भारतीय पक्ष का पहरुआ पत्रकार : उमेश उपाध्याय
छवि निर्माण में मीडिया की प्रभावी भूमिका होती है। इसलिए मीडिया का कार्य बहुत जिम्मेदारी और जवाबदेही का है। मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह पत्रकारिता के सिद्धांतों एवं मूल्यों का पालन करते हुए समाचारों एवं अन्य सामग्री का प्रसार करे। समाचारों के निर्माण, प्रकाशन एवं प्रसारण में निष्पक्षता, संतुलन एवं सत्यता जैसी बुनियादी बातों का पालन करे। परंतु ध्यान आता है कि मीडिया का एक हिस्सा अपने निहित एजेंडा को लेकर कार्य करता है। भारत में ही नहीं अपितु विदेश में भी मीडिया का एक वर्ग ऐसा है, जो भारत के प्रति दुराग्रहों से भरा हुआ है। विदेशी मीडिया में भारत विरोधी नैरेटिव पर वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय बारीक नजर रखते थे। उन्होंने अपने विश्लेषणों से सिद्ध किया कि भारत के संदर्भ में रिपोर्टिंग करते समय विदेशी मीडिया की कलम तंगदिली से चलती है। भारत के ऐसे पत्रकारों को विदेशी मीडिया खूब स्थान देती है, जो भारत की छवि को बिगाड़ने के लिए वास्तविक तथ्यों की अनदेखी करके लेखन करते हैं। इसी वर्ष (2024) उनकी पुस्तक ‘वेस्टर्न मीडिया नैरेटिव ऑन इंडिया: फ्रॉम गांधी टू मोदी’ प्रकाशित होकर आई थी, जिसने पत्रकारिता एवं अकादमिक जगत में सबका ध्यान आकर्षित किया। अगस्त, 2024 में जब भोपाल में उनसे भेंट हुई, तब मैंने आग्रह किया कि यह पुस्तक हिन्दी पाठकों के लिए भी अनुवादित होकर आनी चाहिए। हिन्दी दुनिया के पाठकों को भी विदेशी मीडिया की संकीर्ण मानसिकता के बारे में जानकारी होनी चाहिए। मीडिया को परिभाषित करते हुए पाश्चात्य विद्वानों ने इसे ‘वॉचडॉग’ कहा है। उमेश जी के विश्लेषण पढ़ने के बाद ध्यान आता है कि इस ‘वॉचडॉग’ की निगरानी भी आवश्यक है। अन्यथा यह किसी के प्रभाव में बहककर निर्दोष को अपना शिकार बना सकता है। पुस्तक लिखने से पूर्व भी उमेश जी भारत के संदर्भ में पाश्चात्य मीडिया के पक्षपाती दृष्टिकोण को अपने लेखों एवं व्याख्यानों के माध्यम से लगातार उजागर करते रहे हैं।
विदेशी मीडिया के पक्षपाती दृष्टिकोण को जिस बेबाकी और शोधपूर्ण ढंग से उमेश जी ने बेपर्दा किया है, उस संदर्भ में प्रतिष्ठित संपादक एवं राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जी की टिप्पणी देखनी चाहिए- “उमेश उपाध्याय ने कठोर शोध पर आधारित अपनी पुस्तक के माध्यम से यह स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि कैसे पश्चिमी मीडिया पारंपरिक रूप से पक्षपाती और नकारात्मक रहा है, जो भारत की विकृत छवि प्रस्तुत करता है। पश्चिमी मीडिया द्वारा प्रस्तुत की जानेवाली ये एकतरफा छवियां आज के पारदर्शी समय में वैश्विक शक्ति के रूप में उभरते भारत की प्रतिष्ठा के विपरीत हैं। उपाध्याय जी ने बहुत ही सही ढंग से बताया है कि यदि पश्चिमी मीडिया भारत के प्रति अपना दृष्टिकोण नहीं बदलेगा तो उसकी विश्वसनीयता दांव पर लगेगी”। इसी तरह के विचार सुप्रसिद्ध लेखक एवं अर्थशास्त्री संजीव सान्याल ने व्यक्त किए हैं। उनका भी मत है कि “उमेश उपाध्याय ने स्पष्टता और निर्विवाद प्रमाणों के साथ सिद्ध किया है कि कैसे 1947 से अभी तक दुनिया में भारत की जगह को सीमित करने के लिए पाश्चात्य मीडिया ने पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया है”।
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उमेश उपाध्याय की स्मृति को समर्पित मीडिया विमर्श का अक्टूबर-दिसंबर-2024 का अंक |
जिस तरह से 1947 में जब भारत स्वतंत्र हो रहा था, तब पाश्चात्य विद्वानों, राजनेताओं एवं मीडिया द्वारा कहा गया कि भारत अधिक समय तक लोकतंत्र को संभाल नहीं पाएगा। दरअसल, भारत के संदर्भ में विचार करते समय वे भूल गए कि लोकतंत्र भारत की आत्मा है। भारत लोकतंत्र की जननी है। भारत के मूल में लोकतांत्रिक मूल्य विद्यमान हैं। गणतंत्र का सबसे पहला उल्लेख भारतीय परंपरा में ही मिलता है। भारत विविधता के साथ उत्सव मनाता है, तो उसके मूल में लोकतंत्र ही है। भारत ने अपने आचरण से दुनिया को उत्तर दिया- ‘भारत दुनिया का सबसे बड़ा जीवंत लोकतंत्र है’। इसी तरह, जब विश्व कोरोना महामारी की चपेट में आया तब पाश्चात्य मीडिया ने अपने पूर्वाग्रहों के चलते भारत के संदर्भ में गलत धारणाएं बना ली। लेखक उमेश उपाध्याय ने कोरोना महामारी में पाश्चात्य मीडिया की संकीर्ण मानसिकता एवं पक्षपाती रवैये का बहुत बारीकी से विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है- “कोरोना शुरू होते ही पश्चिमी देशों की मीडिया में लगातार ऐसे लेख आए थे जिनमें कहा गया था कि भारत जैसे अनपढ़, अनुशासनहीन, अराजक, स्वास्थ्य सुविधाहीन और गंदगी से भरे देश में यह महामारी आएगी तो संभल नहीं पाएगी। कुछ अखबारों और कथित बुद्धिजीवियों, जिनमें कई अपने देश (भारत) के भी हैं, ने भविष्यवाणी की थी कि हिन्दुस्तान में इस बीमारी से करोड़ों लोग मारे जाएंगे। वे यह तुलना करते नहीं थकते थे कि 1918 में जब स्पेनिश फ्लू आया था तो देश में करोड़ों लोग मारे गए थे। वे भूल गए थे कि ये इक्कीसवीं सदी का भारत है, यदि प्रधानमंत्री मोदी को उद्धृत किया जाए तो, जो बड़े लक्ष्य बनाना और उनको हासिल करना जानता है। उस लक्ष्य सिद्धि के लिए वह वांछित रणनीति बनाता है और उसके लिए अटूट मेहनत भी करता है”। कोरोना की रिपोर्टिंग करते समय पाश्चात्य मीडिया ने जिस प्रकार की शब्दावली का उपयोग भारत के लिए किया था, उससे ही भारत के प्रति उसका दुराग्रह प्रकट हो जाता है। अपने देशों को कोरोना महामारी से कराहते देखकर उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि भारत कुशलतापूर्वक इस भयावह महामारी का सामना कर लेगा। उनका दृष्टिकोण यह भी बताता है कि पाश्चात्य मीडिया भारत के बढ़ते सामर्थ्य को भी स्वीकार करने की मन:स्थिति नहीं बना सका है। भारतीय समाज की आंतरिक आध्यात्मिक शक्ति, जिजीविषा और उसकी विरासत की मजबूती आज तक ये लोग देख ही नहीं पाए हैं। इसीलिए पश्चिमी मीडिया और उस जैसी सोच रखने वाले अन्य लोग यह समझ नहीं पा रहे थे कि भारत में कोरोना ने अभी तक मौत का तांडव क्यों नहीं मचाया? महामारी की दूसरी लहर में जब मामला थोड़ा बिगड़ा, तब अवसर का लाभ लेकर मीडिया ने बढ़ा-चढ़ाकर भारत को बदनाम करने का प्रयास किया। लेकिन उसके परिणाम भी खास नहीं रहे क्योंकि समाज की अनुभूति मीडिया में दिखाये जा रहे दृश्यों से सर्वथा अलग थी।
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मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक प्रो. संजय द्विवेदी से श्रद्धेय उमेश उपाध्याय जी पर केंद्रित विशेषांक प्राप्त करते हुए लेखक लोकेन्द्र सिंह |
भारतीय मीडिया ने जब तबलीगी जमात के अराजक एवं दुर्व्यवहार को सामने लाने का प्रयास किया तब पाश्चात्य मीडिया और भारत के ही कुछ तथाकथित सेकुलर बिरादरी के लेखकों ने सत्यता से हटकर इन मामलों को ‘मुस्लिमफोबिया’ का रंग देने का प्रयास किया। इसके पीछे की साजिश को भी उमेश जी ने अपनी धारदार लेखनी से उजागर करने का काम किया था। उन्होंने लिखा है- “ऐसा भ्रम फैलाने के पीछे मीडिया के एक वर्ग का उद्देश्य है कि कोरोना के साथ जो युद्ध चल रहा है उससे देश का ध्यान भटक जाए। अब तक जो आंशिक सफलता भारत ने कोरोना महामारी के विरुद्ध हासिल की है, वह तिरोहित हो जाए”। दरअसल, तबलीगी जमात के मामले में अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने एक के बाद एक गलत समाचार जारी किए। उमेश जी लिखते हैं कि “वे इक्का-दुक्का घटना को लेकर यह प्रचारित कर रहे है कि भारत में मजहब के आधार पर इलाज किया जा रहा है। अक्सर लिखने वाले अपने लेखों में ना तो कोई ठोस सबूत देते हैं न ही कोई सटीक उदाहरण ही प्रस्तुत करते हैं। बल्कि कुछ एकाकी घटनाओं को बेतरतीब तरीके से आपस में जोड़कर यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि भारत में अब इस्लामोफोबिया है। इन असंगत घटनाओं का उपयोग वे सिर्फ अपने पूर्व निर्धारित वैचारिक आग्रहों को सिद्ध करने के लिए ही इस्तेमाल कर रहे हैं”। पाश्चात्य मीडिया के पक्षपातपूर्ण लेखन को उजागर करके के लिए उन्होंने बाकायदा संबंधित मीडिया और उसमें प्रकाशित रिपोर्ट का विश्लेषण किया है। प्रतिष्ठित पत्रिका ‘टाइम’ में प्रकाशित लेख के शीर्षक का उल्लेख करके उन्होंने उसकी तथाकथित निष्पक्षता की ओर संकेत किया- ‘भारत में मुस्लिम होना तो अपराध था ही, उस पर ये कोरोना आ गया’। स्पष्टतौर पर यह शीर्षक भारत के विरुद्ध टाइम पत्रिका के दुराग्रह की ओर संकेत करता है। इसी तरह, ‘द गार्डियन’ ने लिखा- ‘भारत में मुसलमानों को निशाना बनाकर कोरोनावायरस षड्यंत्र की बातें फैलाई जा रही हैं’। ‘फॉरेन पॉलिसी’ पत्रिका ने भी एक रिपोर्ट में यह साबित करने का प्रयास किया कि भारत कोरोना फैलाने के लिए मुस्लिमों को बलि का बकरा बना रहा है। टेलीग्राफ ने नेपाल के संस्करण में ‘भारत में मुस्लिमों का नरसंहार’ शीर्षक से एक लेख ही छाप दिया। ‘अल जजीरा’ के तो कहने ही क्या, उसने तो भारत के पूरे लॉकडाउन को ही इस्लामोफोबिया का प्रतीक बता दिया गया। जबकि सत्य यह है कि तबलीगी जमात के दुर्व्यवहार एवं लापरवाही का नुकसान केवल भारत ने ही नहीं था, बल्कि दुनिया के अन्य देशों ने भी उठाया था।
मुख्यधारा की पत्रकारिता पर ही नहीं, अपितु सोशल मीडिया कंपनियों के भारत विरोधी रवैये पर भी उमेश जी की सूक्ष्म नजर रहती थी। अब तो सबके ध्यान में आ गया है कि फेसबुक से लेकर एक्स (पूर्व में ट्विटर) तक किस प्रकार मनमानी करते हैं। तथाकथित किसान आंदोलन के समय अराजक तत्वों ने लाल किले पर जिस तरह भारत की अस्मिता एवं राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक ‘तिरंगे’ का अपमान किया था और हिंसा के लिए उकसाने वाले पोस्ट किए गए थे, उस मामले में ट्विटर ने भारत सरकार के कहने के बाद भी उपद्रवियों के अकाउंट बंद नहीं किए थे। जबकि अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उनके समर्थकों के अकाउंट यह कहकर ब्लॉक कर दिए कि उनके अकाउंट से हो रही पोस्ट से अराजकता फैल सकती है। सोशल मीडिया कंपनियों के इस दोहरे आचरण को उमेश जी ने बार-बार उजागर किया। उन्होंने ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, हिंसा फैलाने की स्वतंत्रता नहीं– ट्विटर के दोहरे रवैये पर लगाम जरूरी’ शीर्षक से लेख लिखकर न केवल ट्विटर के दोहरे रवैये को उजागर किया अपितु सरकार से आग्रह भी किया कि सोशल मीडिया कंपनियों पर लगाम लगाने के लिए नियम बनाए। ये कंपनियां अपने देशों में तो वहाँ के नियम-कानूनों को मानती हैं लेकिन भारत सरकार के दिशा-निर्देशों को मानने में आनाकानी करती हैं। इस लेख में उमेश जी लिखते हैं कि “और तो और भारत में तो #ModiPlanningFarmerGenocide जैसा हैशटैग चलाया गया। इस हैशटैग का हिंदी अर्थ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों के नरसंहार की योजना बना रहे हैं। अब इससे विद्वेषपूर्ण, हिंसा भड़काने और उकसाने वाला और नितांत झूठा प्रचार क्या हो सकता है?” यह गंभीर मामला था लेकिन ट्विटर ने न तो इस हैशटैग को रोका और न ही इस अभियान में शामिल उपयोगकर्ताओं पर कोई कार्रवाई की। भारत सरकार भी ट्विटर की मनमर्जी के सामने विवश दिखायी दी।
मीडिया विमर्श का अक्टूबर-दिसंबर 2024 का अंक वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय जी की स्मृति को समर्पित है। जनसंचार के सरोकारों को समर्पित पत्रिका की ओर से उमेश जी जैसे व्यक्तित्व को यह सच्ची श्रद्धांजलि है। मीडिया विमर्श के @ProfSanjay_MCU जी के कुशल संपादन में प्रकाशित होती है। pic.twitter.com/O7SiuznupB
— लोकेन्द्र सिंह (Lokendra Singh) (@lokendra_777) February 14, 2025
उमेश जी की पैनी नजर पाश्चात्य मीडिया पर ही नहीं रहती थी, भारत का मीडिया भी उनकी नजर में रहता था। जब भी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर मीडिया का कोई हिस्सा पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता, उमेश जी की लेखनी उसको आड़े हाथ लेती। एक-दो घटनाओं को आधार बनाकर जब भारतीय समाज की छवि खराब करने के प्रयास होते तब भी उमेश जी मुखर होकर उन घटनाओं का उल्लेख करके सवाल पूछते थे, जिनको मीडिया ने या तो नजरअंदाज कर दिया था या फिर उन पर पर्दा डालने के लिए एक अलग ही दृष्टिकोण से रिपोर्टिंग की गई। बहरहाल, मीडिया की पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता को उजागर करने और उस पर सवाल उठाने के लिए उमेश उपाध्याय के मार्ग का अनुसरण अन्य विद्वान पाठकों, पत्रकारों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी करना चाहिए। भारत के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हम अपने देश के बारे में किसी भी मीडिया को अनर्गल सामग्री प्रकाशित करने की बेलगाम स्वतंत्रता नहीं दे सकते हैं।
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