रविवार, 16 नवंबर 2025

“सेवा है यज्ञकुंड समिधा सम हम जले”

संघ शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा के तीसरे चरण में आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष से मिली सेवा कार्यों को गति

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि “सेवा कार्यों की प्रेरणा के पीछे हमारा स्वार्थ नहीं है। हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवा-कार्य नहीं करना है। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं। स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है यह सेवा।” संघ ने अपने विकास के तीसरे चरण के अंतर्गत 1989 में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी के जन्मशताब्दी वर्ष के प्रसंग से सेवा कार्यों को अधिक गति और व्यवस्थित रूप देने का निर्णय लिया। आद्य सरसंघचालक के जन्मशताब्दी वर्ष का केंद्रीय भाव या उद्देश्य सेवा कार्य ही था। तत्कालीन सरसंघचालक डॉ. बालासाहब देवरस का इस बात पर अधिक जोर था कि समाज को संभालने के लिए सेवा कार्यों की आवश्यकता है। उस समय तक संघ का सामर्थ्य इतना बढ़ गया था कि उसके कार्यकर्ता व्यवस्थिति ढंग से सेवाकार्यों का संचालन कर सकते थे। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस की प्रेरणा से 1990 में संघ में विधिवत सेवा विभाग प्रारंभ हुआ। समाज के साथ मिलकर सेवाकार्यों को विस्तार दिया जाए, इस उद्देश्य से सभी प्रांतों में ‘सेवा भारती’ का कार्य प्रारंभ किया गया। हालांकि, दिल्ली में सेवा भारती का गठन 1979 में ही हो गया था। इससे पूर्व 1977 में दिल्ली में सरसंघचालक देवरस जी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए सेवा कार्य करने का आह्वान किया था। उनकी प्रेरणा से स्वयंसेवकों ने 1977 में ही दिल्ली की जहांगीरपुरी में पहला संस्कार केंद्र (बालवाड़ी) का शुभारंभ किया, जिसका उद्घाटन स्वयं सरसंघचालक ने किया। हमें यह याद रखना चाहिए कि संघ के बीज में ही सेवा का भाव निहित था। स्वयंसेवकों के लिए सेवा अलग से करने का विषय नहीं है। संघ का मानना है कि सेवा करणीय कार्य है। यद्यपि डॉ. हेडगेवार की जन्मशताब्दी के अवसर पर सम्पूर्ण समाज को प्रेम और आत्मीयता के आधार पर संगठित करने की दिशा में सेवा कार्यों को गति देना महत्वपूर्ण कदम था।

स्वयंसेवकों ने संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की जन्म शताब्दी को राष्ट्रव्यापी जागरण अभियान में बदल दिया। संघ, डॉक्टर साहब के जन्म शताब्दी वर्ष के लक्ष्यों को प्राप्त कर सके इस हेतु से ‘डॉ. हेडगेवार जन्म शताब्दी समारोह समिति’ का गठन किया गया, जिसकी अध्यक्षता सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी रहे निहारेन्दु दत्त मुजुमदार ने की और तत्कालीन सरकार्यवाह प्रो. राजेन्द्र सिंह उपाख्य ‘रज्जूभैया’ ने महासचिव का दायित्व निभाया। इस एक वर्ष में देश के 2 लाख 16 हजार 284 गाँवों में कुल 76 हजार 427 सभाएं आयोजित की गईं, जिनमें लगभग 67 लाख लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया। इस दौरान संघ ने राष्ट्र की सामूहिक चेतना को जगाने के लिए व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया। इसमें ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’, ‘संगठित हिन्दू समर्थ भारत’ और ‘नर सेवा नारायण सेवा’ जैसे उद्घोष वाले स्टीकर और पत्रक वितरित किए गए। साथ ही, डॉक्टर साहब के प्रेरणादायक जीवन पर आधारित पुस्तक ‘संघ वृक्ष के बीज’ को भी लोगों तक पहुँचाया गया। इस आयोजन की व्यापकता और सफलता इतनी प्रभावी थी कि इसकी तुलना उसी समय मनाए जा रहे अन्य आयोजनों से की जाने लगी। ‘अमृत बाजार पत्रिका’ में कम्युनिस्ट नेता उदयन ने यह स्वीकार किया कि जहाँ संघ ने एक ‘साधारण व्यक्ति’ (डॉ. हेडगेवार) की जन्मशती को जन-जन के बीच महत्वपूर्ण बना दिया, वहीं उसी समय मनाई जा रही पंडित जवाहरलाल नेहरू की जन्मशती केवल सरकारी व्यवस्थाओं तक सिमट कर रह गई। आगे चलकर, वर्ष 2000 में जब संघ ने अपने 75 वर्ष पूरे किए, तो स्वयंसेवकों ने इस गति को बनाए रखा और अपनी पहुँच को और बढ़ाते हुए 4 लाख 25 हजार गाँवों तक व्यापक संपर्क स्थापित किया। यह आँकड़ा स्वयं में गवाह है कि डॉ. हेडगेवार के विचार बीज किस प्रकार एक विशाल और अटूट ‘संघ वृक्ष’ का रूप ले चुके हैं।

उल्लेखनीय है कि डॉ. हेडगेवार के जन्मशती वर्ष पर सेवा कार्यों को संचालित करने के लिए सभी प्रांतों में सेवा भारती की अलग-अलग इकाइयां गठित हुईं। ‘सेवा, संस्कार, समर्पण और स्वावलंबन’ का संकल्प लेकर सेवा भारत की ये ईकाइयां शहर तथा ग्रामीण क्षेत्र की निर्धन बस्तियों में शिक्षा, चिकित्सा, संस्कार और स्वावलंबन के प्रकल्पों का संचालन करती हैं। सेवा कार्यों के संचालन के लिए स्वयंसेवकों ने डॉ. हेडगेवार जन्मशती के अवसर पर ‘सेवा निधि’ एकत्र कर कार्यकर्ताओं की एक विशाल शृंखला तैयार की। इनके बल पर आज स्वयंसेवक सवा लाख से अधिक सेवा प्रकल्प चला रहे हैं। प्रांतों की ईकाइयों में समन्वय रहे तथा वे एक-दूसरे के अनुभव का लाभ उठाएं, इसके लिए ‘राष्ट्रीय सेवा भारती’ का गठन हुआ। संघ की प्रेरणा से प्रारंभ हुईं संस्थाएं- वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती, विश्व हिन्दू परिषद, भारत विकास परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, दीनदयाल शोध संस्थान, भारतीय कुष्ठ निवारक संघ, विवेकानंद केंद्र, भाउराव देवरस सेवा न्यास सहित अन्य भी अपने-अपने कार्य क्षेत्र में सेवा कार्यों का संचालन करती हैं। 

संघ केवल शाखा तक केंद्रित न रह जाए, इस बात की चिंता आद्य सरसंघचालक डॉक्टर साहब को प्रारंभ से थी। अप्रैल, 1926 में रामनवमी के मेले के अवसर पर वे स्वयंसेवकों को रामटेक लेकर पहुँचे। रामटेक में रामनवमी यात्रा के समय भारी भीड़ रहती थी तथा अनेक यात्रियों को अव्यवस्था के कारण धक्का-मुक्की का कष्ट तो सहना ही पड़ता था उन्हें देव दर्शन भी ठीक तरह से नहीं मिल पाते थे। डॉक्टरजी की प्रेरणा से स्वयंसेवकों ने यात्रा की संपूर्ण व्यवस्था को संभाल लिया, जिससे उस सबने आनंददायक वातावरण में यात्रा पूरी की। भारत विभाजन के समय संघ के स्वयंसेवकों ने आगे रहकर जिस समर्पण के साथ विभाजन की विभीषिका के पीड़ितों की सेवा-सुश्रुषा की, उसका स्मरण उनकी आज की पीढ़ी भी नहीं भूली हैं। उसके बाद अनेक प्रसंग आए, जो साक्षी बने कि संघ संस्कार से संस्कारित स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से सेवा करते हैं। 1950 में बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों को सहारा। 1950 में ही असम में आए भयंकर भूकम्प के दौरान राहत कार्य। 1962 में चीनी आक्रमण के समय भारतीय सेना की मदद। 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के समय दिल्ली में यातायात व्यवस्था एवं घायल जवानों के लिए रक्त उपलब्ध कराना। अन्य युद्धों के समय भी संघ के स्वयंसेवकों ने अपने दायित्व का निर्वहन किया। 1972-73 में महाराष्ट्र में पड़े भयंकर अकाल के दौरान सब प्रकार की मदद। 1966 बिहार में अकाल के दौरान लोगों की सहायता। 1973 में कर्णाटक में सूखे कारण उत्पन्न हुए संकट में राहत कार्य। 1977 में आंध्रप्रदेश में चक्रवात के दौरान राहत-सेवाकार्य। 1977 में ही तमिलनाडु तट पर चक्रवात और इसी वर्ष राजस्थान में बाढ़ के प्रकोप में लोगों की सहायता। 1978 में दिल्ली में यमुना की बाढ़, 1979 में गुजरात में मच्चू बाँध टूटने से आई विपदा, 1983 में असम में दंगे, 1984 में भोपाल में गैस त्रासदी, 1987-88 गुजरात का सूखा, 1988 में केरल में ट्रेन दुर्घटना, 1996 में चरखी-दादरी में विमान दुर्घटना, 2000 में गुजरात में भयंकर भूकंप से लेकर अभी हाल में कोरोना महामारी के प्रकोप में हमने स्वयंसेवकों के सेवाभाव की अनुभूति की है। 

संघ शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर 'स्वदेश ज्योति' में 16 नवंबर को प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह का साप्ताहिक कॉलम

रविवार, 9 नवंबर 2025

“गाड़ी मेरा घर है कह कर, जिसने की दिन रात तपस्या”

संघ की विकास यात्रा : दूसरे चरण में श्रीगुरुजी के नेतृत्व में संपूर्ण भारत में संघ कार्य का विस्तार हो गया, इसके लिए उन्होंने 33 वर्ष के कार्यकाल में 66 बार देश की परिक्रमा की

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विकास यात्रा का दूसरा चरण प्रारंभ होता है, जिसमें संघ कार्य का विस्तार संपूर्ण भारत में होता है। पहले चरण में संघ ने राष्ट्रीय कार्य की मजबूत नींव तैयार की, ताकि उस पर बनने वाला राष्ट्रीयता का दिव्य मंदिर किसी प्रकार के आघात को झेल सके। जड़ें गहरी हों तो वृक्ष का खूब विस्तार होता है। संघ विचारक श्रद्धेय रंगा हरि जी लिखते हैं कि “अगर पहले चरण में संघ एक ‘संस्था’ के तौर पर आकार ले रहा था तो दूसरे चरण में वह एक ‘अभियान’ के तौर पर उभर रहा था। अगर पहले चरण में उसने संस्था की सेवा, पोषण और उसे शक्तिसम्पन्न किया तो दूसरे चरण में उसने हमारे बहुरंगी समाज की जरूरत और माँग को पूरा करने के लिए कठोर श्रम किया”। संघ के संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के निधन के बाद सरसंघचालक का दायित्व माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य ‘श्रीगुरुजी’ को मिला। जब श्रीगुरुजी को सरसंघचालक का दायित्व मिला, उस समय उनकी उम्र केवल 34 वर्ष थी। श्रीगुरुजी ने अंतिम श्वांस तक कुल 33 वर्ष तक सरसंघचालक के रूप में संघ रूप राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया। जून, 1940 से श्रीगुरुजी के नेतृत्व में संघ की वैचारिक यात्रा के साथ-साथ संगठनात्मक विस्तार भी प्रारंभ हुआ। संघ कार्य को देश के कोने-कोने में पहुँचाने के लिए श्रीगुरुजी ने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं (प्रचारकों) की नयी पद्धति को विकसित किया। वर्ष 1941-42 में उन्होंने कार्यकर्ताओं से प्रचारक के रूप में अपना जीवन संघ को देने का आग्रह किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में प्रचारक आगे आए। ये प्रचारक देश के विभिन्न हिस्सों में गए और संघ कार्य को प्रारंभ किया। संपूर्ण देश में संघ के कार्य का विस्तार हो, इसके लिए स्वयं श्रीगुरुजी ने भी देशभर में प्रवास किया। कहते हैं कि उन्होंने अपने 33 वर्ष के कार्यकाल में 66 बार देश की परिक्रमा की। अपने स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर भी उन्होंने अपने प्रवास जारी रखे। उन्हें एक ही धुन थी कि संघ कार्य अपने विराट स्वरूप को प्राप्त हो। उनके बराबर देश का भ्रमण शायद ही किसी और नेता ने किया हो। उनके लिए गीत लिखा गया- “गाड़ी मेरा घर है कहकर, जिसने की दिन-रात तपस्या”।

शनिवार, 8 नवंबर 2025

रील्स और शॉर्ट्स से बनाएं दूरी, पुस्तकों से करें दोस्ती

रील खा रही आपका कीमती समय, 
पुस्तकों की ओर लौटने का है समय

Gemini AI द्वारा निर्मित छवि

रील्स और शॉर्ट वीडियो अब सामाजिक विमर्श का हिस्सा हो गए हैं। समाज का प्रबुद्ध वर्ग लघु वीडियो के बढ़ते उपभोग और उसके प्रभावों को लेकर चिंतित है। यह चिंता स्वभाविक भी है। जिनका बचपन और किशोरवय कहानी-कविताओं की किताबों के पन्ने पलटाते हुए बीता हो, वे जब देखते हैं कि नयी पीढ़ी की अंगुलियां किताब के पन्नों पर नहीं अपितु मोबाइल पर 10-15 सेकंड के वीडियो को स्क्रॉल करने में व्यस्त हैं, तब उनके मन में प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। लोगों का इस तरह किताबों से दूर होना अच्छी बात नहीं है। हमारे बुजुर्ग कहते थे कि जीवन में सबसे अच्छी दोस्त पुस्तकें होती हैं। उनका ऐसा कहने के पीछे बहुत से कारण थे। किताबें वास्तविक ज्ञान की स्रोत होने के साथ ही स्वस्थ मनोरंजन का साधन भी हैं। जब हम कहानियां या अन्य पाठ्य सामग्री पढ़ते हैं तब हमारा मस्तिष्क अधिक क्रियाशील होता है। पुस्तकें हमारी कल्पनाशीलता को बढ़ाती हैं। हमारी जिज्ञासा को जगाती हैं। एक पुस्तक या लेख पढ़ते समय हमारा मस्तिष्क पढ़ी गई सामग्री का विश्लेषण करता है और उसे मौजूदा ज्ञान से जोड़ता है। जबकि रील्स हमें सूचना को ‘उपभोग’ करने के लिए प्रेरित करती हैं, न कि ‘चिंतन’ करने के लिए। इससे हमारी अंतर्दृष्टि और गहन अनुभूति की क्षमता क्षीण होती जाती है। यह सच स्वीकार करना चाहिए कि 10-15 सेंकड के वीडियो हमें किसी भी विषय पर पर्याप्त जानकारी नहीं दे पाते। हमें सटीक और यथार्थ जानकारी चाहिए तब रील्स की आदत को छोड़कर पुन: किताबों से दोस्ती करनी होगी। हमें किताबों की गरिमा को वापस स्थापित करना होगा, क्योंकि किताबें हमें दुनिया को देखने के लिए आँखें नहीं, बल्कि उसे समझने के लिए विवेक और हृदय देती हैं। हमारे बुजुर्गों की कहावत आज भी प्रासंगिक है कि “पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी मित्र होती हैं”।

सोमवार, 3 नवंबर 2025

जब आरएसएस के संस्थापक और आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा- “मैं अपनी आँखों के सामने लघु भारत देख रहा हूँ”

संघ शताब्दी वर्ष : संघ के विकास का पहला चरण


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। यह बात संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को पहले दिन से पता थी। संघ सृष्टि और संघ दृष्टि सब डॉक्टर साहब की दूरदृष्टि में शामिल थी। संघ के विकास के लिए जिस प्रक्रिया की आवश्यकता थी, उसी के अनुरूप उन्होंने संघ का वातावरण तैयार किया। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”। हनुमानजी में असीम शक्तियां पहले से विद्यमान थी लेकिन उन्हें भान नहीं है। जामवंत जी ने हनुमान जी से कहा, “कवन सो काज कठिन जग माहीं” (ऐसा कौन-सा कार्य है जो इस दुनिया में कठिन है), जो आपसे नहीं हो सकता है। उन्होंने रामकाज के लिए हनुमान जी को उनकी शक्ति और बुद्धि का स्मरण कराया। इसी प्रकार हिन्दू समाज सब प्रकार से सामर्थ्यवान है, उसे बस बीच-बीच में जागृत करना पड़ता है। हिन्दू समाज को उसका सामर्थ्य याद दिलाने के लिए समय-समय पर अनेक महापुरुष आए और उन्होंने अपने दृष्टिकोण से कार्य किया। इसलिए डॉक्टर साहब ने कहा कि वह कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहे हैं। लेकिन यह याद रखना होगा कि संघ कार्य की पद्धति बाकी सबसे अलग है, जिसका विकास देश-काल परिस्थिति के अनुरूप हुआ है। जैसे-जैसे संघ का सामर्थ्य बढ़ा, संघ ने अपने कार्य का विस्तार किया है। यह भी कह सकते हैं कि समाज को जब जिस प्रकार की आवश्यकता रही, संघ ने उसके अनुसार अपना कार्य विस्तार किया है। जब हम आरएसएस की 100 वर्ष की यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं तो संघ के विकास के पाँच चरण प्रमुखता से दिखायी देते हैं- 

1. संगठन (1925 से 1950) 

2. कार्य विस्तार (1950 से 1988)

3. सेवाकार्यों को गति (1989 से 2006) 

4. समाज की सज्जनशक्ति के साथ कदमताल (2006 से 2025)

5. समाज ही बने संघ (शताब्दी वर्ष से आगे की योजना)

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

आरएसएस की पहली शाखा में 6 स्वयंसेवक और आज 83 हजार से अधिक दैनिक शाखाएं

संघ शताब्दी वर्ष : संघ के विकास की तस्वीर


नागपुर के मोहिते के बाड़े में लगी आरएसएस की पहली शाखा (Chat GPT और Google Gemini से निर्मित छवि)

आज संघ कार्य का विस्तार समूचे भारत में है। जन्मजात देशभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जब नागपुर में संघ की स्थापना की थी, तब उनके अलावा शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह बीज एक दिन वटवृक्ष बनेगा। नागपुर में मोहिते के बाड़े में 6 लोगों के साथ पहली शाखा प्रारंभ हुई, जिनमें 5 छोटे बच्चे थे। इस कारण उस समय में लोगों ने हेडगेवार जी का उपहास उड़ाया था कि बच्चों को लेकर क्रांति करने आए हैं। परंतु डॉक्टर साहब लोगों के इस उपहास से विचलित नहीं हुए। व्यक्ति निर्माण के अभिनव कार्य को स्थापित करने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। बच्चों की शाखा देखकर संघ कार्य का उपहास उड़ा रहे लोगों को ही नहीं अपितु संघ कार्य के प्रति सद्भावना रखनेवाले बंधुओं ने भी सोचा नहीं होगा कि मोहिते के बाड़े से निकलकर संघकार्य देश-दुनिया में फैल जाएगा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन बन जाएगा।

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने जन्मा ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’

संघ शताब्दी वर्ष शृंखला : संघ की स्थापना की कहानी

Google Gemini AI द्वारा निर्मित छवि

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना किस उद्देश्य को लेकर हुई थी? यह प्रश्न संघ की 100 वर्ष की यात्रा को देखने और समझने में हमारी सहायता करता है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित व्याख्यानमाला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा : नये क्षितिज’ में इस प्रश्न के उत्तर में कहा- “डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और अन्य महापुरुषों का मानना था कि समाज के दुर्गुणों को दूर किए बिना स्वतंत्रता के सब प्रयास अधूरे रहेंगे। बार-बार गुलामी का शिकार होना इस बात का संकेत है कि समाज में गहरे दोष हैं। हेडगेवार जी ने ठाना कि जब दूसरों के पास समय नहीं है, तो वे स्वयं इस दिशा में काम करेंगे। 1925 में संघ की स्थापना कर उन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन का उद्देश्य सामने रखा”। यानी संघ की स्थापना का उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखनेवाले समाज को सुसंगठित करना और उसके मन में राष्ट्रभक्ति की प्रखर भावना को प्रज्वल्लित करना है। यही कार्य संघ पिछले 100 वर्षों से कर रहा है, जिसमें उसे बहुत हद तक सफलता भी मिली है।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

स्वयंसेवकों के परिश्रम, त्याग, समर्पण और सेवा की कमाई है यह सिक्का

आरएसएस 100 : संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने जारी किया स्मृति डाक टिकट एवं सिक्का

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट और 100 रुपये का सिक्का जारी किया है। यह साधारण सिक्का नहीं है, जो प्रसंगवश जारी किया गया है। संघ के स्वयंसेवकों ने यह सिक्का अपने परिश्रम, त्याग, समर्पण और राष्ट्र की सेवा से कमाया है। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज का संरक्षण कर देश की स्वतंत्रता एवं सर्वांगीण उन्नति का व्रत लेकर चलने वाले स्वयंसेवकों ने संघ रूपी राष्ट्रीय आंदोलन को यशस्वी बनाने में अपना जीवन खपाया है, तब जाकर यह अवसर आया है। अपनी स्थापना के प्रारंभ से ही संघ ने अनेक कठिनाइयों एवं अवरोधों का सामना किया। सत्ता के हठ से भी स्वयंसेवक टकराए। लेकिन, किसी के प्रति बैर भाव रखे बिना स्वयंसेवक राष्ट्र की साधना में समर्पित रहे। अपने कार्य की सिद्धि से स्वयंसेवकों ने उनका हृदय भी जीता, जो कभी संघ को समाप्त कर देना चाहते थे। इसलिए यह सिक्का केवल शताब्दी वर्ष का स्मृति चिह्न नहीं है अपितु संघ की वास्तविक कमाई का प्रतिनिधित्व है। सर्व समाज का विश्वास, अपनत्व, प्रेम और सहयोग, यही संघ की वास्तविक कमाई है। अपने संघ की 100 वर्ष की यात्रा में स्वयंसेवक सबको अपना बनाते हुए संघ यहाँ तक आ पहुँचे हैं कि समाज बाँहें फैलाकर उनका स्वागत कर रहा है। संस्कृति मंत्रालय की ओर से डॉ. अम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र, दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘100 वर्षों की गौरवपूर्ण यात्रा का स्मरणोत्सव’ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यही बात दोहरायी कि “संघ के स्वयंसेवकों ने कभी कटुता नहीं दिखाई। चाहे प्रतिबंध लगे, या साजिश हुई हो। सभी का मंत्र रहा है कि जो अच्छा है, जो कम अच्छा, सब हमारा है”। उन्होंने कहा कि संघ के स्वयंसेवक लगातार देश सेवा में जुटे हैं। समाज को सशक्त कर रहे हैं, इसकी भी झलक इस डाक टिकट में है। मैं इसके लिए देश को बधाई देता हूं।