स्कू ल-कॉलेज के समय अक्सर एक सवाल मन में नागफनी-सा चुभता था कि विज्ञान की किताबों में डब्ल्यू के रोएण्टजेन, जेएच वैंटहाफ, एई वॉन बेहरिंग, रेगनर फ्रिश, जॉन टिनबर्गन और आइंस्टीन जैसे कठिन और विदेशी नाम क्यों हैं? रामचंद्र, श्यामसुन्दर, अनिल, सुनील जैसे सरल और हमारे-तुम्हारे जैसे नाम क्यों नहीं है? क्या विज्ञान के क्षेत्र में सबकुछ विदेशियों की ही देन है? भारतमाता ने ऐसे सुत नहीं जने, जिन्होंने विज्ञान की प्रज्वला जलाई हो? बहुत पूछ-पड़ताल करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि भारत में विज्ञान का दीप प्रज्वलित ही नहीं था बल्कि अन्य को प्रकाश भी दे रहा था। लेकिन हम बचपन से रटे हुए विज्ञान को झुठलाना नहीं चाहते। हम आज भी विज्ञान के विकास और वैज्ञानिक दृष्टि के लिए पश्चिम की ओर ही देखते रहना चाहते हैं। हम यह स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है कि रॉकेट और बारूद विदेश में नहीं बल्कि अपने ही देश में ईजाद हुए। इस संदर्भ में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के एक अनुभव को उल्लेखित करना चाहूंगा। उन्होंने अपनी पुस्तक 'इंडिया टू थाउजेंड ट्वेंटी : अ विजन फॉर न्यू मिलेनियम' में लिखा है कि एक बार वे रात्रिभोज में आमंत्रित थे। जहां बाहर के अनेक वैज्ञानिक और भारत के कुछ प्रमुख लोग आमंत्रित थे। वहां चर्चा चलते-चलते रॉकेट की तकनीक के विषय पर चर्चा चली। किसी ने कहा कि चीनी लोगों ने हजार वर्ष पूर्व बारूद की खोज की, बाद में तेरहवीं सदी में इस बारूद की सहायता से अग्नि तीरों का प्रयोग युद्धों में प्रारंभ हुआ। इस चर्चा में भाग लेते हुए डॉ. कलाम कहते हैं कि एक बार वे इंग्लैड गए थे। वहां लंदन के पास वुलीच नामक स्थान पर रोटुण्डा नाम का संग्रहालय है। इसमें टीपू श्ररंगपट्टनम् में अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में टीपू सुल्तान की सेना द्वारा प्रयुक्त रॉकेट देखे और यह विश्व में रॉकेट का युद्ध में सर्वप्रथम प्रयोग था। डॉ. कलाम के इतना कहते ही वहां मौजूद एक प्रमुख भारतीय ने तुरन्त टिप्पणी की कि वह तकनीक फ्रेंच लोगों ने टीपू को दी थी। इस पर डॉ. कलाम ने उन सज्जन से कहा कि आपका कथन ठीक नहीं है। मैं आपको प्रमाण बतलाऊंगा। बाद में डॉ. कलाम ने उन्हें प्रख्यात ब्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लॉवेल की पुस्तक 'द ऑरीजिन एण्ड इंटरनेशनल इकॉनॉमिक ऑफ स्पेस एक्सप्लोरेशन' बताई। इसमें लिखा था कि विलियम कोनग्रेव्ह ने टीपू की सेना द्वारा प्रयुक्त रॉकेट का अध्ययन किया। उसमें कुछ सुधार कर सन् १८०५ में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट और युद्ध सचिव के्रसर लीध के सामने प्रस्तुत किया। वे इसे देखकर प्रभावित हुए और उन्होंने इसे सेना में शामिल करने की अनुमति प्रदान की। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम क्रोनगेव्ह के बारे में तो जानते हैं लेकिन उन महान वैज्ञानिकों के बारे में कोई जानकारी नहीं, जिन्होंने टीपू सुल्तान की सेना के लिए तोप बनाकर दी।
दरअसल, भारत में वर्तमान में विज्ञान को लेकर जो धारणा प्रचलित है उसके लिए बहुत हद तक हमारा शिक्षा विभाग और बुद्धिजीवी लोग जिम्मेदार रहे हैं। शिक्षा संस्थानों ने अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाई। कहते हैं न जो बोएंगे वही तो काटेंगे। हमने एक लंबे अंतराल से विज्ञान के बीज शिक्षा संस्थानों में बोए ही नहीं तो विज्ञान के पौधे-वृक्ष कहां से मिलेंगे। विज्ञान के गीत गाना बंद कर दिया तो विज्ञान की अनुगूंज कहां से आएगी। भारत में आने वाली नस्ल को अपनी परंपरा, संस्कृति, इतिहास और ज्ञान के प्रति गौरव का भाव न रहे, इसके लिए १८३५ में लार्ड थॉमस बॉबिंग्टन मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू करके पूरी कर दी। रही-सही कसर भारतीय मैकाले पुत्रों ने मैकाले के पौधे को सींच कर पूरी कर दी।
चलिए अब इस बात पर गौर किया जाए कि भारत में फिर से वैज्ञानिक सोच का समाज बनाने के लिए सोशल मीडिया किस प्रकार की भूमिका निभा सकता है। अन्ना हजारे का आंदोलन हो बाबा रामदेव का आंदोलन दोनों को सोशल मीडिया से खूब ताकत मिली। असांजे ने विकीलीक्स के माध्यम से अमरीका के चाल, चरित्र और चेहरे को बेपर्दा कर उसकी चूलें हिला दीं। सोशल मीडिया वर्तमान में अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। परंपरागत मीडिया की तरह यह मैनेज नहीं हो सकता। सोशल मीडिया में कहीं भी कोई चिंगारी उठती है तो वह दूर तक जाती है। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पर छाई धुंध को हटाने में सोशल मीडिया एक कारगर माध्यम है। बस करना यह है कि सोशल मीडिया में विज्ञान लेखन की शुरुआत हो। हालांकि अभी भी कई सोशल मीडियाकर्मी विज्ञान लेखन का कार्य कर रहे हैं लेकिन यह अभी सीमित है। इस कार्य को गति देने की जरूरत है। चूंकि आजकल स्कूल-कालेज के विद्यार्थी अध्ययन के लिए इंटरनेट का काफी इस्तेमाल करते हैं। अब तो इंटरनेट डेस्कटॉप और लैपटॉप से निकलकर मोबाइल में आ गया है। ऐसे में सोशल मीडिया विज्ञान को रोचक तरीके से प्रस्तुत कर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। बाल सुलभ मन विज्ञान के परंपरागत अध्ययन से ऊब जाता है। छुटपन से ही बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि जगानी है तो विज्ञान कथा लेखन इस दिशा में बेहतर उपाय हो सकता है। कथा रुचिकर होने के साथ अंतर्मन में पैठ करती है। विज्ञान कथा लेखन कर सोशल मीडिया दादा-दादी और नाना-नानी की भूमिका निभा सकता है। साथ ही अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री को क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया जाना चाहिए। गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस बात पर बड़ा जोर दिया है कि सृजन मातृभाषा में ही हो सकता है। शिक्षा की राष्ट्रीय परिचर्या-2005 की रूपरेखा में भी इस बात को स्वीकारा गया है कि अपनी भाषा में इंसान बेहतर सीख सकता है। वहीं कोठारी आयोग-1966 ने भी कहा था कि दुनियाभर के देशों में बच्चों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जाती है। भारत ही एकमात्र देश है जहां यह व्यवस्था नहीं है। अपनी भाषा में विज्ञान लेखन का कार्य सोशल मीडिया पर अच्छे से किया जा सकता है। विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन जरूरी है। इसके साथ ही इस बात के भी प्रयास करने होंगे की हमारे सुझाव सरकार तक भी पहुंचे। समाज में वैज्ञानिक सोच का वातावरण बनाने के लिए कुछ निजी और सरकारी संस्थाएं कार्यरत हैं। विज्ञान भारती, मेपकॉस्ट, मध्यप्रदेश विज्ञान सभा, साइंस सेंटर और स्पंदन इसके उदाहरण है, ऐसे और भी कई नाम हैं। सोशल मीडिया में जो लोग विज्ञान लेखन की जिम्मेदार संभाले हुए हैं या जो इस दिशा में कुछ करने का मन बना रहे हैं, वे इनके साथ जुड़कर काम कर सकते हैं। विज्ञान मेले, विज्ञान सेमिनार, परिचर्चा, वर्कशॉप, वैज्ञानिक संस्थानों का भ्रमण, वैज्ञानिकों से मुलाकात, विज्ञान नाटकों का आयोजन आदि गतिविधियां शुरू कर सकते हैं। इससे वैज्ञानिक सोच का समाज बनाने में बड़ी मदद मिलेगी।
आखिर में एक बात और कहूंगा कि भारत में सदैव से विज्ञान की गंगाधारा बहती रही है। बीच में बाह्य आक्रमणों के कारण कुछ गड़बड़ जरूर हुई लेकिन यह धारा अवरुद्ध नहीं हुई। समाज में वैज्ञानिक चेतना खासकर विज्ञान के प्रति भारतीय दृष्टि के विकास के लिए अब सोशल मीडिया को मिलकर भगीरथी प्रयास करने होंगे।
दरअसल, भारत में वर्तमान में विज्ञान को लेकर जो धारणा प्रचलित है उसके लिए बहुत हद तक हमारा शिक्षा विभाग और बुद्धिजीवी लोग जिम्मेदार रहे हैं। शिक्षा संस्थानों ने अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाई। कहते हैं न जो बोएंगे वही तो काटेंगे। हमने एक लंबे अंतराल से विज्ञान के बीज शिक्षा संस्थानों में बोए ही नहीं तो विज्ञान के पौधे-वृक्ष कहां से मिलेंगे। विज्ञान के गीत गाना बंद कर दिया तो विज्ञान की अनुगूंज कहां से आएगी। भारत में आने वाली नस्ल को अपनी परंपरा, संस्कृति, इतिहास और ज्ञान के प्रति गौरव का भाव न रहे, इसके लिए १८३५ में लार्ड थॉमस बॉबिंग्टन मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू करके पूरी कर दी। रही-सही कसर भारतीय मैकाले पुत्रों ने मैकाले के पौधे को सींच कर पूरी कर दी।
चलिए अब इस बात पर गौर किया जाए कि भारत में फिर से वैज्ञानिक सोच का समाज बनाने के लिए सोशल मीडिया किस प्रकार की भूमिका निभा सकता है। अन्ना हजारे का आंदोलन हो बाबा रामदेव का आंदोलन दोनों को सोशल मीडिया से खूब ताकत मिली। असांजे ने विकीलीक्स के माध्यम से अमरीका के चाल, चरित्र और चेहरे को बेपर्दा कर उसकी चूलें हिला दीं। सोशल मीडिया वर्तमान में अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। परंपरागत मीडिया की तरह यह मैनेज नहीं हो सकता। सोशल मीडिया में कहीं भी कोई चिंगारी उठती है तो वह दूर तक जाती है। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पर छाई धुंध को हटाने में सोशल मीडिया एक कारगर माध्यम है। बस करना यह है कि सोशल मीडिया में विज्ञान लेखन की शुरुआत हो। हालांकि अभी भी कई सोशल मीडियाकर्मी विज्ञान लेखन का कार्य कर रहे हैं लेकिन यह अभी सीमित है। इस कार्य को गति देने की जरूरत है। चूंकि आजकल स्कूल-कालेज के विद्यार्थी अध्ययन के लिए इंटरनेट का काफी इस्तेमाल करते हैं। अब तो इंटरनेट डेस्कटॉप और लैपटॉप से निकलकर मोबाइल में आ गया है। ऐसे में सोशल मीडिया विज्ञान को रोचक तरीके से प्रस्तुत कर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। बाल सुलभ मन विज्ञान के परंपरागत अध्ययन से ऊब जाता है। छुटपन से ही बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि जगानी है तो विज्ञान कथा लेखन इस दिशा में बेहतर उपाय हो सकता है। कथा रुचिकर होने के साथ अंतर्मन में पैठ करती है। विज्ञान कथा लेखन कर सोशल मीडिया दादा-दादी और नाना-नानी की भूमिका निभा सकता है। साथ ही अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री को क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया जाना चाहिए। गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस बात पर बड़ा जोर दिया है कि सृजन मातृभाषा में ही हो सकता है। शिक्षा की राष्ट्रीय परिचर्या-2005 की रूपरेखा में भी इस बात को स्वीकारा गया है कि अपनी भाषा में इंसान बेहतर सीख सकता है। वहीं कोठारी आयोग-1966 ने भी कहा था कि दुनियाभर के देशों में बच्चों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जाती है। भारत ही एकमात्र देश है जहां यह व्यवस्था नहीं है। अपनी भाषा में विज्ञान लेखन का कार्य सोशल मीडिया पर अच्छे से किया जा सकता है। विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए भारतीय भाषाओं में विज्ञान लेखन जरूरी है। इसके साथ ही इस बात के भी प्रयास करने होंगे की हमारे सुझाव सरकार तक भी पहुंचे। समाज में वैज्ञानिक सोच का वातावरण बनाने के लिए कुछ निजी और सरकारी संस्थाएं कार्यरत हैं। विज्ञान भारती, मेपकॉस्ट, मध्यप्रदेश विज्ञान सभा, साइंस सेंटर और स्पंदन इसके उदाहरण है, ऐसे और भी कई नाम हैं। सोशल मीडिया में जो लोग विज्ञान लेखन की जिम्मेदार संभाले हुए हैं या जो इस दिशा में कुछ करने का मन बना रहे हैं, वे इनके साथ जुड़कर काम कर सकते हैं। विज्ञान मेले, विज्ञान सेमिनार, परिचर्चा, वर्कशॉप, वैज्ञानिक संस्थानों का भ्रमण, वैज्ञानिकों से मुलाकात, विज्ञान नाटकों का आयोजन आदि गतिविधियां शुरू कर सकते हैं। इससे वैज्ञानिक सोच का समाज बनाने में बड़ी मदद मिलेगी।
आखिर में एक बात और कहूंगा कि भारत में सदैव से विज्ञान की गंगाधारा बहती रही है। बीच में बाह्य आक्रमणों के कारण कुछ गड़बड़ जरूर हुई लेकिन यह धारा अवरुद्ध नहीं हुई। समाज में वैज्ञानिक चेतना खासकर विज्ञान के प्रति भारतीय दृष्टि के विकास के लिए अब सोशल मीडिया को मिलकर भगीरथी प्रयास करने होंगे।