शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

छत्रपति शिवाजी महाराज के किलों और उनसे जुड़े ऐतिहासिक प्रसंगों का रोचक वर्णन ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’

- प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी

लेखक लोकेन्द्र सिंह बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कवि, कहानीकार, स्तम्भलेखक होने के साथ ही यात्रा लेखन में भी उनका दखल है। घुमक्कड़ी उनका स्वभाव है। वे जहाँ भी जाते हैं, उस स्थान के अपने अनुभवों के साथ ही उसके ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व से सबको परिचित कराने का प्रयत्न भी वे अपने यात्रा संस्मरणों से करते हैं। अभी हाल ही उनकी एक पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ मंजुल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, जो छत्रपति शिवाजी महाराज के किलों के भ्रमण पर आधारित है। हालांकि, यह एक यात्रा वृत्तांत है लेकिन मेरी दृष्टि में इसे केवल यात्रा वृत्तांत तक सीमित करना उचित नहीं होगा। यह पुस्तक शिवाजी महाराज के किलों की यात्रा से तो परिचित कराती ही है, उससे कहीं अधिक यह उनके द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ या ‘हिन्दू साम्राज्य’ के दर्शन से भी परिचित कराती है। स्वयं लेखक ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है- “इस यात्रा के कारण शिवाजी महाराज के दुर्गों का ही दर्शन नहीं किया अपितु अपने गौरवशाली इतिहास से जुड़े, जो हमारी पाठ्यपुस्तकों और राष्ट्रीय विमर्श में शामिल ही नहीं रहा। इस यात्रा ने ‘स्वराज्य’ की कल्पना को उस समय में मन में गहरे उतार दिया, जब हम भारत की स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। ‘स्वराज्य’ कैसा होना चाहिए, शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व के अध्ययन से इसको भली प्रकार समझा जा सकता है। हम कह सकत हैं कि श्री शिवछत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा ने हमें ‘स्व’ की अनुभूति करायी और ‘स्व’ की समझ भी बढ़ायी। यह यात्रा अविस्मरणीय है”। उल्लेखनीय है कि शिवाजी महाराज के जीवन में किलों का बहुत महत्व है। हिन्दवी स्वराज्य में लगभग 300 दुर्ग थे। इन दुर्गों को ‘स्वराज्य के प्रतीक’ भी कहा जाता है। स्वराज्य के मजबूत प्रहरी के तौर पर किलों के महत्व को समझकर छत्रपति शिवाजी महाराज नये दुर्गों का निर्माण करने में और पुराने दुर्गों को दुरुस्त करने में महाराज मुक्त हस्त से खर्च करते थे। यही कारण है कि महाराष्ट्र में मुहिम निकालने की परंपरा है, जिसमें यात्रियों के बड़े-बड़े जत्थे शिवाजी महाराज के किलों का दर्शन करने के लिए जाते हैं। शुक्राचार्य ने शुक्रनीति में दुर्गों का महत्व बताते हुए लिखा है- 

“एक: शतं योधयति दुर्गस्थ: अस्त्रधरो यदि।

शतं दशसहस्त्राणि तस्माद् दुर्गं समाश्रयेत्।।”

अर्थात् दुर्ग की सहायता से एक सशस्त्र मनुष्य भी सौ शत्रुओं से लोहा ले सकता है और सौ वीर दस हजार शत्रुओं से लड़ सकते हैं। इसलिए राजा ने दुर्ग का आश्रय लेना चाहिए।

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हम सब जानते हैं कि जिस वक्त शिवाजी महाराज ने स्वराज्य का स्वप्न देखा था, उस समय भारत के अधिकांश भाग पर मुगलिया सल्तनत की छाया थी। गाय, गंगा और गीता, कुछ भी सुरक्षित नहीं था। चारों ओर घना अंधकार छाया हुआ था। उस दौर में पराक्रमी राजाओं ने भी स्वतंत्र हिन्दू राज्य की कल्पना करना छोड़ दिया था। तब एक वीर किशोर ने अपने आठ-नौ साथियों के साथ महादेव को साक्षी मानकर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की प्रतिज्ञा ली। अपनी इस प्रतिज्ञा को पूरा करने में हिन्दवी स्वराज्य के मावलों का जिस प्रकार का संघर्ष, समर्पण और बलिदान रहा, उसे आज की पीढ़ी को बताना बहुत आवश्यक है। लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक इस उद्देश्य में भी बहुत हद तक सफल होती है। जिस स्थान पर हिन्दवी स्वराज्य की प्रतिज्ञा ली गई, उस स्थान का रोचक वर्णन लेखन ने अपनी पुस्तक में किया है। 

छत्रपति शिवाजी महाराज ने भारत के ‘स्व’ के आधार पर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना की थी। हिन्दवी स्वराज्य में राज व्यवस्था से लेकर न्याय व्यवस्था तक का चिंतन ‘स्व’ के आधार पर किया गया। भाषा का प्रश्न हो या फिर प्रकृति संरक्षण का, सबका आधार ‘स्व’ रहा। इसलिए हिंदवी स्वराज्य के मूल्य एवं व्यवस्थाएं आज भी प्रासंगिक हैं। पुस्तक में विस्तार से इसका वर्णन आया है कि कैसे शिवाजी महाराज ने स्वराज्य की स्थापना करने के साथ ही शासन व्यवस्था से अरबी-फारसी के शब्दों को बाहर करके स्वभाषा को बढ़ावा दिया। जल एवं वन संरक्षण की क्या अद्भुत संरचनाएं खड़ी कीं। मुगलों की मुद्रा को बेदखल करके स्वराज्य की अपनी मुद्राएं चलाईं। तोपखाने का महत्व समझकर स्वराज्य की व्यवस्था के अनुकूल तोपों के निर्माण का कार्य आरंभ कराया। समुद्री सीमाओं का महत्व जानकर, नौसेना खड़ी की। पुर्तगालियों एवं फ्रांसिसियों पर निर्भर न रहकर नौसेना के लिए जहाजों एवं नौकाओं के निर्माण के कारखाने स्थापित किए। किसानों की व्यवहारिक आवश्यकताएं एवं मजबूरियों को समझकर कृषि नीति बनायी। इन सब विषयों पर भी लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ में बात की है। 

‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ की यह यात्रा ‘सिंहगढ़’ के रोमांचक वर्णन के साथ शुरू होती है। वैसे तो शिवाजी महाराज का अध्ययन करनेवाले स्वराज्य में सिंहगढ़ दुर्ग के महत्व को जानते हैं लेकिन ‘तानाजी : द अनसंग वॉरियर’ फिल्म के माध्यम से इसका लोकव्यापीकरण हो गया। आज देश में बड़ी संख्या में लोग जानते हैं कि सिंहगढ़ किले पर विजय के लिए स्वराज्य की सेना और मुगलिया सल्तनत के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ। स्वराज्य की ओर से तानाजी मालुसरे और मुगलों की ओर से उदयभान ने लड़ाई का नेतृत्व किया। रणनीतिक रूप से महत्व के इस युद्ध में नरवीर तानाजी का बलिदान हुआ लेकिन स्वराज्य के हिस्से विजय आई। फिल्म के कारण कुछ अस्पष्टताएं लोगों के मन में बनी, जिन्हें लेखक ने अपनी पुस्तक में दूर किया है। जैसे, तानाजी के बलिदान के बाद इस किले का नामकरण सिंहगढ़ नहीं किया गया, बल्कि पूर्व से ही इसका नाम सिंहगढ़ था। इसे कोंढाना दुर्ग के नाम से भी पहचाना जाता था। इसी तरह ‘यशवंती’ नाम की गोह के माध्यम से किले पर चढ़ने की बात, कोरी कल्पना ही है। फिल्म में जिस ‘नागिन’ नाम की तोप को प्रमुखता से दिखाया गया है, वैसी कोई तोप सिंहगढ़ पर नहीं लाई गई थी और उसके कारण यह युद्ध भी नहीं हुआ था। सिंहगढ़ दुर्ग का रणनीतिक महत्व बहुत है। इसलिए शिवाजी महाराज ने इसे पुन: अपने अधिकार क्षेत्र में लाने की योजना बनायी थी। 

'नरवीर' तानाजी मालुसरे की प्रतिमा, सिंहगढ़ दुर्ग

यात्रा का दूसरा पड़ाव- शनिवारवाड़ा और लालमहल है। इस अध्याय में हमारे सामने लाल महल में शिवाजी महाराज द्वारा औरंगजेब के मामा शाइस्ता खान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक का वर्णन है। यहाँ लेखक ने स्थापित किया है कि शिवाजी महाराज किसी भी मुहिम की सूक्ष्म योजना करते थे। किसी भी हमले से पूर्व उसके सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जाता था। दिन, समय और स्थान चुनने में बहुत सावधानी बरती जाती थी। इस अध्याय को पढ़ते समय पाठकों को अफजल खान के वध का स्मरण भी हो जाएगा। शिवाजी महाराज की युद्ध रणनीति और उनकी इन विजयों को सैनिकों को पढ़ाया जाना चाहिए। एक नेता को कैसा होना चाहिए, उसका बखूबी दर्शन इस अध्याय में होता है। जब शिवाजी महाराज अपनी माँ जिजाऊ साहेब और दादा कोंडदेव के साथ पुणे आए थे, तब यह नगर पूरी तरह उजड़ा हुआ था। आक्रांताओं ने यहाँ की भूमि को गधों से जुतवाकर जमीन को ही शापित कर दिया था। नदी किनारे की उपजाऊ भूमि होने के बाद भी खेती नहीं होती थी। शिवाजी महाराज और जिजाऊ माँ साहेब ने पुणेवासियों को अंधविश्वास से बाहर निकालने के लिए सोने के फाल से स्वयं खेत जोते। किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए कृषि हितैषी नीति को तैयार किया। परिणामस्वरूप, जो नगर कभी खस्ताहाल हो गया था, अब वह वैभव की ओर बढ़ने लगा था। यह प्रसंग आज भी प्रासंगिक है। यह अध्याय आज की शासन व्यवस्था को भी संकेत देता है कि कृषि क्षेत्र के लिए ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिनसे राज्य व्यवस्था पर भी भार न आए और किसानों को भी अत्यधिक लाभ पहुँचे। 

पुस्तक का अगला अध्याय शौर्य और दर्द की कहानी को एकसाथ पाठकों के सामने प्रस्तुत करता है। यह यात्रा हमें ‘छत्रपति शंभूराज’ (छत्रपति संभाजी राजे) के समाधि स्थल पर लेकर जाती है, जहाँ से यह शंभूराजे की धर्मनिष्ठा एवं पराक्रम की कहानी सुनाती है। लेखक लोकेंद्र सिंह लिखते हैं- “औरंगजेब ने शंभूराजे को कैद करके अकल्पनीय और अमानवीय यातनाएं दीं। औरंगजेब ने जिस प्रकार की क्रूरता दिखाई, उसकी अपेक्षा एक मनुष्य से नहीं की जा सकती। कोई राक्षस ही उतना नृशंस हो सकता था। इतिहासकारों ने दर्ज किया है कि शंभूराजे की जुबान काट दी गई, उनके शरीर की खाल उतार ली गई, आँखें फोड़ दी थी। औरंगजेब इतने पर ही नहीं रुका, उसने शंभूराजे के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करवाकर नदी में फिंकवा दिए थे”। यह अध्याय हमें बताता है कि हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हमारे पुरुखों ने अकल्पनीय दर्द सहा है और अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है। छत्रपति शंभूराजे, गुरु तेगबहादुर से लेकर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती तक अनेक कहानियां है, जो अत्याचार, धर्मांधता एवं कट्टरता के विरुद्ध न्याय, सत्य और शौर्य की गौरव गाथाएं हैं। 

अब यात्रा हमें मल्हारगढ़ लेकर पहुँचती है, जिसे हिन्दवी स्वराज्य की आर्टलरी कहा जाता है। मराठों का तोपखाना होने के साथ ही इस दुर्ग का उपयोग पुणे-सासवड मार्ग और दिवे घाट की निगरानी के लिए किया जाता था। माना जाता है कि मराठों द्वारा बनवाया गया यह आखिरी दुर्ग है। इसका निर्माणकाल 1757 से 1760 तक बताया जाता है। मल्हारगढ़ से उतरकर यात्रा आगे सासवड़ की ओर बढ़ती है। ऐतिहासिक पुरंदर दुर्ग पर पहुँच कर हिन्दवी स्वराज्य दर्शन की यात्रा हमें शिवाजी महाराज की कूटनीति से परिचित कराती है। हम सब जानते हैं कि पुरंदर की लड़ाई में शिवाजी महाराज को औरंगजेब को 23 किले सौंपने पड़े थे और आगरा जाकर बादशाह से भेंट के लिए तैयार होना पड़ा। यह माना जा सकता है कि पुरंदर की लड़ाई में मराठा सेना की हार हुई लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरंदर की संधि में छत्रपति शिवाजी महाराज की दूरदर्शिता, कूटनीति एवं राजपुरुष के व्यक्तित्व की छाप दिखाई पड़ती है। लेखक ने पुरंदर की लड़ाई का बखूबी वर्णन किया है। इस युद्ध में पराक्रमी योद्धा मुरारबाजी देशपांडे का बलिदान हुआ, जिन्होंने केवल 500 मावलों की टुकड़ी के साथ 5000 की मुगल सेना को छठी का दूध याद दिला दिया। 

स्वदेश, भोपाल में प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' की समीक्षा

हम कह सकते हैं कि ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ अपने पाठकों को छत्रपति शिवाजी महाराज के दुर्गों के दर्शन कराने के साथ ही स्वराज्य की अवधारणा एवं उसके लिए हुए संघर्ष–बलिदान से परिचित कराती है। पुस्तक में सिंहगढ़ दुर्ग पर नरवीर तानाजी मालूसरे के बलिदान की कहानी, पुरंदर किले में मिर्जाराजा जयसिंह के साथ हुए ऐतिहासिक युद्ध एवं संधि, पुणे के लाल महल में शाइस्ता खान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक का रोचक वर्णन लेखक लोकेन्द्र सिंह ने किया है। इसके साथ ही शिवाजी महाराज की राजधानी दुर्ग दुर्गेश्वर रायगढ़ का सौंदर्यपूर्ण वर्णन लेखक ने किया है। पुस्तक का यह सबसे अधिक विस्तारित अध्याय है। छत्रपति के राज्याभिषेक का तो आँखों देखा हाल सुनाने का लेखकीय कर्म का बखूबी निर्वहन किया गया है। पाठक जब राज्याभिषेक के वर्णन को पढ़ते हैं, तो स्वाभाविक ही वे स्वयं को छत्रपति के राज्याभिषेक समारोह में खड़ा हुआ पाते हैं। राज्याभिषेक का एक-एक दृश्य पाठक की आँखों में उतर आता है। उल्लेखनीय है कि ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत 1731, तदनुसार ग्रेगोरियन कैलेंडर की दिनांक 6 जून 1674, बुधवार को छत्रपति शिवाजी महाराज का, स्वराज्य की राजधानी रायगढ़ में राज्याभिषेक हुआ था। आमतौर पर महापुरुषों की जन्म जयंती को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा है लेकिन शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की यह घटना इतनी अधिक महत्वपूर्ण थी कि संपूर्ण देश में शिवाजी जयंती से अधिक उत्साह के साथ आज भी ‘हिन्द साम्राज्य दिवस’ को मनाया जाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी जब छह उत्सवों का चयन किया, तो उसमें हिन्दू साम्राज्य दिवस को शामिल किया है। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक ने भारत के स्वाभिमान को एक बार फिर से जगाया था। यह घटना हिन्दुओं को आत्मदैन्य की स्थित से बाहर निकालकर लायी थी। हिन्दू साम्राज्य दिवस को उत्सव के रूप में स्मरण करना इसलिए भी प्रासंगिक है ताकि हमें याद आता रहे कि भारत की शासन व्यवस्था किन मूल्यों पर संचालित होनी चाहिए।

सुनिए- 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' के विमोचन अवसर पर अतिथि विद्वानों के विचार

यह संयोग ही है कि यह वर्ष हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना 350वां वर्ष है। इस निमित्त देशभर में हिन्दवी स्वराज्य की संकल्पना एवं उसकी प्रासंगिकता को जानने-समझने के प्रयत्न हो रहे हैं। ऐसे में लोकेंद्र सिंह की बहुचर्चित पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ को पढ़ना सुखद है। लेखक श्रीशिव छत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा के बहाने इतिहास के गौरवशाली पृष्ठ हमारे सामने खोलकर रख दिए हैं। लेखनी का प्रवाह मैदानी नदी की तरह सहज-सरल है। जो पहले पृष्ठ से आखिरी पृष्ठ तक पाठक को अपने साथ सहज ही लेकर चलती है। ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ हमें छत्रपति शिवाजी महाराज के पुस्तक मंष स्थल दुर्ग, गिरिदुर्ग के साथ ही जलदुर्गों का भ्रमण भी कराती है। कोलाबा दुर्ग के साथ ही खांदेरी-उंदेरी दुर्ग की यात्रा में समुद्र में हुए रोमांचक युद्ध का वर्णन भी पुस्तक में किया गया है। हिन्दवी स्वराज्य की नौसेना ने बड़े-बड़े जहाजों से सुसज्जित अंग्रेजों की सेना को भी समुद्र में डुबकी लगवा दी थी। बहरहाल, पुस्तक में कुल 16 अध्याय एवं 3 परिशिष्ट हैं। लेखक लोकेन्द्र सिंह ने अपनी लेखन शैली से बखूबी ‘गागर में सागर’ को समेटने का कार्य किया है। 128 पृष्ठों की यह पुस्तक आपको हिन्दवी स्वराज्य की बड़ी कहानी को रोचक ढंग से सुनाने में सफल होती है। यदि आपकी यात्राओं में रुचि है और इतिहास एवं संस्कृति को जानने की ललक है, तब यह पुस्तक अवश्य पढ़िए। लेखक ने वर्तमान स्थित और ऐतिहासिक प्रसंगों को सुंदर संयोजन किया है। ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ अमेजन पर उपलब्ध है। अमेजन पर यह पुस्तक यात्रा लेखन श्रेणी के अंतर्गत काफी पसंद की जा रही है। पुस्तक का प्रकाशन ‘मंजुल प्रकाशन’, भोपाल ने किया है।

(समीक्षक, भारतीय जनसंचार संस्थान, नईदिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)


पुस्तक : हिन्दवी स्वराज्य दर्शन

लेखक : लोकेन्द्र सिंह

मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)

प्रकाशक : सर्वत्र, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

मासिक पत्रिका 'इंडियन व्यू' में प्रकाशित पुस्तक 'हिन्दवी स्वराज्य दर्शन' की समीक्षा

जनजातीय गौरव को बढ़ावा देने में अग्रणी मध्यप्रदेश

 

(जनजातीय गौरव दिवस के प्रसंग पर आलेख)

मध्यप्रदेश वह राज्य है, जिसकी पहल पर देश को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मिला है। यह बात तो हर कोई मानता है कि मध्यप्रदेश की सरकार ने जनजातीय नायकों का गौरव बढ़ाने के लिए उनसे जुड़े स्मारकों का आगे बढ़कर विकास किया है। राजा शंकरशाह और रघुनाथ शाह, रानी कमलापति, रानी दुर्गावती, टंट्या मामा और भीमा नायक से लेकर कई नायकों के योगदान से लोगों को परिचित कराने के उल्लेखनीय कार्य किए हैं। मंडला के मेडिकल कॉलेज का नाम बलिदानी हृदयशाह के नाम पर किया गया। वहीं, छिंडवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम ‘राजा शंकरशाह विश्वविद्यालय’ किया। हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर ‘रानी कमलापति रेलवे स्टेशन’ किया गया। जबलपुर में 100 करोड़ की लागत से ‘रानी दुर्गावती स्मारक’ को विकसित किया जा रहा है। जनजातीय गौरव को बढ़ाने के साथ ही जनजातीय समुदाय के उत्थान के लिए भी मध्यप्रदेश सरकार ने उल्लेखनीय कदम उठाए हैं। विगत 20 वर्षों में जनजातीय योजनाओं का बजट 1000 प्रतिशत बढ़ा है। मध्यप्रदेश पहला राज्य है, जहाँ जनजातीय समुदाय के आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण के लिए पेसा कानून को लागू किया गया है। जनजातीय समुदाय से आनेवाली पहली महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की गरिमामयी उपस्थिति में 15 नवंबर, 2022 को मध्यप्रदेश के 20 जिलों के 89 विकासखंडों को पेसा कानून की सौगात मिली।

जबलपुर में 100 करोड़ की लागत से बननेवाले ‘रानी दुर्गावती स्मारक’ का उद्घाटन करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

मध्यप्रदेश के बजट का अध्ययन करें तो ध्यान आएगा कि 2003-04 में जनजातीय कार्य विभाग का बजट 746.60 करोड़ रुपये था। जनजातीय समुदाय के उत्थान के लिए संचालित योजनाओं को बजट की कमी का सामना न करना पड़े, इसके लिए भाजपा सरकार ने सबसे पहला काम यही किया कि जनजातीय कार्य विभाग के बजट में लगातार बढ़ोतरी की। वर्ष 2003-04 के मुकाबले वर्ष 2023-24 में जनजातीय कार्य विभाग का बजट 1000 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 11,768 करोड़ रुपये का हो गया है। इस बजट का उपयोग जनजातीय वर्गों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, रोजगार एवं अन्य बुनियादी व्यवस्थाओं के साथ ही विकास कार्यों को गति देने में किया गया है। विद्यार्थियों को शिक्षा के समुचित अवसर एवं आर्थिक सहयोग के साथ ही सरकार की ओर से रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण भी दिलाया जा रहा है। कम्प्युटर कौशल सिखाने के साथ जनजातीय युवाओं को पुलिस और सेना में भर्ती का प्रशिक्षण देने का काम भी मध्यप्रदेश में किया जा रहा है। जनजातीय वर्गों के उत्थान एवं सशक्तिकरण के लिए आहार अनुदान योजना, सिकल सेल उन्मूलन मिशन, मुख्यमंत्री राशन आपके द्वार ग्राम, देवारण्य , अनुसूचित जनजाति ऋण विमुक्ति अधिनियम-2020, मिलेट मिशन, प्रधानमंत्री वन-धन योजना, आकांक्षा योजना, प्रतिभा योजना, आवास सहायता योजना, विदेश अध्ययन छात्रवृत्ति, प्री एवं पोस्ट मेट्रिक छात्रवृत्ति, अखिल भारतीय सेवाओं के लिए कोचिंग एवं प्रोत्साहन तथा जनजातीय लोक कलाकृतियों एवं उत्पादों की जीआई टैगिंग जैसे कदम मध्यप्रदेश में उठाए गए हैं। 

जनजातीय गौरव दिवस पर यह अवश्य याद रखना चाहिए कि अभारतीय ताकतों ने अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के अंतर्गत जनजातीय समुदाय को भ्रमित करने के लिए 9 अगस्त को ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस पीपल्स डे’ को ‘आदिवासी दिवस’ कहकर भारत में बढ़ावा दिया गया, जबकि इस दिन का भारत और जनजातीय गौरव के साथ कोई संबंध नहीं है। वास्तव में यह तो दु:खद त्रासदी की शुरुआत का दिन है। ब्रिटिस सेना ने अमेरिका के मूल निवासियों का नरसंहार किया। बाद में, उसके अपराध बोध से मुक्त होने के लिए ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस पीपल्स डे’ (International Day of the World's Indigenous Peoples) के रूप में 9 अगस्त को चुना गया। यहाँ यह भी ध्यान रखें कि वैश्विक षड्यंत्र के अंतर्गत ही ‘वर्ल्ड इंडिजिनियस पीपल्स डे’ का अनुवाद ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में किया गया है। वास्तविकता यह है कि संयुक्त राष्ट्र ने अब तक ‘इंडिजिनियस पीपल’ (indigenous people) की स्पष्ट परिभाषा तक नहीं की है। यही कारण है कि जब 1989 में विश्व मजदूर संगठन द्वारा ‘राइट्स ऑफ इंडिजिनस पीपल’ कन्वेन्शन क्रमांक-169 घोषित किया गया, तब उसे विश्व के 189 में से केवल 22 देशों ने ही स्वीकार किया। इसका मुख्य कारण ‘इंडिजिनस पीपल’ शब्द की परिभाषा को स्पष्ट नहीं करना ही था।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने भारत माता के महान बेटे बिरसा मुंडा की जयंती (15 नवंबर) को ‘जनजाति गौरव दिवस’ के रूप में मान्यता देकर प्रशंसनीय कार्य किया है। जनजाति वर्ग के इस बेटे ने भारत की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक स्वतंत्रता के लिए महान संघर्ष किया और बलिदान दिया। अपनी धरती की रक्षा के लिए उन्होंने विदेशी ताकतों के साथ जिस ढंग से संघर्ष किया, उसके कारण समूचा जनजाति समाज उन्हें अपना भगवान मानने लगा। उन्हें ‘धरती आबा’ कहा गया। भगवान बिरसा मुंडा न केवल भारतीय जनजाति समुदाय के प्रेरणास्रोत हैं बल्कि उनका व्यक्तित्व सबको गौरव की अनुभूति कराता है। इसलिए उनकी जयंती सही मायने में ‘गौरव दिवस’ है। जिस प्रकार भगवान बिरसा मुंडा ने विदेशी ताकतों के षड्यंत्रों से भारत को बचाया, उसी प्रकार उनकी स्मृति में मनाया जानेवाला जनजातीय गौरव दिवस भी हमें वर्तमान में चल रही साजिशों से बचाएगा और भारत के ‘स्व’ की स्थापना की प्रेरणा देगा। 

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

न्यायपालिका और दबाव समूहों की राजनीति

भारत के वर्तमान मुख्य न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने मीडिया को दिए साक्षात्कार में इको-सिस्टम की राजनीति को सबके सामने उजागर करने का काम किया है। उनका यह साक्षात्कार ध्यानपूर्वक सुना जाना चाहिए और उस पर विचार-मंथन भी होना चाहिए। देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो अकसर संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा को धूमिल करने का प्रयास करता है। जब भी कोई संवैधानिक संस्था उनकी इच्छा के अनुरूप निर्णय नहीं करती है, वे उस संस्था की स्वतंत्रता को लेकर सवाल उठाने लगते हैं। उनके निशाने पर न्यायपालिका भी रहती है। इसी ओर मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने संकेत किया है। उन्होंने कहा है कि “कुछ दबाव समूह हैं जो मीडिया के माध्यम से न्यायपालिका पर दबाव डालकर अनुकूल फैसला हासिल करने की कोशिश करते हैं”। वे यह भी कहते हैं कि “इन दबाव समूहों के बहुत से लोग कहते हैं कि अगर आप मेरे पक्ष में फैसला करते हैं तो आप स्वतंत्र हैं, अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आप स्वतंत्र नहीं हैं”।

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

हिन्दुओं के हितों की चिंता में सबसे आगे हैं भाजपा-मोदी

हिन्दू मंदिर पर खालिस्तानी आतंकियों के हमले के विरुद्ध एकजुट होकर प्रदर्शन करता कनाडा का हिन्दू समाज

भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति हिन्दू समाज में गहरा विश्वास है। इसका कारण है कि जब भी हिन्दू हित की बात आती है, हिन्दू समाज को भाजपा और मोदी अपने साथ खड़े दिखायी देते हैं। वहीं, अन्य पार्टियां हिन्दुओं के हितों की रक्षा के मामले में खुलकर बोलने से बचती हैं। उन्हें गाजा और फिलिस्तीन के मुसलमानों का दर्द तो अनुभव हो जाता है लेकिन बांग्लादेश से लेकर कनाडा तक उन्हें हिन्दुओं की दर्दनाक पुकार सुनायी ही नहीं देती है। अपने दुर्व्यवहार के लिए कुख्यात रोहिंग्याओं के समर्थन में भी उनके झंडे-पोस्टर दिखायी दे जाते हैं लेकिन निर्दोष हिन्दू समाज पर हो रहे हमले उन्हें दिखायी नहीं देते हैं। वहीं, भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी हिन्दुओं पर होनेवाले हमलों का आगे आकर विरोध करते हैं और हिन्दुओं की हिम्मत बनने का प्रयास करते हैं। 

हालिया मामला कनाडा का है, जहाँ कट्टरपंथी खालिस्तानियों ने हिन्दू मंदिर, महिलाओं एवं बच्चों पर हमला किया है। इस मामले में जहाँ विपक्षी दल स्पष्ट विरोध करने की जगह इधर-उधर की बातें कर रहे हैं, वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर की है। प्रधानमंत्री मोदी ने मंदिर पर हमले की कड़ी निंदा करते हुए कहा है कि हिंसा के ऐसे कृत्य भारत के संकल्प को कभी कमजोर नहीं करेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे ‘जानबूझकर किया गया हमला’ और ‘हमारे राजनयिकों को डराने का कायरतापूर्ण प्रयास’ करार दिया। उन्होंने यह उम्मीद भी जताई कि कनाडा सरकार न्याय सुनिश्चित करेगी और कानून का शासन बनाए रखेगी।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

तीर्थाटन का केंद्र बन रहा है मध्यप्रदेश

धर्म और अध्यात्म भारत की आत्मा है। यह धर्म ही है, जो भारत को उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक एकात्मता के सूत्र में बांधता है। भारत की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन करते हैं तो हमें साफ दिखायी देता है कि धार्मिक पर्यटन हमारी परंपरा में रचा-बसा है। तीर्थाटन के लिए हमारे पुरखों ने पैदल-पैदल ही इस देश को नापा है। भारत की सभ्यता एवं संस्कृति विश्व समुदाय को भी आकर्षित करती है। हम अनेक धार्मिक स्थलों पर भारतीयता के रंग में रंगे विदेशी सैलानियों को देखते ही हैं। दरअसल, भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा धार्मिक स्थलों का देश कहा जाता है। भारत का ह्रदय ‘मध्यप्रदेश’ अपनी नैसर्गिक सुन्दरता, आध्यात्मिक ऊर्जा और समृद्ध विरासत के चलते सदियों से यात्रियों को आकर्षित करता रहा है। आत्मा को सुख देनेवाली प्रकृति, गौरव की अनुभूति करानेवाली धरोहर, रोमांच बढ़ानेवाला वन्य जीवन और विश्वास जगानेवाला अध्यात्म, इन सबका मेल मध्यप्रदेश को भारत के अन्य राज्यों से अलग पहचान देता है। मध्यप्रदेश में धर्म-अध्यात्म से जुड़े ऐसे अनेक स्थान हैं, जहाँ देशभर से लोग खिंचे चले आते हैं।

देखें: मध्यप्रदेश के प्रमुख पर्यटन स्थल


रविवार, 27 अक्तूबर 2024

महापुरुषों को स्मरण करने का वर्ष

भारत को महान बनाने में महापुरुषों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हमारे समाज को जब जिस प्रकार के विचारों की आवश्यकता रही, तब उसका प्रबोधन करने के लिए वैसे महापुरुषों का आगमन होता रहा है। हमारे महापुरुषों ने अपना संपूर्ण जीवन समाज जीवन को दिशा देने के लिए समर्पित किया है। उनके विचार और उनका व्यवहार आज भी हमें सद् मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। इसलिए अपने महापुरुषों का सतत् स्मरण आवश्यक है। इस संबंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कथन उल्लेखनीय है। उन्होंने विजयादशमी के उत्सव (12 अक्टूबर, 2024) पर महापुरुषों के जीवन को स्मरण करते हुए कहा था कि "प्रामाणिकता और नि:स्वार्थ भावना से देश, धर्म, संस्कृति व समाज के हित में जीवन लगा देने वाली विभूतियों को हम इसलिए स्मरण करते हैं क्योंकि उन्होंने हम सबके हित में कार्य किया है तथा अपने स्वयं के जीवन से अनुकरणीय जीवन व्यवहार का उत्तम उदाहरण उपस्थित किया है। अलग-अलग कालखंडों, कार्यक्षेत्रों में कार्य करने वाले इन सबके जीवन व्यवहार की कुछ समान बातें थीं। निस्पृहता, निर्वैरता व निर्भयता उनका स्वभाव था। संघर्ष का कर्तव्य जब-जब उपस्थित हुआ, तब-तब पूर्ण शक्ति के साथ, आवश्यक कठोरता बरतते हुए उसे निभाया। वे कभी भी द्वेष या शत्रुता पालने वाले नहीं बने। उनकी उपस्थिति दुर्जनों के लिए धाक व सज्जनों को आश्वस्त करने वाली थी। परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की ऐसी दृढ़ता ही मांगल्य व सज्जनता की विजय के लिए शक्ति का आधार बनती है"।

यह कितना सुखद संयोग है कि वर्ष 2024 में एक साथ कई महापुरुषों के स्मरण का प्रसंग बन रहा है। आइए जानते हैं कि 2024 में किन विभूतियों की विशेष जन्म जयंतियां पड़ रही हैं....

शनिवार, 12 अक्तूबर 2024

शताब्दी वर्ष में संघ का प्रवेश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा और जीवंत सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठन है। वर्ष 1925 में जब विजयादशमी के पावन प्रसंग पर संघ की स्थापना की जा रही थी, तब देश अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहा था। एक ओर अंग्रेजी राजसत्ता भारत के वैभव एवं गौरव का सर्वनाश कर रही थी, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम तुष्टीकरण एवं आक्रामकता भी अपनी जड़ें गहरी करने लगी थी। हिन्दू समाज आत्मदैन्य की स्थिति की ओर जा रहा था। इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भारत की स्वतंत्रता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी एवं क्रांतिकारी राजनेता डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी।