गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

भाषा जोड़ती है, तोड़ती नहीं

जब कहीं से यह समाचार पढ़ने/सुनने को मिलता है कि मराठी, तमिल, तेलगू या अन्य कोई भाषा नहीं बोलने के कारण व्यक्ति के साथ मारपीट कर दी गई, तो दु:ख होता है कि संकीर्ण राजनीति हमें किस दिशा में लेकर जा रही है। हम अपनी ही भाषाओं का सम्मान क्यों नहीं कर रहे हैं? जो भाषाएं आपस में जुड़ी हैं, उनके नाम पर हम एक-दूसरे से दूर क्यों हो रहे हैं? भारत की सभी भाषाओं के शब्द भंडार एक-दूसरे के शब्दों से समृद्ध हैं। हमें तो भाषायी विविधता का उत्सव मनाना चाहिए। भारत की संस्कृति की विशेषता है कि वह विविध रूपों में प्रकट होती है। हम सब मिलकर 11 दिसंबर को महान तमिल कवि सुब्रह्मण्यम भारती की जयंती प्रसंग पर ‘भारतीय भाषा दिवस’ मनाते हैं। यह प्रसंग ही हमें भाषाओं के प्रति संवेदनशील होने की ओर संकेत करता है और बताता है कि भाषाएं मानवीय संबंधों में सेतु का कार्य करती हैं। एक-दूसरे से जोड़ती हैं। श्री भारती ने तमिल को शास्त्रीय स्वरूप से बाहर निकालकर सरल और आम बोलचाल की तमिल का प्रयोग किया ताकि उनके विचार और तमिल साहित्य का ज्ञान आम लोगों तक पहुँच सके। तमिल को प्राथमिकता देने के बावजूद सुब्रह्मण्यम भारती ने हिन्दी और तेलुगु सहित अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति भी सम्मान दिखाया। वह चाहते थे कि सभी भारतीय भाषाओं के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान हो, जिससे भारत एक सशक्त राष्ट्र बन सके। उनका स्पष्ट दृष्टिकोण था कि भारत की विभिन्न भाषाएं उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी शक्ति और सुंदरता हैं।

भाषा मनुष्यों के बीच विचारों, भावनाओं और सूचनाओं के सुचारु आदान-प्रदान को संभव बनाती है। यदि भाषा न हो, तो यह सब संभव नहीं हो सकता। भाषा को लेकर अगर हम किसी संकीर्ण विचार से ग्रसित नहीं है, तब यह हमें एक अलग दुनिया की सैर कराती है, जहाँ एक-दूसरे के प्रति सम्मान है, अपनत्व है, एक-दूसरे से जुड़ने की ललक है। आपने कभी सोचा है कि कितना अपनापन लगता है जब कोई हमारी मातृभाषा में बात करता है या फिर हम सामने वाले की मातृभाषा में बात करने की कोशिश करते हैं। चूँकि मैं हिन्दी भाषी हूँ तो जब किसी मलयाली, कन्नड़, असमिया, बांग्ला, तमिल या तेलगू सहित अन्य भारतीय भाषा बोलने वालों को हिन्दी में भाषण देते या बात करते हुए सुनता हूँ तो जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसका वर्णन यहाँ संभव नहीं है। मैं भी प्रसासपूर्वक अन्य भारतीय भाषा में एक-दो वाक्य सीखकर उनके साथ अपनेपन का रिश्ता बनाने की ओर एक-दो कदम बढ़ाता हूँ। सच, मानिए यह पहल हृदयों को मिलाने का काम करती है। भारतीय राजनीति में इसका उदाहरण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूप में हमारे सामने है। संपूर्ण देश में उनकी लोकप्रियता का कारण है कि वे जिस स्थान पर और जिन लोगों के बीच भाषण दे रहे होते हैं, उनके साथ संवाद स्थापित करने के लिए अभिवादन उनकी ही भाषा में करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी दुनिया के अलग-अलग देशों के राष्ट्राध्यक्षों को सोशल मीडिया पर बधाई-शुभकामना एवं अन्य विषयों से जुड़े महत्वपूर्ण पोस्ट भी उनकी ही भाषा में करते हैं। यानी देश-दुनिया को जोड़ने के लिए भाषा को बेहतरीन उपयोग हम प्रधानमंत्री मोदी से सीख सकते हैं। 

अनुवाद और बहुभाषावाद के माध्यम से भाषाएं सांस्कृतिक दूरियों को कम करती हैं। एक भाषा सीखना दूसरे समुदाय के विचारों और जीवनशैली को समझने का द्वार खोलता है, जिससे हमारे पूर्वाग्रह भी कम होते हैं। इसलिए व्यक्ति को अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषा सीखने का प्रयास भी करना चाहिए। ‘भाषा जोड़ती है, तोड़ती नहीं’, यह आदर्श विचार इस दृष्टिकोण पर आधारित है कि भाषा लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने, भावनाएं साझा करने और सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देने में सहायता करती है। भाषा के नाम पर भारतीय समाज को तोड़ने की साजिश का हिस्सा बन रहे लोगों को यह बात भली प्रकार से समझनी चाहिए। उन्हें अपनी ऊर्जा भारतीय भाषाओं को समृद्ध करने में लगाना चाहिए। विशेषकर, संकीर्ण राजनीति के प्रभाव में आकर हिन्दी का विरोध करने वाले बंधुओं को यह देखना चाहिए कि हिन्दी का विकास एवं विस्तार अहिन्दी भाषी महानुभावों ने अधिक किया है, जिनमें प्रमुख हैं- स्वामी दयानंद सरस्वती,  महात्मा गांधी, माधवराव सप्रे, विनोबा भावे, गोपालस्वामी अय्यंगर, डॉ. चलसानि सुब्बाराव, काका कालेलकर, आर. वेंकटरमण, ज्योतिराव फुले इत्यादि। हिन्दी की पहली कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ के रचनाकार प्रख्यात पत्रकार माधवराव सप्रे संदेश देते हैं कि “मैं मराठी हूँ लेकिन हिन्दी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है, जितना किसी हिन्दी भाषी को हो सकता है”। वहीं, स्वामी दयानंद सरस्वती मानते थे कि “हिन्दी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है”। इस प्रकार के राष्ट्रीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो भाषा के वास्तविक उद्देश्यों को स्थापित करता है।

सदैव स्मरण रखें कि जब भाषा को सम्मान, समावेश और समझ के साथ प्रयोग किया जाता है, तो यह निश्चित रूप से ‘जोड़ती’ है। हमारे पुरखों ने ऐसा करके दिखाया है। संपूर्ण भारत में इसके अनुकरणीय उदाहरण हमें मिलते हैं। इसलिए हमें अपनी भाषाई विविधता का उत्सव मनाना चाहिए और हर भाषा को सम्मान देना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक भाषा एक अनमोल सांस्कृतिक खजाना है। हम एक-दूसरे की भाषा को सीखें, समझें और भावनाओं से लेकर शाब्दिक आदान-प्रदान करें। 

सोमवार, 8 दिसंबर 2025

बाबर की औलादें

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने कथित तौर पर बाबरी मस्जिद की नींव रखकर ‘बाबर की औलादों’ को जिंदा कर दिया है। अब तहरीक मुस्लिम शब्बन नाम के संगठन ने ग्रेटर हैदराबाद में बाबरी स्मारक बनाने का ऐलान किया है। ये घटनाएं केवल अपने मत-संप्रदाय के प्रति अपना विश्वास प्रकट करने का विषय नहीं है, बल्कि देश की न्यायिक व्यवस्था, सांप्रदायिक सौहार्द और संवैधानिक मूल्यों को चुनौती देने की कोशिश के तौर पर इन्हें देखना चाहिए। यह एक प्रकार से अलगाववादी सोच है, जो पहले भी भारत का विभाजन करा चुकी है। यह सोच इसलिए और भी अधिक खतरनाक दिखायी दे रही है क्योंकि ये किसी सिरफिरे कट्टरपंथियों की घोषणा मात्र नहीं है, अपितु इस विचार के पीछे मुसलमानों की अच्छी-खासी भीड़ भी खड़ी दिखायी दे रही है। कथित बाबरी मस्जिद की नींव रखने के लिए जिस तरह सिर पर ईंटें ढोकर लाते मुसलमानों की भीड़ दिखायी दी, उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। ‘नारा-ए-तकबीर, अल्लाहु अकबर’ के नारों के बीच लाखों समर्थकों का जुटना और बाबरी मस्जिद के निर्माण की बात दोहराना, साफ तौर पर मुस्लिम समुदाय की सांप्रदायिक लामबंदी को स्पष्टतौर पर रेखांकित करता है।

रविवार, 7 दिसंबर 2025

डॉक्टर साहब के विचारों से पोषित है संघ की यात्रा

जिस प्रकार छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दू समाज को आत्मदैन्य की स्थिति से बाहर निकाल कर आत्मगौरव की भावना से जागृत किया, उसी प्रकार डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने भी हिन्दू समाज का आत्मविश्वास जगाकर बिखरे हुए हिन्दुओं को एकजुट करने का अभिनव कार्य आरंभ किया। दोनों ही युगपुरुषों ने लगभग एक जैसी परिस्थितियों में संगठन का कार्य प्रारंभ किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिन उद्देश्यों के साथ हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के मूल में भी उसी ‘स्व बोध’ का संकल्प है। भारत का स्वदेशी समाज जागरूक और संगठित रहे, उसमें ही सबका हित है। स्वराज्य प्राप्ति के बाद भारत किस प्रकार अपने खाये हुए वैभव और गौरव को प्राप्त करे, यह चिंतन-धारा युगद्रष्टा डॉक्टर हेडगेवार के मन में चलने लगी थी। उसी चिंतन-धारा में से संघ धारा का एक सोता फूटा था। डॉक्टर साहब ने जिस प्रकार का संकल्प व्यक्त किया था, उसी के अनुरूप नागपुर के मोहिते बाड़ा रूप गोमुख से निकली संघधारा आज सहस्त्र धारा के रूप में समाज को सिंचित कर रही है।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

स्वयं को अनंतकाल तक बनाए नहीं रखना चाहता संघ

संघ शताब्दी वर्ष : संघमय बने समाज, संघ का लक्ष्य है कि संपूर्ण हिन्दू समाज संगठित हो और संघ उसमें विलीन हो जाए

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज जिस विराट स्वरूप में दिखायी देता है, उसका संपूर्ण चित्र संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के मन में था। संघ समय के साथ उनकी संकल्पना के अनुरूप ही विकसित हुआ है। इस संदर्भ में संघ के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी अपनी पुस्तक ‘कार्यकर्ता’ में लिखते हैं- “जैसे कोई कुशल चित्रकार पहले अपने मन के संकल्प चित्र की केवल आउटलाइन खींचता है। क्या कोई कह सकता है कि आउटलाइन के आगे उसके सामने कुछ भी नहीं है। ऐसा तो नहीं। उसके मन में तो पूरा चित्र स्पष्ट रूप से रेखांकित हुआ करता है, और कागज पर खींची हुई आउटलाइन में धीरे-धीरे उसी के अनुसार रंग भरते-भरते, उमलते हुए रंगों से कल्पना साकार होती है। अंग्रेजी में इसे ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि जो बात पहले से ही मौजूद रहती है, वही समय के अनुसार उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रकट होकर दिखाई देना प्रारंभ होती है। संघ कार्य का भी इसी प्रकार प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट हुआ है”। अपनी 100 वर्ष और चार चरणों की यात्रा में संघ के विस्तार के बाद अब आगे क्या, यह चर्चा सब ओर चल रही है। शताब्दी वर्ष के निमित्त संघ में भी यह चर्चा खूब है। इसका संकेत भी हमें संस्थापक सरसंघचालक डॉक्टर साहब की संकल्पना में मिलता है। आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार कहते थे कि “संघ कार्य की जुबली मनाने की कल्पना नहीं है। यानी कि शतकानुशतक संघ अपने ही स्वरूप में समाज को संगठित करने का कार्य करता रहेगा, यह कल्पना नहीं है”। डॉक्टर साहब चाहते थे कि संघ यथाशीघ्र अपने लक्ष्य को प्राप्त करे और समाज में विलीन हो जाए। संघ का अगला ‘प्रोग्रेसिव अनफोल्डमेंट’ समाज के साथ एकरूप होना ही है। इसलिए संघ और समाज के लिए पाँचवा चरण बहुत महत्वपूर्ण रहनेवाला है। संघ अपने पाँचवे चरण में समाज के साथ एकरस होना चाहता है। यानी संघ जिन उद्देश्यों को लेकर चला है, वह समाज के उद्देश्य बन जाएं। यानी भारतीय समाज संघमय हो जाए। समाज और संघ में कोई अंतर न दिखे।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

भारत के विचार की विजय पताका

श्री अयोध्या धाम में श्रीराम मंदिर पर धर्म ध्वजा की प्रतिष्ठा का यह प्रसंग अविस्मणीय है। यह केवल एक मंदिर पर फहराने वाला ध्वज नहीं है अपितु भारत के विचार की विजय पताका है। सदियों की तपस्या, संघर्ष और आस्था एक होकर भव्य श्रीराम मंदिर के शिखर पर धर्मध्वमजा के रूप में साकार हुई है। वास्तव में, 25 नवंबर, 2025 भारत की सांस्कृतिक चेतना के लिए ‘सार्थकता का दिन’ बन गया। जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि “सार्थकता के इस दिन के लिए जितने लोगों ने प्राण न्योछावर किए, उनकी आत्मा तृप्त हुई होगी। आज मंदिर का ध्वजारोहण हो गया। मंदिर की शास्त्रीय प्रक्रिया पूर्ण हो गई। राम राज्य का ध्वज, जो कभी अयोध्या में फहराता था, जो पूरी दुनिया में अपने आलोक से समृद्धि प्रदान करता था, वह आज धीरे-धीरे ऊपर उठते हुए अपनी आंखों से देखा है। इस भगवा ध्वज पर रघुकुल का प्रतीक कोविदार वृक्ष है। यह वृक्ष रघुकुल की सत्ता का प्रतीक है”।

रविवार, 23 नवंबर 2025

सज्जनशक्ति को साथ ले, संघ के स्वयंसेवकों ने समाज परिवर्तन के प्रयासों को दी गति

संघ शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा के चौथा चरण द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर ‘श्रीगुरुजी’ के जन्म शताब्दी वर्ष से शुरू हुआ 

अपने सुदीर्घ सामाजिक यात्रा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक-एक कदम आगे बढ़, अपना सामर्थ्य बढ़ाता रहा और उसके अनुरूप देशहित में अपनी भूमिका का विस्तार करता रहा है। संघ के स्वयंसेवक एक गीत गाते हैं- "दसों दिशाओं में जाएं, दल-बादल से छा जाएं, उमड़-घुमड़कर हर धरती को नंदनवन सा लहराएं..."। अपने तीन चरण की यात्रा के साथ संघ अब देशव्यापी संगठन हो चुका था। समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में भी भारतीयता का पोषण करने वाला वातावरण बनाने के लिए समविचारी संगठन प्रारंभ हो ही गए थे। अब आवश्यकता थी कि सब कार्यों में समाज की सज्जनशक्ति को जोड़कर उन कार्यों को और अधिक प्रभावी बनाया जाए। किसी भी रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्य की स्थायी सिद्धि के लिए आवश्यक है कि समाज के प्रमुख जन उस कार्य को अपना मानें और उसे यशस्वी बनाने में अपनी भूमिका निभाएं। समाज की सज्जनशक्ति तक पहुंचना और उन्हें संघधारा में लेकर आना, इसके लिए संघ ने अपने द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य 'श्रीगुरुजी' की जन्मशताब्दी वर्ष को सुअवसर के तौर पर देखा।

रविवार, 16 नवंबर 2025

“सेवा है यज्ञकुंड समिधा सम हम जले”

संघ शताब्दी वर्ष : संघ विकास यात्रा के तीसरे चरण में आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष से मिली सेवा कार्यों को गति

सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि “सेवा कार्यों की प्रेरणा के पीछे हमारा स्वार्थ नहीं है। हमें अपने अहंकार की तृप्ति और अपनी कीर्ति-प्रसिद्धि के लिए सेवा-कार्य नहीं करना है। यह अपना समाज है, अपना देश है, इसलिए हम कार्य कर रहे हैं। स्वार्थ, भय, मजबूरी, प्रतिक्रिया या अहंकार, इन सब बातों से रहित आत्मीय वृत्ति का परिणाम है यह सेवा।” संघ ने अपने विकास के तीसरे चरण के अंतर्गत 1989 में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी के जन्मशताब्दी वर्ष के प्रसंग से सेवा कार्यों को अधिक गति और व्यवस्थित रूप देने का निर्णय लिया। आद्य सरसंघचालक के जन्मशताब्दी वर्ष का केंद्रीय भाव या उद्देश्य सेवा कार्य ही था। तत्कालीन सरसंघचालक डॉ. बालासाहब देवरस का इस बात पर अधिक जोर था कि समाज को संभालने के लिए सेवा कार्यों की आवश्यकता है। उस समय तक संघ का सामर्थ्य इतना बढ़ गया था कि उसके कार्यकर्ता व्यवस्थिति ढंग से सेवाकार्यों का संचालन कर सकते थे। तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस की प्रेरणा से 1990 में संघ में विधिवत सेवा विभाग प्रारंभ हुआ। समाज के साथ मिलकर सेवाकार्यों को विस्तार दिया जाए, इस उद्देश्य से सभी प्रांतों में ‘सेवा भारती’ का कार्य प्रारंभ किया गया। हालांकि, दिल्ली में सेवा भारती का गठन 1979 में ही हो गया था। इससे पूर्व 1977 में दिल्ली में सरसंघचालक देवरस जी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए सेवा कार्य करने का आह्वान किया था। उनकी प्रेरणा से स्वयंसेवकों ने 1977 में ही दिल्ली की जहांगीरपुरी में पहला संस्कार केंद्र (बालवाड़ी) का शुभारंभ किया, जिसका उद्घाटन स्वयं सरसंघचालक ने किया। हमें यह याद रखना चाहिए कि संघ के बीज में ही सेवा का भाव निहित था। स्वयंसेवकों के लिए सेवा अलग से करने का विषय नहीं है। संघ का मानना है कि सेवा करणीय कार्य है। यद्यपि डॉ. हेडगेवार की जन्मशताब्दी के अवसर पर सम्पूर्ण समाज को प्रेम और आत्मीयता के आधार पर संगठित करने की दिशा में सेवा कार्यों को गति देना महत्वपूर्ण कदम था।