बुधवार, 27 जनवरी 2010

नहीं लडूंगा अब अकेले....


समाज क्या होता है? क्यों समाज में उठना-बैठना चाहिए? क्यों एकांकी जीवन सदा आनंददायक नहीं होता? दो-तीन दिन में सही अर्थ समझा इन बातों का। हमारे बुजुर्ग जो भी कह गए हैं सौ फीसदी सही कह गए हैं। उन्होंने यूं ही धूप में बाल सफेद नहीं किए थे मान गए गुरू। अब सुनो, हमें यह बात दो-तीन दिन में क्योंकर समझ में आई? असल में ठीक आज से दो-ढाई साल पहले अपन सामाजिक आदमी थे। २४ में से १४ घंटे समाज के बीच में बीतते थे। खासकर वंचित समाज के बीच। बड़ा प्यार मिलता था। चाहे छोटा बच्चा हो या फिर ७० साल का आदरणीय वृद्ध। सभी प्रेम और अधिकार पूर्वक भैया संबोधन के साथ पुकारते थे। जब भी बस्ती में कदम रखता पहले पहल "राम-राम भैया जी" से स्वागत होता था। फिर छोटे-छोटे दोस्त अपने-अपने घर जबरन खींचकर ले जाते। वहां मां-बहनें वात्सल्य रस से सरोबोर कोई चाय तो कोई आलू के परांठे खिलाते। सबको पसंद था कि मुझे आलू के परांठे पसंद हैं, इसी वजह से कई शाम मेरी बस्ती के मेरे अपने घरों में बुक रहती थी। कभी मुझे कोई परेशानी हो या उन्हें कोई परेशानी हो तो बेवक्त और वक्त पर हम एक-दूसरे के साथ खड़े रहते थे। आज सब यह बड़ा याद आ रहा है। कारण है इसका। दो-तीन दिन से अकेला हूं। अपने मुश्किल समय में। एक-दो लोगों को छोड़ दूं तो कोई साथ नहीं खड़ा। सब अपने-अपने काम में मस्त हैं। ऐसे नहीं है कि उन्हें मेरी समस्या का पता न हो। दुख तो इस बात का है कि मदद मांगने पर भी नकार सुनने को मिल रही है। कोई कहीं बिजी है तो कोई कहीं। खैर सबको बिजी रहने का मौलिक अधिकार है। आखिर कल ही तो गणतंत्र दिवस था सबको खूब याद आए होंगे अपने मौलिक अधिकर पर मौलिक कर्तव्य तो किसी ने भूलकर भी याद नहीं किए होंगे कसम राम की।
मुझे किसी बात की इतनी परवाह नहीं है। परवाह है तो इस बात की कि मैं अपने उन निस्वार्थ लोगों से कितना दूर हो गया। यह आजकल की पढ़ाई और नौकरी का कमाल है। नहीं-नहीं यह तो सिर्फ और सिर्फ मेरा दोष है। मुझ पर वक्त था उनके साथ बिताने का, लेकिन मेरी मती फिर गई थी जो गलत जगह अनमोल समय जाया कर दिया। हे भगवान मुझे फिर से उनके बीच जाने का अवसर दे। तू अवसर दे या नहीं दे मैं तो ढूंढ लूंगा। उनके दिलों में मेरे लिए जो प्रेम है वो मर थोड़े गया होगा। अभी भी थोड़ा तो जीवित होगा। उसे फिर से प्रगाढ़ कर लुंगा मेरे राम मेरा तुझसे वादा रहा। अब मैं अकेले नहीं लडूगां फिर से मेरे अपने मेरे साथ होंगे, ठीक पहले की तरह। फिर से मैं बेफिक्र रहकर किसी भी मुश्वित को न्यौता दे सकूंगा या फिर छिपकर और अचानक आई समस्या से लड़ सकूंगा। सबके साथ। अब बस इस बार अकेला लड़ लूं, फिर जीतकर मुझे थोड़ी फुरसत मिलेगी। वही मेरे लिए मौका होगा अपनों के पास जाने का। अच्छा दोस्तो अभी मुझे अकेला लडऩा है तो मैं चलता हूं फिर जल्दी ही मिलूंगा......

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पसंद करें, टिप्पणी करें और अपने मित्रों से साझा करें...
Plz Like, Comment and Share