रविवार, 19 अक्टूबर 2025

स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने जन्मा ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’

संघ शताब्दी वर्ष शृंखला : संघ की स्थापना की कहानी

Google Gemini AI द्वारा निर्मित छवि

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना किस उद्देश्य को लेकर हुई थी? यह प्रश्न संघ की 100 वर्ष की यात्रा को देखने और समझने में हमारी सहायता करता है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित व्याख्यानमाला ‘100 वर्ष की संघ यात्रा : नये क्षितिज’ में इस प्रश्न के उत्तर में कहा- “डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और अन्य महापुरुषों का मानना था कि समाज के दुर्गुणों को दूर किए बिना स्वतंत्रता के सब प्रयास अधूरे रहेंगे। बार-बार गुलामी का शिकार होना इस बात का संकेत है कि समाज में गहरे दोष हैं। हेडगेवार जी ने ठाना कि जब दूसरों के पास समय नहीं है, तो वे स्वयं इस दिशा में काम करेंगे। 1925 में संघ की स्थापना कर उन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन का उद्देश्य सामने रखा”। यानी संघ की स्थापना का उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखनेवाले समाज को सुसंगठित करना और उसके मन में राष्ट्रभक्ति की प्रखर भावना को प्रज्वल्लित करना है। यही कार्य संघ पिछले 100 वर्षों से कर रहा है, जिसमें उसे बहुत हद तक सफलता भी मिली है।

स्मरण रहे कि जब डॉक्टर हेडगेवार जी संघ की स्थापना कर रहे थे, तब देश में अंग्रेजों का प्रभुत्व था। स्वराज्य के लिए हम संघर्ष कर रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार जी भी स्वराज्य के सब प्रकार के आंदोलन में शामिल थे। क्रांतिकारियों के साथ भी उन्होंने काम किया, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी कार्य का अनुभव उनके पास था। वर्ष 1915 से 1924 तक अपने विविध अनुभवों के आधार पर डॉक्टर साहब ने विचार किया कि इन मार्गों से देश स्वतंत्र नहीं होगा और देश स्वतंत्र हो जाएगा तब उस स्वतंत्रता को अक्षुण्य कैसे रख सकेंगे? उन्होंने उन कारणों की पड़ताल की, जिनके कारण भारत पर बार-बार बाहर से आक्रमण हो रहे थे। बहुत विचार करने के बाद डॉ. हेडगेवार इस परिणाम पर पहुँचे कि भारतीय समाज में राष्ट्रभक्ति और आत्मगौरव की भावनाओं को जगाए बिना देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण नहीं रखा जा सकता है। इसके लिए हिन्दू समाज का संगठन आवश्यक है। देश की सर्वांगीण स्वतंत्रता प्राप्त करने एवं उसका संरक्षण करने के लिए हिन्दू समाज को संगठित होने की अनिवार्य आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को स्वतंत्रता से पूर्व जो प्रतिज्ञा करायी जाती थी, उसमें स्वयंसेवक ईश्वर को साक्षी मानकर संकल्प लेते थे कि “मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ”।

नागपुर स्थित डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के घर के इसी कक्ष में आरएसएस की स्थापना की पहली बैठक आयोजित की गई थी।

अपने मन में आए संघ के विचार को समाज के मन में बोने के उद्देश्य से डॉक्टर साहब ने विजयदशमी के पावन प्रसंग (27 सितंबर 1925) पर अपने घर पर एक बैठक बुलाई, जिसमें 17 लोग शामिल हुए। देश-काल की परिस्थितियों पर चिंतन करने के बाद तय हुआ कि हम एक संगठन शुरू करते हैं। तब डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने सबके बीच कहा- “हम सब मिलकर संघ प्रारंभ कर रहे हैं”। संघ की स्थापना की यह कहानी कितनी अनूठी है कि जिस दिन संघ शुरू हुआ, उस दिन उसका नाम, संविधान, पदाधिकारी, कार्यशाला, सूचना पट्ट, समाचार-पत्रों में प्रचार, चन्दा, सदस्यता आदि पर कोई चर्चा नहीं हुई थी। दूसरे दिन भी किसी भी समाचार पत्र में संघ की स्थापना का समाचार प्रकाशित नहीं हुआ। जबकि कोई भी संगठन शुरू होता है, तब जोर-शोर से उसका प्रचार-प्रसार होता है। संघ की शुरुआत ठीक उसी प्रकार हुई, जैसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने श्री रायरेश्वर महादेव को साक्षी मानकर अपने 9 मित्रों के साथ ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना का संकल्प लिया था। कहते हैं जब संकल्प शुभ हों, तो ईश्वर उन्हें साकार करने में स्वयं सहायता करते हैं। अपनी अनुभूतियों के आधार पर संघ के स्वयंसेवक अपने संघकार्य को ईश्वरीय कार्य कहते हैं।

संघ स्थापना की इस बैठक में विश्वनाथ केलकर, भाऊजी कावरे, डा.ल.वा. परांजपे, रघुनाथराव बांडे, भय्याजी दाणी, बापूराव भेदी, अण्णा वैद्य, कृष्णराव मोहरील, नरहर पालेकर, दादाराव परमार्थ, अण्णाजी गायकवाड, देवघरे, बाबूराव तेलंग, तात्या तेलंग, बालासाहब आठल्ये, बालाजी हुद्दार और अण्णा साहोनी ने विचार-विमर्श के बाद नए संगठन तथा नई कार्य पद्धति का श्रीगणेश किया। डॉक्टर साहब ने सबके सामने प्रश्न रखा कि “संघ में प्रत्यक्ष क्या कार्यक्रम किए जाएं, जिससे हम कह सकें कि संघ शुरू हो गया?” यह प्रश्न उचित ही था। सबने अपने-अपने सुझाव दिए। सबके विचार सुनने के बाद में डॉक्टर साहब ने कहा कि संघ शुरू करने का अर्थ है कि “हम सभी को शारीरिक, बौद्धिक और हर तरह से खुद को ऐसा तैयार करना चाहिए कि अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें”।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की पहली बैठक में शामिल होनेवाले कार्यकर्ताओं के नाम। डॉ. हेडगेवार के घर पर आयोजित इस बैठक में 17 लोग शामिल हुए थे।

रोचक तथ्य है कि 6 महीने तक संघ का नामकरण ही नहीं हुआ था। दरअसल, डॉक्टर हेडगेवार ने प्रारंभ से ही संघ में सामूहिक निर्णय की परंपरा डाली। संघ प्रारंभ किया, तब भी अकेले घोषणा नहीं की। संघ का नाम भी स्वयं नहीं सुझाया। लगभग 6 माह बाद 17 अप्रैल 1926 को एक बार फिर 26 कार्यकर्ता डॉक्टर साहब के घर पर बैठे। उस बैठक में अपने संगठन के लिए इन प्रमुख नामों का सुझाव आया- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जरिपटका संघ, भारतीद्धारव मंडल और हिन्दू स्वयंसेवक संघ इत्यादि। इनमें से सर्वसम्मति से ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का नाम स्वीकार किया गया। रामटेक के रामनवमी मेले में यात्रियों के सहयोग के लिए प्रथम बार स्वयंसेवकों ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के नाम से सहभाग किया। 

इस प्रकार संघ की विशिष्ट कार्यपद्धति का विकास एवं विस्तान धीरे-धीरे होता गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, ऐसा स्वरूप उसके बीज में ही निहित था। शिक्षा के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान पूर्णता की अभिव्यक्ति है”। विद्यार्थी को केवल उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। अपने संघ कार्य के बारे में डॉक्टर साहब ने भी कहा है कि “मैं कोई नया कार्य प्रारंभ नहीं कर रहा हूँ। यह पहले से हमारी संस्कृति में है। परंपरा से चले आ रहे व्यक्ति निर्माण का कार्य करने के लिए यह तंत्र अवश्य नया है”। 

संघ शताब्दी वर्ष पर 'स्वदेश ज्योति' में प्रकाशित 'नियमित कॉलम' का पहला आलेख। यह 19 अक्टूबर, 2025 को छोटी दीपावली के पावन प्रसंग से शुरू हुआ।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

स्वयंसेवकों के परिश्रम, त्याग, समर्पण और सेवा की कमाई है यह सिक्का

आरएसएस 100 : संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने जारी किया स्मृति डाक टिकट एवं सिक्का

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट और 100 रुपये का सिक्का जारी किया है। यह साधारण सिक्का नहीं है, जो प्रसंगवश जारी किया गया है। संघ के स्वयंसेवकों ने यह सिक्का अपने परिश्रम, त्याग, समर्पण और राष्ट्र की सेवा से कमाया है। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज का संरक्षण कर देश की स्वतंत्रता एवं सर्वांगीण उन्नति का व्रत लेकर चलने वाले स्वयंसेवकों ने संघ रूपी राष्ट्रीय आंदोलन को यशस्वी बनाने में अपना जीवन खपाया है, तब जाकर यह अवसर आया है। अपनी स्थापना के प्रारंभ से ही संघ ने अनेक कठिनाइयों एवं अवरोधों का सामना किया। सत्ता के हठ से भी स्वयंसेवक टकराए। लेकिन, किसी के प्रति बैर भाव रखे बिना स्वयंसेवक राष्ट्र की साधना में समर्पित रहे। अपने कार्य की सिद्धि से स्वयंसेवकों ने उनका हृदय भी जीता, जो कभी संघ को समाप्त कर देना चाहते थे। इसलिए यह सिक्का केवल शताब्दी वर्ष का स्मृति चिह्न नहीं है अपितु संघ की वास्तविक कमाई का प्रतिनिधित्व है। सर्व समाज का विश्वास, अपनत्व, प्रेम और सहयोग, यही संघ की वास्तविक कमाई है। अपने संघ की 100 वर्ष की यात्रा में स्वयंसेवक सबको अपना बनाते हुए संघ यहाँ तक आ पहुँचे हैं कि समाज बाँहें फैलाकर उनका स्वागत कर रहा है। संस्कृति मंत्रालय की ओर से डॉ. अम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र, दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘100 वर्षों की गौरवपूर्ण यात्रा का स्मरणोत्सव’ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यही बात दोहरायी कि “संघ के स्वयंसेवकों ने कभी कटुता नहीं दिखाई। चाहे प्रतिबंध लगे, या साजिश हुई हो। सभी का मंत्र रहा है कि जो अच्छा है, जो कम अच्छा, सब हमारा है”। उन्होंने कहा कि संघ के स्वयंसेवक लगातार देश सेवा में जुटे हैं। समाज को सशक्त कर रहे हैं, इसकी भी झलक इस डाक टिकट में है। मैं इसके लिए देश को बधाई देता हूं।

संघ शताब्दी वर्ष पर जारी विशेष डाक टिकट पर एक लोगो अंकित है, जिस पर लिखा है- ‘राष्ट्र सेवा के 100 वर्ष (1925-2025)’। इसके साथ ही लोगो के नीचे लिखा है- राष्ट्रभक्ति, सेवा और अनुशासन। संघ की 100 वर्ष की यात्रा की झलक दिखाने के लिए दो चित्र भी डाक टिकट पर दिखायी देते हैं- पहला, 1963 की गणतंत्र दिवस में शामिल स्वयंसेवक और दूसरा, सेवा एवं राहत कार्य करते स्वयंसेवक। इन दोनों ही चित्रों का विशेष महत्व है। यह सबको ज्ञात है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पूर्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर पूर्वाग्रहों से ग्रसित थे, जिसके कारण वे संघ को समाप्त करने की इच्छा भी व्यक्त कर चुके थे। लेकिन 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में कम्युनिस्टों की गद्दारी देखकर उनका गहरा धक्का लगा। वहीं, जिस संगठन के प्रति उनके मन में सद्भाव नहीं था, वही संगठन युद्ध के समय सरकार के साथ सहयोगी के तौर पर खड़ा था। राजधानी से लेकर सीमारेखा तक, संघ के स्वयंसेवक सहायता कर रहे थे। सैनिकों की सहायता हो या नागरिक अनुशासन, संघ ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। इसी बात से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने के लिए आरएसएस को आमंत्रित किया। संघ के तीन हजार स्वयंसेवक इस राष्ट्रीय परेड में शामिल हुए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने भाषण में इस प्रसंग का उल्लेख किया। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष पर भारत सरकार की ओर से जारी विशेष डाक टिकट

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जारी किया विशेष सिक्का

जब भी देश में संकट का वातावरण बना है, स्वयंसेवक सबसे आगे खड़े मिले हैं। याद हो, 1965 में जब भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध प्रारंभ हुआ, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी संघ के सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्या श्रीगुरुजी को रणनीतिक बैठक में आमंत्रित करके महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी थी। इसी, डाक टिकट पर दूसरा चित्र बताता है कि देश में कहीं भी आपदा आती है, तब स्वयंसेवक आगे बढ़कर सेवाकार्य करते हैं। भारत विभाजन की विभीषिका से लेकर अभी हाल में आई वैश्विक महामारी कोरोना में संघ के स्वयंसेवकों का समाजसेवा का जज्बा दुनिया ने देखा। देशभर में कहीं भी बाढ़, सूखा, भूकंप या अन्य हादसे होते हैं, तो बिना देरी किए संघ के कार्यकर्ता अपने सामर्थ्य के अनुरूप सहयोग करने के लिए जुट जाते हैं। संघ के सेवाभाव को देखकर अकसर विरोधी भी खुलकर प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाते हैं। स्वयंसेवक की संकल्पना की कितनी सुंदर और सटीक परिभाषा प्रधानमंत्री मोदी ने दी है- “हमने देश को ही देव माना है और देह को ही दीप बनकर जलना हमने सीखा है”।

इसी प्रकार, 100 रुपये के स्मृति सिक्के पर एक ओर भारत का राष्ट्रीय चिह्न अंकित है। जबकि दूसरी ओर, सिंह के साथ वरद मुद्रा में भारत माता की सांस्कृतिक छवि और भारत माता को नमन करते स्वयंसेवकों को उकेरा गया है। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि स्वतंत्र भारत में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत की मुद्रा पर भारत माता की तस्वीर अंकित हुई है। सिक्के पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ कार्य को अभिव्यक्त करनेवाला ध्येय वाक्य- ‘राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम’ लिखा हुआ है। संघ के स्वयंसेवक ‘प्रसिद्धि परांगमुख भाव’ से समाजहित में कार्य करते हैं। सेवा कार्यों को उपकार की तरह देखने की अपेक्षा स्वयंसेवक सेवा को करणीय कार्य के तौर पर देखते हैं। इसलिए संघ के स्वयंसेवक को श्रेय, यश की लालसा नहीं होती, उसके लिए राष्ट्रहित ही सर्वोपरि होता है। कहना होगा कि यह डाक टिकट एवं सिक्का, स्वयंसेवकों की अहं से वयं की यात्रा को अभिव्यक्त करता है। 

इस प्रसंग पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संघ की व्यापक दृष्टि को ऐतिहासिक उदाहरण देकर स्पष्ट किया। संघ के अधिकारी अकसर कहते हैं कि संघ संपूर्ण समाज को अपना मानता है। यही कारण है कि संघ ने अपने पर हुए हमलों को भुलाते हुए सबको गले लगाया है। प्रधानमंत्री मोदी उल्लेख करते हैं कि “राष्ट्र साधना की यात्रा में ऐसा नहीं कि संघ पर हमले नहीं हुए, स्वतंत्रता के बाद भी संघ को मुख्यधारा में आने से रोकने के लिए षड्यंत्र हुए। पूज्य गुरुजी को जेल तक भेजा गया। जब वे बाहर आए तो उन्होंने कहा था कि कभी-कभी जीभ दांतों के नीचे आकर दब जाती है, कुचल जाती है, लेकिन हम दांत नहीं तोड़ देते, क्योंकि दांत भी हमारे हैं, जीभ भी हमारी है”। नि:संदेह, संघ की यही दृष्टि उसको व्यापक बनाती है। संघ की 100 वर्ष की यशस्वी यात्रा के पीछे यही दृष्टिकोण है। संघ को रोकने के लिए उस पर तीन-तीन बार प्रतिबंध लगाए गए, कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित किया गया लेकिन इसके बाद भी संघ ने सबके साथ आत्मीय भाव से संवाद जारी रखा। उसका परिणाम भी आया, अनेक लोगों के हृदय परिवर्तन हुए। जो कभी संघ को कोसते थे, बाद में संघ में आए, संघ कार्य को आगे बढ़ाया और संघ की प्रशंसा भी की। प्रधानमंत्री मोदी उचित ही कहते हैं कि “जिन रास्तों में नदी बहती है, उसके किनारे बसे गांवों को सुजलाम् सुफलाम् बनाती है। वैसे ही संघ ने किया। जिस तरह नदी कई धाराओं में अलग-अलग क्षेत्र में पोषित करती है, संघ की हर धारा भी ऐसी ही है”। 

देखें यह वीडियो ब्लॉग : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राजनीति

मध्यप्रदेश का स्वदेशी जागरण महाभियान

भारत को आत्मनिर्भर बनाने के संकल्प को पूरा करने के लिए मध्यप्रदेश की मोहन सरकार केंद्र की मोदी सरकार के साथ कदमताल कर ही रही थी कि अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वदेशी के आह्वान को जन-जन तक पहुँचाने के लिए मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने राज्य स्तरीय स्वदेशी जागरण सप्ताह का शुभारंभ करके स्वदेशी को जनाभियान बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। इसे केवल एक सरकारी कार्यक्रम के तौर पर देखना उचित नहीं होगा। यह तो आत्मनिर्भर भारत के व्यापक राष्ट्रीय लक्ष्य के प्रति मध्यप्रदेश की गंभीर प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भले ही इस महाभियान की योजना 25 सितंबर से 2 अक्टूबर तक (पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती से महात्मा गांधी की जयंती) की गई हो, लेकिन स्वदेशी के विचार को जन-जन तक पहुँचाने के लिए यह आंदोलन लंबा चलना चाहिए। कोई भी आंदोलन लंबा तब ही चलता है, जब समाज की सज्जनशक्ति उसे अपना आंदोलन मानकर चलती है। कहना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से प्रारंभ हुआ ‘स्वदेशी जागरण मंच’ लंबे समय से स्वदेशी के आंदोलन को चला रहा है, जिसके कुछ सुखद परिणाम हमें अपने आस-पास दिखायी पड़ते हैं।

शनिवार, 27 सितंबर 2025

तकनीक का सहारा लेकर बच्चों को सुनाएं दादी-नानी की कहानियां

भारत कहानियों का देश है। कहानियां, जो न केवल हमारा मनोरंजन करती हैं अपितु हमारे व्यक्तित्व विकास में भी सहायक हैं। कहानियां, हमारे मन में सेवा, संस्कार, साहस पैदा करती हैं। लोक जीवन की सीख देती हैं। इसलिए तो कहानियां सुनना और सुनाना हमारी परंपरा में है। कौन नहीं जानता कि छत्रपति शिवाजी महाराज के विराट व्यक्तित्व का निर्माण जिजाऊ माँ साहेब ने राम-कृष्ण की कहानियां सुनाकर किया। पंडित विष्णु शर्मा ने राजा अमरशक्ति के तीन अयोग्य राजकुमारों को नैतिकता, बुद्धिमत्ता और राजनीतिक ज्ञान ‘पंचतंत्र’ की कहानियां सुनाकर ही तो दिया। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनकर ही तो महात्मा गांधी के मन में सत्य के प्रति गहनी निष्ठा ने जन्म लिया। हमारे साहित्य में भरी पड़ी हैं- बच्चों की कहानियां, वीर बालकों की कहानियां, दयालु बालकों की कहानियां, दादी-नानी की कहानियां, पौराणिक कहानियां, पंचतंत्र की कहानियां। कहानियों की एक पूरी दुनिया है। 

आज से 20-25 साल पहले के समय को याद कीजिए, उस समय हम सब शाम को भोजन करने के बाद अपनी माँ, दादी-दादा, नानी-नाना से कहानी सुनकर ही नींद के आगोश में जाते थे। भारतीय आख्यानों के अलावा समुद्री लुटेरों,  आम आदमी से लेकर राजा-रानियों की कहानियां हमें स्वप्नलोक की सैर करती थीं। मेरे गाँव में हमारे एक बाबा थे- दाऊबाबा, उनके पास कहानियों का भंडार था। हमें बस उन्हें बताना होता था कि आज किस प्रकार की कहानी सुनने की इच्छा है। उनकी जादुई पोटली से एक से एक शानदार कहानियां निकलकर आतीं, जो कभी रोमांच जगाती, कभी लोट-पोट करतीं तो कभी हौले से जीवन की सीख दे जातीं। कहानी सुनाने का उनका कौशल इतना गजब का था कि हम एक-एक दृश्य को घटते हुए देख पाते थे। कहानियों के पात्रों से खुद को जोड़ पाते थे, उनमें छिपे संदेशों को समझते थे और अपने जीवन में उतारते थे।

उस समय रेडियो-टीवी घर-घर में नहीं पहुँचा था और इंटरनेट ने भी इस तरह पैर नहीं पसारे थे, तब मनोरंजन का मुख्य साधन कहानियां ही होती थीं। परंतु, परिवर्तन का पहिया तो लगातार घूमता रहता है। इसलिए समय के साथ परिवेश बदल गया। वर्तमान में तकनीक के तेज विकास से इस बदलाव को पंख लग गए हैं। आज के समय में दादी-नानी से कहानियां सुनने वाले बच्चे सौभाग्यशाली हैं। दरअसल, मनोरंजन की यह जिम्मेदारी दादी-नानी से अब टेलीविजन और मोबाइल ने ले ली है। टेलीविजन और मोबाइल की इस दुनिया में सब प्रकार की सामग्री उपलब्ध है। इसलिए आज सबसे अधिक जरूरत इस बात की है कि अभिभावक यह सुनिश्चित करें कि उनके बच्चे क्या देख-सुन रहे हैं? यह तकनीक बहुत प्रभावशाली है। जैसा कंटेंट वह देखेगा, उसकी छाप उसके व्यक्तित्व में दिखायी देगी। बच्चों के व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव पड़े, वे अपने मूल्यों और परंपरा से जुड़ सकें, इसलिए इस तकनीक का उपयोग करके हमें उन्हें दादी-नानी की कहानियों से जोड़ना चाहिए। डिजिटल कंटेंट का निर्माण करनेवाले रचनाधर्मी लोग दादी-नानी की कहानियों की परंपरा को अपने ढंग से बचाने का प्रयास कर रहे हैं। ऑडियो-विजुअल में तैयार हो रही यह कहानियां बच्चों को खूब पसंद भी आ रही हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम बच्चों को अपनी इन कहानियों को देखने-सुनने का चस्का लगाएं। कोविड-19 जनित कोरोना महामारी में जब हम अपने घरों में बंद हो गए थे, तब हॉटस्टार पर उपलब्ध एनिमेशन वेबसीरीज ‘द लीजेंड ऑफ हनुमान’ बच्चों को दिखायी। उन्हें यह एनिमेशन वेबसीरीज बहुत पसंद आई। उन्होंने अगले सीजन की बेसब्री से प्रतीक्षा की। इसी तरह, अपने समय का ‘विक्रम-बेताल’ भी उन्हें दिखाया। विक्रम-बेताल की शिक्षाप्रद कहानियों को भी बच्चों ने खूब पसंद किया। आज इन कहानियों को पुन: नये अंदाज में प्रस्तुत किया जा सकता है।

याद करें, हम भारतीय आख्यानों पर आधारित कॉमिक्स ‘अमर चित्रकथा’ खूब रुचि लेकर पढ़ते थे। बदलते परिवेश में अमर चित्रकथा की कहानियां डिजिटल माध्यमों पर उपलब्ध हैं। श्रीकृष्ण, छोटा भीम, मोटू-पतलू इत्यादि कार्टून शृंखला के रूप में भी नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने की कहानियां बच्चों तक पहुँच रही हैं। जब नयी पीढ़ी डिजिटल दुनिया में प्रवेश कर ही गई है, तब उनके साथ संतुलन साधते हुए दादी-नानी की कहानियों का विकल्प उन्हें डिजिटली रूप में उपलब्ध कराना ही होगा। इसके अलावा हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। अच्छा कंटेंट नहीं मिलेगा, तब वे व्यर्थ की सामग्री को देखकर बड़े होंगे। हमें यह स्वीकार करना होगा कि आज का दौर पूरी तरह बदल चुका है। बच्चे हों या बड़े, सब अपनी-अपनी दुनिया में खोए हुए हैं। मनोरंजन के साधन अब असीमित हैं। बच्चे अब यूट्यूब और अन्य प्लेटफार्मों पर कार्टून के माध्यम से कहानियां देखते हैं। ‘छोटा भीम’, ‘मोटू-पतलू’, ‘लिटिल कृष्णा’, ‘बाल गणेश’, ‘वीर द रोबोट बॉय’, ‘द हनुमान’, ‘लव-कुश’ और ‘अर्जुन : द वॉरियर प्रिंस’ जैसे कार्टून उनके नए साथी बन गए हैं। भारत के बाहर के कैरेक्टर्स पर आधारित कार्टूनों ने भी बच्चों के बीच जगह बनायी है। या कहें कि वर्तमान परिदृश्य में उन्हें ही अधिक देखा जा रहा है। हम थोड़े प्रयास करें, तो भारतीय पृष्ठभूमि के कार्टून बच्चों की पहली पसंद बन सकते हैं। हमें थोड़ा समय देकर, उनके साथ बैठकर, इन कार्टूनों को देखकर और बच्चों के साथ संवाद करके उनके मन में रुचि जगानी होगी।  

याद रहे कि ये कार्टून और एनिमेटेड कहानियां बच्चों को एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं। इनमें भी नैतिक कहानियां, वीरता और बुद्धिमत्ता से जुड़े प्रसंग होते हैं। बच्चे इन कहानियों के पात्रों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं, क्योंकि ये उनकी दृश्य दुनिया का हिस्सा हैं। ये कहानियां उन्हें एक साथ कई तरह की जानकारी देती हैं - जैसे कि रंग, आकार, और ध्वनियाँ। इससे बच्चों के बौद्धिक विकास में मदद मिलती है। इसलिए दादी-नानी की कहानियों की जगह जब ऑडियो-विजुअल आधारित कहानियां ले रही हैं, तब उनके चयन में हमें सावधानी बरतनी होगी। वैसे, श्रेष्ठ तो यही होगा कि हमारे घरों में दादी-नानी द्वारा कहानी सुनाए जाने की परंपरा पुन: दिखायी दे। क्योंकि, दादी-नानी की कहानियों में जो अपनापन, स्पर्श और भावनात्मक जुड़ाव था, वह शायद ही किसी आधुनिक माध्यम में मिल पाए। 


हिन्दी विवेक के 7-13 सितंबर, 2025 के अंक में प्रकाशित




शनिवार, 20 सितंबर 2025

विक्रमादित्य वैदिक घड़ी : भारतीय कालगणना की ओर बढ़ते कदम

भारत का समय-पृथ्वी का समय

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मुख्यमंत्री आवास के बाहर लगी 'विक्रमादित्य वैदिक घड़ी'

पिछले कुछ वर्षों में मध्यप्रदेश की धरती सांस्कृतिक पुनरुत्थान का केंद्र बन गई है। सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इन प्रयासों में नयी कड़ी है- विक्रमादित्य वैदिक घड़ी का लोकार्पण। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने मुख्यमंत्री निवास पर ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ का अनावरण करके भारतीय कालगणना की ओर आम लोगों का ध्यान तो खींचा ही है, इसके साथ ही कालगणना की अपनी परंपरा को फिर से लोक प्रचलन में लाने के प्रयासों का केंद्र बिन्दु भी मध्यप्रदेश को बना दिया है। यह पहल उम्मीद जगाती है कि भविष्य में पंचांग पर आधारित यह ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ लोक प्रचलन में आ जाएगी और तिथि, मुहूर्त, माह, व्रत, त्योहार की सटीक जानकारी प्राप्त करने की हमारी कठिनाई को दूर कर देगी। सबको उम्मीद है कि हमारे हाथ पर बंधी डिजिटल घड़ियों में भी जल्द ही यह सुविधा आ जाएगी कि हम उनमें ‘भारत का समय’ देख सकें। फिलहाल ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ ऐप के रूप में उपलब्ध है, जिसे हम अपने मोबाइल फोन में उपयोग कर सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक नगर उज्जैन का कालगणना के साथ गहरा नाता है। यहाँ प्रकाशित ज्योतिर्लिंग को इसलिए ही ‘महाकाल’ कहा गया है। यह शुभ संयोग ही है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी महाकाल की नगरी उज्जैन से आते हैं।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

प्रधानमंत्री मोदी ने किया स्वदेशी का आग्रह

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने जन्मदिन पर मध्यप्रदेश की भूमि से ‘स्वदेशी’ का आग्रह किया है। नवरात्रि से हमारे उत्सवों की एक शृंखला शुरू हो रही है। इसके साथ ही जीएसटी की संशोधित दरें भी 22 सितंबर से शुरू हो रही हैं। ऐसे में बाजार में खरीदारी का वातावरण रहनेवाला है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी का यह आह्वान केवल तात्कालिक नहीं है अपितु उनका आग्रह है कि हमारा स्थायी स्वभाव स्वदेशी के अनुकूल बन जाना चाहिए। प्रत्येक भारतीय को यह स्मरण रखना चाहिए कि ‘स्वदेशी’ का आह्वान, केवल एक नारा नहीं, बल्कि 2047 तक विकसित भारत के निर्माण का एक मजबूत आधार है। धार में ‘प्रधानमंत्री मित्र पार्क’ के उद्घाटन के अवसर पर उनके संबोधन से यह स्पष्ट होता है कि सरकार अब आर्थिक आत्मनिर्भरता को राष्ट्र निर्माण की प्रमुख रणनीति मान रही है। यह सिर्फ वस्तुओं के उत्पादन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी सोच है जो भारतीयता के गौरव और देश की आर्थिक शक्ति को केंद्र में रखती है।

बुधवार, 17 सितंबर 2025

लेखक एवं मीडिया शिक्षक लोकेन्द्र सिंह को मध्यप्रदेश सरकार ने 'राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान-2025' से किया सम्मानित

भोपाल स्थित रवींद्र भवन में आयोजित अलंकरण समारोह में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने किया सम्मानित

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक, लेखक एवं ब्लॉगर लोकेन्द्र सिंह को 'राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान-2025' से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग की ओर से भोपाल के रवींद्र भवन में आयोजित अलंकरण समारोह में उन्हें यह सम्मान मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्कृति मंत्री धर्मेंद्र सिंह लोधी और लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह ने प्रदान किया। सरकार यह सम्‍मान प्रतिवर्ष हिन्दी सॉफ्टवेयर सर्च इंजिन, वेब डिजाइनिंग, डिजीटल भाषा प्रयोगशाला, प्रोग्रामिंग, सोशल मीडिया, डिजीटल ऑडियो विजुअल एडीटिंग आदि में उत्‍कृष्‍ट योगदान के लिए देती है। उल्लेखनीय है कि ग्वालियर में जन्मे लोकेन्द्र सिंह देश के जाने-माने ब्लॉगर हैं। सोशल मीडिया और डिजीटल ऑडियो-वीडियो प्रोडक्शन में उनकी सक्रियता है। उनकी डॉक्युमेंट्री फिल्में राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत हैं। नागरिकों को सोशल मीडिया का प्रशिक्षण देने में भी उनकी सक्रियता रहती है। इससे पूर्व मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भी ‘फेसबुक/ब्लॉग/नेट’ हेतु ‘अखिल भारतीय नारद मुनि’ पुरस्कार से अलंकृत कर चुकी है। वर्तमान में आप माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं।

दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार

युवाओं को साहित्य से जोड़े रखने के लिए आपने सोशल मीडिया के माध्यम से ऑडियो-विजुअल सामग्री का उपयोग करके अनूठे प्रयोग किए हैं। लेखक लोकेन्द्र सिंह का कहना है कि नयी पीढ़ी ऑडियो-वीडियो कंटेंट बहुत देख-सुन रही है। इसलिए लेखकों को प्रयास करना चाहिए कि हिन्दी साहित्य की अच्छी सामग्री को लोगों तक पहुंचाने के लिए ऑडियो-वीडियो प्रारूप को अपनाएं। सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करके नयी पीढ़ी का प्रबोधन किया जा सकता है। लेखक लोकेन्द्र सिंह का कहना है कि जब उन्होंने इस प्रकार के प्रयास किए तो प्रारंभ में ही उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुए। उनकी डाक्युमेंट्री फिल्म ‘बाचा : द राइजिंग विलेज’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। गाय पर बनायी फिल्म ‘गो-वर’ को खूब सराहा गया। इसी तरह छोटे कद को लेकर बनायी फिल्म ‘कद : हाइट डजन्ट मैटर’ ने भी फिल्म क्रिटिक की सराहना बटोरी है। 


लेखक-ब्लॉगर लोकेन्द्र सिंह को सम्मानित करते मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री धर्मेन्द्र सिंह लोधी एवं लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह

मध्यप्रदेश से हिन्दी ब्लॉगिंग में उनका नाम राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। उन्होंने ऑनलाइन माध्यमों में वर्ष 2006-07 से लेखन प्रारंभ कर दिया था। ब्लॉग पर समसामयिक विषयों पर आलेखों के अतिरिक्त कहानी, कविता, ललित निबंध, रेखाचित्र, पुस्तक समीक्षाएं और यात्रा वृत्तांत प्रकाशित हैं। विभिन्न संस्थाओं की ओर से जारी की जाने वाली सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग डायरेक्टरी में आपका ब्लॉग शामिल रहता है। ब्लॉगिंग पर चर्चा के लिए गूगल भी आपको आमंत्रित कर चुका है। आपकी पहचान ट्रैवल ब्लॉगर के रूप में भी है। नयी पीढ़ी ऑडियो-वीडियो सामग्री बहुत देख-सुन रही है।

सम्मान समारोह में मंच पर उपस्थित हैं- मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्‍कृति एवं पर्यटन राज्‍यमंत्री (स्‍वतंत्र प्रभार) श्री धर्मेंद्र सिंह लोधी, लोक निर्माण मंत्री श्री राकेश सिंह, विधायक श्री भगवानदास सबनानी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलगुरु श्री विजय मनोहर तिवारी, संचालक संस्कृति श्री एमपी नामदेव, वीर भारत न्यास के न्यासी सचिव श्रीराम तिवारी सहित सम्मानित हुए साहित्यकार।

इन महानुभावों को मिले सम्मान- 

  • राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान : श्री प्रशांत पोळ-जबलपुर (2024) एवं  श्री लोकेन्द्र सिंह राजपूत- भोपाल (2025)
  • राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान : सुश्री रीता कौशल-ऑस्ट्रेलिया (2024) एवं डॉ. वंदना मुकेश- इंग्लैण्ड (2025)
  • राष्ट्रीय फादर कामिल बुल्के सम्मान : डॉ. इंदिरा गाजिएवा-रूस (2024) एवं श्रीमती पदमा जोसेफिन वीरसिंघे (2025)
  • राष्ट्रीय गुणाकर मुले सम्मान : डॉ. राधेश्याम नापित-शहडोल (2024) एवं डॉ. सदानंद दामोदर सप्रे-भोपाल (2025)
  • राष्ट्रीय हिन्दी सेवा सम्मान : डॉ. के.सी. अजय कुमार-तिरुवनंतपुरम् (2024) एवं डॉ. विनोद बब्बर-दिल्ली (2025)


16 सितंबर, 2025 को भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'लोकसत्य' में प्रकाशित समाचार