बुधवार, 17 सितंबर 2025

लेखक एवं मीडिया शिक्षक लोकेन्द्र सिंह को मध्यप्रदेश सरकार ने 'राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान-2025' से किया सम्मानित

भोपाल स्थित रवींद्र भवन में आयोजित अलंकरण समारोह में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने किया सम्मानित

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक, लेखक एवं ब्लॉगर लोकेन्द्र सिंह को 'राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान-2025' से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग की ओर से भोपाल के रवींद्र भवन में आयोजित अलंकरण समारोह में उन्हें यह सम्मान मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्कृति मंत्री धर्मेंद्र सिंह लोधी और लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह ने प्रदान किया। सरकार यह सम्‍मान प्रतिवर्ष हिन्दी सॉफ्टवेयर सर्च इंजिन, वेब डिजाइनिंग, डिजीटल भाषा प्रयोगशाला, प्रोग्रामिंग, सोशल मीडिया, डिजीटल ऑडियो विजुअल एडीटिंग आदि में उत्‍कृष्‍ट योगदान के लिए देती है। उल्लेखनीय है कि ग्वालियर में जन्मे लोकेन्द्र सिंह देश के जाने-माने ब्लॉगर हैं। सोशल मीडिया और डिजीटल ऑडियो-वीडियो प्रोडक्शन में उनकी सक्रियता है। उनकी डॉक्युमेंट्री फिल्में राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत हैं। नागरिकों को सोशल मीडिया का प्रशिक्षण देने में भी उनकी सक्रियता रहती है। इससे पूर्व मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भी ‘फेसबुक/ब्लॉग/नेट’ हेतु ‘अखिल भारतीय नारद मुनि’ पुरस्कार से अलंकृत कर चुकी है। वर्तमान में आप माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं।

दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार

युवाओं को साहित्य से जोड़े रखने के लिए आपने सोशल मीडिया के माध्यम से ऑडियो-विजुअल सामग्री का उपयोग करके अनूठे प्रयोग किए हैं। लेखक लोकेन्द्र सिंह का कहना है कि नयी पीढ़ी ऑडियो-वीडियो कंटेंट बहुत देख-सुन रही है। इसलिए लेखकों को प्रयास करना चाहिए कि हिन्दी साहित्य की अच्छी सामग्री को लोगों तक पहुंचाने के लिए ऑडियो-वीडियो प्रारूप को अपनाएं। सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करके नयी पीढ़ी का प्रबोधन किया जा सकता है। लेखक लोकेन्द्र सिंह का कहना है कि जब उन्होंने इस प्रकार के प्रयास किए तो प्रारंभ में ही उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुए। उनकी डाक्युमेंट्री फिल्म ‘बाचा : द राइजिंग विलेज’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। गाय पर बनायी फिल्म ‘गो-वर’ को खूब सराहा गया। इसी तरह छोटे कद को लेकर बनायी फिल्म ‘कद : हाइट डजन्ट मैटर’ ने भी फिल्म क्रिटिक की सराहना बटोरी है। 


लेखक-ब्लॉगर लोकेन्द्र सिंह को सम्मानित करते मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री धर्मेन्द्र सिंह लोधी एवं लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह

मध्यप्रदेश से हिन्दी ब्लॉगिंग में उनका नाम राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। उन्होंने ऑनलाइन माध्यमों में वर्ष 2006-07 से लेखन प्रारंभ कर दिया था। ब्लॉग पर समसामयिक विषयों पर आलेखों के अतिरिक्त कहानी, कविता, ललित निबंध, रेखाचित्र, पुस्तक समीक्षाएं और यात्रा वृत्तांत प्रकाशित हैं। विभिन्न संस्थाओं की ओर से जारी की जाने वाली सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग डायरेक्टरी में आपका ब्लॉग शामिल रहता है। ब्लॉगिंग पर चर्चा के लिए गूगल भी आपको आमंत्रित कर चुका है। आपकी पहचान ट्रैवल ब्लॉगर के रूप में भी है। नयी पीढ़ी ऑडियो-वीडियो सामग्री बहुत देख-सुन रही है।

सम्मान समारोह में मंच पर उपस्थित हैं- मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्‍कृति एवं पर्यटन राज्‍यमंत्री (स्‍वतंत्र प्रभार) श्री धर्मेंद्र सिंह लोधी, लोक निर्माण मंत्री श्री राकेश सिंह, विधायक श्री भगवानदास सबनानी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलगुरु श्री विजय मनोहर तिवारी, संचालक संस्कृति श्री एमपी नामदेव, वीर भारत न्यास के न्यासी सचिव श्रीराम तिवारी सहित सम्मानित हुए साहित्यकार।

इन महानुभावों को मिले सम्मान- 

  • राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान : श्री प्रशांत पोळ-जबलपुर (2024) एवं  श्री लोकेन्द्र सिंह राजपूत- भोपाल (2025)
  • राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान : सुश्री रीता कौशल-ऑस्ट्रेलिया (2024) एवं डॉ. वंदना मुकेश- इंग्लैण्ड (2025)
  • राष्ट्रीय फादर कामिल बुल्के सम्मान : डॉ. इंदिरा गाजिएवा-रूस (2024) एवं श्रीमती पदमा जोसेफिन वीरसिंघे (2025)
  • राष्ट्रीय गुणाकर मुले सम्मान : डॉ. राधेश्याम नापित-शहडोल (2024) एवं डॉ. सदानंद दामोदर सप्रे-भोपाल (2025)
  • राष्ट्रीय हिन्दी सेवा सम्मान : डॉ. के.सी. अजय कुमार-तिरुवनंतपुरम् (2024) एवं डॉ. विनोद बब्बर-दिल्ली (2025)


16 सितंबर, 2025 को भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'लोकसत्य' में प्रकाशित समाचार


सोमवार, 8 सितंबर 2025

अशोक स्तंभ को तोड़ना, भारत की आत्मा और संविधान पर हमला है

जम्मू-कश्मीर की हजरतबल दरगाह में राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तम्भ को तोड़ा जाना एक गहरी चिंता का विषय है। इस घटना पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार-मंथन होना चाहिए। ईद-ए-मिलाद जैसे मौके पर, एक नवनिर्मित शिलापट्ट से राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ को तोड़ना केवल एक राजनीतिक विरोध नहीं, बल्कि धार्मिक कट्टरता और राष्ट्र-विरोधी भावना का शर्मनाक प्रदर्शन है। यह कृत्य एक विशेष प्रकार की मानसिकता की ओर संकेत करता है, जिसका प्रदर्शन अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं से लेकर पाकिस्तान-बांग्लादेश के हिन्दू मंदिरों और भारत में जम्मू-कश्मीर की हजरतबल दरगाह में अशोक स्तंभ पर हमले में होता है। इसी कट्टरपंथी सोच ने भारत में अनेक मंदिरों को निशाना बनाया है। इस मानसिकता ने संप्रदाय के नाम पर दुनियाभर में मूर्तियों और प्रतीकों को ध्वस्त किया है। सोचिए कि जो सोच प्रतीक चिह्नों से इनती नफरत करती है, उसने मनुष्यों के साथ किस तरह का बर्बर व्यवहार किया गया होगा।

छत्रपति के दुर्गों का जयगान है ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’

- श्री जगदीश तोमर, वरिष्ठ साहित्यकार

युवा साहित्यकार श्री लोकेन्द्र सिंह कृत ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ मूलत: उन दुर्गों का वृतांत है जो सह्याद्रि पर्वतमाला के साथ  खड़े, हिन्दू पदपादशाही के निर्माता छत्रपति शिवाजी महाराज का आज पर्यन्त जयगान कर रहे हैं। श्री लोकेन्द्र ने अपनी इस कृति में छत्रपति शिवाजी महाराज के उन दुर्गों का उल्लेख किया है, जिनके दर्शन उन्होंने अपनी श्रीशिव छत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा के दौरान किया। लेखक छत्रपति के इन दुर्गों को ‘स्वराज्य के मजबूत प्रहरी’ निरूपित करते हैं। उनके शब्दों में- “ये दुर्ग स्वराज्य के प्रतीक हैं... और जब देश, विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों एवं दासता के अंधकार में घिरता जा रहा था, तब इन दुर्गों से ही स्वराज्य का संदेश देनेवाली मशाल जल उठी थी”।

इस संदर्भ में यात्राप्रिय लेखक श्री लोकेन्द्र पुणे के दक्षिण-पश्चिम में स्थित रायरेश्वर गढ़ का स्मरण करते हैं। उनके अनुसार  इस गढ़ में स्थित शिवालय में 15-16 वर्षीय किशोर शिवा ने अपने कुछ मित्रों के साथ (380 वर्ष पूर्व) स्वराज्य की शपथ ली थी। और इस प्रकार यह गढ़ स्वराज्य की संकल्प-भूमि सिद्ध हुआ है। 

इस संकल्प के साथ आरंभ हुई स्वराज्य की विजय यात्रा का गौरवशाली विवरण ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ के प्राय: हर पृष्ठ  पर अंकित है। उनमें विजित दुर्गों का भूगोल यथा- पुणे से उनकी दूरी, समुद्र तल से उनकी ऊंचाई आदि का वर्णन है और  इससे अधिक भारतीय इतिहास के गौरवशाली प्रसंगों का चित्रण भी इसमें बड़ी सजीवता से हुआ है।

इस कृति में सिंहगढ़ विजय के साथ-साथ तानाजी की उत्सर्ग-कथा, द्वितीय छत्रपति शंभूराजे की बलिदान-गाथा आदि-आदि  अनेक ऐतिहासिक घटनाएं वर्णित हैं। उनके अतिरिक्त अनेकानेक लोमहर्षक घटनाएं भी इस पुस्तक में हैं, जो देश के जनमानस को लंबे समय से आलोड़ित-उद्वेलित करती रही हैं और आज भी कर रही हैं।

इस पठनीय पुस्तक में छत्रपति के जीवन को संवारने, उनमें स्वदेश और स्वधर्म के रक्षण-संरक्षण के लिए वांछित संस्कार जगाने तथा उन्हें यथावश्यक दिशा-निर्देश देने में जीजा माता की महनीय भूमिका, छत्रपति का वैभवपूर्ण एवं जन-जन प्रिय  राज्याभिषेक, उनकी प्रबंधपटुता, अद्भुत सैन्य व्यवस्था आदि का विशेष उल्लेख है। छत्रपति की राजमुद्रा का संस्कृत में  होना भी जनगण के लिए गर्व और गौरव का विषय हो सकता है। कारण मात्र यही है कि इससे पूर्व ये मुद्राएं अरबी या फारसी में हुआ करती थीं।

बहुत संक्षेप में कहा जाए तो यह कहना आवश्यक होगा कि श्री लोकेन्द्र सिंह की उक्त कृति का पठन-पाठन-अनुशीलन समाज को अनेक दृष्टियों से समृद्ध करेगा तथा राष्ट्रसापेक्ष जीवन जीने के लिए अनुप्रेरित करेगा।

इस सोद्देश्य लेखन के लिए युवा लेखक का अनेकश: अभिनंदन। 

(समीक्षक, वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आप पूर्व में साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश की प्रेमचंद सृजनपीठ के निदेशक रहे हैं।)


पुस्तक : हिन्दवी स्वराज्य दर्शन

लेखक : लोकेन्द्र सिंह

मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)

प्रकाशक : सर्वत्र, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है। खरीदने के लिए चित्र पर क्लिक करें

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

शुद्ध-सात्विक प्रेम ही संघ कार्य का आधार

100 वर्ष की संघ यात्रा : नये क्षितिज

यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शताब्दी वर्ष है। संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। समाज के बीच संघ को लेकर सही-सही जानकारी पहुँचे, इसलिए आरएसएस के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने तीन दिन तक प्रबुद्ध लोगों के बीच संघ का विचार रखा। दिल्ली के विज्ञान भवन में 26 से 28 अगस्त तक यह व्याख्यानमाला आयोजित हुई। आखिरी दिन सरसंघचालक जी ने प्रबुद्धजनों के प्रश्नों का उत्तर भी दिया। उनके तीनों व्याख्यान का सार हम आपके लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यूट्यूब चैनल पर तीनों व्याख्यान सुने जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में भी इसी प्रकार का आयोजन हुआ था। शताब्दी वर्ष के अवसर पर इस वर्ष चार स्थानों पर इस प्रकार व्याख्यानमाला आयोजित होगी, ताकि अधिक से अधिक लोगों तक संघ का सही स्वरूप पहुँच सके।

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि संघ का निर्माण भारत को केंद्र में रखकर हुआ है और इसकी सार्थकता भारत के विश्वगुरु बनने में है। संघ कार्य की प्रेरणा संघ प्रार्थना के अंत में कहे जाने वाले “भारत माता की जय” से मिलती है। संघ भले हिंदू शब्द का उपयोग करता है, लेकिन उसका मर्म ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है। गांव, समाज और राष्ट्र को संघ अपना मानता है। संघ कार्य पूरी तरह स्वयंसेवकों द्वारा संचालित होता है। कार्यकर्ता स्वयं नए कार्यकर्ता तैयार करते हैं। उन्होंने कहा कि संघ का संपूर्ण कार्य शुद्ध-सात्विक प्रेम के आधार पर चलता है। उन्होंने कहा- “संघ का स्वयंसेवक कोई व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा नहीं रखता। यहाँ कोई पुरस्कार नहीं हैं, बल्कि नुकसान ही अधिक हैं। स्वयंसेवक समाज-कार्य में आनंद का अनुभव करते हुए कार्य करते हैं। जीवन की सार्थकता और मुक्ति की अनुभूति सेवा से होती है। सज्जनों से मैत्री करना, दुष्टों की उपेक्षा करना, कोई अच्छा करता है तो आनंद प्रकट करना, दुर्जनों पर भी करुणा करना - यही संघ का जीवन मूल्य है।

सोमवार, 1 सितंबर 2025

प्रतिभाशाली युवाओं से देश की सेवा करने का आग्रह

भारत के लिए प्रतिभा पलायन दशकों से एक गंभीर चुनौती रहा है। हमारे देश में सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवा, जिन्होंने सरकारी खर्च पर उच्च शिक्षा हासिल की, अकसर स्नातक होने के बाद अच्छे ‘पैकेज’ के आकर्षण में दूसरे देशों की ओर रुख कर लेते हैं। अपनी प्रतिभा से उस देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सोचिए, अगर ये प्रतिभाशाली लोग विदेश नहीं गए होते और भारत में रहकर ही अपनी सेवाएं देते, तब आज भारत कहाँ होता? केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भोपाल में आईआईएसईआर के दीक्षांत समारोह में युवा वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए ‘ब्रेन ड्रेन’ (प्रतिभा पलायन) के मुद्दे पर चिंता जताई है और देश की सेवा करने की एक भावनात्मक अपील भी की है। कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान की अपील- “देश छोड़कर मत जाना” केवल भावनात्मक आग्रह भर नहीं है अपितु इसके पीछे राष्ट्रीय विकास की ठोस चिंता है। जब योग्य युवा देश में रहकर अपनी ऊर्जा और ज्ञान का उपयोग करेंगे, तभी शोध, नवाचार और तकनीकी प्रगति भारत को आत्मनिर्भर बना पाएगी।

रविवार, 31 अगस्त 2025

विज्ञापन क्षेत्र का ‘अ से ज्ञ’ सिखाती है- विज्ञापन का जादू

पुस्तक चर्चा : मीडिया शिक्षक डॉ. आशीष द्विवेदी की पुस्तक-विज्ञापन का जादू


मीडिया शिक्षक डॉ. आशीष द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘विज्ञापन का जादू’ में लिखते हैं- “विज्ञापन की दुनिया बड़ी अनूठी और अजीब है। यदि हम इसको समझना चाहते हैं तो शुरुआती दौर से ही उसके अंदर झांकना होगा। जब तक हमारी विज्ञापन को लेकर सारी अवधारणाएं स्पष्ट नहीं हो जातीं, हम विषय की खोह में नहीं जा सकते”। यह सही बात है कि विज्ञापन की अवधारणा को समझना है, तब उसकी दुनिया के हर हिस्से से परिचित होना जरूरी है। डॉ. आशीष द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘विज्ञापन का जादू’ में यही काम किया है। वे हमें विज्ञापन की दुनिया के अंदर ले जाते हैं और वहाँ की उन गलियों की सैर कराते हैं, जहाँ विज्ञापन कब, कहाँ, क्यों, कैसे और किसलिए की इबारत दर्ज है। विज्ञापन के संसार का संपूर्ण अक्षर ज्ञान ‘अ से ज्ञ’ इस पुस्तक में है। यह हमें विज्ञापन के इतिहास, उसके वर्तमान एवं भविष्य से भी परिचित कराती है। इसके साथ ही विज्ञापन के प्रकार एवं स्वरूप की जानकारी भी देती है। विज्ञापन में रुचि रखनेवाले और पत्रकारिता की पढ़ाई करनेवाले विद्यार्थियों के लिए यह अत्यंत उपयोगी पुस्तक है। भाषा में सरलता और सहजता है। एक रोचक विषय को रोचक ढंग से ही प्रस्तुत किया गया है। विज्ञापन के प्रभाव, उपयोग एवं महत्व को समझाने के लिए लोकप्रिय विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया है।

बुधवार, 27 अगस्त 2025

झंडे की आड़ में रचे गए झूठ के षड्यंत्र की परते हटाई

 पुस्तक समीक्षा: ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’


- रोहन गिरी 

“एक ध्वज का मान रखना, दूसरे ध्वज का निरादर कतई नहीं है”। यही वाक्य, लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ का केंद्रीय भाव है, जो उस ऐतिहासिक, वैचारिक और सांस्कृतिक द्वंद्व का प्रकटीकरण करता है, जिसे दशकों से एक सोची-समझी साजिश के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारत के राष्ट्रध्वज ‘तिरंगे’ के संबंध में गढ़ा गया। यह पुस्तक केवल तथ्यों का संकलन नहीं है, यह एक वैचारिक और ऐतिहासिक न्याय है उन झूठों और मिथकों के विरुद्ध जिन्हें स्थापित करने का काम वामपंथी बौद्धिक वर्ग ने स्वतंत्रता के बाद से किया है।

मिथक बनाम वास्तविकता: एक नरेटिव का विखंडन

आरएसएस और तिरंगे को लेकर सबसे बड़ा मिथक यही फैलाया गया कि संघ तिरंगे को सम्मान नहीं देता क्योंकि वह केवल भगवा ध्वज को ही पूजनीय मानता है। लेकिन लेखक ने इस भ्रांति को तथ्यों के दम पर चुनौती दी है और यह स्पष्ट किया है कि भगवा ध्वज भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि है, वहीं तिरंगा संवैधानिक राष्ट्रध्वज है और दोनों का स्थान अपनी-अपनी जगह सम्माननीय है।

पुस्तक इस महत्वपूर्ण बिंदु को उभारती है कि “प्रेम एक ध्वज से हो सकता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे से बैर है।” इस बात को सुदृढ़ करने के लिए लेखक उन संगठनों और दलों की पोल खोलते हैं जो स्वयं तिरंगे को अपने संगठनिक ध्वज से पृथक रखते आए हैं, लेकिन संघ पर तिरंगे का अनादर करने का झूठा आरोप लगाते हैं। विशेषकर कम्युनिस्ट पार्टियों का उल्लेख है जो दशकों तक अपने कार्यालयों पर तिरंगा नहीं फहराती है। यह उजागर करता है कि असल समस्या संघ नहीं, बल्कि उन संस्थाओं की है जिनका भारतीय राष्ट्रवाद से कोई भावनात्मक संबंध नहीं रहा।

ध्वज का इतिहास: खोया हुआ विमर्श

पुस्तक ध्वज-निर्माण के इतिहास में गहराई से उतरती है। लेखक बताते हैं कि पिंगली वेंकैया द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक ध्वज लाल और हरे रंगों का था, जिसे तत्कालीन राजनीतिक दबावों ने सांप्रदायिक रूप दे दिया। ध्वज समिति द्वारा व्यापक सुझाव लेकर सर्वसम्मति से केसरिया ध्वज की अनुशंसा की गई, जिसमें नीले रंग का चरखा था। यह वह क्षण था जब भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों को एक सार्वभौमिक प्रतीक में ढालने का प्रयास हुआ था।

विडंबना यह रही कि यह ऐतिहासिक अवसर भी राजनीतिक समीकरणों की भेंट चढ़ गया। बंबई अधिवेशन में कांग्रेस ने राष्ट्रध्वज समिति के निर्णय को नकारते हुए तिरंगे को ही ध्वज रूप में स्वीकार किया। यह निर्णय ऐतिहासिक या भावनात्मक नहीं, बल्कि तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम था जिसका असर यह हुआ कि भगवा रंग, जो भारत के ऋषि-परंपरा का प्रतीक था, एक संगठन विशेष से जोड़कर विवादित कर दिया गया।

संघ और तिरंगा: सेवा, समर्पण और साहस

लेखक इस भ्रम को भी तोड़ते हैं कि संघ ने तिरंगे को कभी महत्व नहीं दिया। वे ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं – जैसे 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान तेजपुर (असम) में जब सरकारी तंत्र भी मैदान छोड़ चुका था, तब संघ के 16 स्वयंसेवकों ने तिरंगे को आयुक्त मुख्यालय पर फहराए रखा। यह केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि गहरी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण था। ऐसे ही गोवा, दमन और दादरा-नगर हवेली की मुक्ति में संघ की भूमिका, जहाँ तिरंगे के सामने पुर्तगाली झंडा चुनौती था। यह दर्शाता है कि संघ के लिए तिरंगा केवल एक ध्वज नहीं, बल्कि भारतीय स्वाधीनता और संप्रभुता का प्रतीक रहा है।

संस्थागत दृष्टिकोण और विचारधारा

गुरुजी गोलवलकर का 1949 का पत्र पुस्तक में एक निर्णायक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसमें वे स्पष्ट करते हैं कि भगवा ध्वज का आरएसएस के संस्थागत प्रतीक के रूप में प्रयोग संविधान द्वारा मान्य तिरंगे से अलग है। कांग्रेस का भी अलग झंडा रहा है, फिर संघ का प्रतीक-ध्वज अस्वीकार्य क्यों? यह सवाल पाठक को मजबूर करता है कि राष्ट्रवाद के नाम पर संघ की आलोचना करने वाले स्वयं किस पाखंड के तहत कार्य कर रहे हैं?

वैचारिक धोखे और मीडिया प्रपंच

पुस्तक का सबसे सशक्त भाग वह है जिसमें लेखक यह उजागर करते हैं कि संघ को तिरंगे विरोधी बताने की साजिश के पीछे वामपंथी विचारधारा से पोषित व्यक्ति और संस्थान रहे हैं। उन्होंने ही यह नैरेटिव गढ़ा कि तिरंगा आधुनिक, संवैधानिक भारत का प्रतीक है और संघ केवल पुरातनवाद का प्रतीक है। लेकिन क्या यह तथ्य नहीं कि जिन वामपंथियों ने “ये आज़ादी झूठी है” जैसा नारा दिया, जिन्होंने दशकों तक राष्ट्रीय पर्वों से दूरी बनाई, वे ही आज तिरंगे के स्वयंभू ठेकेदार बने हुए हैं?

पुस्तक इस विडंबना को रेखांकित करती है और यह बताती है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ सच्चा संबंध केवल दिखावे से नहीं, सेवा, समर्पण और निष्ठा से बनता है, जो संघ ने हर मौके पर साबित किया है।

निष्कर्ष: एक वैचारिक सर्जरी

“राष्ट्रध्वज और आरएसएस” केवल एक इतिहास की पुनर्पाठ नहीं है, यह एक वैचारिक सर्जरी है। यह पुस्तक उस प्रपंच को उजागर करती है जिसमें तिरंगे के नाम पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपमानित किया गया। यह पाठक को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर झंडे का अपमान किसने किया? जिन्होंने उसे सहेजा और सेवा में जीवन समर्पित किया, या जिन्होंने दशकों तक उसे अपने दफ्तरों से गायब रखा? 

लेखक लोकेन्द्र सिंह की यह पुस्तक इतिहास के उस कोने को प्रकाश में लाती है जिसे जानबूझकर अंधकार में रखा गया। यह केवल संघ और तिरंगे की बात नहीं करती, यह भारतीय राष्ट्रवाद की उस लड़ाई का प्रतिनिधित्व करती है जो प्रतीकों, झंडों और विचारों के माध्यम से लड़ी जा रही है।

और अंततः यह पुस्तक पाठक के सामने एक सीधा प्रश्न रखती है, क्या राष्ट्रध्वज का मान केवल सरकारों का दायित्व है या समाज के प्रत्येक उस हिस्से का जिसने इसे अपने जीवन की आस्था बनाया है?

समीक्षा का सार बस यही है कि यदि आप तिरंगे से प्रेम करते हैं, तो उन हाथों को पहचानिए जिन्होंने इसे केवल फहराया नहीं, बल्कि हर तूफान में इसे संभाला भी है। यही संदेश है “राष्ट्रध्वज और आरएसएस” का जो मिथकों का ही नहीं, सच्चाई का ध्वजवाहक है।

(समीक्षक स्वतंत्र पत्रकार है।) 


पुस्तक : राष्ट्रध्वज और आरएसएस

लेखक : लोकेन्द्र सिंह

मूल्य : 70 रुपये

प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन, भोपाल