बुधवार, 28 मार्च 2012

ढंग से जुतियाओ तो बात बने


 ज म्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर भगत सिंह क्रांति सेना के कार्यकर्ताओं ने जूता उछाल दिया। शाह गिलानी नई दिल्ली में कश्मीर पर आयोजित सेमिनार में हिस्सा लेने पहुंचे थे। तेजिंदर पाल बग्गा के नेतृत्व में पहुंचे भगत सिंह क्रांति सेना के लोगों ने जूता उछालते हुए कहा कि देश के गद्दारों के साथ ऐसा ही सुलूक किया जाएगा। 
कुछ समय से देखने में आया है कि जूता खूब चल रहा है। शुरुआत में जूता विरोध में और क्रोध में चला। अब लगता है सुर्खियां बटोरने के लिए चल रहा है। भारत में सबसे पहले जूता गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर उछाला गया। ७ अप्रैल, २००९ को कथित पत्रकार जनरैल सिंह ने चिदंबरम को निशाना बनाया था। जनरैल सिंह १९८४ के सिख विरोधी दंगों के मामले में कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर को सीबीआई की ओर से क्लीनचिट दिए जाने से नाराज थे। उसके बाद तो हर कोई जूता चलाने निकल पड़ा। सुर्खियां बटोरने का आसान तरीका बन गया-जूता फेंकना। कांग्रेस के युवराज पर भी एक सभा में जूता उछाल दिया गया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी नहीं बच सके। उन पर जूता फेंकने वाला तो पुलिस अधिकारी ही था। जम्मू-कश्मीर के एक अन्य अलगाववादी नेता यासीन मलिक पर भी अजमेर यात्रा के दौरान चप्पल फेंकी गई। संभवत: उनका विरोध कर रहे प्रदर्शनकारी पर जूता नहीं होगा, इसलिए उसने चप्पल ही फेंक दी। भ्रष्टाचारी और देश विरोधी बयान देने वालों को ही निशाना बनाया जा रहा हो ऐसा नहीं है, कुछ सिरफिरों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-जन जागरण में लगी अन्ना टीम को भी एक-दो बार निशाने पर लिया। अन्ना टीम के अतिसक्रिय सदस्य अरविंद केजरीवाल सहित किरण बेदी, कुमार विश्वास और मनीष सिसौदिया जब देहरादूर में सभा को संबोधित कर रहे थे तो शराब के नशे में धुत एक युवक ने मंच की ओर जूता उछाला दिया था। वहीं कालेधन के खिलाफ गांव-गांव तक रथयात्रा निकालने वाले योगगुरु बाबा रामदेव की ओर सीआरपीएफ के जवान ने जूता उछाल दिया था। 
पी. चिदंबरम से शाह गिलानी तक कई नाम हैं, जिन पर जूता उछाला जा चुका है। यह फेरहिस्त हो भी लंबी होगी इसकी संभावना नजर आ रही है। लेकिन, जूता चलाने और उछाने की (कु) परंपरा से कोई बदलाव आया, ऐसे दिखता नहीं। ऐसे में जूता चलाने वालों को जूता चलाने के कुछ नए तरीके सोचने होंगे। हवा में जूता उछालने का तरीका बेहद पुराना, घटिया और उबाउ हो गया है। जूता उछालकर सुर्खियां बटोरने वालों को मेरी सलाह है कि वे श्रीलाल शुक्ल की रागदरबारी का पारायण कर लें। उसमें जूता चलाने के नए और कुछ पारंपरिक तरीके दिए गए हैं। जूता चले तो कुछ इस ढंग से चले कि व्यवस्था में परिवर्तन आ सके अन्यथा कोई मतलब नहीं। सुर्खियां ही बटोरना है तो दिल्ली के विश्वविद्यालय जेएनयू के विद्यार्थियों से सीख लें। उन्हें चर्चित रहने के फण्डे बेहतर पता हैं। कभी वे हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान कर महान कम्युनिस्ट बन जाते हैं तो कभी रामायण का (कु)पाठ कराने की जिद पाल कर चर्चित हो जाते हैं। यही नहीं हाल ही में उन महान सेकुलरों ने विश्वविद्यालय की मेस में सूअर और गाय का मांस परोसे जाने की मांग की है। ये भी जूतों के ही भूत हैं बातों से नहीं मानेंगे लेकिन सवाल वही कि जूता कैसे चलाएं कि कुछ बात बने।

जूता चलाने की पद्धतियां 

रागदरबारी में वर्णित और मेरे अंचल में प्रचलित कुछ जूता चलाने की पद्धतियां यहां में प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि जूता चलाने वाले अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। किसी को ढंग से जुतियाना (जूता मारना) हो तो पहले जूते को तीन दिन तक पानी में भिगाकर रखें। यह ध्यान रखें कि जूता फटा हुआ हो। क्योंकि फटा हुआ और तीन-चार दिन पानी में भिगाया हुआ जूता मारने में अच्छी आवाज करता है, दूर-दूर तक लोगों को सूचना मिल जाती है कि कहीं जूता चल रहा है। तीन दिन पानी में गीला होने से जूते का चमड़ा जरा हरिया जाता है, तब मार भी अच्छी पड़ती है। इस पद्धति का उपयोग देश और संस्कृति विरोधी कार्यों में संलिप्त लोगों के लिए करना चाहिए। जब बात पढ़े-लिखे आदमी को जुतियाने की हो तब गोरक्षक जूते का उपयोग करना चाहिए। गोरक्षक जूते से पिटाई करने में मार तो बढिय़ा पड़ जाती है पर आदमी बेइज्जती से बच जाता है। वह अपने बचाव में कह भी सकता है कि मेरी पिटाई ऐरे-गैरे जूते से नहीं गोरक्षक जूते से हुई है। इसके अलावा जुतियाने का सबसे बढिय़ा और शानदार तरीका है कि गिनकर सौ जूते मारने चलें, निन्यानबे तक आते-आते पिछली गिनती भूल जाएं और फिर से एक से गिनकर, नए सिरे से जूता लगाना शुरू कर दें। जूता चलाने में नवाचार तो होना ही चाहिए। इसलिए जूता चलाने का ख्याल मन में रखने वालों से निवेदन है कि वे इनमें से कोई फण्डा अपनाएं या फिर कुछ और नया करें। कुल मिलाकर जूता कुछ ऐसे चले कि बात बन जाए। 

28 टिप्‍पणियां:

  1. जूता पुराण को नया अंदाज़ और नयी दिशा दे रहे हैं आप ... बस जीते को लेकर नयी सोच की जरूरत है ...

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  2. हमारी अम्मा एक पुरानी बात (जुतियाने से सम्बंधित)कहती हैं.. उनके अनुसार सौ जूता मारो और एक गिनो और इस तरह पचास जूते मारो (गणित का सवाल हो गया ये तो)... अब अगर इसमें श्रीलाल शुक्ल जी का गणित मिला दिया जाए तो निन्यानबे तक गिनती भूल जाओ और फिर से गिनो.. ऐसे में सात पुश्तें जूता देखकर डरेंगी!!

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  3. बढ़िया भाई ।।



    जुते बैल जब काम में, जूते से क्या काम ।

    जूताखोरों पर चले, हुवे व्यर्थ बदनाम ।

    हुवे व्यर्थ बदनाम, सलाहें माँ की प्यारी ।

    श्री लाल जी शुक्ल, ब्लॉगर बना बिहारी ।

    बढ़िया रखते राय, मगर जब इसी दाम में ।

    दो दो रोटी खाय, जुते जो बैल काम में ।


    इसलिए भैया फेंक-कर मत मारो ।-----

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  4. बढ़िया आलेख... सचमुच जूता चलाने वालों को राग दरबारी से प्रेरणा लेनी चाहिए....:)))

    सादर।

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  5. वाह!!!!!सुंदर फंडा,क्या बात है,जरूरत पड़ी तो जरूर आजमाऊगाँ...

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: तुम्हारा चेहरा,

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  6. बहुत खूब! अच्छा तरीका बताया है....

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  7. राजनीति में तो वैसे ही जूतम-पैजार के सिवा ज़्यादा कुछ बचा नहीं है। जूताकार तो हर रोज़ ही नये नुस्खे ढूंढ रहे हैं, इस आलेख से उन्हें काफ़ी फ़ायदा होगा।

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  8. अब इन गद्दारों को कोई फर्क नहीं पड़ता जूते से, ये बेशर्मी की सारी सीमाए लांघ चुके हैं ! इनके लिए तो बस टकही एकमात्र उपाय है !

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  9. लोकेंद्रजी, जूता पुराण बहुत रोचक बन पड़ा है.

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  10. लोकेन्द्र जी, 'जूते' पर आपके 'एक्सपर्ट ओपिनियन' को मैं चेलेंज तो नहीं करता पर इतना बता देना मैं अपना कर्तब्य मानता हूँ कि कुछ लोग इतने बेशर्म होते हैं कि 'सौ सौ जूते खाएँ तमाशा घुसकर ही देखेंगे'मैं ऐसे कई दादाओं को जनता हूँ जो रोज जूते खाते हैं और सर हिलाकर ,बल सहलाकर बाहर आकर यह बताते हैं कि अंदर उनकी बहुत अच्छी खातिर हुई। इसलिए सड़क पर ही जूते मारना सही तरीका है। पर कुछ लोग तो इतने 'जूताप्रूफ़'हो जाते हैं कि सड़क पर भी पड़ें तो हँसकर सब झेलते रहते हैं ताकि लोग समझें कि यह आपसी मामला है दो दोस्तों का। आपने वह किस्सा भी सुना होगा जिसमें किसी ने सौ जूते या सौ प्याज खाने की शर्त स्वीकार की थी और जब कुछ प्याज खाने के बाद उसे लगता कि इससे बेहतर तो जूता खाना ही अच्छा है तो जूते खाने लगता ,पर जूते का दर्द असहनीय होने पर प्याज खाने लगता इस तरह उसने सौ प्याज भी खा गया और सौ जूते खाने का आनंद भी उठाया।राजनीति में जूते खानेवाले इतने बेशर्म और हाज़िरजवाब होते हैं कि वे जुतमंजन संस्कार को राजनीति की फली सीधी मानते हैं और बड़े नेता को विपक्ष का षड्यंत्र मानते हैं? पर मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस तरह का निर्णय कोई भी नेता नहीं लेगा क्योंकि उसे पता है कि यह सब चला तो उसका नंबर भी तो आ सकता है। खैर जूतों के बारे में मेरे पास बहुत सामग्री है। यदि किसी को थीसिस करना हो तो आपके माध्यम से संपर्क कर सकता है। उसे विशेष रियायत मिलेगी।

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  11. लोकेन्द्र जी, 'जूते' पर आपके 'एक्सपर्ट ओपिनियन' को मैं चेलेंज तो नहीं करता पर इतना बता देना मैं अपना कर्तब्य मानता हूँ कि कुछ लोग इतने बेशर्म होते हैं कि 'सौ सौ जूते खाएँ तमाशा घुसकर ही देखेंगे'मैं ऐसे कई दादाओं को जनता हूँ जो रोज जूते खाते हैं और सर हिलाकर ,बाल सहलाकर बाहर आकर यह बताने लगते हैं कि अंदर उनकी बहुत अच्छी खातिर हुई। इसलिए सड़क पर ही जूते मारना सही तरीका है। पर कुछ लोग तो इतने 'जूताप्रूफ़'हो जाते हैं कि सड़क पर भी पड़ें तो हँसकर सब झेलते रहते हैं ताकि लोग समझें कि यह आपसी मामला है दो दोस्तों का। आपने वह किस्सा भी सुना होगा जिसमें किसी ने सौ जूते या सौ प्याज खाने की शर्त स्वीकार की थी और जब कुछ प्याज खाने के बाद उसे लगता कि इससे बेहतर तो जूता खाना ही अच्छा है तो जूते खाने लगता ,पर जूते का दर्द असहनीय होने पर प्याज खाने लगता इस तरह उसने सौ प्याज भी खा गया और सौ जूते खाने का आनंद भी उठाया।राजनीति में जूते खानेवाले इतने बेशर्म और हाज़िरजवाब होते हैं कि वेजूते मारने और खाने की कला को 'जुतमंजन संस्कार' मानते हैं और उनका मानना यह भी है कि यह राजनीति की पहली सीढी हैं , वहीं बड़े नेता इस कृत्य को विपक्ष का षड्यंत्र मानते हैं? पर मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस तरह के व्यवहार से नेता दूर ही रहते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि यह सब प्रचलन में आ गया तो उसका नंबर भी तो आ सकता है। खैर जूतों के बारे में मेरे पास बहुत सामग्री है। यदि किसी को थीसिस करना हो तो आपके माध्यम से संपर्क कर सकता है। उसे विशेष रियायत मिलेगी।

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  12. जूता अस्त्र भी है और शस्त्र भी।
    जूतों के सदुपयोग पर अच्छा व्यंग्य।

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  13. गोरक्षक जूते से पिटाई करने में मार तो बढिय़ा पड़ जाती है पर आदमी बेइज्जती से बच जाता है। वह अपने बचाव में कह भी सकता है कि मेरी पिटाई ऐरे-गैरे जूते से नहीं गोरक्षक जूते से हुई है...
    हाँ भाई लोकेन्द्र जी इससे सांप भी मरेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी ..अच्छा व्यंग्य ...कुछ तो विरोध होना जरुरी है भी नहीं तो ये ...
    भ्रमर ५

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  14. सेक्युलर और नौटंकीबाजों के मुंह पर जबरदस्त चांटा मारा है इस आलेख ने। बधाई।

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  15. जब देश का मीडिया पापियों की पैरवी करे, जब सत्ता दलाली का औजार बन जाए. जब आम आदमी की नहीं सूनी जाए तो..वह जूता उछालने पर मजबूर हो जाता है. बेचारे के पास यही हथियार बचता है. अब आख़िरी जूता कोंग्रेस के नाम हो जाए तो बात बने..!

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  16. अपनी असहमति और आक्रोश व्यक्त करने का सबसे आसान तरीका है जूता फेंकना. जिस किसी पर भी जूता चलाया गया वो खास लोग हैं, और चलाने वाला जानता है कि खास पर जूता चलाने का परिणाम क्या होगा, फिर भी जूता दे मारता है. निःसंदेह जूता चलाना गलत है. पर शायद कोई उपाय नहीं सूझता होगा क्योंकि जूता मारकर जान बूझकर खुद के लिए मुसीबत मोल लेते हैं. ये भी सच है कि आम आदमी सिर्फ नाम कमाने के लिए जूता नहीं मारता. परन्तु जूता ऐसा मारो कि कुछ तो फर्क पड़े...

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  17. लोकतंत्र का जूता पर्व कब आरम्भ हुआ इसका कोई निश्चय नहीं लेकिन यह बात निश्चयात्मक तौर पर कही जा सकती है गत ६४ सालों से हमारे रहनुमा जूती में दाल बांटकर खा रहें हैं जूता मिसायल चला रहें हैं और अब तो जूता भी चांदी का चलता है ..अच्छी उत्प्रेरक रचना .तिहाड़ खोर सुने का जूता चलातें हैं और कलमाड़ी बन लौटते हैं विजय भाव से .

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  18. वाह! क्या बात है.
    यह भी खूब रही ढंग से बात मनवाने की.

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