रविवार, 21 दिसंबर 2025

संघ साहित्य में वंदेमातरम की गूंज

संघ शताब्दी वर्ष : वंदेमातरम और आरएसएस - भाग 2

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साहित्य में वंदेमातरम की स्पष्ट छाया दिखायी देती है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए ‘वंदेमातरम’ केवल एक गीत नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा और राष्ट्र-निर्माण का आधार है, जो भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठकर एकता का संदेश देता है। यही कारण है कि संघ के कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीयता की अलख जगाने के लिए अपने लेखन में वंदेमातरम का खूब उपयोग किया है। संघ गीतों में वंदेमातरम की गूंज है, तो वंदेमातरम पर लेख और पुस्तकों की रचना भी की गई है। जब भी वंदेमातरम को सांप्रदायिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया गया और उसकी अवमानना करने का प्रयास किया गया, तब-तब संघ के स्वयंसेवकों ने मुखरता से वंदेमातरम के पक्ष में अपनी कलम चलायी है। अगर हम संघ साहित्य का गहनता से अध्ययन करेंगे तो हमें स्पष्टतौर पर उसमें वंदेमातरम की छाया दिखायी देगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थिंक टैंक रहे, चिंतक-मनीषी श्रद्धेय रंगा हरि जी ने वंदेमातरम पर अनूठी पुस्तक की रचना की है- ‘वंदेमातरम की आत्मकथा’। यह पुस्तक केवल राष्ट्रगीत के इतिहास का वर्णन नहीं करती, बल्कि इसे एक जीवंत इकाई के रूप में प्रस्तुत करती है, जो राष्ट्र के जन्म और संघर्ष की गाथा स्वयं अपने मुख से सुना रही हो। इस पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। यानी इसके माध्यम से वंदेमातरम की गौरवगाथा संपूर्ण देश में प्रसारित करने का प्रयास संघ ने किया। 

‘वंदेमातरम की आत्मकथा’ में श्रद्धेय रंगा हरि जी ने उन राजनीतिक और सांप्रदायिक विवादों का भी बेबाकी से जिक्र है जो इस गीत के साथ जुड़े रहे। इसमें जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच हुए पत्र-व्यवहार और विमर्श का विश्लेषण भी शामिल है। उन्होंने यह भी बताया है कि दुनिया के अन्य देशों के राष्ट्रगीत अकसर स्वतंत्रता के बाद या राष्ट्र बनने के बाद लिखे गए, लेकिन ‘वंदेमातरम’ संभवतः एकमात्र ऐसा गीत है जिसने राष्ट्र निर्माण से पहले क्रांति को जन्म दिया। 

वंदेमातरम को आधार मानकर और ‘वंदेमातरम’ पद को लेकर संघ में कई गीत रचे गए हैं, जो स्वयंसेवकों के मन में राष्ट्रभक्ति की ज्योति को दैदीप्यमान रखते हैं। एक गीत मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत प्रिय है। देशभक्ति की भावना को जगानेवाले इस गीत की प्रत्येक पंक्ति के आखिर में ‘वंदेमातरम’ आता है- 

राष्ट्र की जय चेतना का गान वंदे मातरम्,

राष्ट्रभक्ति प्रेरणा का गान वंदे मातरम्।।

वंशी के बहते स्वरों का प्राण वंदे मातरम्,

झल्लरी झनकार झनके नाद वंदे मातरम्,

शंख के संघोष का संदेश वंदे मातरम्।।

इसी तरह, संघ में संस्कृत में एक गीत गाया जाता है- “वंदे त्वां भूदेवीम् आर्य मातरम्। जयतु जयतु पदयुगलम् ते निरन्तरम्॥ वंदे मातरम्...”  इस गीत के आगे के पदों में ठीक उसी तरह भारत की वंदना की गई है, जिस प्रकार बंकिम बाबू ने ‘वंदेमातरम’ में की है। गीत में कहा गया है कि आप (भारत माता) हिमालय (हिम-नग) से जन्मी हैं (पार्वती स्वरूपा), आप हमें स्वाभिमान और सद्बुद्धि देती हैं। आप अपनी विशाल सेना और अनगिनत भुजाओं से अपने पुत्रों (देशवासियों) का तारण (रक्षा) करती हैं। करोड़ों-करोड़ों कंठ आपकी जय-जयकार करते हैं। आप साक्षात लक्ष्मी (कमला) हैं, आप निर्मल (अमला) और अतुलनीय हैं। आप बल प्रदान करने वाली, शत्रुओं का नाश करने वाली (रिपु-हरणीम्) और उनके घमंड को चूर करने वाली हैं। 

‘वंदेमातरम’ से पूर्ण विजय तक राष्ट्र की आराधना :

एक अन्य गीत को देखिए- “पूर्ण विजय संकल्प हमारा, अनथक अविरत साधना। निशिदिन प्रतिपल चलती आयी, राष्ट्रधर्म आराधना। वंदे मातृभूमि वंदे, वंदे जगजननी वंदे।।” इस गीत में मातृभूमि की वंदना करते हुए स्वयंसेवक संकल्प व्यक्त करते हैं कि जब तक पूर्ण विजय नहीं हो जाएगी, तब तक हम राष्ट्रधर्म की आराधना करते रहेंगे। यह पूर्ण विजय का संकल्प क्या है? भारत माता को परम वैभव पर सुशोभित करना ही, स्वयंसेवकों का एकमेव संकल्प है। एक अन्य गीत को देखिए- “वन्दे जननी भारत धरणी शस्य श्यामला प्यारी। नमो नमो सब जग की जननी कोटि कोटि सुतवारी॥” इसमें स्वयंसेवकों ने भारत माता के सौंदर्य का बखान ‘वंदेमातरम’ की तर्ज पर ही किया है। जैसे स्वयंसेवक कवि ने कल्पना की है कि उन्नत हिमालय माँ का मुकुट है, सिंधु भारत माता के पाँव पखार रहा है। हरियारी से माँ का आँचल है। गंगा-यमुना सहित अन्य नदिया जीवनरस देती हैं। यहाँ माया, मथुरा और अयोध्या जैसे नगर हैं, जहाँ स्वयं ईश्वर ने लीलाएं रची हैं। “भारत वंदे मारतम् जय, भारत वंदे मातरम्।।” गीत के प्रत्येक पद के आखिर में स्वयंसेवक ‘वंदेमातरम’ का जयघोष करते हैं। संघ में इस प्रकार के गीतों की एक लंबी शृंखला है।

1949 के समाचारपत्र में ‘वंदेमातरम’ :

स्वयंसेवकों ने समाचारपत्र प्रकाशित किए तो अवसर आने पर वहाँ भी वंदेमातरम की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का कार्य किया। जालंधर में संघ के स्वयंसेवक ‘आकाशवाणी’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन करते थे। 11 दिसंबर, 1949 को उस समाचारपत्र में स्वयंसेवकों ने मैडम भीकाजी कामा द्वारा बर्लिन में फहराए गए भारत के पहले राष्ट्रीय ध्वज को प्रकाशित किया। समाचारपत्र में ध्वज के साथ-साथ राष्ट्रगान, जन-गण-मन और राष्ट्रगीत, वंदेमातरम, दोनों के अखंड स्वरूप को भी प्रकाशित किया था। यह राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति संघ के स्वयंसेवकों की श्रद्धा की अभिव्यक्ति है।

जालंधर से प्रकाशित आकाशवाणी, 11 दिसंबर 1949

शाखा पर ‘वंदेमातरम’ :

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के लिए ‘वंदेमातरम’ का महत्व प्रारंभ से है। संघ के बारे में नासमझीपूर्ण बातें करनेवाले लोगों को कभी संघ की शाखा पर जाकर देखिए, वंदेमातरम का जयघोष गूंजता आपको सुनायी देगा। अपने देशी खेल खेलते समय स्वयंसेवक जोश, उत्साह, साहस के संचार के लिए जिन जयघोषों को उच्चारित करते हैं, उनमें वंदेमातरम प्रमुख है। हम किसी भी शहर में चले जाएं, वहाँ वंदेमातरम का पूर्ण गायन करनेवाले लोगों में सबसे अधिक संख्या संघ के स्वयंसेवकों की ही मिलेगी क्योंकि संघ के ज्यादातर कार्यक्रमों में वंदेमातरम का पूर्ण गायन किया जाता है। इसके अलावा, संघ की प्रेरणा से चलने वाले सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों में भी अखंड वंदेमातरम सिखाया जाता है।

सरकार्यवाह दत्ताजी का आह्वान :

अब जबकि संपूर्ण देश अमर रचना ‘वंदेमातरम’ के 150 वर्ष पूर्ण होने पर आनंदित है और उत्सवों का आयोजन कर रहा है, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से वक्तव्य आना- वंदेमातरम और संघ के बीच गहरे संबंधों को प्रकट करता है। सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने अपने वक्तव्य में कहा है- “मातृभूमि की आराधना और संपूर्ण राष्ट्र जीवन में चेतना का संचार करने वाले अद्भुत मन्त्र ‘वंदेमातरम’ की रचना के 150 वर्ष पूर्ण होने के शुभ अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रगीत के रचयिता श्रद्धेय बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करते हुए उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता है। 1875 में रचित इस गीत को 1896 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में राष्ट्रकवि श्रद्धेय रविंद्रनाथ ठाकुर ने सस्वर प्रस्तुत कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। तब से यह गीत देशभक्ति का मंत्र ही नहीं अपितु राष्ट्रीय उद्घोष, राष्ट्रीय चेतना तथा राष्ट्र की आत्मा की ध्वनि बन गया। ‘वंदेमातरम’ राष्ट्र की आत्मा का गान है जो हर किसी को प्रेरणा देता है। आज जब क्षेत्र, भाषा, जाति आदि संकुचितता के आधार पर विभाजन करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, तब “वंदेमातरम्” वह सूत्र है, जो समाज को एकता के सूत्र में बांधकर रख सकता है। भारत के सभी क्षेत्रों, समाजों एवं भाषाओं में इसकी सहज स्वीकृति है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सभी स्वयंसेवकों सहित सम्पूर्ण समाज से आवाहन् करता है कि वंदेमातरम् की प्रेरणा को प्रत्येक हृदय में जागृत करते हुए “स्व” के आधार पर राष्ट्र निर्माण कार्य हेतु सक्रिय हों और इस अवसर पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों को उत्साहपूर्वक भागीदारी करें”।

संघ शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर 'स्वदेश ज्योति' में 21 दिसंबर, रविवार को प्रकाशित साप्ताहिक स्तम्भ

रविवार, 14 दिसंबर 2025

अंग्रेजों के विरुद्ध डॉ. हेडगेवार ने चलाया वंदेमातरम आंदोलन

संघ शताब्दी वर्ष : वंदेमातरम और आरएसएस - भाग 1

 

हेडगेवार जी ने जब अंग्रेजों के विरोध में वंदेमातरम का जयघोष बुलंद किया, तो उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया


प्रतीकात्मक चित्र: आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और स्वयंसेवक। Gemini AI द्वारा निर्मित छवि

मातृभूमि की वंदना का वह कौन-सा काव्य है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के लिए श्रीमद्भगवद गीता के संदेश के बराबर न हो। जिस गीत ने राष्ट्रीय आंदोलन को धार दी, अंग्रेजों के पाँव उखाड़ दिए, समाज में राष्ट्रीयता का भाव जगाया, ऐसा अद्भुत ‘वंदेमातरम’ तो संघ के स्वयंसेवकों के लिए अक्षय ऊर्जा का स्रोत है। बंग-भंग आंदोलन के बाद से ‘वंदेमातरम’ मातृभूमि की आराधना और देशभक्ति का मंत्र बन गया। अंग्रेजों के खिलाफ चलने वाले प्रत्येक आंदोलन का बीज मंत्र वंदेमातरम बन गया। अंग्रेज सरकार ने स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले युवाओं को राष्ट्रीय आंदोलन से दूर करने के लिए ‘रिस्ले सर्कुलर’ जारी किया, जिसके द्वारा विद्यार्थियों को आंदोलनों में शामिल होने से प्रतिबंधित किया गया। यहाँ तक कि ‘वंदेमातरम’ और ‘तिलक महाराज की जय’ जैसे नारे लगाने को दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने अंग्रेजों के इस सर्कुलर की खुलकर आलोचना की। महर्षि अरविंद ने ‘वंदेमातरम’ समाचार पत्र में लेख लिखकर रिस्ले सर्कुलर की भर्त्सना की। उन्होंने स्पष्टतौर पर लिखा कि अंग्रेज युवाओं को देशभक्ति की धारा से दूर करके स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करना चाहते हैं। हालांकि, अंग्रेज इसमें सफल नहीं हो सके। उनका यह सर्कुलर युवाओं को राष्ट्रभक्ति के तराने गाने और आंदोलनों में शामिल होने से रोक नहीं सका।

शनिवार, 13 दिसंबर 2025

मध्यप्रदेश की मोहन सरकार के दो वर्ष

सशक्त नेतृत्व और संतुलित विकास के दो वर्ष

राजनीति में नेतृत्व परिवर्तन अकसर अनिश्चितता लेकर आता है, लेकिन मध्यप्रदेश में पिछले दो वर्षों ने साबित किया है कि यदि नेतृत्व में स्पष्टता और इच्छाशक्ति हो, तो परिवर्तन ‘विकास की नई गति’ का पर्याय बन जाता है। आज, जब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूर्ण कर रहे हैं, तो पीछे मुड़कर देखने पर एक ऐसी सरकार की छवि उभरती है जिसने परंपरा, आधुनिकता, कल्याकारी योजनाओं और कठोर प्रशासनिक फैसलों के बीच एक बेहतरीन संतुलन साधा है। 13 दिसंबर, 2023 को जब डॉ. मोहन यादव ने सत्ता की बागडोर संभाली थी, तब उनके सामने ‘लाड़ली बहना’ जैसी लोकप्रिय योजनाओं को जारी रखने के साथ-साथ अपनी अलग पहचान बनाने की चुनौती थी। दो साल बाद, यह कहा जा सकता है कि उन्होंने न केवल अपनी ही पार्टी की पूर्ववर्ती सरकार के अच्छे कार्यों को आगे बढ़ाया, बल्कि शासन की एक नई, अधिक सख्त और परिणाम-मूलक शैली भी विकसित की है।

गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

भाषा जोड़ती है, तोड़ती नहीं

जब कहीं से यह समाचार पढ़ने/सुनने को मिलता है कि मराठी, तमिल, तेलगू या अन्य कोई भाषा नहीं बोलने के कारण व्यक्ति के साथ मारपीट कर दी गई, तो दु:ख होता है कि संकीर्ण राजनीति हमें किस दिशा में लेकर जा रही है। हम अपनी ही भाषाओं का सम्मान क्यों नहीं कर रहे हैं? जो भाषाएं आपस में जुड़ी हैं, उनके नाम पर हम एक-दूसरे से दूर क्यों हो रहे हैं? भारत की सभी भाषाओं के शब्द भंडार एक-दूसरे के शब्दों से समृद्ध हैं। हमें तो भाषायी विविधता का उत्सव मनाना चाहिए। भारत की संस्कृति की विशेषता है कि वह विविध रूपों में प्रकट होती है। हम सब मिलकर 11 दिसंबर को महान तमिल कवि सुब्रह्मण्यम भारती की जयंती प्रसंग पर ‘भारतीय भाषा दिवस’ मनाते हैं। यह प्रसंग ही हमें भाषाओं के प्रति संवेदनशील होने की ओर संकेत करता है और बताता है कि भाषाएं मानवीय संबंधों में सेतु का कार्य करती हैं। एक-दूसरे से जोड़ती हैं। श्री भारती ने तमिल को शास्त्रीय स्वरूप से बाहर निकालकर सरल और आम बोलचाल की तमिल का प्रयोग किया ताकि उनके विचार और तमिल साहित्य का ज्ञान आम लोगों तक पहुँच सके। तमिल को प्राथमिकता देने के बावजूद सुब्रह्मण्यम भारती ने हिन्दी और तेलुगु सहित अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति भी सम्मान दिखाया। वह चाहते थे कि सभी भारतीय भाषाओं के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान हो, जिससे भारत एक सशक्त राष्ट्र बन सके। उनका स्पष्ट दृष्टिकोण था कि भारत की विभिन्न भाषाएं उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी शक्ति और सुंदरता हैं।

सोमवार, 8 दिसंबर 2025

बाबर की औलादें

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने कथित तौर पर बाबरी मस्जिद की नींव रखकर ‘बाबर की औलादों’ को जिंदा कर दिया है। अब तहरीक मुस्लिम शब्बन नाम के संगठन ने ग्रेटर हैदराबाद में बाबरी स्मारक बनाने का ऐलान किया है। ये घटनाएं केवल अपने मत-संप्रदाय के प्रति अपना विश्वास प्रकट करने का विषय नहीं है, बल्कि देश की न्यायिक व्यवस्था, सांप्रदायिक सौहार्द और संवैधानिक मूल्यों को चुनौती देने की कोशिश के तौर पर इन्हें देखना चाहिए। यह एक प्रकार से अलगाववादी सोच है, जो पहले भी भारत का विभाजन करा चुकी है। यह सोच इसलिए और भी अधिक खतरनाक दिखायी दे रही है क्योंकि ये किसी सिरफिरे कट्टरपंथियों की घोषणा मात्र नहीं है, अपितु इस विचार के पीछे मुसलमानों की अच्छी-खासी भीड़ भी खड़ी दिखायी दे रही है। कथित बाबरी मस्जिद की नींव रखने के लिए जिस तरह सिर पर ईंटें ढोकर लाते मुसलमानों की भीड़ दिखायी दी, उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। ‘नारा-ए-तकबीर, अल्लाहु अकबर’ के नारों के बीच लाखों समर्थकों का जुटना और बाबरी मस्जिद के निर्माण की बात दोहराना, साफ तौर पर मुस्लिम समुदाय की सांप्रदायिक लामबंदी को स्पष्टतौर पर रेखांकित करता है।

रविवार, 7 दिसंबर 2025

डॉक्टर साहब के विचारों से पोषित है संघ की यात्रा

जिस प्रकार छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दू समाज को आत्मदैन्य की स्थिति से बाहर निकाल कर आत्मगौरव की भावना से जागृत किया, उसी प्रकार डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने भी हिन्दू समाज का आत्मविश्वास जगाकर बिखरे हुए हिन्दुओं को एकजुट करने का अभिनव कार्य आरंभ किया। दोनों ही युगपुरुषों ने लगभग एक जैसी परिस्थितियों में संगठन का कार्य प्रारंभ किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिन उद्देश्यों के साथ हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के मूल में भी उसी ‘स्व बोध’ का संकल्प है। भारत का स्वदेशी समाज जागरूक और संगठित रहे, उसमें ही सबका हित है। स्वराज्य प्राप्ति के बाद भारत किस प्रकार अपने खाये हुए वैभव और गौरव को प्राप्त करे, यह चिंतन-धारा युगद्रष्टा डॉक्टर हेडगेवार के मन में चलने लगी थी। उसी चिंतन-धारा में से संघ धारा का एक सोता फूटा था। डॉक्टर साहब ने जिस प्रकार का संकल्प व्यक्त किया था, उसी के अनुरूप नागपुर के मोहिते बाड़ा रूप गोमुख से निकली संघधारा आज सहस्त्र धारा के रूप में समाज को सिंचित कर रही है।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

स्वयं को अनंतकाल तक बनाए नहीं रखना चाहता संघ

संघ शताब्दी वर्ष : संघमय बने समाज, संघ का लक्ष्य है कि संपूर्ण हिन्दू समाज संगठित हो और संघ उसमें विलीन हो जाए

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, उसका संपूर्ण चित्र संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के मन में था। संघ समय के साथ उनकी संकल्पना के अनुरूप ही विकसित हुआ है। इस संदर्भ में संघ के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी पुस्तक ‘कार्यकर्ता’ में लिखते हैं- “जैसे कोई कुशल चित्रकार पहले अपने मन के संकल्प चित्र की केवल आउटलाइन खींचता है। क्या कोई कह सकता है कि आउटलाइन के आगे उसके सामने कुछ भी नहीं है। ऐसा तो नहीं। उसके मन में तो पूरा चित्र स्पष्ट रूप से रेखांकित हुआ करता है, और कागज पर खींची हुई आउटलाइन में धीरे-धीरे उसी के अनुसार रंग भरते-भरते, उमलते हुए रंगों से कल्पना साकार होती है। अंग्रेजी में इसे ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि जो बात पहले से ही मौजूद रहती है, वही समय के अनुसार उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रकट होकर दिखाई देना प्रारंभ होती है। संघ कार्य का भी इसी प्रकार प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट हुआ है”। अपनी 100 वर्ष और चार चरणों की यात्रा में संघ के विस्तार के बाद अब आगे क्या, यह चर्चा सब ओर चल रही है। शताब्दी वर्ष के निमित्त संघ में भी यह चर्चा खूब है। इसका संकेत भी हमें संस्थापक सरसंघचालक डॉक्टर साहब की संकल्पना में मिलता है। आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार कहते थे कि “संघ कार्य की जुबली मनाने की कल्पना नहीं है। यानी कि शतकानुशतक संघ अपने ही स्वरूप में समाज को संगठित करने का कार्य करता रहेगा, यह कल्पना नहीं है”। डॉक्टर साहब चाहते थे कि संघ यथाशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करे और समाज में विलीन हो जाए। संघ का अगला ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ समाज के साथ एकरूप होना ही है। इसलिए संघ और समाज के लिए पाँचवा चरण बहुत महत्वपूर्ण रहनेवाला है। संघ अपने पाँचवे चरण में समाज के साथ एकरस होना चाहता है। यानी संघ जिन उद्देश्यों को लेकर चला है, वह समाज के उद्देश्य बन जाएं। यानी भारतीय समाज संघमय हो जाए। समाज और संघ में कोई अंतर न दिखे।