गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

स्वयंसेवकों के परिश्रम, त्याग, समर्पण और सेवा की कमाई है यह सिक्का

आरएसएस 100 : संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने जारी किया स्मृति डाक टिकट एवं सिक्का

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के प्रसंग पर भारत सरकार ने विशेष डाक टिकट और 100 रुपये का सिक्का जारी किया है। यह साधारण सिक्का नहीं है, जो प्रसंगवश जारी किया गया है। संघ के स्वयंसेवकों ने यह सिक्का अपने परिश्रम, त्याग, समर्पण और राष्ट्र की सेवा से कमाया है। हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज का संरक्षण कर देश की स्वतंत्रता एवं सर्वांगीण उन्नति का व्रत लेकर चलने वाले स्वयंसेवकों ने संघ रूपी राष्ट्रीय आंदोलन को यशस्वी बनाने में अपना जीवन खपाया है, तब जाकर यह अवसर आया है। अपनी स्थापना के प्रारंभ से ही संघ ने अनेक कठिनाइयों एवं अवरोधों का सामना किया। सत्ता के हठ से भी स्वयंसेवक टकराए। लेकिन, किसी के प्रति बैर भाव रखे बिना स्वयंसेवक राष्ट्र की साधना में समर्पित रहे। अपने कार्य की सिद्धि से स्वयंसेवकों ने उनका हृदय भी जीता, जो कभी संघ को समाप्त कर देना चाहते थे। इसलिए यह सिक्का केवल शताब्दी वर्ष का स्मृति चिह्न नहीं है अपितु संघ की वास्तविक कमाई का प्रतिनिधित्व है। सर्व समाज का विश्वास, अपनत्व, प्रेम और सहयोग, यही संघ की वास्तविक कमाई है। अपने संघ की 100 वर्ष की यात्रा में स्वयंसेवक सबको अपना बनाते हुए संघ यहाँ तक आ पहुँचे हैं कि समाज बाँहें फैलाकर उनका स्वागत कर रहा है। संस्कृति मंत्रालय की ओर से डॉ. अम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र, दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘100 वर्षों की गौरवपूर्ण यात्रा का स्मरणोत्सव’ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यही बात दोहरायी कि “संघ के स्वयंसेवकों ने कभी कटुता नहीं दिखाई। चाहे प्रतिबंध लगे, या साजिश हुई हो। सभी का मंत्र रहा है कि जो अच्छा है, जो कम अच्छा, सब हमारा है”। उन्होंने कहा कि संघ के स्वयंसेवक लगातार देश सेवा में जुटे हैं। समाज को सशक्त कर रहे हैं, इसकी भी झलक इस डाक टिकट में है। मैं इसके लिए देश को बधाई देता हूं।

संघ शताब्दी वर्ष पर जारी विशेष डाक टिकट पर एक लोगो अंकित है, जिस पर लिखा है- ‘राष्ट्र सेवा के 100 वर्ष (1925-2025)’। इसके साथ ही लोगो के नीचे लिखा है- राष्ट्रभक्ति, सेवा और अनुशासन। संघ की 100 वर्ष की यात्रा की झलक दिखाने के लिए दो चित्र भी डाक टिकट पर दिखायी देते हैं- पहला, 1963 की गणतंत्र दिवस में शामिल स्वयंसेवक और दूसरा, सेवा एवं राहत कार्य करते स्वयंसेवक। इन दोनों ही चित्रों का विशेष महत्व है। यह सबको ज्ञात है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पूर्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर पूर्वाग्रहों से ग्रसित थे, जिसके कारण वे संघ को समाप्त करने की इच्छा भी व्यक्त कर चुके थे। लेकिन 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में कम्युनिस्टों की गद्दारी देखकर उनका गहरा धक्का लगा। वहीं, जिस संगठन के प्रति उनके मन में सद्भाव नहीं था, वही संगठन युद्ध के समय सरकार के साथ सहयोगी के तौर पर खड़ा था। राजधानी से लेकर सीमारेखा तक, संघ के स्वयंसेवक सहायता कर रहे थे। सैनिकों की सहायता हो या नागरिक अनुशासन, संघ ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। इसी बात से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने के लिए आरएसएस को आमंत्रित किया। संघ के तीन हजार स्वयंसेवक इस राष्ट्रीय परेड में शामिल हुए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने भाषण में इस प्रसंग का उल्लेख किया। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष पर भारत सरकार की ओर से जारी विशेष डाक टिकट

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जारी किया विशेष सिक्का

जब भी देश में संकट का वातावरण बना है, स्वयंसेवक सबसे आगे खड़े मिले हैं। याद हो, 1965 में जब भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध प्रारंभ हुआ, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी संघ के सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्या श्रीगुरुजी को रणनीतिक बैठक में आमंत्रित करके महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी थी। इसी, डाक टिकट पर दूसरा चित्र बताता है कि देश में कहीं भी आपदा आती है, तब स्वयंसेवक आगे बढ़कर सेवाकार्य करते हैं। भारत विभाजन की विभीषिका से लेकर अभी हाल में आई वैश्विक महामारी कोरोना में संघ के स्वयंसेवकों का समाजसेवा का जज्बा दुनिया ने देखा। देशभर में कहीं भी बाढ़, सूखा, भूकंप या अन्य हादसे होते हैं, तो बिना देरी किए संघ के कार्यकर्ता अपने सामर्थ्य के अनुरूप सहयोग करने के लिए जुट जाते हैं। संघ के सेवाभाव को देखकर अकसर विरोधी भी खुलकर प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाते हैं। स्वयंसेवक की संकल्पना की कितनी सुंदर और सटीक परिभाषा प्रधानमंत्री मोदी ने दी है- “हमने देश को ही देव माना है और देह को ही दीप बनकर जलना हमने सीखा है”।

इसी प्रकार, 100 रुपये के स्मृति सिक्के पर एक ओर भारत का राष्ट्रीय चिह्न अंकित है। जबकि दूसरी ओर, सिंह के साथ वरद मुद्रा में भारत माता की सांस्कृतिक छवि और भारत माता को नमन करते स्वयंसेवकों को उकेरा गया है। प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि स्वतंत्र भारत में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत की मुद्रा पर भारत माता की तस्वीर अंकित हुई है। सिक्के पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ कार्य को अभिव्यक्त करनेवाला ध्येय वाक्य- ‘राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय, इदं न मम’ लिखा हुआ है। संघ के स्वयंसेवक ‘प्रसिद्धि परांगमुख भाव’ से समाजहित में कार्य करते हैं। सेवा कार्यों को उपकार की तरह देखने की अपेक्षा स्वयंसेवक सेवा को करणीय कार्य के तौर पर देखते हैं। इसलिए संघ के स्वयंसेवक को श्रेय, यश की लालसा नहीं होती, उसके लिए राष्ट्रहित ही सर्वोपरि होता है। कहना होगा कि यह डाक टिकट एवं सिक्का, स्वयंसेवकों की अहं से वयं की यात्रा को अभिव्यक्त करता है। 

इस प्रसंग पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संघ की व्यापक दृष्टि को ऐतिहासिक उदाहरण देकर स्पष्ट किया। संघ के अधिकारी अकसर कहते हैं कि संघ संपूर्ण समाज को अपना मानता है। यही कारण है कि संघ ने अपने पर हुए हमलों को भुलाते हुए सबको गले लगाया है। प्रधानमंत्री मोदी उल्लेख करते हैं कि “राष्ट्र साधना की यात्रा में ऐसा नहीं कि संघ पर हमले नहीं हुए, स्वतंत्रता के बाद भी संघ को मुख्यधारा में आने से रोकने के लिए षड्यंत्र हुए। पूज्य गुरुजी को जेल तक भेजा गया। जब वे बाहर आए तो उन्होंने कहा था कि कभी-कभी जीभ दांतों के नीचे आकर दब जाती है, कुचल जाती है, लेकिन हम दांत नहीं तोड़ देते, क्योंकि दांत भी हमारे हैं, जीभ भी हमारी है”। नि:संदेह, संघ की यही दृष्टि उसको व्यापक बनाती है। संघ की 100 वर्ष की यशस्वी यात्रा के पीछे यही दृष्टिकोण है। संघ को रोकने के लिए उस पर तीन-तीन बार प्रतिबंध लगाए गए, कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित किया गया लेकिन इसके बाद भी संघ ने सबके साथ आत्मीय भाव से संवाद जारी रखा। उसका परिणाम भी आया, अनेक लोगों के हृदय परिवर्तन हुए। जो कभी संघ को कोसते थे, बाद में संघ में आए, संघ कार्य को आगे बढ़ाया और संघ की प्रशंसा भी की। प्रधानमंत्री मोदी उचित ही कहते हैं कि “जिन रास्तों में नदी बहती है, उसके किनारे बसे गांवों को सुजलाम् सुफलाम् बनाती है। वैसे ही संघ ने किया। जिस तरह नदी कई धाराओं में अलग-अलग क्षेत्र में पोषित करती है, संघ की हर धारा भी ऐसी ही है”। 

देखें यह वीडियो ब्लॉग : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राजनीति

मध्यप्रदेश का स्वदेशी जागरण महाभियान

भारत को आत्मनिर्भर बनाने के संकल्प को पूरा करने के लिए मध्यप्रदेश की मोहन सरकार केंद्र की मोदी सरकार के साथ कदमताल कर ही रही थी कि अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वदेशी के आह्वान को जन-जन तक पहुँचाने के लिए मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने राज्य स्तरीय स्वदेशी जागरण सप्ताह का शुभारंभ करके स्वदेशी को जनाभियान बनाने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। इसे केवल एक सरकारी कार्यक्रम के तौर पर देखना उचित नहीं होगा। यह तो आत्मनिर्भर भारत के व्यापक राष्ट्रीय लक्ष्य के प्रति मध्यप्रदेश की गंभीर प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भले ही इस महाभियान की योजना 25 सितंबर से 2 अक्टूबर तक (पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती से महात्मा गांधी की जयंती) की गई हो, लेकिन स्वदेशी के विचार को जन-जन तक पहुँचाने के लिए यह आंदोलन लंबा चलना चाहिए। कोई भी आंदोलन लंबा तब ही चलता है, जब समाज की सज्जनशक्ति उसे अपना आंदोलन मानकर चलती है। कहना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से प्रारंभ हुआ ‘स्वदेशी जागरण मंच’ लंबे समय से स्वदेशी के आंदोलन को चला रहा है, जिसके कुछ सुखद परिणाम हमें अपने आस-पास दिखायी पड़ते हैं।

शनिवार, 27 सितंबर 2025

तकनीक का सहारा लेकर बच्चों को सुनाएं दादी-नानी की कहानियां

भारत कहानियों का देश है। कहानियां, जो न केवल हमारा मनोरंजन करती हैं अपितु हमारे व्यक्तित्व विकास में भी सहायक हैं। कहानियां, हमारे मन में सेवा, संस्कार, साहस पैदा करती हैं। लोक जीवन की सीख देती हैं। इसलिए तो कहानियां सुनना और सुनाना हमारी परंपरा में है। कौन नहीं जानता कि छत्रपति शिवाजी महाराज के विराट व्यक्तित्व का निर्माण जिजाऊ माँ साहेब ने राम-कृष्ण की कहानियां सुनाकर किया। पंडित विष्णु शर्मा ने राजा अमरशक्ति के तीन अयोग्य राजकुमारों को नैतिकता, बुद्धिमत्ता और राजनीतिक ज्ञान ‘पंचतंत्र’ की कहानियां सुनाकर ही तो दिया। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनकर ही तो महात्मा गांधी के मन में सत्य के प्रति गहनी निष्ठा ने जन्म लिया। हमारे साहित्य में भरी पड़ी हैं- बच्चों की कहानियां, वीर बालकों की कहानियां, दयालु बालकों की कहानियां, दादी-नानी की कहानियां, पौराणिक कहानियां, पंचतंत्र की कहानियां। कहानियों की एक पूरी दुनिया है। 

आज से 20-25 साल पहले के समय को याद कीजिए, उस समय हम सब शाम को भोजन करने के बाद अपनी माँ, दादी-दादा, नानी-नाना से कहानी सुनकर ही नींद के आगोश में जाते थे। भारतीय आख्यानों के अलावा समुद्री लुटेरों,  आम आदमी से लेकर राजा-रानियों की कहानियां हमें स्वप्नलोक की सैर करती थीं। मेरे गाँव में हमारे एक बाबा थे- दाऊबाबा, उनके पास कहानियों का भंडार था। हमें बस उन्हें बताना होता था कि आज किस प्रकार की कहानी सुनने की इच्छा है। उनकी जादुई पोटली से एक से एक शानदार कहानियां निकलकर आतीं, जो कभी रोमांच जगाती, कभी लोट-पोट करतीं तो कभी हौले से जीवन की सीख दे जातीं। कहानी सुनाने का उनका कौशल इतना गजब का था कि हम एक-एक दृश्य को घटते हुए देख पाते थे। कहानियों के पात्रों से खुद को जोड़ पाते थे, उनमें छिपे संदेशों को समझते थे और अपने जीवन में उतारते थे।

उस समय रेडियो-टीवी घर-घर में नहीं पहुँचा था और इंटरनेट ने भी इस तरह पैर नहीं पसारे थे, तब मनोरंजन का मुख्य साधन कहानियां ही होती थीं। परंतु, परिवर्तन का पहिया तो लगातार घूमता रहता है। इसलिए समय के साथ परिवेश बदल गया। वर्तमान में तकनीक के तेज विकास से इस बदलाव को पंख लग गए हैं। आज के समय में दादी-नानी से कहानियां सुनने वाले बच्चे सौभाग्यशाली हैं। दरअसल, मनोरंजन की यह जिम्मेदारी दादी-नानी से अब टेलीविजन और मोबाइल ने ले ली है। टेलीविजन और मोबाइल की इस दुनिया में सब प्रकार की सामग्री उपलब्ध है। इसलिए आज सबसे अधिक जरूरत इस बात की है कि अभिभावक यह सुनिश्चित करें कि उनके बच्चे क्या देख-सुन रहे हैं? यह तकनीक बहुत प्रभावशाली है। जैसा कंटेंट वह देखेगा, उसकी छाप उसके व्यक्तित्व में दिखायी देगी। बच्चों के व्यक्तित्व पर सकारात्मक प्रभाव पड़े, वे अपने मूल्यों और परंपरा से जुड़ सकें, इसलिए इस तकनीक का उपयोग करके हमें उन्हें दादी-नानी की कहानियों से जोड़ना चाहिए। डिजिटल कंटेंट का निर्माण करनेवाले रचनाधर्मी लोग दादी-नानी की कहानियों की परंपरा को अपने ढंग से बचाने का प्रयास कर रहे हैं। ऑडियो-विजुअल में तैयार हो रही यह कहानियां बच्चों को खूब पसंद भी आ रही हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम बच्चों को अपनी इन कहानियों को देखने-सुनने का चस्का लगाएं। कोविड-19 जनित कोरोना महामारी में जब हम अपने घरों में बंद हो गए थे, तब हॉटस्टार पर उपलब्ध एनिमेशन वेबसीरीज ‘द लीजेंड ऑफ हनुमान’ बच्चों को दिखायी। उन्हें यह एनिमेशन वेबसीरीज बहुत पसंद आई। उन्होंने अगले सीजन की बेसब्री से प्रतीक्षा की। इसी तरह, अपने समय का ‘विक्रम-बेताल’ भी उन्हें दिखाया। विक्रम-बेताल की शिक्षाप्रद कहानियों को भी बच्चों ने खूब पसंद किया। आज इन कहानियों को पुन: नये अंदाज में प्रस्तुत किया जा सकता है।

याद करें, हम भारतीय आख्यानों पर आधारित कॉमिक्स ‘अमर चित्रकथा’ खूब रुचि लेकर पढ़ते थे। बदलते परिवेश में अमर चित्रकथा की कहानियां डिजिटल माध्यमों पर उपलब्ध हैं। श्रीकृष्ण, छोटा भीम, मोटू-पतलू इत्यादि कार्टून शृंखला के रूप में भी नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने की कहानियां बच्चों तक पहुँच रही हैं। जब नयी पीढ़ी डिजिटल दुनिया में प्रवेश कर ही गई है, तब उनके साथ संतुलन साधते हुए दादी-नानी की कहानियों का विकल्प उन्हें डिजिटली रूप में उपलब्ध कराना ही होगा। इसके अलावा हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। अच्छा कंटेंट नहीं मिलेगा, तब वे व्यर्थ की सामग्री को देखकर बड़े होंगे। हमें यह स्वीकार करना होगा कि आज का दौर पूरी तरह बदल चुका है। बच्चे हों या बड़े, सब अपनी-अपनी दुनिया में खोए हुए हैं। मनोरंजन के साधन अब असीमित हैं। बच्चे अब यूट्यूब और अन्य प्लेटफार्मों पर कार्टून के माध्यम से कहानियां देखते हैं। ‘छोटा भीम’, ‘मोटू-पतलू’, ‘लिटिल कृष्णा’, ‘बाल गणेश’, ‘वीर द रोबोट बॉय’, ‘द हनुमान’, ‘लव-कुश’ और ‘अर्जुन : द वॉरियर प्रिंस’ जैसे कार्टून उनके नए साथी बन गए हैं। भारत के बाहर के कैरेक्टर्स पर आधारित कार्टूनों ने भी बच्चों के बीच जगह बनायी है। या कहें कि वर्तमान परिदृश्य में उन्हें ही अधिक देखा जा रहा है। हम थोड़े प्रयास करें, तो भारतीय पृष्ठभूमि के कार्टून बच्चों की पहली पसंद बन सकते हैं। हमें थोड़ा समय देकर, उनके साथ बैठकर, इन कार्टूनों को देखकर और बच्चों के साथ संवाद करके उनके मन में रुचि जगानी होगी।  

याद रहे कि ये कार्टून और एनिमेटेड कहानियां बच्चों को एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं। इनमें भी नैतिक कहानियां, वीरता और बुद्धिमत्ता से जुड़े प्रसंग होते हैं। बच्चे इन कहानियों के पात्रों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करते हैं, क्योंकि ये उनकी दृश्य दुनिया का हिस्सा हैं। ये कहानियां उन्हें एक साथ कई तरह की जानकारी देती हैं - जैसे कि रंग, आकार, और ध्वनियाँ। इससे बच्चों के बौद्धिक विकास में मदद मिलती है। इसलिए दादी-नानी की कहानियों की जगह जब ऑडियो-विजुअल आधारित कहानियां ले रही हैं, तब उनके चयन में हमें सावधानी बरतनी होगी। वैसे, श्रेष्ठ तो यही होगा कि हमारे घरों में दादी-नानी द्वारा कहानी सुनाए जाने की परंपरा पुन: दिखायी दे। क्योंकि, दादी-नानी की कहानियों में जो अपनापन, स्पर्श और भावनात्मक जुड़ाव था, वह शायद ही किसी आधुनिक माध्यम में मिल पाए। 


हिन्दी विवेक के 7-13 सितंबर, 2025 के अंक में प्रकाशित




शनिवार, 20 सितंबर 2025

विक्रमादित्य वैदिक घड़ी : भारतीय कालगणना की ओर बढ़ते कदम

भारत का समय-पृथ्वी का समय

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मुख्यमंत्री आवास के बाहर लगी 'विक्रमादित्य वैदिक घड़ी'

पिछले कुछ वर्षों में मध्यप्रदेश की धरती सांस्कृतिक पुनरुत्थान का केंद्र बन गई है। सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इन प्रयासों में नयी कड़ी है- विक्रमादित्य वैदिक घड़ी का लोकार्पण। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने मुख्यमंत्री निवास पर ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ का अनावरण करके भारतीय कालगणना की ओर आम लोगों का ध्यान तो खींचा ही है, इसके साथ ही कालगणना की अपनी परंपरा को फिर से लोक प्रचलन में लाने के प्रयासों का केंद्र बिन्दु भी मध्यप्रदेश को बना दिया है। यह पहल उम्मीद जगाती है कि भविष्य में पंचांग पर आधारित यह ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ लोक प्रचलन में आ जाएगी और तिथि, मुहूर्त, माह, व्रत, त्योहार की सटीक जानकारी प्राप्त करने की हमारी कठिनाई को दूर कर देगी। सबको उम्मीद है कि हमारे हाथ पर बंधी डिजिटल घड़ियों में भी जल्द ही यह सुविधा आ जाएगी कि हम उनमें ‘भारत का समय’ देख सकें। फिलहाल ‘विक्रमादित्य वैदिक घड़ी’ ऐप के रूप में उपलब्ध है, जिसे हम अपने मोबाइल फोन में उपयोग कर सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक नगर उज्जैन का कालगणना के साथ गहरा नाता है। यहाँ प्रकाशित ज्योतिर्लिंग को इसलिए ही ‘महाकाल’ कहा गया है। यह शुभ संयोग ही है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी महाकाल की नगरी उज्जैन से आते हैं।

शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

प्रधानमंत्री मोदी ने किया स्वदेशी का आग्रह

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने जन्मदिन पर मध्यप्रदेश की भूमि से ‘स्वदेशी’ का आग्रह किया है। नवरात्रि से हमारे उत्सवों की एक शृंखला शुरू हो रही है। इसके साथ ही जीएसटी की संशोधित दरें भी 22 सितंबर से शुरू हो रही हैं। ऐसे में बाजार में खरीदारी का वातावरण रहनेवाला है। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी का यह आह्वान केवल तात्कालिक नहीं है अपितु उनका आग्रह है कि हमारा स्थायी स्वभाव स्वदेशी के अनुकूल बन जाना चाहिए। प्रत्येक भारतीय को यह स्मरण रखना चाहिए कि ‘स्वदेशी’ का आह्वान, केवल एक नारा नहीं, बल्कि 2047 तक विकसित भारत के निर्माण का एक मजबूत आधार है। धार में ‘प्रधानमंत्री मित्र पार्क’ के उद्घाटन के अवसर पर उनके संबोधन से यह स्पष्ट होता है कि सरकार अब आर्थिक आत्मनिर्भरता को राष्ट्र निर्माण की प्रमुख रणनीति मान रही है। यह सिर्फ वस्तुओं के उत्पादन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी सोच है जो भारतीयता के गौरव और देश की आर्थिक शक्ति को केंद्र में रखती है।

बुधवार, 17 सितंबर 2025

लेखक एवं मीडिया शिक्षक लोकेन्द्र सिंह को मध्यप्रदेश सरकार ने 'राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान-2025' से किया सम्मानित

भोपाल स्थित रवींद्र भवन में आयोजित अलंकरण समारोह में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने किया सम्मानित

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक, लेखक एवं ब्लॉगर लोकेन्द्र सिंह को 'राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान-2025' से सम्मानित किया गया। मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग की ओर से भोपाल के रवींद्र भवन में आयोजित अलंकरण समारोह में उन्हें यह सम्मान मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्कृति मंत्री धर्मेंद्र सिंह लोधी और लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह ने प्रदान किया। सरकार यह सम्‍मान प्रतिवर्ष हिन्दी सॉफ्टवेयर सर्च इंजिन, वेब डिजाइनिंग, डिजीटल भाषा प्रयोगशाला, प्रोग्रामिंग, सोशल मीडिया, डिजीटल ऑडियो विजुअल एडीटिंग आदि में उत्‍कृष्‍ट योगदान के लिए देती है। उल्लेखनीय है कि ग्वालियर में जन्मे लोकेन्द्र सिंह देश के जाने-माने ब्लॉगर हैं। सोशल मीडिया और डिजीटल ऑडियो-वीडियो प्रोडक्शन में उनकी सक्रियता है। उनकी डॉक्युमेंट्री फिल्में राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत हैं। नागरिकों को सोशल मीडिया का प्रशिक्षण देने में भी उनकी सक्रियता रहती है। इससे पूर्व मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी भी ‘फेसबुक/ब्लॉग/नेट’ हेतु ‘अखिल भारतीय नारद मुनि’ पुरस्कार से अलंकृत कर चुकी है। वर्तमान में आप माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं।

दैनिक भास्कर में प्रकाशित समाचार

युवाओं को साहित्य से जोड़े रखने के लिए आपने सोशल मीडिया के माध्यम से ऑडियो-विजुअल सामग्री का उपयोग करके अनूठे प्रयोग किए हैं। लेखक लोकेन्द्र सिंह का कहना है कि नयी पीढ़ी ऑडियो-वीडियो कंटेंट बहुत देख-सुन रही है। इसलिए लेखकों को प्रयास करना चाहिए कि हिन्दी साहित्य की अच्छी सामग्री को लोगों तक पहुंचाने के लिए ऑडियो-वीडियो प्रारूप को अपनाएं। सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करके नयी पीढ़ी का प्रबोधन किया जा सकता है। लेखक लोकेन्द्र सिंह का कहना है कि जब उन्होंने इस प्रकार के प्रयास किए तो प्रारंभ में ही उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुए। उनकी डाक्युमेंट्री फिल्म ‘बाचा : द राइजिंग विलेज’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। गाय पर बनायी फिल्म ‘गो-वर’ को खूब सराहा गया। इसी तरह छोटे कद को लेकर बनायी फिल्म ‘कद : हाइट डजन्ट मैटर’ ने भी फिल्म क्रिटिक की सराहना बटोरी है। 


लेखक-ब्लॉगर लोकेन्द्र सिंह को सम्मानित करते मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री धर्मेन्द्र सिंह लोधी एवं लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह

मध्यप्रदेश से हिन्दी ब्लॉगिंग में उनका नाम राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। उन्होंने ऑनलाइन माध्यमों में वर्ष 2006-07 से लेखन प्रारंभ कर दिया था। ब्लॉग पर समसामयिक विषयों पर आलेखों के अतिरिक्त कहानी, कविता, ललित निबंध, रेखाचित्र, पुस्तक समीक्षाएं और यात्रा वृत्तांत प्रकाशित हैं। विभिन्न संस्थाओं की ओर से जारी की जाने वाली सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग डायरेक्टरी में आपका ब्लॉग शामिल रहता है। ब्लॉगिंग पर चर्चा के लिए गूगल भी आपको आमंत्रित कर चुका है। आपकी पहचान ट्रैवल ब्लॉगर के रूप में भी है। नयी पीढ़ी ऑडियो-वीडियो सामग्री बहुत देख-सुन रही है।

सम्मान समारोह में मंच पर उपस्थित हैं- मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, संस्‍कृति एवं पर्यटन राज्‍यमंत्री (स्‍वतंत्र प्रभार) श्री धर्मेंद्र सिंह लोधी, लोक निर्माण मंत्री श्री राकेश सिंह, विधायक श्री भगवानदास सबनानी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलगुरु श्री विजय मनोहर तिवारी, संचालक संस्कृति श्री एमपी नामदेव, वीर भारत न्यास के न्यासी सचिव श्रीराम तिवारी सहित सम्मानित हुए साहित्यकार।

इन महानुभावों को मिले सम्मान- 

  • राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सम्मान : श्री प्रशांत पोळ-जबलपुर (2024) एवं  श्री लोकेन्द्र सिंह राजपूत- भोपाल (2025)
  • राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान : सुश्री रीता कौशल-ऑस्ट्रेलिया (2024) एवं डॉ. वंदना मुकेश- इंग्लैण्ड (2025)
  • राष्ट्रीय फादर कामिल बुल्के सम्मान : डॉ. इंदिरा गाजिएवा-रूस (2024) एवं श्रीमती पदमा जोसेफिन वीरसिंघे (2025)
  • राष्ट्रीय गुणाकर मुले सम्मान : डॉ. राधेश्याम नापित-शहडोल (2024) एवं डॉ. सदानंद दामोदर सप्रे-भोपाल (2025)
  • राष्ट्रीय हिन्दी सेवा सम्मान : डॉ. के.सी. अजय कुमार-तिरुवनंतपुरम् (2024) एवं डॉ. विनोद बब्बर-दिल्ली (2025)


16 सितंबर, 2025 को भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र 'लोकसत्य' में प्रकाशित समाचार


सोमवार, 8 सितंबर 2025

अशोक स्तंभ को तोड़ना, भारत की आत्मा और संविधान पर हमला है

जम्मू-कश्मीर की हजरतबल दरगाह में राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तम्भ को तोड़ा जाना एक गहरी चिंता का विषय है। इस घटना पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार-मंथन होना चाहिए। ईद-ए-मिलाद जैसे मौके पर, एक नवनिर्मित शिलापट्ट से राष्ट्रीय प्रतीक अशोक स्तंभ को तोड़ना केवल एक राजनीतिक विरोध नहीं, बल्कि धार्मिक कट्टरता और राष्ट्र-विरोधी भावना का शर्मनाक प्रदर्शन है। यह कृत्य एक विशेष प्रकार की मानसिकता की ओर संकेत करता है, जिसका प्रदर्शन अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं से लेकर पाकिस्तान-बांग्लादेश के हिन्दू मंदिरों और भारत में जम्मू-कश्मीर की हजरतबल दरगाह में अशोक स्तंभ पर हमले में होता है। इसी कट्टरपंथी सोच ने भारत में अनेक मंदिरों को निशाना बनाया है। इस मानसिकता ने संप्रदाय के नाम पर दुनियाभर में मूर्तियों और प्रतीकों को ध्वस्त किया है। सोचिए कि जो सोच प्रतीक चिह्नों से इनती नफरत करती है, उसने मनुष्यों के साथ किस तरह का बर्बर व्यवहार किया गया होगा।

छत्रपति के दुर्गों का जयगान है ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’

- श्री जगदीश तोमर, वरिष्ठ साहित्यकार

युवा साहित्यकार श्री लोकेन्द्र सिंह कृत ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ मूलत: उन दुर्गों का वृतांत है जो सह्याद्रि पर्वतमाला के साथ  खड़े, हिन्दू पदपादशाही के निर्माता छत्रपति शिवाजी महाराज का आज पर्यन्त जयगान कर रहे हैं। श्री लोकेन्द्र ने अपनी इस कृति में छत्रपति शिवाजी महाराज के उन दुर्गों का उल्लेख किया है, जिनके दर्शन उन्होंने अपनी श्रीशिव छत्रपति दुर्ग दर्शन यात्रा के दौरान किया। लेखक छत्रपति के इन दुर्गों को ‘स्वराज्य के मजबूत प्रहरी’ निरूपित करते हैं। उनके शब्दों में- “ये दुर्ग स्वराज्य के प्रतीक हैं... और जब देश, विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों एवं दासता के अंधकार में घिरता जा रहा था, तब इन दुर्गों से ही स्वराज्य का संदेश देनेवाली मशाल जल उठी थी”।

इस संदर्भ में यात्राप्रिय लेखक श्री लोकेन्द्र पुणे के दक्षिण-पश्चिम में स्थित रायरेश्वर गढ़ का स्मरण करते हैं। उनके अनुसार  इस गढ़ में स्थित शिवालय में 15-16 वर्षीय किशोर शिवा ने अपने कुछ मित्रों के साथ (380 वर्ष पूर्व) स्वराज्य की शपथ ली थी। और इस प्रकार यह गढ़ स्वराज्य की संकल्प-भूमि सिद्ध हुआ है। 

इस संकल्प के साथ आरंभ हुई स्वराज्य की विजय यात्रा का गौरवशाली विवरण ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ के प्राय: हर पृष्ठ  पर अंकित है। उनमें विजित दुर्गों का भूगोल यथा- पुणे से उनकी दूरी, समुद्र तल से उनकी ऊंचाई आदि का वर्णन है और  इससे अधिक भारतीय इतिहास के गौरवशाली प्रसंगों का चित्रण भी इसमें बड़ी सजीवता से हुआ है।

इस कृति में सिंहगढ़ विजय के साथ-साथ तानाजी की उत्सर्ग-कथा, द्वितीय छत्रपति शंभूराजे की बलिदान-गाथा आदि-आदि  अनेक ऐतिहासिक घटनाएं वर्णित हैं। उनके अतिरिक्त अनेकानेक लोमहर्षक घटनाएं भी इस पुस्तक में हैं, जो देश के जनमानस को लंबे समय से आलोड़ित-उद्वेलित करती रही हैं और आज भी कर रही हैं।

इस पठनीय पुस्तक में छत्रपति के जीवन को संवारने, उनमें स्वदेश और स्वधर्म के रक्षण-संरक्षण के लिए वांछित संस्कार जगाने तथा उन्हें यथावश्यक दिशा-निर्देश देने में जीजा माता की महनीय भूमिका, छत्रपति का वैभवपूर्ण एवं जन-जन प्रिय  राज्याभिषेक, उनकी प्रबंधपटुता, अद्भुत सैन्य व्यवस्था आदि का विशेष उल्लेख है। छत्रपति की राजमुद्रा का संस्कृत में  होना भी जनगण के लिए गर्व और गौरव का विषय हो सकता है। कारण मात्र यही है कि इससे पूर्व ये मुद्राएं अरबी या फारसी में हुआ करती थीं।

बहुत संक्षेप में कहा जाए तो यह कहना आवश्यक होगा कि श्री लोकेन्द्र सिंह की उक्त कृति का पठन-पाठन-अनुशीलन समाज को अनेक दृष्टियों से समृद्ध करेगा तथा राष्ट्रसापेक्ष जीवन जीने के लिए अनुप्रेरित करेगा।

इस सोद्देश्य लेखन के लिए युवा लेखक का अनेकश: अभिनंदन। 

(समीक्षक, वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आप पूर्व में साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश की प्रेमचंद सृजनपीठ के निदेशक रहे हैं।)


पुस्तक : हिन्दवी स्वराज्य दर्शन

लेखक : लोकेन्द्र सिंह

मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक)

प्रकाशक : सर्वत्र, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है। खरीदने के लिए चित्र पर क्लिक करें

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

शुद्ध-सात्विक प्रेम ही संघ कार्य का आधार

100 वर्ष की संघ यात्रा : नये क्षितिज

यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शताब्दी वर्ष है। संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं। समाज के बीच संघ को लेकर सही-सही जानकारी पहुँचे, इसलिए आरएसएस के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने तीन दिन तक प्रबुद्ध लोगों के बीच संघ का विचार रखा। दिल्ली के विज्ञान भवन में 26 से 28 अगस्त तक यह व्याख्यानमाला आयोजित हुई। आखिरी दिन सरसंघचालक जी ने प्रबुद्धजनों के प्रश्नों का उत्तर भी दिया। उनके तीनों व्याख्यान का सार हम आपके लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यूट्यूब चैनल पर तीनों व्याख्यान सुने जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में भी इसी प्रकार का आयोजन हुआ था। शताब्दी वर्ष के अवसर पर इस वर्ष चार स्थानों पर इस प्रकार व्याख्यानमाला आयोजित होगी, ताकि अधिक से अधिक लोगों तक संघ का सही स्वरूप पहुँच सके।

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि संघ का निर्माण भारत को केंद्र में रखकर हुआ है और इसकी सार्थकता भारत के विश्वगुरु बनने में है। संघ कार्य की प्रेरणा संघ प्रार्थना के अंत में कहे जाने वाले “भारत माता की जय” से मिलती है। संघ भले हिंदू शब्द का उपयोग करता है, लेकिन उसका मर्म ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है। गांव, समाज और राष्ट्र को संघ अपना मानता है। संघ कार्य पूरी तरह स्वयंसेवकों द्वारा संचालित होता है। कार्यकर्ता स्वयं नए कार्यकर्ता तैयार करते हैं। उन्होंने कहा कि संघ का संपूर्ण कार्य शुद्ध-सात्विक प्रेम के आधार पर चलता है। उन्होंने कहा- “संघ का स्वयंसेवक कोई व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा नहीं रखता। यहाँ कोई पुरस्कार नहीं हैं, बल्कि नुकसान ही अधिक हैं। स्वयंसेवक समाज-कार्य में आनंद का अनुभव करते हुए कार्य करते हैं। जीवन की सार्थकता और मुक्ति की अनुभूति सेवा से होती है। सज्जनों से मैत्री करना, दुष्टों की उपेक्षा करना, कोई अच्छा करता है तो आनंद प्रकट करना, दुर्जनों पर भी करुणा करना - यही संघ का जीवन मूल्य है।

सोमवार, 1 सितंबर 2025

प्रतिभाशाली युवाओं से देश की सेवा करने का आग्रह

भारत के लिए प्रतिभा पलायन दशकों से एक गंभीर चुनौती रहा है। हमारे देश में सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवा, जिन्होंने सरकारी खर्च पर उच्च शिक्षा हासिल की, अकसर स्नातक होने के बाद अच्छे ‘पैकेज’ के आकर्षण में दूसरे देशों की ओर रुख कर लेते हैं। अपनी प्रतिभा से उस देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सोचिए, अगर ये प्रतिभाशाली लोग विदेश नहीं गए होते और भारत में रहकर ही अपनी सेवाएं देते, तब आज भारत कहाँ होता? केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भोपाल में आईआईएसईआर के दीक्षांत समारोह में युवा वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए ‘ब्रेन ड्रेन’ (प्रतिभा पलायन) के मुद्दे पर चिंता जताई है और देश की सेवा करने की एक भावनात्मक अपील भी की है। कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान की अपील- “देश छोड़कर मत जाना” केवल भावनात्मक आग्रह भर नहीं है अपितु इसके पीछे राष्ट्रीय विकास की ठोस चिंता है। जब योग्य युवा देश में रहकर अपनी ऊर्जा और ज्ञान का उपयोग करेंगे, तभी शोध, नवाचार और तकनीकी प्रगति भारत को आत्मनिर्भर बना पाएगी।

रविवार, 31 अगस्त 2025

विज्ञापन क्षेत्र का ‘अ से ज्ञ’ सिखाती है- विज्ञापन का जादू

पुस्तक चर्चा : मीडिया शिक्षक डॉ. आशीष द्विवेदी की पुस्तक-विज्ञापन का जादू


मीडिया शिक्षक डॉ. आशीष द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘विज्ञापन का जादू’ में लिखते हैं- “विज्ञापन की दुनिया बड़ी अनूठी और अजीब है। यदि हम इसको समझना चाहते हैं तो शुरुआती दौर से ही उसके अंदर झांकना होगा। जब तक हमारी विज्ञापन को लेकर सारी अवधारणाएं स्पष्ट नहीं हो जातीं, हम विषय की खोह में नहीं जा सकते”। यह सही बात है कि विज्ञापन की अवधारणा को समझना है, तब उसकी दुनिया के हर हिस्से से परिचित होना जरूरी है। डॉ. आशीष द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘विज्ञापन का जादू’ में यही काम किया है। वे हमें विज्ञापन की दुनिया के अंदर ले जाते हैं और वहाँ की उन गलियों की सैर कराते हैं, जहाँ विज्ञापन कब, कहाँ, क्यों, कैसे और किसलिए की इबारत दर्ज है। विज्ञापन के संसार का संपूर्ण अक्षर ज्ञान ‘अ से ज्ञ’ इस पुस्तक में है। यह हमें विज्ञापन के इतिहास, उसके वर्तमान एवं भविष्य से भी परिचित कराती है। इसके साथ ही विज्ञापन के प्रकार एवं स्वरूप की जानकारी भी देती है। विज्ञापन में रुचि रखनेवाले और पत्रकारिता की पढ़ाई करनेवाले विद्यार्थियों के लिए यह अत्यंत उपयोगी पुस्तक है। भाषा में सरलता और सहजता है। एक रोचक विषय को रोचक ढंग से ही प्रस्तुत किया गया है। विज्ञापन के प्रभाव, उपयोग एवं महत्व को समझाने के लिए लोकप्रिय विज्ञापनों का विश्लेषण किया गया है।

बुधवार, 27 अगस्त 2025

झंडे की आड़ में रचे गए झूठ के षड्यंत्र की परते हटाई

 पुस्तक समीक्षा: ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’


- रोहन गिरी 

“एक ध्वज का मान रखना, दूसरे ध्वज का निरादर कतई नहीं है”। यही वाक्य, लेखक लोकेन्द्र सिंह की पुस्तक ‘राष्ट्रध्वज और आरएसएस’ का केंद्रीय भाव है, जो उस ऐतिहासिक, वैचारिक और सांस्कृतिक द्वंद्व का प्रकटीकरण करता है, जिसे दशकों से एक सोची-समझी साजिश के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारत के राष्ट्रध्वज ‘तिरंगे’ के संबंध में गढ़ा गया। यह पुस्तक केवल तथ्यों का संकलन नहीं है, यह एक वैचारिक और ऐतिहासिक न्याय है उन झूठों और मिथकों के विरुद्ध जिन्हें स्थापित करने का काम वामपंथी बौद्धिक वर्ग ने स्वतंत्रता के बाद से किया है।

मिथक बनाम वास्तविकता: एक नरेटिव का विखंडन

आरएसएस और तिरंगे को लेकर सबसे बड़ा मिथक यही फैलाया गया कि संघ तिरंगे को सम्मान नहीं देता क्योंकि वह केवल भगवा ध्वज को ही पूजनीय मानता है। लेकिन लेखक ने इस भ्रांति को तथ्यों के दम पर चुनौती दी है और यह स्पष्ट किया है कि भगवा ध्वज भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि है, वहीं तिरंगा संवैधानिक राष्ट्रध्वज है और दोनों का स्थान अपनी-अपनी जगह सम्माननीय है।

पुस्तक इस महत्वपूर्ण बिंदु को उभारती है कि “प्रेम एक ध्वज से हो सकता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे से बैर है।” इस बात को सुदृढ़ करने के लिए लेखक उन संगठनों और दलों की पोल खोलते हैं जो स्वयं तिरंगे को अपने संगठनिक ध्वज से पृथक रखते आए हैं, लेकिन संघ पर तिरंगे का अनादर करने का झूठा आरोप लगाते हैं। विशेषकर कम्युनिस्ट पार्टियों का उल्लेख है जो दशकों तक अपने कार्यालयों पर तिरंगा नहीं फहराती है। यह उजागर करता है कि असल समस्या संघ नहीं, बल्कि उन संस्थाओं की है जिनका भारतीय राष्ट्रवाद से कोई भावनात्मक संबंध नहीं रहा।

ध्वज का इतिहास: खोया हुआ विमर्श

पुस्तक ध्वज-निर्माण के इतिहास में गहराई से उतरती है। लेखक बताते हैं कि पिंगली वेंकैया द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक ध्वज लाल और हरे रंगों का था, जिसे तत्कालीन राजनीतिक दबावों ने सांप्रदायिक रूप दे दिया। ध्वज समिति द्वारा व्यापक सुझाव लेकर सर्वसम्मति से केसरिया ध्वज की अनुशंसा की गई, जिसमें नीले रंग का चरखा था। यह वह क्षण था जब भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों को एक सार्वभौमिक प्रतीक में ढालने का प्रयास हुआ था।

विडंबना यह रही कि यह ऐतिहासिक अवसर भी राजनीतिक समीकरणों की भेंट चढ़ गया। बंबई अधिवेशन में कांग्रेस ने राष्ट्रध्वज समिति के निर्णय को नकारते हुए तिरंगे को ही ध्वज रूप में स्वीकार किया। यह निर्णय ऐतिहासिक या भावनात्मक नहीं, बल्कि तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम था जिसका असर यह हुआ कि भगवा रंग, जो भारत के ऋषि-परंपरा का प्रतीक था, एक संगठन विशेष से जोड़कर विवादित कर दिया गया।

संघ और तिरंगा: सेवा, समर्पण और साहस

लेखक इस भ्रम को भी तोड़ते हैं कि संघ ने तिरंगे को कभी महत्व नहीं दिया। वे ऐतिहासिक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं – जैसे 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान तेजपुर (असम) में जब सरकारी तंत्र भी मैदान छोड़ चुका था, तब संघ के 16 स्वयंसेवकों ने तिरंगे को आयुक्त मुख्यालय पर फहराए रखा। यह केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि गहरी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण था। ऐसे ही गोवा, दमन और दादरा-नगर हवेली की मुक्ति में संघ की भूमिका, जहाँ तिरंगे के सामने पुर्तगाली झंडा चुनौती था। यह दर्शाता है कि संघ के लिए तिरंगा केवल एक ध्वज नहीं, बल्कि भारतीय स्वाधीनता और संप्रभुता का प्रतीक रहा है।

संस्थागत दृष्टिकोण और विचारधारा

गुरुजी गोलवलकर का 1949 का पत्र पुस्तक में एक निर्णायक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसमें वे स्पष्ट करते हैं कि भगवा ध्वज का आरएसएस के संस्थागत प्रतीक के रूप में प्रयोग संविधान द्वारा मान्य तिरंगे से अलग है। कांग्रेस का भी अलग झंडा रहा है, फिर संघ का प्रतीक-ध्वज अस्वीकार्य क्यों? यह सवाल पाठक को मजबूर करता है कि राष्ट्रवाद के नाम पर संघ की आलोचना करने वाले स्वयं किस पाखंड के तहत कार्य कर रहे हैं?

वैचारिक धोखे और मीडिया प्रपंच

पुस्तक का सबसे सशक्त भाग वह है जिसमें लेखक यह उजागर करते हैं कि संघ को तिरंगे विरोधी बताने की साजिश के पीछे वामपंथी विचारधारा से पोषित व्यक्ति और संस्थान रहे हैं। उन्होंने ही यह नैरेटिव गढ़ा कि तिरंगा आधुनिक, संवैधानिक भारत का प्रतीक है और संघ केवल पुरातनवाद का प्रतीक है। लेकिन क्या यह तथ्य नहीं कि जिन वामपंथियों ने “ये आज़ादी झूठी है” जैसा नारा दिया, जिन्होंने दशकों तक राष्ट्रीय पर्वों से दूरी बनाई, वे ही आज तिरंगे के स्वयंभू ठेकेदार बने हुए हैं?

पुस्तक इस विडंबना को रेखांकित करती है और यह बताती है कि राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ सच्चा संबंध केवल दिखावे से नहीं, सेवा, समर्पण और निष्ठा से बनता है, जो संघ ने हर मौके पर साबित किया है।

निष्कर्ष: एक वैचारिक सर्जरी

“राष्ट्रध्वज और आरएसएस” केवल एक इतिहास की पुनर्पाठ नहीं है, यह एक वैचारिक सर्जरी है। यह पुस्तक उस प्रपंच को उजागर करती है जिसमें तिरंगे के नाम पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपमानित किया गया। यह पाठक को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर झंडे का अपमान किसने किया? जिन्होंने उसे सहेजा और सेवा में जीवन समर्पित किया, या जिन्होंने दशकों तक उसे अपने दफ्तरों से गायब रखा? 

लेखक लोकेन्द्र सिंह की यह पुस्तक इतिहास के उस कोने को प्रकाश में लाती है जिसे जानबूझकर अंधकार में रखा गया। यह केवल संघ और तिरंगे की बात नहीं करती, यह भारतीय राष्ट्रवाद की उस लड़ाई का प्रतिनिधित्व करती है जो प्रतीकों, झंडों और विचारों के माध्यम से लड़ी जा रही है।

और अंततः यह पुस्तक पाठक के सामने एक सीधा प्रश्न रखती है, क्या राष्ट्रध्वज का मान केवल सरकारों का दायित्व है या समाज के प्रत्येक उस हिस्से का जिसने इसे अपने जीवन की आस्था बनाया है?

समीक्षा का सार बस यही है कि यदि आप तिरंगे से प्रेम करते हैं, तो उन हाथों को पहचानिए जिन्होंने इसे केवल फहराया नहीं, बल्कि हर तूफान में इसे संभाला भी है। यही संदेश है “राष्ट्रध्वज और आरएसएस” का जो मिथकों का ही नहीं, सच्चाई का ध्वजवाहक है।

(समीक्षक स्वतंत्र पत्रकार है।) 


पुस्तक : राष्ट्रध्वज और आरएसएस

लेखक : लोकेन्द्र सिंह

मूल्य : 70 रुपये

प्रकाशक : अर्चना प्रकाशन, भोपाल

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

ऐसा शिखालेख आपने देखा नहीं होगा

माखनलालजी का समाचारपत्र ‘कर्मवीर’ बना अनूठा शिलालेख

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के परिसर में स्थापित पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की प्रतिमा और उस पर लगा अनूठा शिलालेख

स्मारक, भवन, परिसर इत्यादि के भूमिपूजन या उद्घाटन प्रसंग पर पत्थर लगाने (शिलालेख) की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह इस बात का दस्तावेज होता है कि वास्तु का भूमिपूजन/ उद्घाटन / लोकार्पण कब और किसके द्वारा सम्पन्न किया गया। ये शिलालेख एक प्रकार से इतिहास और महत्वपूर्ण घटनाओं के विवरण को समझने में सहायता करते हैं। इन शिलालेखों का एक तयशुदा प्रारूप है, हम सबने देखे ही हैं। किंतु, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के नवीन परिसर में स्वतंत्रतासेनानी एवं प्रखर संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के प्रतिमा अनावरण प्रसंग पर लगाया गया शिलालेख अनूठा है और अपने आप में अद्भुत है। मुझे विश्वास है कि ऐसा शिलालेख आपने पहले नहीं देखा होगा। माखनलालजी की प्रतिमा के ‘पेडस्टल’ पर आपको समाचारपत्र का प्रथम पृष्ठ चस्पा दिखायी देगा। दरअसल, समाचारपत्र का यह ‘फ्रंट पेज’ ही दादा माखनलाल चतुर्वेदी की इस प्रतिमा का ‘शिलालेख’ है। यह रचनात्मक और अभिनव शिलालेख अपने सृजनात्मक लेखन के लिए पहचाने जानेवाले विश्वविद्यालय के कुलगुरु श्री विजय मनोहर तिवारी की सुंदर कल्पना है। अगर आप माखनलालजी की प्रतिमा के समीप आ रहे हैं, तो यह शिलालेख आपको विश्वविद्यालय की 35 वर्ष की यात्रा, उसकी उपलब्धियों और भविष्य के स्वप्नों से भेंट करा देगा।

मंगलवार, 19 अगस्त 2025

नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति कम्युनिस्टों की ओछी सोच

क्या अंग्रेजों के डर से जर्मनी भाग गए थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस? केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने बच्चों को यही पढ़ाने की तैयारी कर रखी थी

कम्युनिस्ट सरकार केरल के विद्यालयों में बच्चों को पढ़ा रही थी कि स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ‘अंग्रेजों के डर से जर्मनी भाग गए थे’। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जब इस मामले को उठाया और डटकर सरकार का विरोध किया, तब कम्युनिस्ट सरकार को अपने कदम वापस खींचने को मजबूर होना पड़ा है। राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) की चौथी कक्षा की एक हैंडबुक में सुभाष चंद्र बोस के बारे में यह दावा किया गया है। यह सिर्फ एक तथ्यात्मक गलती नहीं है, बल्कि भारत के एक महानतम स्वतंत्रता सेनानी के शौर्य और बलिदान को जानबूझकर विकृत करने का एक निंदनीय प्रयास है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस डर से नहीं, बल्कि अंग्रेजों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने और एक सशक्त सैन्य मोर्चा बनाने के दृढ़ संकल्प के साथ भारत से बाहर गए थे। उनकी आजाद हिंद फौज (आईएनए) ब्रिटिश शासन के लिए एक बड़ी चुनौती थी और आज भी यह लोगों को प्रेरणा देती है। हालांकि केरल सरकार कह रही है कि यह गलती है, हम इसे सुधार रहे हैं और भविष्य में ध्यान रखेंगे। यह गलती है या कम्युनिस्टों की नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति वास्तविक सोच है, इसका विश्लेषण करने के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। क्योंकि यह अकेली या आकस्मिक घटना नहीं है, यह कम्युनिज्म विचारधारा के उस ओछी मानसिकता को प्रदर्शित करती है, जो नेताजी के प्रति उनके मन में शुरू से रही है।

रविवार, 17 अगस्त 2025

स्वयं से साक्षात्कार का अवसर

 “सोशल मीडिया इन्फ़्लुएंसर्स रिट्रीट : रोल ऑफ डिजिटल मीडिया इन ट्रांसफॉर्मिंग सोसायटी”

प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्याल के मीडिया आयाम की ओर से 30 जुलाई से 3 अगस्त, 2025 तक पहली बार ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स रिट्रीट : रोल ऑफ डिजिटल मीडिया इन ट्रांसफॉर्मिंग सोसायटी’ का आयोजन किया गया, जिसमें देशभर से सोशल मीडिया के प्रभावशाली उपयोगकर्ता आए। कई जाने-पहचाने थे तो कुछ से नया परिचय हुआ। उनके काम ने नया सीखने और करने की ललक पैदा की। जब मैं ब्रह्माकुमारीज के इस आयोजन के लिए भोपाल से प्रस्थान कर रहा था तब हृदय में उत्साह था, मन में जिज्ञासा और आत्मा कहीं भीतर से एक नए अनुभव के लिए पुकार रही थी। इस यात्रा का उद्देश्य मात्र एक ‘रिट्रीट’ में भाग लेना नहीं था, बल्कि अपने भीतर छुपी उस नीरव शांति को खोज पाना था, जिसे रोज़मर्रा की भागदौड़ ने जैसे ढंक लिया है। यकीनन, मेरे लिए यह आयोजन ‘सोशल मीडिया रिट्रीट’ से कहीं अधिक स्वयं से साक्षात्कार का अवसर बन गया। आबू रोड स्थित ब्रह्माकुमारी के मनमोहिनीवन परिसर में प्रवेश करते ही आध्यात्मिक ऊर्जा की अनुभूति हुई। पहले ही दिन प्रतीत हो गया कि आगामी चार दिन, अविस्मरणीय होनेवाले हैं। यह आयोजन मेरे जीवन का एक ऐसा अनमोल अनुभव बना जिसने मेरी सोच, दृष्टिकोण और आत्मिक ऊर्जा को एक नया आयाम दिया। यहाँ से आध्यात्मिक चेतना से जुड़ने की दिशा में एक नये सफर की शुरुआत करने का प्रयास रहेगा।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

संघ की प्रतिज्ञा थी- “मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का घटक बना हूँ”

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और स्वतंत्रता आंदोलन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक के बारे में अज्ञानता से घिरे लोग अकसर यह प्रश्न पूछते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन में संघ की क्या भूमिका रही है? कुछ लोग इससे भी आगे बढ़ जाते हैं और पूछते हैं कि संघ के किसी एक कार्यकर्ता का नाम ही बता दीजिए, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया हो? संघ की स्थापना जिन्होंने की, वे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वयं ही जन्मजात देशभक्त थे। डॉ. हेडगेवार क्रांतिकारी भी रहे, कांग्रेस में रहकर राजनीतिक संघर्ष किया और जेल भी गए। बाद में, देश की सर्वांग स्वतंत्रता और स्वतंत्रता को स्थायी बनाने के उद्देश्य से उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। डॉ. हेडगेवार अकेले नहीं हैं, अपितु स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेनेवाले संघ के ज्ञात-अज्ञात कार्यकर्ताओं की लंबी शृंखला है। जो संगठन अपने कार्यकर्ताओं को यह शपथ दिलाता हो कि “मैं हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ”, उसने कितने ही लोगों के मन में स्वतंत्रता प्राप्ति का भाव भरा होगा, उसकी सहज कल्पना की जा सकती है। 

भारत में प्रतिज्ञा का बहुत महत्व है। हमें भीष्म प्रतिज्ञा का स्मरण है। राजा हरिशचंद्र की सत्य बोलने की प्रतिज्ञा ध्यान है। मुगलिया सल्तनत के अत्याचार के विरुद्ध महाराण प्रताप की प्रतिज्ञा को कौन भूल सकता है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने शिव को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करके ‘स्वराज्य’ की नींव रखी, जिसे साकार करने में संपूर्ण समाज प्राणपण से जुट गया। संघ के स्वयंसेवक भी इसी भाव के साथ प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं कि वह जो प्रतिज्ञा ले रहे हैं, उसको पूर्ण करने में अपना सर्वस्व देंगे और प्रतिज्ञा को आजन्म निभाएंगे। मार्च 1928 में नागपुर के निकट एक पहाड़ी पर स्वयंसेवकों को एकत्र करके, भगवाध्वज के समक्ष प्रतिज्ञा का पहला कार्यक्रम सम्पन्न कराया गया था। देश की पूर्ण स्वतंत्रता एवं विकास के लिए स्वयंसेवकों को वीरव्रती बनाने के निमित्त आयोजित इस प्रथम कार्यक्रम में 99 स्वयंसेवकों ने प्रतिज्ञा की थी। इस अवसर पर डॉ. हेडगेवार ने संघ के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए जो भाषण दिया, वह स्वतंत्रता प्राप्ति की संघ की आकांक्षा को स्पष्टतौर पर व्यक्त करता है। उन्होंने कहा- “हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वाधीनता है। संघ का निर्माण इसी महान लक्ष्य के लिए हुआ है”। इस स्पष्ट अभिव्यक्ति के बाद कहने के लिए कुछ और भी बचता है क्या? यह भी समझना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता अपनी नित्य प्रार्थना में कहते हैं कि इस राष्ट्र को परम वैभव पर लेकर जाना है। क्या कोई पराधीन राष्ट्र परम वैभव पर जा सकता है? स्पष्ट है कि भारत की स्वतंत्रता का लक्ष्य संघ की स्थापना में निहित था।

स्वतंत्रता से पूर्व संघ के स्वयंसेवकों द्वारा की जानेवाली प्रतिज्ञा

डॉक्टर साहब ने 1929 में वर्धा में आयोजित प्रशिक्षण वर्ग में भी स्वयंसेवकों एवं नागरिकों की एक सभा में प्रखरता के साथ कहा- “ब्रिटेन की सरकार ने अनेक बार भारत को स्वतंत्र करने का आश्वासन दिया है, परंतु वह झूठा साबित हुआ। अब यह साफ हो गया कि भारत अपने बल पर स्वतंत्रता प्राप्त करेगा”। याद रहे कि डॉ. हेडगेवार ने महात्मा गांधी के आह्वान पर ‘नमक सत्याग्रह’ में शामिल होकर विदर्भ प्रांत में 1930 में ‘जंगल सत्याग्रह’ किया। इस आंदोलन में उनके साथ अनेक प्रमुख स्वयंसेवकों ने हिस्सा लिया। सत्याग्रहियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया और जेल भेज दिया। डॉक्टर साहब को नौ माह का कठोर कारावास दिया गया। इससे पूर्व 1921 के आंदोलन में भी डॉक्टर साहब को जेल की सजा हुई थी। महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को मध्यभारत में सफल बनाने के लिए स्वयंसेवकों ने अथक प्रयास किया। संघ के सरकार्यवाह जीएम हुद्दार, नागपुर के संघचालक अप्पा साहेब हलदे, सिरपुर के संघचालक बाबूराव वैद्य, संघ के सरसेनापति मार्तंडराव जोग के साथ संघ के अन्य प्रमुख कार्यकर्ताओं के आंदोलन में शामिल होने के कारण चार-चार माह का कारावास मिला।

देखें- गोवा की स्वतंत्रता में आरएसएस का योगदान | RSS in Goa Mukti Aandolan | RSS in Freedom Movement

अपनी स्थापना के कई वर्षों बाद कांग्रेस को जनमानस के दबाव के कारण 31 दिसंबर, 1929 को लाहौर में रावी के तट पर पहली बार ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पारित करना पड़ा। याद रहे कि डॉ. हेडगेवार ने 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में ही पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित कराने का प्रयास किया था। उन्होंने कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए। बहरहाल, सम्पूर्ण स्वतंत्रता का उनका सुझाव कांग्रेस ने 9 वर्ष बाद 1929 के लाहौर अधिवेशन में स्वीकृत किया। कांग्रेस का यह निर्णय संघ के घोषित उद्देश्य के अनुरूप था। इसलिए इससे आनंदित होकर सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं को 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस का अभिनंदन करने, राष्ट्रध्वज का वंदन करने और स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए निर्देशित किया। साथ ही यह भी कहा कि शाखाओं पर भाषण करके स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ एवं महत्व को समझाया जाए। सरसंघचालक के निर्देशानुसार, संघ की सभी शाखाओं पर 26 जनवरी, 1930 को सायं 6 बजे स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।

26 जनवरी, 1930 को संघ की सभी शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए आरएसएस संस्थापक सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने लिखा पत्र

संघ के स्वयंसेवकों ने 1942 के ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन में भी सहभागिता की। 8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने आंदोलन की घोषणा की। दूसरे दिन से ही देशभर में आंदोलन प्रारंभ हो गया। विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में हुए आंदोलनों में संघ के स्वयंसेवकों ने ही नेतृत्व किया। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया। चिमूर के इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर की हुई, जो संघ स्वयंसेवक थे। इस आंदोलन के अंतर्गत राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, आर्वी (विदर्भ) में डॉ. अण्णासाहब देशपांडे, जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, दिल्ली में वसंतराव ओक एवं चंद्रकांत भारद्वाज और पटना (बिहार) में अधिवक्ता कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) ने भाग लिया।

अंग्रेज सरकार संघ के बढ़ते प्रभाव से घबरा गई थी। इसलिए उसने संघ पर आंशिक प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए ताकि संघरूपी आंदोलन को रोका जा सके। गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट के आधार पर अंग्रेज सरकार ने सबसे पहले 15 दिसंबर, 1932 को एक सर्कुलर निकालकर सरकारी कर्मचारियों को संघ में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया। वहीं, 5 अगस्त, 1940 को ब्रिटिश सरकार ने संघ की सैनिक वेशभूषा और प्रशिक्षण पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया। क्योंकि सरकार को गुप्तचर रिपोर्ट में यह जानकारी मिलने लगी थी कि संघ के स्वयंसेवक पूर्ण स्वतंत्रता की ओर तेजी से अग्रसर हैं। राष्ट्रीय आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर सहभागिता कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि संघ के प्रचारक बाबा साहब आप्टे ने 12 दिसंबर, 1943 को जबलपुर में गुरुदक्षिणा उत्सव पर स्वयंसेवकों से कहा- “अंग्रेजों का अत्याचार असहनीय है, देश को स्वतंत्रता के लिए तैयार हो जाना चाहिए”। संघ अपनी स्थापना के समय से ही देश की स्वतंत्रता का स्वप्न लेकर चल रहा था। भारत की सर्वांग स्वतंत्रता के लिए संघ के स्वयंसेवक प्रतिज्ञाबद्ध थे इसलिए अवसर आने पर उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों में सहभागिता की, जेल गए और बलिदान भी दिया। 

यह वीडियो भी देखिए- 

भगवा झंडा होता राष्ट्रध्वज | राष्ट्रध्वज तिरंगा एवं आरएसएस : भाग-1


RSS में तिरंगे के प्रति पूर्ण निष्ठा | राष्ट्रध्वज एवं आरएसएस : भाग-2 


तिरंगे के सम्मान में संघ ने दिया बलिदान | राष्ट्रध्वज एवं आरएसएस : भाग-3 

बुधवार, 13 अगस्त 2025

कुत्तो की चिंता परंतु गो-हत्या पर चुप्पी, क्यों?

आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाकर आश्रय स्थल भेजने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद कुछ लोगों का श्वान प्रेम अचानक से जाग गया है। जरा सोचिए, इन लोगों का यह प्रेम / चिंता / संवेदना गाय के प्रति क्यों नहीं जागती... अपितु गो-संरक्षण के मुद्दे पर इनके तर्क ठीक उलट होते हैं। गाय के प्रति इनकी सोच इतनी निर्दयी है कि ये लोग गाय को कसाई के हाथों काटे जाने के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं। इनके लोग स्वयं भी गाय काटकर सड़क/चौराहों पर उसके रक्त/मांस भक्षण का उत्सव मनाते हैं।

आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाकर आश्रय स्थल में भेजने के निर्णय का विरोध करने जो 'डॉग लवर्स' सोशल मीडिया/सड़कों पर मोमबत्ती लेकर उतरे हैं, उनमें से कई लोग कई जीवों का भक्षण बहुत स्वाद से करते होंगे। जब ये लोग बोटी/हड्डी को चटकारे लेकर चबाते हैं तब क्या इनके भीतर से आवाज नहीं आती कि अपने स्वाद के लिए किसी के प्राण ही ले लिए? यहां तो कुत्तों को मारा नहीं जा रहा है, उन्हें केवल सड़क से शेल्टर में शिफ्ट किया जा रहा है। कभी सोचा है कि आप लोग तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए कितने की बकरों/मुर्गों की हत्या के कारण बन चुके हो?

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

डॉ. देवेन्द्र दीपक जी : जिन्होंने अपनी मेधा से राष्ट्रीयता के दीपक को प्रज्वलित रखा

श्री देवेन्द्र दीपक जी को प्रो. संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक 'लोगों का काम है कहना' भेंट करते लोकेन्द्र सिंह

वरिष्ठ साहित्यकार श्रद्धेय देवेंद्र दीपक जी का सुखद सान्निध्य प्राप्त हुआ। निमित्त बने युवा पत्रकार आयुष पंडाग्रे। आयुष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गीतों की पुस्तक देवेंद्र दीपक जी को भेंट करने के लिए जाने वाले थे, तब मैंने उनसे कहा कि "साथ चलते हैं। मुझे भी जाना है।" लगभग डेढ़ घंटे हम श्रद्धेय दीपक जी के पास रहे। घड़ी की सुइयों पर कौन ध्यान देता, हम तो बस उनको सुनते जा रहे थे। बाहर सावन की रिमझिम थी और भीतर नेह की बारिश। हम एक विरले साहित्यकार की बौद्धिक यात्रा में गोते लगा रहे थे। राष्ट्रीय विचार की पगडंडी पर उनके जीवन में जो संघर्ष आए, उनके समाधान कैसे निकाले, वह सब हमारे सामने आ रहा था। डॉ. दीपक जी ने काव्य विधा में अद्भुत काम किया है। हमें आठ पंक्ति की कविता लिखने में जोर लगाना पड़ना है, आपने कई काव्य नाटक लिखे हैं। नि:संदेह आप पर माँ सरस्वती की विशेष कृपा है। आपने अपनी मेधा राष्ट्रीय चेतना के जागरण में समर्पित की है। आप राष्ट्रीय धारा के यशस्वी साहित्यकारों की माला के चमकते मोती हैं।

शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

कविताओं से आती गाँव-माटी-अपनत्व की महक

पुस्तक चर्चा : ‘चलो! चलते हैं अपने गाँव’ (काव्य संग्रह)


मन की भाव-भूमि उर्वर होती है, तब उससे काव्यधारा बह निकलती है। कविता की महक बताती है कि वह किस वातावरण में पल्लवित हुई है। युवा कवि कृष्ण मुरारी त्रिपाठी ‘अटल’ की कविताओं में गाँव, घर, समाज और देश के प्रति अपनत्व की खुशबू है। कर्तव्य का भाव है। अभिमान की अभिव्यक्ति है। उनके मन की पीड़ा भी कभी-कभी कविता का रूप धरकर प्रकट हुई है। कवि ने स्वयं माना है कि “गाँव-माटी, परम्पराएं, अपनापन और निश्छल मन मेरे हृदय तथा भावनाओं में बसता है। जो मेरी लेखनी को कागज के पन्नों में किसी न किसी रचना के रूप में उतारता रहता है”। जैसे अपने काव्य संग्रह ‘चलो! चलते हैं अपने गाँव’ की प्रतिनिधि कविता में अटल अपने गाँव को विविध रूपों में याद करते हैं। उन्हें गाँव की गलियां याद आती हैं, आँगन बुलाते हैं। गाँव का आध्यात्मिक वातावरण उनको राम की भक्ति से सरोबोर करता है। दादी-नानी के किस्से, अम्मा की लोरी, कक्कू की डांट, सब उन्हें अपने गाँव बुलाते हैं। अपनी इस कविता में जहाँ उन्होंने निर्दोष गाँव की उजली तस्वीर हमारी आँखों में उतारने की कोशिश की है, वहीं अपने काव्य संग्रह की आखिरी कविता ‘कोई लौटा दो- मेरा वही पुराना गाँव’ में वह गाँव के उस वातावरण को पुन: पाना चाहते हैं, जो गाँव को गाँव बनाता है। अपने गाँव, गाँव के बाशिदों एवं गाँव की प्रकृति को अटल ने अपनी कविताओं में खूब चित्रित किया है। अपनी लेखनी से वह अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अनथक प्रयास करते हैं और पाठकों को भी प्रेरित करते हैं कि वे भी अपनी जड़ों की ओर लौटें।

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

उपराष्ट्रपति के त्याग-पत्र ये सियासी प्याली में आया तूफान

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के त्यागपत्र ने सियासी प्याली में तूफान ला दिया है। विपक्ष से लेकर सत्ता पक्ष तक उनके अचानक त्यागपत्र देने के निर्णय से आश्चर्यचकित है। त्यागपत्र के पीछे की वजह उन्होंने अपने स्वास्थ्य को बताया है, लेकिन उनकी इस बात पर कोई भी सहज विश्वास करने को तैयार नहीं है। राजनीतिक गलियारे से बाहर निकलकर देखते हैं तो सामाजिक क्षेत्र से विशिष्ट एवं आमजन भी हैरान है। दरअसल, उपराष्ट्रपति के रूप में जगदीप धनखड़ ने अपनी एक अलग छवि बनायी थी। उनकी अपनी विशिष्ट शैली थी। स्वभाव से विनम्र थे लेकिन अपनी बात को कहने में कभी कोई संकोच नहीं किया। विपक्ष के नेता उनसे इसलिए परेशान रहते थे क्योंकि सदन को नियमों से चलाने में वे कतई कोताही नहीं बरतते थे। विपक्ष को खरी-खरी सुनाने में और सत्ता पक्ष को चेतावनी देने का कार्य वे बराबर करते थे।

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

पाठ्यक्रम से साफ हुई कम्युनिस्टों की दूषित सोच

अब पढ़ाया जाएगा- भारत का सच्चा और संतुलित इतिहास


राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने अपनी पाठ्य पुस्तकों को संशोधित करने का बहुप्रतीक्षित काम किया है। देश में लंबे समय से यह बहस चल रही थी कि पाठ्य पुस्तकों में भारत का संतुलित इतिहास क्यों नहीं पढ़ाया जाता है? आखिर वह क्या सोच रही होगी जिसने भारतीय नायकों को इतिहास में न केवल सीमित स्थान दिया, अपितु उनको पराजित राजा की तरह ही प्रस्तुत किया? वहीं, भारत को लूटने के उद्देश्य से आए मुगल आक्रांताओं का न केवल महिमामंडन किया अपितु इतिहास की पुस्तकों में उन्हें सर्वाधिक स्थान देकर यह स्थापित करने का प्रयास किया कि मुगल काल ही भारत का वास्तविक इतिहास है। बौद्धिक चतुराई दिखाकर मुगलिया शासन की क्रूरताओं पर पर्दा डाल दिया गया। अब जबकि एनसीईआरटी ने भारत के इतिहास को भारतीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने की दिशा में जनाकांक्षाओं के अनुरूप पहल की है, तब यही सोच विरोध कर रही है।

विपक्ष को चर्चा नहीं… हंगामा चाहिए

जैसा कि अपेक्षित था कि संसद के मानसून सत्र की शुरुआत में विपक्ष हंगामा करेगा, वही हुआ। विपक्ष का आरोप है कि सरकार चर्चा से भागती है, जबकि सरकार का कहना है कि वह हर प्रकार से चर्चा के लिए तैयार है। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? मानसून सत्र की शुरुआत होने से पहले ही हंगामा करना, यही संकेत देता है कि विपक्ष को चर्चा नहीं अपितु हंगामा चाहिए। दरअसल, विपक्ष की कोशिश है कि वह यह वातावरण बना दे कि सरकार ऑपरेशन सिंदूर पर जवाब देने में असमर्थ है। इसलिए विपक्षी नेता अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के युद्ध विराम कराने के दावों की गिनती भी करते रहते हैं। उन्हें अपने देश की सेना और जिम्मेदार अधिकारियों पर विश्वास नहीं है। याद हो, भारतीय सेना स्पष्ट कह चुकी है कि पाकिस्तान की सेना की ओर से युद्ध विराम का प्रस्ताव आया था, जिसे भारतीय सेना ने इसलिए भी मान लिया क्योंकि हम जो चाहते थे, वह प्राप्त कर लिया था। लेकिन विपक्ष के नेताओं को ट्रंप के दावों पर विश्वास है, जो स्वयं ही अपनी बातों से कई बार पलट जाते हैं।

सोमवार, 21 जुलाई 2025

न्यायालय की सुने समाज- लव जिहाद के विरुद्ध भय और संकोच छोड़कर सच बोलना ही होगा

लव जिहाद की साजिश जिस तरह सामाजिक संरचना को चोट पहुँचा रही है, उसे देखकर अब न्यायालय भी चिंतित दिखायी देने लगा है। हरियाणा के एक प्रकरण में ‘लव जिहाद’ के दोषी मुस्लिम युवक को सजा सुनाते हुए फास्ट ट्रैक कोर्ट की न्यायमूर्ति रंजना अग्रवाल ने जो चिंता व्यक्त की है, उसे समाज के प्रबुद्ध वर्ग को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। लव जिहाद पर न्यायालय की चिंता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि “यह भी प्रामाणिक तथ्य है कि पिछले कई वर्षों से मुस्लिम पुरुष प्रेम के नाम पर भोली-भाली हिंदू लड़कियों को किसी न किसी तरह से बहकाकर उनसे विवाह कर लेते हैं और फिर इस्लाम में मतांतरित कर लेते हैं। यदि इस प्रक्रिया को उदार दृष्टिकोण अपनाकर जारी रहने दिया गया तो यह हमारे देश की सुरक्षा और अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा। यह मामला दर्शाता है कि हरियाणा में लव जिहाद एक वास्तविकता है”। न्यायालय की यह टिप्पणी उन सबको सुननी चाहिए, जो स्वयं को सेकुलर दिखाने के चक्कर में लव जिहाद की घटनाओं को स्वीकार ही नहीं करना चाहता है।

बुधवार, 16 जुलाई 2025

अमर्यादित नहीं हो सकती है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

जब हम विरोध, आलोचना और असहमति के वास्तविक स्वरूप को भूलते हैं तब हमारी अभिव्यक्ति घृणा और नफरत में बदल जाती है। मौजूदा समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय विचार के संगठनों एवं कार्यकर्ताओं पर टिप्पणी का स्वर ऐसा ही दिखायी पड़ रहा है, जो अमर्यादित है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही अमर्यादित अभिव्यक्ति के मामलों की सुनवाई के दौरान बहुत महत्वपूर्ण बातें कहीं है, जिन पर हमें गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ है। इस पर किसी प्रकार के बाहरी प्रतिबंध लगाना उचित नहीं होगा। लेकिन यदि इसी प्रकार अमर्यादित लिखा-पढ़ी, बयानबाजी और कार्टूनबाजी जारी रही तब समाज में वैमनस्य और सांप्रदायिक तनाव को फैलने से रोकने के लिए कुछ न कुछ युक्तियुक्त प्रबंध करने ही पड़ेंगे। सोशल मीडिया के इस दौर में किसी को भी अमर्यादित और असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती है। नागरिकों को भी समझना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक मर्यादा है, उसे लांघना किसी के भी हित में नहीं है। उचित होगा कि नागरिक समाज इस दिशा में गंभीरता से चिंतन करे। सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गलत इस्तेमाल समाज में नफरत और विघटन को जन्म दे सकता है। इसलिए नागरिकों को चाहिए कि वे जिम्मेदारी से बोलें, संयम रखें और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करें

मंगलवार, 15 जुलाई 2025

चुनाव आयोग के काम में दखल नहीं देने का उच्चतम न्यायालय का सराहनीय निर्णय

फर्जी मतदाताओं के बल पर लोकतंत्र को लूटने का सपना देखनेवालों को सर्वोच्च न्यायालय ने ढंग से संविधान का पाठ पढ़ाया है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय की सीख उनके दिल-दिमाग में उतरेगी, इसकी संभावना कम ही है। क्योंकि वास्तव में यह लोग जागे हुए हैं, सोने का केवल अभिनय कर रहे हैं। जो सोने का अभिनय करे, उसे भला कौन जगा सकता है। इसलिए कभी मतदाता सूची में गड़बड़ी का आरोप लगाकर वितंडावाद खड़ा करते हैं तो कभी मतदाता सूची को व्यवस्थित किए जाने की प्रक्रिया का विरोध करते हैं। यह सब कवायद देश को गुमराह करने की है। अपने गिरेबां में झांकने की बजाय कभी चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर तो कभी ईवीएम पर तो कभी मतदाता सूची पर सवाल उठाना, अपरिपक्व राजनीति का प्रदर्शन है।

अपने कुतर्कों के आधार पर खड़े किए जाने वाले विमर्श के लिए विपक्षी दलों को हर बार मुंह की खानी पड़ी है। इस बार भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कह दिया कि मतदाता सूची के परीक्षण की चुनाव आयोग की प्रक्रिया को वह नहीं रोकेगा। बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण कांग्रेस की सरकार के समय में यानी वर्ष 2003 में भी कराया जा चुका है। आखिर इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है कि चुनाव आयोग यह सुनिश्चित कर रहा है कि चुनाव में फर्जी मतदाता भाग न ले सकें? मतदाताओं के परीक्षण की प्रक्रिया का विरोध करनेवाले नेता एवं राजनीतिक दल क्या यह चाहते हैं कि चुनाव में फर्जी मतदान होना चाहिए? क्या उनकी मंशा है कि जिन घुसपैठियों ने चोरी-चालाकी से मतदाता सूची में नाम जुड़वा लिया है, उन्हें भारत के लोकतंत्र को प्रभावित करने का अवसर मिले?

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ से प्रदेश होगा जल-समृद्ध

जल संरक्षण को लेकर सामूहिक जिम्मेदारी का भाव जगाता है यह अभियान, निकट भविष्य में आएंगे प्रभावी परिणाम

जलाशय की सफाई करते मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव अपने अभिनव प्रयोगों से अपनी विशेष पहचान बना रहे हैं। मध्यप्रदेश में जल संरक्षण के लिए प्रारंभ हुआ ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ मुख्यमंत्री डॉ. यादव की दूरदर्शी पहल है। निकट भविष्य में हमें इसके सुखद परिणाम दिखायी देंगे। शुभ प्रसंग पर शुभ संकल्प के साथ जब कोई कार्य प्रारंभ किया जाता है, तब उसकी सफलता के लिए प्रकृति एवं ईश्वर भी सहयोग करते हैं। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल पर मध्यप्रदेश सरकार ने गुड़ी पड़वा (30 मार्च) से 30 जून तक प्रदेश स्तरीय ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ चलाकर जल संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया, जो जनांदोलन में परिवर्तित हो गया। सरकार को भी विश्वास नहीं रहा होगा कि जल संरक्षण जैसे मुद्दे को जनता का इतना अधिक समर्थन मिलेगा कि सरकारी अभियान असरकारी बन जाएगा और समाज इस अभियान को अपनी जिम्मेदारी के तौर पर स्वीकार कर लेगा। ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ के अंतर्गत और इससे प्रेरित होकर प्रदेश में अनेक स्थानों पर जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया गया, उनको व्यवस्थिति किया गया और वर्षा जल को एकत्र करने की रचनाएं बनायी गईं। कहना होगा कि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल और प्रतिबद्धता ने  जल संरक्षण के इस अभियान को एक जनांदोलन का रूप दे दिया है, जिससे जल संरक्षण में अभूतपूर्व प्रगति हुई है।

जिहादियों के निशाने पर भारत और हिन्दू

 कन्वर्जन के नेटवर्क का एक छोटा-सा प्यादा है जमालुद्दीन उर्फ छांगुर

भारत को ‘गजवा-ए-हिंद’ बनाने और ‘लव जिहाद’ की साजिशें केवल गल्प नहीं है, बल्कि हिन्दू धर्म और भारत के लिए इन्हें बड़े खतरे के तौर पर देखा जाना चाहिए। ‘गजवा-ए-हिंद’ और ‘लव जिहाद’ की अवधारणाओं को नकारना एक प्रकार से सच्चाई से मुंह मोड़ना है। यह आत्मघाती प्रवृत्ति है। सच को स्वीकार करके उसका समाधान निकालने का प्रयत्न करना ही एक जागृत समाज की पहचान है। भारत में प्रतिदिन ही इस प्रकार के मामले सामने आ रहे हैं, जिससे यह स्थापित होता है कि लव जिहाद और गजवा-ए-हिंद के पीछे बड़े कट्टरपंथी गिरोह शामिल हैं। उत्तरप्रदेश में पकड़ा गया बहुस्तरीय कन्वर्जन का नेटवर्क चलानेवाला फेरीवाला जमालुद्दीन उर्फ छांगुर बाबा, इस व्यापक नेटवर्क का एक प्यादा भर है। अभी हाल ही में हिन्दू लड़कियों से लव जिहाद के लिए मुस्लिम लड़कों की फंडिंग करने के आरोप कांग्रेस के मुस्लिम नेता एवं पार्षद अनवर कादरी पर लगे हैं। जरा सोचकर देखिए कि भारत में हिन्दुओं को कर्न्वट करने का धंधा कितने बड़े पैमाने पर चल रहा है।

हिन्दुओं को कन्वर्ट करने के इस खेल में केवल इस्लामिक संस्थाएं ही नहीं है अपितु चर्च भी शामिल है। पूर्वोत्तर के राज्यों में चर्च ने अपने पैर किस तरह फैलाए हैं, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। जनजातीय क्षेत्रों में चर्च व्यापक स्तर पर कन्वर्जन का धंधा चला रहा है। चर्च ने पंजाब को अपना हॉट स्पॉट बना रखा है। पंजाब के कितने ही गाँव ईसाई बन गए हैं। इसकी अनेक कहानियां बिखरी पड़ी हैं। हिन्दुओं को कन्वर्ट करने के लिए इस्लामिक संस्थाओं और मिशनरीज को बड़े पैमाने पर विदेशों से फंडिंग होती है। छांगुर बाबा की गिरफ्तारी के बाद हो रहे खुलासों में यह सब सामने आ रहा है। केवल 5-6 साल में ही कन्वर्जन का धंधा फैलाकर साइकिल पर सामान बेचनेवाला फेरीवाला जमालुद्दीन ने छांगुर बाबा बनकर आलीशान कोठी, लग्जरी गाड़ियों और कई फर्जी संस्थाओं का मालिक बन गया है। जांच एजेंसियों के अनुसार, जमालुद्दीन खुद को हाजी पीर जलालुद्दीन बताता था। लड़कियों को बहला-फुसलाकर जबरन उनका धर्मांतरण करवाता।