डॉ. विकास दवे
युवा कलमकार लोकेंद्र सिंह की सद्य प्रकाशित कृति 'हम असहिष्णु लोग' हाथों में है। एक-एक पृष्ठ पलटते हुए भूतकाल की कुछ रेतीली किरचें आंखों में चुभने लगी हैं। संपूर्ण विश्व जब घोषित कर रहा था कि - 'मनुष्य जाति ही नहीं अपितु प्राणी जगत और प्रकृति के प्रति मानवीय व्यवहार की शिक्षा विश्व का कोई देश यदि हमें दे सकता है,तो वह केवल और केवल भारत है।' ऐसे समय में इसी भारत के कुछ कपूत अपनी ही जांघ उघाड़कर बेशर्म होने का कुत्सित प्रयास कर रहे थे। आश्चर्य है कि जन-जन की आवाज होने का दंभ पालने वाले इन वाममार्गी बधिरों को भारत के राष्ट्रीय स्वर सुनाई ही नहीं दे रहे थे। 'अवार्ड वापसी गैंग' की भारत के गांव-गांव, गली-गली में हुई थू-थू को गरिमामयी शब्दों में प्रस्तुत करने का नाम है-'हम असहिष्णु लोग'।
लोकेंद्र पत्रकारिता धर्म के निर्वाह के लिए यायावर की तरह समाज में घूमे हैं, भारत का मन पढ़ने का प्रयास वह सदैव करते रहे हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि यहां का बहुसंख्य समाज समकाल पर जो विचार करता है, उसे अभिव्यक्त करने वाले कलमकार नहीं मिल पाते और जिन बातों को यह जन मन घृणा करता है, उसे कलमबद्ध कर भारत का स्वर बताने वाली एक पूरी की पूरी 'बड़ी बिंदी गैंग' छपाई अभियान में लग जाती है। ऐसे में लेखक ने सामान्यजन के हृदय-स्वर को जिस 'स्टेथस्कोप' के माध्यम से उन्हीं के कानों तक पहुंचाने का प्रयास किया है, उस यंत्र का नाम है-'हम असहिष्णु लोग'।
विषय अवार्ड वापसी का हो, असहिष्णुता का हो या जेएनयू का हो, लेखक की कलम चुन-चुनकर खलनायकों को निर्वस्त्र कर सड़क पर लाने का उपक्रम करती है। खलनायकों की यह चांडाल चौकड़ी जब मर्यादित जननायक को, संगठनों और सामाजिक उपक्रमों को खलनायक घोषित करने का षड्यंत्र रचती है, तब लेखक की लेखनी उन नायकों को अपेक्षित सम्मान प्रदान करने में कोताही नहीं बरतती। जब समाज व्यथित होता है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आईएसआईएस से तुलना से जब भारत का मन कांटों पर लोटता है, अपने ही संवैधानिक नेतृत्व उपराष्ट्रपति को 'मज़हबी' होते देख, तब लेखक अपनी स्याही को मरहम का फोहा बनाकर समाज देवता के इन घावों को ठंडक पहुंचाने का काम करता है। ममता का विदेशी घुसपैठियों के प्रति ममत्व, सेना पर प्रश्न खड़े करते बुद्धिजीवी, पत्थरबाजों पर मेहरबान पत्रकार, कैराना से हकाले गए हिंदुओं पर मौन चैनल, केरल के 'लाल हिंसा' के शिकार एक ही विचार के कार्यकर्ताओं की संगठित हत्या, गौ मांस भक्षक के पक्ष में अपनी स्क्रीन काली करते व्यावसायिक चैनल, शिक्षा और कला संस्थानों पर किसी भी राष्ट्रवादी को सहन न करने वाले संकीर्ण 'ढपली गिरोह', आजादी समर्थक और 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' का स्वप्न देखने वाली कुटिल आंखें, सबको उनके हमाम से बाहर निकालता है, यह युवा पत्रकार लोकेंद्र। उनकी इस जीवटता को यह कहकर ही प्रकट किया जा सकता है- 'किन्तु डूबना मझधारों में, साहस को स्वीकार नहीं है।'
सचमुच जिस युवा भारत की कल्पना हम सब कर रहे हैं वह देहाकार में प्रकट होता है, लेखक लोकेंद्र सिंह के रूप में । प्रारंभ में भूमिका रूप में लेखक को आशीर्वाद देते हुए प्रख्यात चिंतक डॉ. रामेश्वर मिश्र पंकज ठीक ही कहते हैं- "लेखक ने इस राष्ट्रद्रोही गिरोह के साथ भाषायी संयम बरता है, अन्यथा वह तो इससे अधिक गरियाए जाने योग्य है।" अर्चना प्रकाशन भोपाल के अनेक यशस्वी प्रकाशनों में इस कृति का उल्लेख सदैव रेखांकित किया जाता रहेगा।
(समीक्षक प्रख्यात साहित्यकार हैं।)
"हम असहिष्णु लोग" के सम्बन्ध में सुनिए वरिष्ठ साहित्यकार श्री जगदीश तोमर क्या कह रहे हैं-
कृति- 'हम सहिष्णु लोग'
कृतिकार- लोकेंद्र सिंह
पृष्ठ संख्या- 200
मूल्य- 200 रुपये
प्रकाशक- अर्चना प्रकाशन, भोपाल
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