सोमवार, 1 दिसंबर 2025

स्वयं को अनंतकाल तक बनाए नहीं रखना चाहता संघ

संघ शताब्दी वर्ष : संघमय बने समाज, संघ का लक्ष्य है कि संपूर्ण हिन्दू समाज संगठित हो और संघ उसमें विलीन हो जाए

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, उसका संपूर्ण चित्र संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के मन में था। संघ समय के साथ उनकी संकल्पना के अनुरूप ही विकसित हुआ है। इस संदर्भ में संघ के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी पुस्तक ‘कार्यकर्ता’ में लिखते हैं- “जैसे कोई कुशल चित्रकार पहले अपने मन के संकल्प चित्र की केवल आउटलाइन खींचता है। क्या कोई कह सकता है कि आउटलाइन के आगे उसके सामने कुछ भी नहीं है। ऐसा तो नहीं। उसके मन में तो पूरा चित्र स्पष्ट रूप से रेखांकित हुआ करता है, और कागज पर खींची हुई आउटलाइन में धीरे-धीरे उसी के अनुसार रंग भरते-भरते, उमलते हुए रंगों से कल्पना साकार होती है। अंग्रेजी में इसे ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि जो बात पहले से ही मौजूद रहती है, वही समय के अनुसार उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रकट होकर दिखाई देना प्रारंभ होती है। संघ कार्य का भी इसी प्रकार प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट हुआ है”। अपनी 100 वर्ष और चार चरणों की यात्रा में संघ के विस्तार के बाद अब आगे क्या, यह चर्चा सब ओर चल रही है। शताब्दी वर्ष के निमित्त संघ में भी यह चर्चा खूब है। इसका संकेत भी हमें संस्थापक सरसंघचालक डॉक्टर साहब की संकल्पना में मिलता है। आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार कहते थे कि “संघ कार्य की जुबली मनाने की कल्पना नहीं है। यानी कि शतकानुशतक संघ अपने ही स्वरूप में समाज को संगठित करने का कार्य करता रहेगा, यह कल्पना नहीं है”। डॉक्टर साहब चाहते थे कि संघ यथाशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करे और समाज में विलीन हो जाए। संघ का अगला ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ समाज के साथ एकरूप होना ही है। इसलिए संघ और समाज के लिए पाँचवा चरण बहुत महत्वपूर्ण रहनेवाला है। संघ अपने पाँचवे चरण में समाज के साथ एकरस होना चाहता है। यानी संघ जिन उद्देश्यों को लेकर चला है, वह समाज के उद्देश्य बन जाएं। यानी भारतीय समाज संघमय हो जाए। समाज और संघ में कोई अंतर न दिखे। 

संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेन्द्र कुमार लिखते हैं कि “संघ के स्वयंसेवक अपने परिवार में संघ जीवन शैली को अपनाते हुए समाजानुकूल परिवर्तन करने का निरन्तर प्रयास करते हैं। साथ ही व्यापक समाज परिवर्तन के लिए विभिन्न प्रकार के उपक्रम नियमित रूप से करते रहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शताब्दी वर्ष के पश्चात समाज परिवर्तन के अगले चरण में प्रवेश कर रहा है। यह समाज जागरण का एक बड़ा और व्यापक अभियान होगा। इस चरण में स्वयंसेवक समाज की सज्जन शक्ति के साथ मिलकर कार्य करने की दिशा में अग्रसर होंगे। इस हेतु समाज में जागरूकता निर्माण करने के लिए और व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन में व्यवहार में लाने के लिए पाँच विषयों का आग्रह है। इसे पंच परिवर्तन (पर्यावरण संरक्षण, स्व बोध, सामाजिक समरसता, कुटुम्ब प्रबोधन और नागरिक अनुशासन) कहा गया”। अपने शताब्दी वर्ष में संघ अपने कार्य का विस्तार और दृढ़ीकरण भी कर रहा है ताकि समाज की सज्जनशक्ति के साथ मिलकर प्रभावी ढंग से राष्ट्रीय कार्य को सम्पन्न किया जा सके। 

संघ की स्थापना के मूल में यह विचार है कि भारत का मूल समाज अपने स्वाभाविक संगठित एवं स्वावलंबी स्वरूप को पुन: प्राप्त हो। हिन्दू समाज अपने समक्ष आने वाली चुनौतियों के समाधान के लिए सदैव के लिए किसी बाह्य व्यवस्था पर आश्रित रहे, यह भारत के हित की बात नहीं है। बाहरी आक्रमण के विरुद्ध लंबे संघर्ष के कारण हमारे समाज में कुछ दोष आ गए थे, जिनको दूर करके एक सबल समाज बनाने के उद्देश्य के साथ संघ ने कार्य प्रारंभ किया था। जिस दिन ये दोष दूर हो जाएंगे, संघ स्वत: ही समाज में विलीन हो जाएगा। इस बात को सरल ढंग से दत्तोपंथ ठेंगड़ी समझाते हैं- “जब हमें कोई घाव (जख्म) होता है, तो उस पर एक पतली पपड़ी या झिल्ली बन जाती है। यह झिल्ली घाव को जल्दी भरने में मदद करती है और उसकी सुरक्षा भी करती है। लेकिन जब घाव पूरी तरह से ठीक हो जाता है, तो यह झिल्ली अपने आप हट जाती है। ठीक उसी तरह, जब समाज के टूटने (विघटन) का घाव पूरी तरह भर जाएगा और देश की अन्य राष्ट्रीय कमियां दूर हो जाएंगी, तब ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ नाम की यह झिल्ली (संरचना) भी अपने आप निकल जाएगी”। शताब्दी वर्ष से आगे अपने अगले पड़ाव में संघ इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। हालांकि, यह भी सच है कि अभी लंबे समय तक संघ को अपना कार्य करना होगा। यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हिन्दू समाज को जागृत रखने के लिए प्रत्येक समय में कोई न कोई व्यवस्था रही है। आज वह रचना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में विद्यमान है। 

संघ ने प्रारंभ से यही स्थापित करने का प्रयास किया है कि संघ समाज में अन्य संस्थाओं की भांति अलग संगठन नहीं है, अपितु संघ समाज का ही संगठन है। संघ विचारक दत्तोपंथ ठेंगड़ी लिखते हैं कि “बिल्कुल छोटी-छोटी बातों में भी, संघ यह कोई संप्रदाय नहीं है, पूरे समाज का यह काम है, यह धारणा आविष्कृत होती थी। एक छोटी-सी बैठक में विजयादशमी उत्सव के निमंत्रण पत्रिका का विषय चल रहा था। ‘हमारे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विजयादशमी महोत्सव’ इस वाक्य से निमंत्रण पत्र को प्रारंभ किया गया था। डॉक्टरजी ने पूछा, ‘हमारे’ यह शब्द ठीक है क्या? ‘हमारे’ कहते ही ‘तुम्हारे’ का भाव भी पढ़ने वालों के मन में पैदा होता है। इसलिए ‘अपने रा. स्व. संघ का,’ ये शब्द उचित रहेंगे”। इसी तरह जब स्वयंसेवकों ने एक सहकारी बैंक प्रारंभ किया, तब उनमें से किसी ने डॉक्टर साहब को बताया कि “यह अपने संघ का बैंक है”। तब भी डॉक्टर साहब ने तत्काल स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन किया- “नहीं, यह संघ का बैंक नहीं, शहर के जितने भी बैंक हैं, वे सब संघ के ही बैंक हैं। समाज के विविध क्षेत्रों में संघ के स्वयंसेवक जो भी कार्य प्रारंभ कर रहे हैं, वे अवश्य ही संघ की प्रेरणा से प्रारंभ हुए होंगे, परंतु वह सब समाज का है, समाज के लिए है। 

इस चर्चा का सार यही है कि शताब्दी वर्ष के बाद शुरु हुए पाँचवे चरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य पूरे हिन्दू समाज को स्वाभाविक और स्थायी शक्ति के रूप में मजबूत बनाकर खड़ा करना। संघ इतना व्यापक हो जाना चाहिए कि संघ और समाज एक हो जाएं। जब यह स्थिति आ जाएगी, तब संघ के लिए एक अलग ‘संगठन’ के रूप में रहने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। समाज की अपनी अंदरूनी शक्ति स्थायी रूप से स्थापित हो जाएगी और वह स्वाभाविक रूप से काम करने लगेगी। उस अवस्था में, समाज ही संघ बन जाएगा और संघ ही समाज।

संघ शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर 'स्वदेश ज्योति' में 30 नवंबर, रविवार को प्रकाशित लोकेन्द्र सिंह का साप्ताहिक स्तम्भ

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

भारत के विचार की विजय पताका

श्री अयोध्या धाम में श्रीराम मंदिर पर धर्म ध्वजा की प्रतिष्ठा का यह प्रसंग अविस्मणीय है। यह केवल एक मंदिर पर फहराने वाला ध्वज नहीं है अपितु भारत के विचार की विजय पताका है। सदियों की तपस्या, संघर्ष और आस्था एक होकर भव्य श्रीराम मंदिर के शिखर पर धर्मध्वमजा के रूप में साकार हुई है। वास्तव में, 25 नवंबर, 2025 भारत की सांस्कृतिक चेतना के लिए ‘सार्थकता का दिन’ बन गया। जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि “सार्थकता के इस दिन के लिए जितने लोगों ने प्राण न्योछावर किए, उनकी आत्मा तृप्त हुई होगी। आज मंदिर का ध्वजारोहण हो गया। मंदिर की शास्त्रीय प्रक्रिया पूर्ण हो गई। राम राज्य का ध्वज, जो कभी अयोध्या में फहराता था, जो पूरी दुनिया में अपने आलोक से समृद्धि प्रदान करता था, वह आज धीरे-धीरे ऊपर उठते हुए अपनी आंखों से देखा है। इस भगवा ध्वज पर रघुकुल का प्रतीक कोविदार वृक्ष है। यह वृक्ष रघुकुल की सत्ता का प्रतीक है”।

रविवार, 23 नवंबर 2025

सज्जनशक्ति को साथ ले, संघ के स्वयंसेवकों ने समाज परिवर्तन के प्रयासों को दी गति

संघ शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा के चौथा चरण द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्रीगुरुजी’ के जन्म शताब्दी वर्ष से शुरू हुआ 

अपने सुदीर्घ सामाजिक यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक-एक कदम आगे बढ़, अपना सामर्थ्य बढ़ाता रहा और उसके अनुरूप देशहित में अपनी भूमिका का विस्तार करता रहा है। संघ के स्वयंसेवक एक गीत गाते हैं- "दसों दिशाओं में जाएं, दल-बादल से छा जाएं, उमड़-घुमड़कर हर धरती को नंदनवन सा लहराएं..."। अपने तीन चरण की यात्रा के साथ संघ अब देशव्यापी संगठन हो चुका था। समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में भी भारतीयता का पोषण करने वाला वातावरण बनाने के लिए समविचारी संगठन प्रारंभ हो ही गए थे। अब आवश्यकता थी कि सब कार्यों में समाज की सज्जनशक्ति को जोड़कर उन कार्यों को और अधिक प्रभावी बनाया जाए। किसी भी रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्य की स्थायी सिद्धि के लिए आवश्यक है कि समाज के प्रमुख जन उस कार्य को अपना मानें और उसे यशस्वी बनाने में अपनी भूमिका निभाएं। समाज की सज्जनशक्ति तक पहुंचना और उन्हें संघधारा में लेकर आना, इसके लिए संघ ने अपने द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य 'श्रीगुरुजी' की जन्मशताब्दी वर्ष को सुअवसर के तौर पर देखा।

रविवार, 16 नवंबर 2025

“सेवा है यज्ञकुंड समिधा सम हम जले”

संघ शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा के तीसरे चरण में आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष से मिली सेवा कार्यों को गति

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि “सेवा कार्यों की प्रेरणा के पीछे हमारा स्वार्थ नहीं है। हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवा-कार्य नहीं करना है। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं। स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है यह सेवा।” संघ ने अपने विकास के तीसरे चरण के अंतर्गत 1989 में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी के जन्मशताब्दी वर्ष के प्रसंग से सेवा कार्यों को अधिक गति और व्यवस्थित रूप देने का निर्णय लिया। आद्य सरसंघचालक के जन्मशताब्दी वर्ष का केंद्रीय भाव या उद्देश्य सेवा कार्य ही था। तत्कालीन सरसंघचालक डॉ. बालासाहब देवरस का इस बात पर अधिक जोर था कि समाज को संभालने के लिए सेवा कार्यों की आवश्यकता है। उस समय तक संघ का सामर्थ्य इतना बढ़ गया था कि उसके कार्यकर्ता व्यवस्थिति ढंग से सेवाकार्यों का संचालन कर सकते थे। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस की प्रेरणा से 1990 में संघ में विधिवत सेवा विभाग प्रारंभ हुआ। समाज के साथ मिलकर सेवाकार्यों को विस्तार दिया जाए, इस उद्देश्य से सभी प्रांतों में ‘सेवा भारती’ का कार्य प्रारंभ किया गया। हालांकि, दिल्ली में सेवा भारती का गठन 1979 में ही हो गया था। इससे पूर्व 1977 में दिल्ली में सरसंघचालक देवरस जी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए सेवा कार्य करने का आह्वान किया था। उनकी प्रेरणा से स्वयंसेवकों ने 1977 में ही दिल्ली की जहांगीरपुरी में पहला संस्कार केंद्र (बालवाड़ी) का शुभारंभ किया, जिसका उद्घाटन स्वयं सरसंघचालक ने किया। हमें यह याद रखना चाहिए कि संघ के बीज में ही सेवा का भाव निहित था। स्वयंसेवकों के लिए सेवा अलग से करने का विषय नहीं है। संघ का मानना है कि सेवा करणीय कार्य है। यद्यपि डॉ. हेडगेवार की जन्मशताब्दी के अवसर पर सम्पूर्ण समाज को प्रेम और आत्मीयता के आधार पर संगठित करने की दिशा में सेवा कार्यों को गति देना महत्वपूर्ण कदम था।

रविवार, 9 नवंबर 2025

“गाड़ी मेरा घर है कह कर, जिसने की दिन रात तपस्या”

संघ की विकास यात्रा : दूसरे चरण में श्रीगुरुजी के नेतृत्व में संपूर्ण भारत में संघ कार्य का विस्तार हो गया, इसके लिए उन्होंने 33 वर्ष के कार्यकाल में 66 बार देश की परिक्रमा की

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विकास यात्रा का दूसरा चरण प्रारंभ होता है, जिसमें संघ कार्य का विस्तार संपूर्ण भारत में होता है। पहले चरण में संघ ने राष्ट्रीय कार्य की मजबूत नींव तैयार की, ताकि उस पर बनने वाला राष्ट्रीयता का दिव्य मंदिर किसी प्रकार के आघात को झेल सके। जड़ें गहरी हों तो वृक्ष का खूब विस्तार होता है। संघ विचारक श्रद्धेय रंगा हरि जी लिखते हैं कि “अगर पहले चरण में संघ एक ‘संस्था’ के तौर पर आकार ले रहा था तो दूसरे चरण में वह एक ‘अभियान’ के तौर पर उभर रहा था। अगर पहले चरण में उसने संस्था की सेवा, पोषण और उसे शक्तिसम्पन्न किया तो दूसरे चरण में उसने हमारे बहुरंगी समाज की जरूरत और माँग को पूरा करने के लिए कठोर श्रम किया”। संघ के संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के निधन के बाद सरसंघचालक का दायित्व माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य ‘श्रीगुरुजी’ को मिला। जब श्रीगुरुजी को सरसंघचालक का दायित्व मिला, उस समय उनकी उम्र केवल 34 वर्ष थी। श्रीगुरुजी ने अंतिम श्वांस तक कुल 33 वर्ष तक सरसंघचालक के रूप में संघ रूप राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया। जून, 1940 से श्रीगुरुजी के नेतृत्व में संघ की वैचारिक यात्रा के साथ-साथ संगठनात्मक विस्तार भी प्रारंभ हुआ। संघ कार्य को देश के कोने-कोने में पहुँचाने के लिए श्रीगुरुजी ने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं (प्रचारकों) की नयी पद्धति को विकसित किया। वर्ष 1941-42 में उन्होंने कार्यकर्ताओं से प्रचारक के रूप में अपना जीवन संघ को देने का आग्रह किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में प्रचारक आगे आए। ये प्रचारक देश के विभिन्न हिस्सों में गए और संघ कार्य को प्रारंभ किया। संपूर्ण देश में संघ के कार्य का विस्तार हो, इसके लिए स्वयं श्रीगुरुजी ने भी देशभर में प्रवास किया। कहते हैं कि उन्होंने अपने 33 वर्ष के कार्यकाल में 66 बार देश की परिक्रमा की। अपने स्वास्थ्य को दांव पर लगाकर भी उन्होंने अपने प्रवास जारी रखे। उन्हें एक ही धुन थी कि संघ कार्य अपने विराट स्वरूप को प्राप्त हो। उनके बराबर देश का भ्रमण शायद ही किसी और नेता ने किया हो। उनके लिए गीत लिखा गया- “गाड़ी मेरा घर है कहकर, जिसने की दिन-रात तपस्या”।

शनिवार, 8 नवंबर 2025

रील्स और शॉर्ट्स से बनाएं दूरी, पुस्तकों से करें दोस्ती

रील खा रही आपका कीमती समय, 
पुस्तकों की ओर लौटने का है समय

Gemini AI द्वारा निर्मित छवि

रील्स और शॉर्ट वीडियो अब सामाजिक विमर्श का हिस्सा हो गए हैं। समाज का प्रबुद्ध वर्ग लघु वीडियो के बढ़ते उपभोग और उसके प्रभावों को लेकर चिंतित है। यह चिंता स्वभाविक भी है। जिनका बचपन और किशोरवय कहानी-कविताओं की किताबों के पन्ने पलटाते हुए बीता हो, वे जब देखते हैं कि नयी पीढ़ी की अंगुलियां किताब के पन्नों पर नहीं अपितु मोबाइल पर 10-15 सेकंड के वीडियो को स्क्रॉल करने में व्यस्त हैं, तब उनके मन में प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। लोगों का इस तरह किताबों से दूर होना अच्छी बात नहीं है। हमारे बुजुर्ग कहते थे कि जीवन में सबसे अच्छी दोस्त पुस्तकें होती हैं। उनका ऐसा कहने के पीछे बहुत से कारण थे। किताबें वास्तविक ज्ञान की स्रोत होने के साथ ही स्वस्थ मनोरंजन का साधन भी हैं। जब हम कहानियां या अन्य पाठ्य सामग्री पढ़ते हैं तब हमारा मस्तिष्क अधिक क्रियाशील होता है। पुस्तकें हमारी कल्पनाशीलता को बढ़ाती हैं। हमारी जिज्ञासा को जगाती हैं। एक पुस्तक या लेख पढ़ते समय हमारा मस्तिष्क पढ़ी गई सामग्री का विश्लेषण करता है और उसे मौजूदा ज्ञान से जोड़ता है। जबकि रील्स हमें सूचना को ‘उपभोग’ करने के लिए प्रेरित करती हैं, न कि ‘चिंतन’ करने के लिए। इससे हमारी अंतर्दृष्टि और गहन अनुभूति की क्षमता क्षीण होती जाती है। यह सच स्वीकार करना चाहिए कि 10-15 सेंकड के वीडियो हमें किसी भी विषय पर पर्याप्त जानकारी नहीं दे पाते। हमें सटीक और यथार्थ जानकारी चाहिए तब रील्स की आदत को छोड़कर पुन: किताबों से दोस्ती करनी होगी। हमें किताबों की गरिमा को वापस स्थापित करना होगा, क्योंकि किताबें हमें दुनिया को देखने के लिए आँखें नहीं, बल्कि उसे समझने के लिए विवेक और हृदय देती हैं। हमारे बुजुर्गों की कहावत आज भी प्रासंगिक है कि “पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी मित्र होती हैं”।

सोमवार, 3 नवंबर 2025

जब आरएसएस के संस्थापक और आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा- “मैं अपनी आँखों के सामने लघु भारत देख रहा हूँ”

संघ शताब्दी वर्ष : संघ के विकास का पहला चरण


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। यह बात संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को पहले दिन से पता थी। संघ सृष्टि और संघ दृष्टि सब डॉक्टर साहब की दूरदृष्टि में शामिल थी। संघ के विकास के लिए जिस प्रक्रिया की आवश्यकता थी, उसी के अनुरूप उन्होंने संघ का वातावरण तैयार किया। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”। हनुमानजी में असीम शक्तियां पहले से विद्यमान थी लेकिन उन्हें भान नहीं है। जामवंत जी ने हनुमान जी से कहा, “कवन सो काज कठिन जग माहीं” (ऐसा कौन-सा कार्य है जो इस दुनिया में कठिन है), जो आपसे नहीं हो सकता है। उन्होंने रामकाज के लिए हनुमान जी को उनकी शक्ति और बुद्धि का स्मरण कराया। इसी प्रकार हिन्दू समाज सब प्रकार से सामर्थ्यवान है, उसे बस बीच-बीच में जागृत करना पड़ता है। हिन्दू समाज को उसका सामर्थ्य याद दिलाने के लिए समय-समय पर अनेक महापुरुष आए और उन्होंने अपने दृष्टिकोण से कार्य किया। इसलिए डॉक्टर साहब ने कहा कि वह कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहे हैं। लेकिन यह याद रखना होगा कि संघ कार्य की पद्धति बाकी सबसे अलग है, जिसका विकास देश-काल परिस्थिति के अनुरूप हुआ है। जैसे-जैसे संघ का सामर्थ्य बढ़ा, संघ ने अपने कार्य का विस्तार किया है। यह भी कह सकते हैं कि समाज को जब जिस प्रकार की आवश्यकता रही, संघ ने उसके अनुसार अपना कार्य विस्तार किया है। जब हम आरएसएस की 100 वर्ष की यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं तो संघ के विकास के पाँच चरण प्रमुखता से दिखायी देते हैं- 

1. संगठन (1925 से 1950) 

2. कार्य विस्तार (1950 से 1988)

3. सेवाकार्यों को गति (1989 से 2006) 

4. समाज की सज्जनशक्ति के साथ कदमताल (2006 से 2025)

5. समाज ही बने संघ (शताब्दी वर्ष से आगे की योजना)