासी समाज की समस्याेओं और चुनौतियों को संघ कार्यक्रम के माध्याम से रखने का सुअवसर मुझे मिला है”। उन्होंने संघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह भी की है कि “इस संगठन में चिंतन-मंथन की गहरी परंपरा है। भविष्य में जनजातीय समाज के सामने जो चुनौतियां आनेवाली हैं, उसमें आदिवासी समाज को जो संभालनेवाले और मदद करनेवाले लोग/संगठन हैं, उनमें हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मानते हैं”। सुप्रसिद्ध जनजातीय नेता अरविंद नेताम श्रीमती इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव सरकार में मंत्री रहे हैं। उल्लेखनीय है कि संघ के कार्यक्रमों में महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और जय प्रकाश नारायण से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी एवं प्रणब मुखर्जी तक शामिल हो चुके हैं। संघ ने कभी किसी से परहेज नहीं किया। संघ अपनी स्थापना के समय से ही सभी प्रकार के मत रखनेवाले विद्वानों से मिलता रहा है और उन्हें अपने कार्यक्रमों में आमंत्रित करता रहा है।

शुक्रवार, 30 मई 2025

‘देशहित’ से ही बचेगी पत्रकारिता की साख

हिन्दी पत्रकारिता दिवस : क्यों मनाते हैं हिंदी पत्रकारिता दिवस


‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ इस उद्देश्य के साथ 30 मई, 1826 को भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी जाती है। पत्रकारिता के अधिष्ठाता देवर्षि नारद के जयंती प्रसंग (वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया) पर हिंदी के पहले समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन होता है। इस सुअवसर पर हिंदी पत्रकारिता का सूत्रपात होने पर संपादक पंडित युगलकिशोर समाचार-पत्र के पहले ही पृष्ठ पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए उदंत मार्तंड का उद्देश्य स्पष्ट करते हैं। आज की तरह लाभ कमाना उस समय की पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं था। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व प्रकाशित ज्यादातर समाचार-पत्र आजादी के आंदोलन के माध्यम बने। अंग्रेज सरकार के विरुद्ध मुखर रहे। यही रुख उदंत मार्तंड ने अपनाया। अत्यंत कठिनाईयों के बाद भी पंडित युगलकिशोर उदंत मार्तंड का प्रकाशन करते रहे। किंतु, यह संघर्ष लंबा नहीं चला। हिंदी पत्रकारिता के इस बीज की आयु 79 अंक और लगभग डेढ़ वर्ष रही। इस बीज की जीवटता से प्रेरणा लेकर बाद में हिंदी के अन्य समाचार-पत्र प्रारंभ हुए। आज भारत में हिंदी के समाचार-पत्र सबसे अधिक पढ़े जा रहे हैं। प्रसार संख्या की दृष्टि से शीर्ष पर हिंदी के समाचार-पत्र ही हैं। किंतु, आज हिंदी पत्रकारिता में वह बात नहीं रह गई, जो उदंत मार्तंड में थी। संघर्ष और साहस की कमी कहीं न कहीं दिखाई देती है। दरअसल, उदंत मार्तंड के घोषित उद्देश्य ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ का अभाव आज की हिंदी पत्रकारिता में दिखाई दे रहा है। हालाँकि, यह भाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन बाजार के बोझ तले दब गया है। व्यक्तिगत तौर पर मैं मानता हूँ कि जब तक अंश मात्र भी ‘देशहित’ पत्रकारिता की प्राथमिकता में है, तब तक ही पत्रकारिता जीवित है। आवश्यकता है कि प्राथमिकता में यह भाव पुष्ट हो, उसकी मात्रा बढ़े। समय आ गया है कि एक बार हम अपनी पत्रकारीय यात्रा का सिंहावलोकन करें। अपनी पत्रकारिता की प्राथमिकताओं को जरा टटोलें। समय के थपेडों के साथ आई विषंगतियों को दूर करें। समाचार-पत्रों या कहें पूरी पत्रकारिता को अपना अस्तित्व बचाना है, तब उदंत मार्तंड के उद्देश्य को आज फिर से अपनाना होगा। अन्यथा सूचना के डिजिटल माध्यम बढ़ने से समूची पत्रकारिता पर अप्रासंगिक होने का खतरा मंडरा ही रहा है।